‘ग्रीन हाइड्रोजन’ की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं से क्यों पीछे हट रही हैं दिग्गज कंपनियां
ग्लोबल वॉर्मिंग और प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए दुनिया भर में बीते एक-डेढ़ दशक से इलेक्ट्रिक व्हीकल और सोलर एनर्जी पर ध्यान दिया जा रहा था। पर, इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ समस्या यह है कि यह जिस बिजली से चलते हैं, वह ज़्यादातर जीवाश्म ईंधन से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट से ही आती है।
दूसरी ओर, सोलर पावर के साथ भी दिक्कत है कि इसके पैनलों और बैटरी से आगे चलकर भारी मात्रा में ई-कचरे की समस्या उत्पन्न होने की आशंका है। इन समस्याओं के सामने आने के बाद अब ‘क्लीन एनर्जी' के लिए ‘ग्रीन हाइड्रोजन’ को एक सुरक्षित और एक पर्यावरण अनुकूल विकल्प के रूप में देखा जाने लगा है।
पानी के इलेक्ट्रोलाइसिस से हाइड्रोजन बनाने की प्रक्रिया में उत्सर्जन लगभग शून्य होता है। इसलिए इसे परंपरागत ऊर्जा स्रोतों का एक सुरक्षित, स्थायी और पर्यावरण‑अनुकूल विकल्प माना गया। पर, इसकी महंगी लागत के चलते अमेरिका और यूरोप के कई विकसित देश तक इससे पीछे हट रहे हैं।
दुनिया भर में कंपनियां अपनी ग्रीन हाइड्रोजन परियोजनाओं के निवेश में कटौती कर रही हैं या प्रोजेक्ट रद्द कर रही हैं। इससे जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटाने का लक्ष्य कमज़ोर होता दिख रहा है।
रद्द होती परियोजनाएं और निवेश वापसी
ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन की ऊंची लागत के चलते हाल में अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में कई बड़ी परियोजनाओं से कंपनियों के पीछे हटने से क्लीन एनर्जी की उम्मीदों को झटका लगा है। बीते दिनों कई बड़े ग्रीन हाइड्रोजन प्रोजेक्ट या तो रद्द हो गए या निवेश घटाकर इनकी रफ्तार को धीमा कर दिया गया। इसके कुछ प्रमुख उदाहरण इस प्रकार हैं-
अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रायटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) ने ऑस्ट्रेलिया में 55 अरब डॉलर का हाइब्रिड सोलर‑हाइड्रोजन प्रोजेक्ट छोड़ दिया, जिसमें वह 26 GW क्षमता विकसित करने को राज़ी हुई थी। इस प्रोजेक्ट से कदम पीछे लेकर कंपनी ने फिर से अपने तेल एवं गैस निवेशों की ओर रुख किया है।
द ऑस्ट्रेलियन की रिपोर्ट के मुताबिक फोर्टेस्क्यू मेटल्स ग्रुप ने अमेरिका के एरिज़ोना और ऑस्ट्रेलिया के ग्लैडस्टोन में ग्रीन हाइड्रोजन के दो बड़े इलेक्ट्रोलाइज़र आधारित प्रोजेक्ट रद्द कर दिए। इसकी मुख्य वजह हाइड्रोजन उत्पादन की ऊंची लागत और कमज़ोर मांग है। इस फैसले से ग्रीन हाइड्रोजन में लगभग 2.27 अरब डॉलर की निवेश पीछे खींचा गया है।
