भारतीय वैज्ञानिकों ने तैयार की तेल रिसाव और रासायनिक प्रदूषण से निपटने वाली बायो-फ़िल्म
अपने इस्पात कारखाने के लिए मशहूर ओडिशा की औद्योगिक नगरी राउरकेला के वैज्ञानिकों ने कारखानों से नदियों में हो रहे प्रदूषण से निपटने और समुद्र में होने वाली तेल रिसाव की घटनाओं के दुष्प्रभावों से बचाने का एक सस्ता और कारगर उपाय तैयार किया है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी राउरकेला (एनआईटीआर) के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी बायो-फिल्म विकसित की है, जो नदियों और समुद्रों में फैलने वाले तेल रिसाव और औद्योगिक रसायनों से होने वाले प्रदूषण को काफ़ी तेज़ी से और बहुत ही किफायती तरीके से नियंत्रित कर सकती है। संस्थान ने भारतीय पेटेंट कार्यालय से अपनी इस तकनीक का पेटेंट भी हासिल कर लिया है, जिससे यह खोज अब प्रयोगशाला से निकल कर वास्तविक इस्तेमाल के लिए तैयार है।
रिपोर्ट के मुताबिक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, राउरकेला के लाइफ साइंस विभाग के अनुभवी जीवविज्ञानी सुरजित दास और शोध छात्रा डॉ. कुमारी उमा महतो की रिसर्च टीम ने इस बायो-फिल्म को विकसित किया है। हाल ही में एनआईटीआर को इस तकनीक के लिए केंद्रीय पेटेंट कार्यालय से पेटेंट प्राप्त हुआ है। यह तकनीक विशेष रूप से फेनेंथ्रीन नाम के पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (पीएएच) को विघटित करने में सक्षम है, जो औद्योगिक रासायनिक अपशिष्टों और तेल रिसाव से जुड़ा अत्यधिक विषैला यौगिक है।
सरल शब्दों में कहें तो फेनेंथ्रीन तेल, कोयला और औद्योगिक कचरे में पाए जाने वाले रसायनों का समूह है, जो आसानी से नष्ट नहीं होते और लंबे समय तक पानी-मिट्टी में प्रदूषण फैलाते रहते हैं। एनआईटीआर द्वारा तैयार की गई बायो-फिल्म परीक्षणों में 95% तक फेनेंथ्रीन का विघटन महज़ पांच दिनों में करने में सफल रही है।
इसी तेज़ क्रियाशीलता के चलते यह बायो-फिल्म तेल रिसाव की घटनाओं से होने वाले रासायनिक प्रदूषण के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने में भी काफ़ी कारगर है। इसीलिए, दुनिया भर के सागरों व महासागरों में तेल टैकरों व जहाज़ों से आए दिन भारी मात्रा में होने वाले तेल रिसाव की घटनाओं से निपटने में एनआईटीआर के वैज्ञानिकों की इस खोज को काफ़ी महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
तेज़ी से काम करने के अलावा इसकी दूसरी बड़ी खूबी इसका आर्थिक रूप से कम खर्चीला होना भी है। यह प्रदूषण से निपटने की रासायनिक ऑक्सीकरण या मिट्टी की खुदाई जैसी पारंपरिक उपचार विधियों के मुक़ाबले काफ़ी कि़फायती है। शोधकर्ताओं का दावा है कि इसकी उत्पादन लागत बहुत कम है, जिसके चलते इसे तटीय क्षेत्रों, औद्योगिक अपशिष्ट नालों और समुद्री दुर्घटनाओं की स्थिति में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस तरह काम करती है बायो-फ़िल्म
