नदियों में बढ़ रहा एंटीबायोटिक प्रदूषण, 'हॉटस्पॉट' है भारत
बीमारियों के इलाज के लिए जो एंटीबायोटिक दवाएं हम खा रहे हैं, वह हमारी नदियों को प्रदूषित कर रही हैं। यह प्रदूषण पर्यावरण के साथ ही इंसानी सेहत पर भी असर डाल रहा है। यह चिंताजनक खुलासा कनाडा (मांट्रियाल) की मैकगिल (McGill) यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के एक अध्ययन में सामने आया है, जिसे प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज नेक्सस (PNAS Nexus) में Antibiotics in the global river system arising from human consumption शीर्षक से प्रकाशित किया गया है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया भर में हर साल लगभग 8,500 टन एंटीबायोटिक मानव उपयोग के बाद नदियों में पहुंचते हैं, जो वैश्विक खपत का लगभग 29% है। इससे जलीय जीवन और मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। दुनिया में नदियों की करीब 60 लाख किलोमीटर लंबाई में एंटीबायोटिक की मात्रा इतनी अधिक हो चुकी है कि वह इन नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र (इको सिस्टम) को नुकसान पहुंचा रही है। इसके अलावा यह एंटीबायोटिक, प्रदूषित पानी के संपर्क में आने वाले लोगों में एंटीबायोटिक प्रतिरोध (antibiotic resistance) की समस्या भी पैदा कर रहा है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में यह खतरा काफी ज़्यादा है, जिसमें भारत भी शामिल है। भारत में लगभग 31.5 करोड़ लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन नदियों से हो रही जलापूर्ति व अन्य तरीकों से एंटीबायोटिक प्रदूषण के संपर्क में आ रहे हैं। यही वजह है कि इस अध्ययन में भारत को एंटीबायोटिक प्रदूषण का "हॉटस्पॉट" बताया गया है।
कैसे हो रहा है प्रदूषण
रिपोर्ट के मुताबिक भारत में नदियों की लंबाई का करीब 80% हिस्सा एंटीबायोटिक प्रदूषण की चपेट में आ चुका है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, बैक्टीरिया से लड़ने के लिए जो एंटीबायोटिक लिए जाते हैं वो पूरी तरह से नहीं पचते और मल-मूत्र के जरिये शरीर से बाहर निकाल दिए जाते हैं। सीवेज वाटर में मौजूद इन एंटीबायोटिक को ज़्यादातर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नष्ट नहीं कर पाते। नतीजतन इन एंटीबायोटिक का एक बड़ा हिस्सा हमारी नदियों, झीलों, तालाबों तक पहुंच जाता है।
अध्ययन में यह भी सामने आया है कि आमतौर पर ज़्यादातर नदियों में इन दवाओं के बचे अंश की मात्रा बेहद कम होती है और इन्हें पहचानना मुश्किल होता है। लेकिन, जब नदियों में पानी कम होता है, तो स्थिति पूरी तरह बदल जाती है। पानी घटने के साथ दुनिया भर में करीब 60 लाख किलोमीटर लंबी नदियों में एंटीबायोटिक की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि वह पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा सकती हैं। इनमें नील, मेकॉन्ग, यांग्तजे, साओ फ्रांसिस्को, नाइजर, डेन्यूब और टाइग्रिस-यूफ्रेट्स (दजला-फरात) जैसी विश्व प्रसिद्ध नदियां शामिल हैं।
इस मामले में भारत, पाकिस्तान और दक्षिण-पूर्व एशिया के देश सबसे अधिक प्रभावित पाए गए हैं। इनमें भारत की गंगा, यमुना, गोमती, मुथा नदी समेत करीब 38 लाख किलोमीटर लंबी नदियों में, कम बहाव के समय कम से कम एक एंटीबायोटिक का खतरा बेहद अधिक पाया गया। इसमें ऐमोक्सिसिलिन, सेफ्ट्रियाक्सोन और सेफिक्सिम जैसे एंटीबायोटिक्स का स्तर सबसे अधिक मिला।