रायटर्स की 23 जुलाई 2025 की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में कई ग्रीन हाइड्रोजन प्रोजेक्ट रद्द या स्थगित हुए हैं। इनमें यूरोप में आर्सेलरमित्तल, आइबेरड्रोला, बीपी, शेल और इक्विनॉर की परियोजनाएं शामिल हैं। आस्ट्रेलिया में ओरिजिन एनर्जी, ट्राफिगुरा, वुडसाइड और क्वींसलैंड परियोजनाएं निरस्त हुई हैं। इसी तरह अमेरिका में हाई स्टोर एनर्जी, एयर प्रोडक्ट्स के प्रोजेक्ट बंद हो गए हैं। इससे 2030 के उत्सर्जन लक्ष्यों खतरे में आ गए है।
महंगी क्यों पड़ रही है ग्रीन हाइड्रोजन
ग्रीन हाइड्रोजन की महंगाई सिर्फ इसकी उत्पादन लागत अधिक होने का मामला नहीं है। इसके उत्पादन के लिए ज़रूरी इन्फ़्रास्ट्रक्चर की लागत भी काफी ऊंची होती है। एक रिपोर्ट में दी गई जानकारी के आधार पर इसे बिंदुवार तरीके से इस प्रकार समझा जा सकता है :
एक किलो हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए औसतन 9–30 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस पानी की स्वच्छता और गुणवत्ता भी बहुत उच्च स्तरीय होनी चाहिए। ऐसे पानी का इंतज़ाम कर पाना आसान नहीं है खासकर पानी की कमी वाले क्षेत्रों में तो यह और भी मुश्किल है।
पानी से बनाई जाने वाली हाइड्रोजन की हैंडलिंग भी अपने आप में एक खर्चीला काम है। इसके तरलीकृत रूप को लाने-ले जाने के लिए उच्च‑दबाव सहने में सक्षम पाइपलाइन की आवश्यकता होती है, जिन्हें बनाने की लागत काफी अधिक बैठती है। मौजूदा पाइपलाइनें इस स्तर की नहीं हैं। इसलिए हाइड्रोजन के परिवहन के लिए नए सिरे से पाइपलाइनें बिछाने की आवश्यकता होगी।
पाइपलाइन के ज़रिये हाइड्रोजन के परिवहन के दौरान होने वाली ऊर्जा हानि (loss) भी एक समस्या है। यह हानि इसलिए होती है क्योंकि हाइड्रोजन गैस बहुत हल्की होती है और इसे उच्च दबाव या बहुत कम तापमान पर रखना पड़ता है, जिससे कंप्रेशन या लिक्विफिकेशन में काफी ऊर्जा लगती है। इसके अलावा, हाइड्रोजन अणु बहुत छोटे होते हैं और यह पाइप की दीवारों से रिस (permeation) सकते हैं, जिससे गैस की क्षति होती है। लंबी दूरी तक पहुंचाने में दबाव बनाए रखने के लिए पंपों की जरूरत होती है, जिससे अतिरिक्त ऊर्जा खर्च होती है।
हाइड्रोजन के अत्यधिक ज्वलनशील होने के कारण आमतौर पर परिवहन के लिए इसे अमोनिया या अन्य रूपों (ई‑फ्यूल) में बदला जाता है। इससे लागत और ऊर्जा हानि और भी बढ़ जाती है। हाइड्रोजन को अमोनिया में बदलने और फिर हाइड्रोजन के रूप में वापसी की प्रक्रिया में लगभग 2.5 से 4.2 डॉलर/किलोग्राम का खर्च बैठता है, जो इसकी आर्थिक व्यवहार्यता को काफी घटा देता है।
औद्योगिक क्षेत्र में ईंधन के लिए हाइड्रोजन का इस्तेमाल करने के लिए मौजूदा स्टील, रासायनिक, उर्वरक संयंत्रों को ग्रीन हाइड्रोजन आधारित संयंत्रों में बदलने का काम बहुत ही खर्चीला और जोखिम भरा होने के कारण भी उद्योगों का इसके प्रति रुझान बहुत ठंडा है।
ग्रे, ब्लू और ग्रीन हाइड्रोजन में क्या अंतर है?