प्रोफ़ेसर सुरजीत दास ने बताया कि रिसर्च टीम ने पोषक तत्वों से भरपूर माध्यम, लूरिया बर्टानी शोरबा (ब्रोथ) का उपयोग करके इस बायो-फ़िल्म को विकसित किया है। इसमें बैक्टीरियल कोशिकाएं एक एक्ट्रासेल्युलर (बाह्यकोशिकीय) मैट्रिक्स के बेस से जुड़ी होती हैं। पीएएच के संपर्क में आते ही ये बैक्टीरिया (स्यूडोमोनास, बैसिलस) सक्रिय हो जाते हैं और ज़हरीले प्रदूषक को ऊर्जा और पोषण के रूप में इस्तेमाल करते हुए अपने मेटाबोलिज़्म की जैव-रासायनिक क्रियाओं के ज़रिये पांच दिनों के भीतर 95% तक फेनेंथ्रीन को तोड़कर हानिरहित गैस, पानी और जैविक अवशेष में बदल देते हैं। यह प्रकिया कई चरणों से गुज़र कर पूरी होती है, जिन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है-
बायो-फिल्म में मौजूद बैक्टीरियल सेल (स्यूडोमोनास और बैसिलस) फेनेंथ्रीन को एंज़ाइमेटिक प्रतिक्रियाओं के ज़रिये तोड़ते हैं।
पहले बैक्टीरिया इसे डायहाइड्रॉक्सिलेटेड इंटरमीडिएट्स (जैसे डाईहाइड्रोडियोल) में बदलते हैं।
इसके बाद यह और टूटकर कैटेचोल जैसे यौगिकों में बदलता है।
अंत में यह प्रक्रिया इसे कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), पानी (H₂O) और बायोमास (यानी बैक्टीरिया की ऊर्जा और वृद्धि के लिए ज़रूरी तत्व) में परिवर्तित कर देती है।
प्रोफ़ेसर दास ने बताया कि यह बायो-फ़िल्म नगरपालिका और औद्योगिक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट, खासकर हाइड्रोकार्बन-आधारित प्रदूषकों से निपटने वाले रिएक्टरों (वह टैंक जिसमें सीवेज का बायोट्रीटमेंट किया जाता है) के लिए उपयुक्त है। यह पेटेंट तकनीक, उद्योगों से निकलने वाले हानिकारक रसायनों से लेकर पेट्रोकेमिकल उद्योग के जटिल हाइड्रोकार्बन यौगिकों तक का निपटान कुशलतापूर्वक करने में सक्षम है।
अधिक टिकाऊ प्रदूषण प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए पेट्रोकेमिकल उद्योग के साथ सहयोग की संभावना भी जताते हुए उन्होंने कहा, “ वाटर ट्रीटमेंट प्लांट्स और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स के लिए उनकी यह बायोफिल्म-आधारित प्रौद्योगिकी एक अत्यंत उपयोगी समाधान विकल्प हो सकती है। साथ ही हमारी खोज समुद्र में जहाजों व तेल टैंकरों से होने वाले तेल रिसाव के प्रभाव को काफी हद तक कम कर सकता है, जो समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं।”
तेल रिसाव से तकरीबन हर साल बड़ी संख्या में समुद्री पक्षियों, मछलियों और अन्य जलीय जीवों की मौत हो है। साथ ही यह हादसे समुद्री द्वीपों और डेल्टा क्षेत्रों मैंग्रोव वनों और प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ) जैसे संवेदनशील इको सिस्टम्स को भी स्थायी नुकसान पहुंचाते हैं।
डॉ. महतो ने बताया कि बायो-फिल्म में एक्स्ट्रासेलुलर पॉलीमेरिक सब्सटेंस (ईपीएस) की एक सुरक्षात्मक परत होती है, जो हानिकारक अणुओं को अवशोषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, साथ ही सूक्ष्मजीवों को विषाक्त प्रभावों से बचाती है। बायो-फिल्म में इस्तेमाल बैक्टीरियल सेल्स ने अपनी चयापचय क्षमता के कारण पीएएच को काफी तेज़ी से विघटित करने की क्षमता का प्रदर्शन किया है। इसके ज़रिये यह औद्योगिक तेल रिसाव के प्रभाव को काफी हद तक कम कर सकती है और अत्यधिक प्रदूषण वाले क्षेत्रों में भी प्रदूषण नियंत्रण में कारगर है।