पाकिस्तान में सिंधु, सतलज, और रावी, जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया की मेकॉन्ग (वियतनाम), चाओ फ्राया नदी (थाईलैंड), पसिग नदी (फिलीपींस), सिटारुम नदी (इंडोनेशिया), सालवीन नदी (म्यांमार/थाईलैंड) सहित कई नदियां इसमें शामिल हैं।
किस तरह किया गया अध्ययन
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 4040 अलग-अलग तरह की एंटीबायोटिक दवाओं को दुनिया भर में 877 जगहों पर मापा। इसमें 100 से अधिक देशों की नदियों का डेटा मॉडलिंग और उपग्रह आधारित हाइड्रोलॉजिकल इनपुट्स के ज़रिए विश्लेषण किया गया। साथ ही मॉडल की मदद से यह अनुमान लगाया है कि इसकी वजह से नदियां और जल स्रोत किस हद तक दूषित हो चुके हैं। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने ‘रिवर एटलस’ आंकड़ों का भी विश्लेषण किया है। इसमें दुनिया भर की नदियों के 84 लाख से ज्यादा हिस्सों या खंडों की जानकारी है। ये दुनिया भर में कुल मिलाकर करीब 3.6 करोड़ किलोमीटर लंबी नदियों को दर्शाते हैं।
मैकगिल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 2012 से 2015 के बीच वैश्विक एंटीबायोटिक बिक्री के आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाया कि दुनिया भर में लोग हर साल तकरीबन 29,200 टन एंटीबायोटिक दवाएं ले रहे हैं। इनमें से करीब 29% यानी 8,500 टन दवाएं नदियों में पहुंच रही हैं, जबकि करीब 11% (3,300 टन) नदियों के जरिए समुद्रों, झीलों और जलाशयों तक पहुंच रही हैं। यह अध्ययन केवल मानव द्वारा ली जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं के प्रदूषण पर केंद्रित है। इसमें पशुपालन या औद्योगिक स्रोतों से होने वाले प्रदूषण को शामिल नहीं किया गया है।
लगातार बढ़ रहा है एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नदियों में घुलने वाली एंटीबायोटिक दवाओं में सेफिक्सिम की मात्रा सबसे ज़्यादा पाई गई, जो ब्रोंकाइटिस जैसी श्वसन संबंधी बीमारियों के इलाज में दी जाती है। इसके अलावा ऐमोक्सिसिलिन और सेफ्ट्रियाक्सोन जैसी दवाएं भी नदियों में पाई गईं हैं।
भारत की नदियों में Cefixime एंटीबायोटिक का प्रदूषण सबसे ज़्यादा पाया गया है। दुनिया भर में नदियों को प्रदूषित करने वाले 40 प्रमुख एंटीबायोटिक दवाओं की सूची PNAS Nexus की रिपोर्ट में दी गई है। अध्ययन में बताया गया कि साल 2000 से 2015 के बीच वैश्विक स्तर पर इंसानों में एंटीबायोटिक का उपयोग 65% बढ़ गया। आशंका है कि 2030 तक इसमें 200% तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
स्वास्थ्य के लिए ये हैं खतरे
पानी में एंटीबायोटिक दवाओं के अंश पाया जाना मनुष्यों की सेहत के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। चीन में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि अलग-अलग सांद्रता वाले एंटीबायोटिक के संपर्क में रहने पर कोशिकाओं में ऑक्सिडेटिव डैमेज, इन्फ़्लेमेशन और डीएनए को नुकसान होने जैसे असर देखे गए। इसी अध्ययन में चूहों पर किए गये परीक्षण में पाया गया कि उनका वज़न बढ़ गया और यकृत को ऑक्सेडेटिव नुकसान भी हुआ।
एंटीबायोटिक से प्रदूषित पानी शरीर में जाकर लाभदायक बैक्टीरिया को नुकसान पहुंचा सकता है और गट माइक्रोबियल हेल्थ (पाचन तंत्र में मौजूद सूक्ष्म जीव, जो खाना पचाने में मदद करते हैं) को खराब कर सकता है। इसके अलावा नदियों आदि में एंटीबायोटिक और एंटीमाइक्रोबियल प्रदूषण के कारण पर्यावरण में मौजूद माइक्रोब (बैक्टीरिया, वाइरस, फ़ंगस आदि) इवोल्यूशन के जरिए अपनी जीन में बदलाव करके मौजूदा एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेते हैं, जिससे इनपर दवाओं का असर नहीं होता। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह बढ़ती प्रतिरोधक क्षमता एक नई महामारी का आगाज़ हो सकती है।