हाइड्रोजन वायुमंडल में बड़ी मात्रा में पाई जाने वाली गैस है। पर दिक्कत यह है कि यह अकेले नहीं मिलती, बल्कि ऑक्सीजन या कार्बन जैसी गैसों या तत्वों के साथ यौगिकों के रूप में मिलती है। जैसे कि पानी (H₂O) या मीथेन - CH₄ जैसे हाइड्रोकार्बन के रूप में। ऊर्जा के रूप में उपयोग के लिए हाइड्रोजन को इन यौगिकों से अलग करना पड़ता है। इसी प्रक्रिया के आधार पर हाइड्रोजन के कई प्रकार ग्रे, ब्लू, और ग्रीन हाइड्रोजन होते हैं।
ग्रे हाइड्रोजन
ग्रे हाइड्रोजन यह परंपरागत और सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली विधि से तैयार हाइड्रोजन गैस है। आमतौर पर प्राकृतिक गैस (methane) या कोयले से प्राप्त हाइड्रोजन को ग्रे हाइड्रोजन के रूप में जाना जाता है। इसमें स्टीम मीथेन रिफॉर्मिंग नामक प्रक्रिया द्वारा हाइड्रोजन निकाली जाती है, लेकिन इसके दौरान कार्बन डाइऑक्साइड का भारी उत्सर्जन होता है, जो कि ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैस है। इसलिए यह पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है।
ग्रीन हाइड्रोजन
ग्रीन हाइड्रोजन को पूरी तरह नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त किया जाता है, खासतौर पर सौर और पवन ऊर्जा से। इसमें जल (H₂O) को इलेक्ट्रोलिसिस की प्रक्रिया से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित किया जाता है। यदि इस इलेक्ट्रोलिसिस में उपयोग की गई बिजली भी सौर या पवन जैसे रिन्यूएबल स्रोतों से आई हो, तो यह प्रक्रिया शुद्ध रूप से शून्य कार्बन उत्सर्जन वाली होती है। इसी कारण इसे "ग्रीन" कहा जाता है।
ब्लू हाइड्रोजन
ब्लू हाइड्रोजन को प्राकृतिक गैस से बनाया जाता है, लेकिन इसके उत्पादन के दौरान निकलने वाले कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर और स्टोर (CCS – Carbon Capture and Storage) कर लिया जाता है। यानी यह फ़ॉसिल फ़्यूल आधारित हाइड्रोजन है, लेकिन इसमें कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कोशिश की जाती है। इसलिए यह पारंपरिक 'ग्रे हाइड्रोजन' से बेहतर मानी जाती है, लेकिन ग्रीन हाइड्रोजन जितनी साफ नहीं होती।
उम्मीदें फिर भी कायम हैं
ऊंची लागत भले ही ग्रीन हाइड्रोजन के शुरुआती सफर में बाधक बन रही है, पर काफी कम उत्सर्जन व कार्बन फुट प्रिंट के कारण इसे मिलने वाले कार्बन क्रेडिट व अन्य प्रोत्साहनों के चलते इसे लेकर उम्मीदें बरकरार हैं। साथ ही, भविष्य में लागत में गिरावट आने की प्रबल संभावना को देखते हुए भी ग्रीन हाइड्रोजन को ‘भविष्य का ईंधन' के तौर पर देखा जा रहा है। कई बातें इसके उपयोग में बढ़ोतरी की उम्मीद जगाती हैं -
ग्लोबल न्यूज वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक तकनीकी उन्नयन और पूंजीगत सुधारों के चलते ग्रीन हाइड्रोजन की उत्पादन लागत में 60–80% तक की कमी आने की उम्मीद है। इससे आने वाले कुछ वर्षों में इसकी लागत 3.5–6 डॉलर / किलोग्राम के मुकाबले घटकर महज़ 1से 2 डॉलर / किलोग्राम तक आ जाएगी। जो इसके इस्तेमाल को आर्थिक रूप से व्यावहारिक बना सकती है।
ग्लोबल न्यूज वायर की ही एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट (IRA) की वजह से ग्रीन हाइड्रोजन पर प्रति किलो 3 डॉलर तक की टैक्स छूट दी जा रही है। इससे उत्पादन लागत 2 डॉलर / किलो से नीचे आ सकती है, जो बाज़ार के लिहाज़ से एक प्रतिस्पर्धी दर है।