पिछले साल एनआईटीआर की टीम तैयार कर चुकी है स्पंज
एनआइटी राउरकेला के वैज्ञानिक बीते साल एक ऐसा सुपरहाइड्रोफ़ोबिक स्पंज तैयार कर चुके हैं, जो तेल रिसाव की घटनाओं में भारी मात्रा में तेल को सोखने कर उसके बहाव को सीमित कर देता है। इस आविष्कार को भी समुद्र में तेल रिसाव की समस्या से निपटने का एक क्रांतिकारी उपाय माना गया था, क्योंकि यह न केवल रिसाव एक छोटे इलाक़े में सीमित कर सकता है, बल्कि इसे कई बार इस्तेमाल भी किया जा सकता है।
एक रिपोर्ट में दी गई जानकारी के मुताबिक यह स्पंज पानी को पीछे हटाता है और तेल को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस तरह यह पानी से तेल को अलग करने में अत्यधिक प्रभावी है। खास बात यह है कि स्पंज अपने वजन से 100-110 गुना तक तेल और कार्बनिक सॉल्वैंट अवशोषित कर सकता है। इसे 20 बार इस्तेमाल करने के बाद भी इसकी प्रभावशीलता 95 प्रतिशत तक बनी रहती है।
एनआइटीआर के सिरेमिक इंजीनियरिंग विभाग के शोधकर्ताओं ने डॉ. पार्थ साहा के नेतृत्व में इस स्पंज को विकसित करने वाली टीम में आद्या शक्ति दास, तंद्रारानी महंतो, अभिषेक कुमार शामिल हैं। शोध में लव दसारिया, गोपीनाथ एम, मीना कादमे, योगेंद्र महतो ने भी योगदान दिया।
समुद्री जीवन पर तेल रिसाव का असर
समुद्र में तेल रिसाव होता तो इंसानी गतिविधियों के कारण है, पर इसका सबसे बड़ा शिकार समुद्री जीव होते हैं। समुद्री इको सिस्टम पर इन हादसों का असर अकसर काफ़ी गहरा और लंबे समय तक रहने वाला होता है। क्योंकि, ये हादसे समुद्री पारिस्थितिकी के संतुलन को इस क़दर अस्थिर कर देते हैं कि इनसे उबरने में दशकों लग जाते हैं। कई बार तो उसके बाद भी समुद्री जीवों और पौधों को हुए नुकसान की भरपाई नहीं हो पाती।
इन हादसों का पहला असर यह होता है कि समुद्र में फैला तेल जलीय जीवों और वनस्पतियों पर चिपककर उन्हें सांस लेने, तैरने और प्रजनन करने जैसी जैविक क्रियाओं से रोक देता है। इसके चलते अंतत- पूरी समुद्री खाद्य शृंखला तबाह हो जाती है। इसलिए तेल रिसाव की घटनाएं केवल तत्कालिक आपदा नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक संकट साबित होती हैं।
तेल रिसाव समुद्र के हर स्तर पर अपना भयावह असर छोड़ता है। सतह पर फैला तेल समुद्री पक्षियों के पंखों पर चिपककर उन्हें उड़ने और शरीर को गर्म रख पाने में अक्षम कर देता है। इससे अकसर उनकी मौत तक हो जाती है। वहीं, पानी में घुले विषैले पदार्थ मछलियों के गलफड़ों को में जमा होकर उनकी सांसें रोक देते हैं। कई समुद्री प्रजातियों के अंडे और लार्वा भी तेल रिसाव से फैले ज़हरीले प्रदूषण की चपेट में आकर नष्ट हो जाते हैं।
इससे कई बार तो पूरी की पूरी प्रजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। समुद्र की तलहटी तक इसका असर होता है, जिसके चलते मूंगा चट्टानें (कोरल रीफ्स) और समुद्री घास (शैवाल) के मैदान, जो हजारों समुद्री जीवों का घर होते हैं, तेल की विषाक्तता के कारण नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि तेल रिसाव समुद्री जीवन की कई पीढ़ियों तक अपना दुष्प्रभाव जारी रखते हुए समुद्री जैव विविधता के लिए एक गंभीर और व्यापक संकट बन जाता है।