भारत की इन नदियों-झीलों में मिला सबसे ज़्यादा एंटीबायोटिक प्रदूषण
हैदराबाद के पास मुसी नदी और काजीपल्ली झील : McGill यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट के मुताबिक हैदराबाद के पास मुसी नदी में दुनिया भर में सबसे ज़्यादा एंटीबायोटिक अवशेष पाए गए। वजह, इस नदी का हैदराबाद के पास स्थित मेडक के फार्मास्युटिकल हब के पास से बहना है। dw.com की एक रिपोर्ट में मेडक की काजीपल्ली झील में भी एंटीबायोटिक प्रदूषण का स्तर अत्यंत गंभीर पाया गया।
इसके चलते ही संयुक्त राष्ट्र और अन्य सदस्य देशों की अपील के बाद मेडक में 13 दवा कंपनियों ने सुपरबग के सफाये के लिए अभियान चलाने का एलान किया, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक यहां समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि तेज़ी और पूरी गंभीरता से कदम उठाने होंगे। मेडक इंडस्ट्रियल ज़ोन के पतांचेरू में काम करने वाले डॉक्टर और एक्टिविस्ट किशन राव कहते हैं, "प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुके बैक्टीरिया यहां ब्रीड कर रहे हैं और वे पूरी दुनिया को प्रभावित करेंगे."
गंगा, यमुना नदियों में मल्टी-ड्रग रेज़िस्टेंट (MDR) ई. कोलाई : फ़ार्मा सेक्टर के पोर्टल PubMed में प्रकाशित एक अध्ययन में यमुना नदी के शहरी जल में 141 ई-कोलाई स्ट्रेनों का विश्लेषण किया गया। इसमें पाया गया कि 32% स्ट्रेनों में क्लास 1 और 2 इंटीग्रॉन्स मौजूद थे। इन इंटीग्रॉन्स में विभिन्न एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस जीन पाए गए। इनमें dfrA17, aadA5 और blaOXA-1-aadA1, शामिल थे, जो मल्टी-ड्रग रेज़िस्टेंस को बढ़ावा देते हैं।
अध्ययन में यमुना नदी से एकत्रित ई. कोलाई नमूनों में उच्च स्तर के दवा प्रतिरोध और Class 1 integrons की उपस्थिति पाई गई, जो एंटीबायोटिक प्रतिरोध जीन के प्रसार में सहायक होते हैं। PubMed में ही प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक गंगा नदी में भी एंटीबायोटिक प्रतिरोध के हॉटस्पॉट्स की पहचान की गई है।
2019 में ThePrint में प्रकाशित, IISER, भोपाल और रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, स्वीडन के एक सम्मिलित अध्ययन में पाया गया कि यमुना नदी में ऐसे बैक्टीरिया मौजूद हैं, जो न केवल सामान्य एंटीबायोटिक के लिए, बल्कि अंतिम विकल्प के रूप में उपयोग होने वाली दवाओं के लिए भी प्रतिरोधी हैं। इनमें से कुछ बैक्टीरिया टीबी और नेत्रशोथ जैसी बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त दवाओं के लिए भी प्रतिरोधी पाए गए।
क्षिप्रा नदी में एंटीबायोटिक रेसिड्यू और रेज़िस्टेंस जीन : अध्ययन में मध्य भारत की क्षिप्रा नदी में विभिन्न मौसमों के दौरान जल और तलछट में एंटीबायोटिक रेसिड्यू, रेज़िस्टेंट बैक्टीरिया और रेज़िस्टेंस जीन की उपस्थिति पाई गई। इसमें sulfamethoxazole, ampicillin, cefepime, meropenem, amikacin, gentamicin, और tigecycline जैसे एंटीबायोटिक्स के प्रति रेज़िस्टेंस और CTX-M-1 जैसे रेसिस्टेंस जीन की उपस्थिति दर्ज की गई।