ज़्यादा लागत के चलते ग्रीन हाइड्रोजन को बेंच पाना उत्पादक कंपनियों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। इसमें कंपनियों की मदद के लिए यूरोपीय आयोग आगे आया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक यूरोपीय आयोग की “ग्रीन हाइड्रोजन बैंक” जैसी योजनाएं 8 अरब यूरो तक समर्थन देने लगी हैं। यूरोपीय कंपनियों को ग्रीन हाइड्रोजन की बिक्री/सप्लाई के शुरुआती व्यापारिक अनुबंध (initial trade contracts) ढूंढने में मदद करने के लिए ऑफ‑टेक गारंटी दी जा रही हैं।
इस पहल के तहत हाइड्रोजन उत्पादकों को 4.5 यूरो / किलोग्राम की दर से प्रोत्साहन दिया जाता है, जिससे उन्हें उत्पादन लागत और बाज़ार मूल्य के बीच का अंतर भरने में मदद मिलती है। इसका उद्देश्य ग्रीन हाइड्रोजन की उत्पादन लागत को घटाकर उद्योग और परिवहन जैसे क्षेत्रों में इसका तेजी से उपयोग सुनिश्चित करना है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलियाई सरकार ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कई प्रोत्साहन दे रही है। सरकार हाइड्रोजन हब के विकास के लिए 500 मिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर का निवेश कर रही है और "हाइड्रोजन हेडस्टार्ट" कार्यक्रम के तहत 2 बिलियन ऑस्ट्रेलियाई डॉलर आवंटित किए गए हैं। इसके अलावा "फ्यूचर मेड इन ऑस्ट्रेलिया" योजना के तहत प्रस्तावित कर प्रोत्साहन भी महत्वपूर्ण है। इसमें 2027 से 2037 तक ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन पर 2 ऑस्ट्रेलियाई डॉलर प्रति किलोग्राम की दर से क्रेडिट दिया जाएगा।
भारत में ग्रीन हाइड्रोजन की स्थिति और भविष्य
देश की राजधानी दिल्ली सहित कई मेट्रो शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक स्तर पर पहुंचने के बाद हाल के वर्षों में सरकार ने एक स्वच्छ ईंधन के रूप में हाइड्रोजन की ओर ध्यान देना शुरू किया है। इस ओर एक अहम कदम बढ़ाते हुए भारत सरकार ने 2023 में 'राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन' (National Green Hydrogen Mission) की घोषणा की थी, जिसका लक्ष्य 2030 तक हर साल 50 लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन करना है।
पीआईबी की अधिकृत सूचना के मुताबिक इसके लिए सरकार ने 19,744 करोड़ रुपये का बजट भी आवंटित किया है। इस मिशन का उद्देश्य वायु प्रदूषण कम करने के साथ ही तेल-गैस और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन पर भारत की निर्भरता घटा कर देश के आयात बिल को कम करना भी है। इससे भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है, क्योंकि भारत के कुल आयात बिल में अकेले इसकी हिस्सेदारी चौथाई से ज़्यादा की है। ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2023-24 में भारत के कुल माल आयात में तेल और गैस आयात का हिस्सा लगभग 25.1% था, जबकि इससे पिछले वर्ष (2022‑23) यह 28.2% था। भारत ने वित्त वर्ष 2023‑24 में तेल एवं गैस के आयात के लिए लगभग 121.6 अरब डॉलर खर्च किए।
भारत में ग्रीन हाइड्रोजन से चलने वाले वाहनों की स्थिति
भारत में सबसे पहले ग्रीन हाइड्रोजन ईंधन से चलने वाले वाहनों की ओर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने ध्यान खींचा। हाल ही में उन्होंने हाइड्रोजन फ्यूल सेल से चलने वाली टोयोटा की मिराई (Toyota Mirai) नामक कार की जानकारी दी। रिपोर्ट के मुताबिक यह कार इंडियन ऑयल और टोयोटा की साझेदारी में चल रहे एक पायलट प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य हाइड्रोजन आधारित ट्रांसपोर्ट की व्यवहारिकता को परखना है।