मिसाल के तौर पर 1989 के एक्सॉन वैल्डीज़ हादसे में जहां लाखों समुद्री पक्षियों, हज़ारों ऊदबिलाव और सैकड़ों सीलों की जान चली गई, वहीं 2010 की डीपवाटर हॉराइज़न त्रासदी ने तो अरबों जीवों को निगल लिया। केवल इस एक हादसे में करीब दस लाख पक्षियों और पांच हज़ार समुद्री स्तनधारियों की मौत हुई, जबकि अरबों ऑयस्टर खत्म हो गए।
अब तक के 10 सबसे बड़े तेल रिसाव हादसे
डीपवाटर हॉराइज़न (2010, मैक्सिको की खाड़ी) – ड्रिलिंग रिग में विस्फोट और तकनीकी विफलता के कारण लगभग 49 लाख बैरल तेल समुद्र में गया। इससे खाड़ी का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र बर्बाद हो गया।
गल्फ़ वार ऑयल स्पिल (1991, कुवैत) – इराक़ी सेना ने कुवैत से पीछे हटते समय जानबूझकर तेल कुओं और पाइपलाइनों से फ़ारस की खाड़ी में लाखों बैरल तेल छोड़ दिया। यह इतिहास का सबसे बड़ा मानव-जनित तेल रिसाव माना जाता है।
इक्सटॉक वन ऑयल स्पिल (1979, मैक्सिको की खाड़ी) – तेल ड्रिलिंग प्लेटफ़ॉर्म में ब्लोआउट (दबाव नियंत्रण विफल) होने से 9 महीने तक लगातार रिसाव होता रहा। इसमें करीब 30 लाख बैरल से अधिक तेल समुद्र में फैला
अटलांटिक एम्प्रेस (1979, त्रिनिदाद) – दो बड़े तेल टैंकरों की टक्कर के बाद आग लगने से लगभग 2,87,000 टन तेल समुद्र में फैल गया।
नवरोज़ ऑयल फ़ील्ड (1983, ईरान) – ईरान-इराक़ युद्ध के दौरान बमबारी और टकराव के चलते ऑफ़शोर ऑयल प्लेटफ़ॉर्म से तेल रिसा। फ़ारस की खाड़ी में लगभग 2,60,000 टन तेल समुद्र में गया।
फ़रग़ाना वैली स्पिल (1992, उज्बेकिस्तान) – तेल पाइपलाइन फटने से लगभग 2,85,000 टन तेल ज़मीन पर फैल गया। इसे भूमि पर हुआ सबसे बड़ा तेल रिसाव माना जाता है।
एबीटी समर (1991, अंगोला तट) – टैंकर में आग लगने और धमाके के बाद 2,60,000 टन तेल समुद्र में रिस गया।
कास्टीलो दे बेल्वर (1983, दक्षिण अफ्रीका) – केपटाउन के पास टैंकर में भीषण आग लगने से जहाज़ डूब गया, जिससे 2,52,000 टन तेल समुद्र में फैल गया। यह रिसाव समुद्री जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर गया।
अमोकॉ कैडिज़ (1978, फ़्रांस) – टैंकर के इंजन फेल होने और तेज़ तूफ़ान में जहाज़ चट्टानों से टकराने के बाद 2,23,000 टन तेल फैल गया। इससे फ़्रांस का तटीय क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ।
एक्सॉन वैल्डीज़ (1989, अलास्का) – टैंकर समुद्री चट्टानों से टकरा गया, जिससे 37,000 टन तेल समुद्र में फैल गया। इसके चलते जिससे लाखों पक्षी और हज़ारों समुद्री स्तनधारी मारे गए और समुद्र का स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र तबाह हो गया।
तेल रिसाव से निपटने के पारंपरिक तरीके और उनकी सीमाएं
तेल रिसाव होने पर समुद्र और नदियों की सतह पर फैली चिपचिपी काली परत को रोकने और साफ़ करने के लिए कई उपायों को इस्तेमाल किया जाता है। इन पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल दशकों से किया जा रहा है, लेकिन ज़्यादातर तकनीकें पूरी तरह कारगर नहीं रहतीं। हर तकनीक की अपनी चुनौतियां और सीमाएं हैं। यही वजह है कि वैज्ञानिक लगातार नए विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। फिलहाल इस्तेमाल में लाई जा रही प्रमुख तकनीकें इस प्रकार हैं -
ऑयल बूम: यह सबसे सामान्य और सबसे ज़्यादा इस्तेमाल में लाई जाने वाली तकनीक है। इसमें पानी की सतह पर बड़े-बड़े तैरते हुए अवरोध बनाए जाते हैं, ताकि तेल पानी की सतह पर सीमित दायरे में ही रहे और आगे न फैल सके। इनका इस्तेमाल खासकर तटीय इलाकों या बंदरगाहों के पास किया जाता है। इस तरीके की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि तेज़ हवाओं, ऊंची लहरों और खराब मौसम में ठीक से काम न कर पाने के चलते बेअसर साबित होती है। साथ ही लंबे समय तक पानी में रहने पर ऑयल बूम का वज़न बढ़ जाता है और कई बार ये पानी में डूब भी जाते हैं, जिससे उपाय विफल हो जाता है।
स्कीमर: इसे खासतौर पर पानी की सतह से तेल को खींचने या हटाने के लिए तैयार किया गया है। स्कीमर छोटे पैमाने के रिसाव में तो अपेक्षाकृत अच्छे परिणाम देते हैं, लेकिन जब तेल बहुत गाढ़ा होता है या पानी में लकड़ी, प्लास्टिक या अन्य मलबा भी मिला होता है, तब इनकी दक्षता घट जाती है। इसके अलावा ये महंगे भी होते हैं और हमेशा उपलब्ध नहीं रहते।
रासायनिक डिस्पर्ज़ेंट : इनका इस्तेमाल तेल को छोटे-छोटे कणों में तोड़ने के लिए किया जाता है, ताकि वे सतह से हट जाएं और समुद्र की गहराई में चले जाएं। इसलिए यह तकनीक देखने में तो असरदार लगती है, लेकिन इसके खतरनाक असर होते हैं। इससे तेल के रसायन पानी में मिल जाते हैं। डिस्पर्ज़ेंट खुद भी रसायन होते हैं, जो समुद्र के पानी में घुलने पर मछलियों, कोरल रीफ और अन्य समुद्री जीवों के लिए जानलेवा साबित हो सकते हैं।
बायोरेमेडिएशन : यह एक जैविक तरीका है, जिसमें सूक्ष्म जीवों का इस्तेमाल कर तेल को तोड़ने और विघटित करने की कोशिश की जाती है। यह तकनीक पर्यावरण के अनुकूल मानी जाती है और छोटे पैमाने पर असरदार भी होती है। लेकिन इसका सबसे बड़ा दोष इसकी धीमी गति है। जब समुद्र या नदियों में लाखों लीटर तेल फैल जाता है, तो बायोरेमेडिएशन तकनीक उससे तुरंत नहीं निपट पाती।
इन-सीटू बर्निंग : पानी की सतह पर फैले तेल को आग लगाकर जलाना भी एक उपाय है। शुरुआत में यह प्रभावी लगता है क्योंकि इससे बड़ी मात्रा में तेल काफ़ी जल्दी नष्ट हो जाता है। लेकिन, इस विधि से वायुमंडल में भारी मात्रा में जहरीला धुआं और कार्बन कण फैलते हैं, जिससे वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य संबंधी खतरे बढ़ जाते हैं। साथ ही, आग लगने की प्रक्रिया को नियंत्रित करना भी आसान नहीं होता, जिससे यह कई बार दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है।
इस तरह तेल रिसाव से निपटने की ज़्यादातर पारंपरिक तकनीकें अपने आप में एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती बनी हुई हैं। इसके चलते वैज्ञानिक अधिक टिकाऊ, पर्यावरण के लिए सुरक्षित और किफायती विकल्पों की तलाश में लगे हैं। एनआईटी राउरकेला की विकसित की गई नई बायो-फिल्म तकनीक इसका एक कारगर उपाय साबित हो सकती है। हालांकि वास्तविक दशाओं और बड़े पैमाने पर तेल रिसाव की घटनाओं में इसका प्रदर्शन सामने आना अभी बाकी है।