घाघरा नदी में एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस प्रोफाइल : प्रयागराज स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ इलाहाबाद और सैम हिग्गिनबॉटम यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने घाघरा नदी से बैक्टीरिया के नमूने लेकर उनका एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस प्रोफाइल अध्ययन किया। इसमें पाया गया कि कुछ बैक्टीरिया स्ट्रेन पेनिसिलिन, सेफ़्यूरॉक्सिम, एमोक्सिसिलिन और एंपिसिलिन जैसे एंटीबायोटिक के खिलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर चुके थे।
पुणे की मुथा नदी में : पुणे से बहने वाली मुथा नदी में मिले कई बैक्टीरिया में उच्च स्तरीय एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन पानी में मौजूद सूक्ष्म जीवों (माइक्रो आर्गनिज़्म) में पाए गए हैं, जो दर्शाते हैं कि यह समस्या केवल गंगा-यमुना और उसकी सहायक नदियों तक सीमित नहीं है।
भारत से जुड़े 5 प्रमुख आंकड़े
80% नदियां उच्च प्रदूषण श्रेणी में : भारत की नदियों के 80% भाग में एंटीबायोटिक प्रदूषण का स्तर पर्यावरणीय सुरक्षा सीमा से अधिक पाया गया।
70.6 टन सेफ़िक्सीम पहुंचा नदी जल में : सिर्फ Cefixime एंटीबायोटिक की मात्रा लगभग 70.6 टन प्रतिवर्ष भारत की नदियों में पहुंचती है, जो विश्व में सर्वाधिक है।
5,000+ टन एंटीबायोटिक्स का कुल उत्सर्जन : मानव उपयोग से भारत में हर साल अनुमानतः 5,019 टन एंटीबायोटिक्स नदी प्रणाली में पहुंचते हैं।
33% जनसंख्या उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में : भारत की लगभग 33% आबादी इस अध्ययन में शामिल गंगा, यमुना, घाघरा जैसी नदियों के आसपास के क्षेत्रों में रहती है, जहाँ की नदियां उच्च स्तर के एंटीबायोटिक प्रदूषण से प्रभावित हैं।
75% से अधिक मलजल बिना ट्रीटमेंट के बहता है : भारत में 75% से अधिक सीवेज बिना किसी ट्रीटमेंट के नदियों या जल स्रोतों में सीधे प्रवाहित होता है, जिससे एंटीबायोटिक प्रदूषण बढ़ता है।
इन देशों में स्थिति सबसे ज्यादा गंभीर
अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया की करीब 10 फीसदी आबादी यानी लगभग 75 करोड़ लोग ऐसी नदियों, झीलों के संपर्क में हैं, जहां एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा अधिक पाई गई है। भारत सहित नाइजीरिया, इथियोपिया, वियतनाम और पाकिस्तान जैसे देश भी एंटीबायोटिक प्रदूषण के कारण गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैं।
दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे इलाकों में यह खतरा और बढ़ सकता है। क्योंकि इन इलाकों में बिना डॉक्टर की सलाह के एंटीबायोटिक दवाएं आसानी से मिलती हैं या लोग एहतियातन इन्हें अपनी मर्ज़ी से ले लेते हैं।
क्या है समाधान
वैज्ञानिकों का कहना है कि सीवेज और गंदे पानी का उचित प्रबंधन बेहद ज़रूरी है। साथ ही, एंटीबायोटिक के बेतहाशा होते इस्तेमाल को रोकने के लिए सख्त नियम भी ज़रूरी हो गए हैं। खासकर उन दवाओं और जगहों पर ध्यान देना बेहद जरूरी है, जिनसे संबंधित एंटीबायोटिक प्रदूषण की जानकारी पहले ही सामने आ चुकी है। इसके लिए विशेषज्ञों ने चार प्रमुख उपाय सुझाए हैं-
फार्मास्युटिकल कंपनियों के अपशिष्ट प्रबंधन (वेस्ट मैनेजमेंट) पर सख्त निगरानी।
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स की क्षमता में तकनीकी सुधार, ताकि वे एंटीबायोटिक अवशेषों को प्रभावी ढंग से हटा सकें।
एंटीबायोटिक दवाओं के अनियंत्रित उपयोग पर नियंत्रण और जनजागरूकता अभियान।
नदियों, झीलों जैसे बड़े जल स्रोतों की नियमित निगरानी और परीक्षण।