इसके अलावा भारत सरकार ने सार्वजनिक परिवहन में भी ग्रीन हाइड्रोजन को शामिल करने की पहल की है। इसके तहत हाइड्रोजन से चलने वाली बसों और ट्रकों को चलाने की योजना है। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (IOC) की विज्ञप्ति के अनुसार उसने दिल्ली और फरीदाबाद में हाइड्रोजन से चलने वाली बसों का ट्रायल भी किया है। इन बसों का उद्देश्य शहरों में प्रदूषण रहित परिवहन को बढ़ावा देना है।
एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार 19 जून, 2025 को बिजली बनाने वाली सरकारी कंपनी एनटीपीसी ने लेह प्रशासन को पांच हाइड्रोजन ईंधन सेल बसें सौंपी हैं। एनटीपीसी के आधिकारिक बयान में कहा गया है कि यह पहल दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर हाइड्रोजन बसों का संचालन करके ग्रीन मोबिलिटी के क्षेत्र में एक नया मानक स्थापित करेगी।
वहीं रेलवे मंत्रालय ने भी हाइड्रोजन फ़्यूल से चलने वाली ट्रेन तैयार करने की योजना बनाई है। देश की पहली हाइड्रोजन ट्रेन को 2024 के अंत तक पटरियों पर दौड़ाने का लक्ष्य रखा गया था, जो पूरा नहीं हो सका है। हालांकि जुलाई 2025 में इंडियन कोच फ़ैक्ट्री (ICF) में पहली हाइड्रोजप पावर्ड कोच ट्रेन का सफल परीक्षण हो चुका है, लेकिन अभी तक ट्रेन नियमित वाणिज्यिक संचालन में नहीं आई है। इस साल के अंत तक इसे पटरी पर उतारे जाने की उम्मीद है।
निजी कंपनियों और राज्य सरकारों की भागीदारी
ग्रीन हाइड्रोजन को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र को भी सहभागी बनाने जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में रिलायंस इंडस्ट्रीज़, अदानी ग्रुप, टाटा पावर और लार्सन एंड टुब्रो जैसी कंपनियां भी ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन में भारी निवेश कर रही हैं। गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्य इस क्षेत्र में निवेश आकर्षित करने के लिए नीति बना रहे हैं।
गुजरात में कच्छ क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा रिन्यूएबल एनर्जी पार्क तैयार किया जा रहा है, जहां ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन की प्रमुख योजनाएं चल रही हैं। एक ताज़ा कॉरपोरेट घोषणा के तहत जेके श्रीवास्तव एंड हाईइन्फ़्रा (जेकेएसएच) लिमिटेड आंध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले के मछलीपट्टनम में बड़े पैमाने पर ग्रीन हाइड्रोजन पावर प्लांट लगाने जा रही है। एक समाचार के मुताबिक कुल 35,000 करोड़ रुपये प्रस्तावित निवेश वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में 150 केटीपीए क्षमता वाला हरित हाइड्रोजन और 600 केटीपीए क्षमता वाला हरित अमोनिया संयंत्र शामिल होगा।
यह पूरी तरह से सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों से संचालित होगी। इसका संचालन 2029 तक शुरू करने का लक्ष्य है। हाल ही में आंध्र प्रदेश केे मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की उपस्थिति में जेकेएसएच और आंध्र प्रदेश नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा विकास निगम (एनआरईडीसीएपी) के बीच परियोजना को औपचारिक रूप देने के लिए एक समझौता पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं।