जल प्रदूषण
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जल प्रदूषण (Water Pollution in Hindi)

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ऑक्सीजन के उपरान्त जल जीवन के लिये अति आवश्यक है। मनुष्य के शरीर के भार का 70 प्रतिशत जल होता है। विश्व में पृथ्वी के चारों ओर जल है, 71 प्रतिशत भाग में जल है और 29 प्रतिशत में सतह है। सतह के कुछ भाग पर ही आबादी है। अधिकतर भाग पर पहाड़, जंगल, नदियाँ, झरने व तालाब हैं। जितना भी जल है उसका केवल 3 प्रतिशत जल पीने योग्य है। ताजा पीने योग्य जल ग्लेशियर (हिमखण्ड), पोलर आइस से प्राप्त होता है। इसी प्रकार भूजल गहरी चट्टान बनने के कारण एकत्रित होता रहता है।

जल की उत्पत्ति के लिये विश्व में हाइड्रोलॉजिकल चक्र है। विश्व में पृथ्वी की आर्द्रता और समुद्र जल सूर्य की गर्मी से वाष्पीकृत होकर वायुमण्डल में चले जाते हैं। वहाँ धूल के कणों से मिलकर बादल का निर्माण करते हैं। जब बादलों में आर्द्रता अधिक हो जाती है, तो वह वर्षा या बर्फ के रूप में पृथ्वी पर आ जाती है। वर्षा जल, झरनों, झीलों, नदियों द्वारा पृथ्वी में आर्द्रता पुनः उत्पन्न होती है। इस प्रकार हाइड्रोलॉजिकल चक्र पूर्ण होता है और विश्व में जल की पूर्ति होती रहती है।

विश्व में जहाँ-जहाँ जल उपलब्ध है वहाँ-वहाँ आबादी बसी, फिर व्यापार शुरू हुआ। व्यापार होने से सभ्यता का विकास हुआ जो बढ़ता गया। जल का उपयोग आवागमन, सफाई, कृषि, पीने में किया जाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन की उत्पत्ति जल में ही हुई है। अतः जल का विशेष महत्त्व है विकास एवं उन्नति से विश्व दो भागों में विभाजित हो गया है। एक भाग विकसित राष्ट्र कहलाता है। जहाँ विकास चरम पर है। उससे सम्पन्नता है। फिर विलासिता! दूसरा भाग विकासशील राष्ट्र हैं। जहाँ सम्पन्नता नहीं है। गरीबी है। सुख सुविधाएँ नहीं हैं। जनसंख्या भी अधिक है। इससे जल का दोहन और उपयोग अधिक हो रहा है।

जनसंख्या विस्फोट के कारण औद्योगीकरण भी बढ़ा है एवं शहरीकरण भी बढ़ रहा है। वाहनों की संख्या में अपार वृद्धि हुई है। जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है। जंगलों, वनों की कटाई भी चरम पर है इसके दुष्परिणाम दृष्टिगोचर हो रहे हैं। प्राकृतिक आपदायें भू-स्खलन, बाढ़ आना, सूखा पड़ना, जटिल रोगों की संख्या में अपार वृद्धि हो रही है। विकासशील राष्ट्रों में साफ-सफाई (सेनीटेशन) पर अधिक बल नहीं दिया जाता है। जनसंख्या विस्फोट, जंगलों की कटाई, सीमेन्ट कंकरीट के जंगलों को खड़ा करने से, औद्योगीकरण, शहरीकरण, वाहनों की संख्या में वृद्धि से जल और भू-जल प्रदूषित हो रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन के कारण विश्व में जल की कमी हो रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2013 को अंतरराष्ट्रीय जल सहयोग वर्ष घोषित किया है, जिससे सबको जल मिल सके।

कृषि में जल का उपयोग बहुत मात्रा में किया जाता है। जल की कमी को देखते हुए ऐसे प्रयास किये जाते रहे हैं कि ऐसे बीजों का उपयोग किया जाये जो कम जल का उपयोग कर उत्पादन अधिक दे सकें। पेस्टीसाइड (कीटनाशकों) का उपयोग भी समुचित मात्रा में जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए। उससे भी जल प्रदूषित होता है।

जल का मुख्य स्रोत कुआँ, तालाब, झीलें, नदियाँ हैं। आजकल जल की कमी हो रही है। साथ ही जल प्रदूषित भी हो रहा है। प्रदूषित जल पर्यावरण तथा स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। शुद्ध जल रंगहीन, गंधहीन, दिखने में साफ, मीठे स्वाद वाला होता है। जल के PH का मान 7-8.5 के मध्य होता है। जल उच्च आवेशित, उच्च डाइइलेक्ट्रिक स्थिरांक, उच्च श्यनता, उच्च पृष्ठ तनाव, उच्च ऊष्म ताप वाला होता है। ये गुण विशेष स्थान की वनस्पति और जानवरों पर प्रभाव डालते हैं।

प्राकृतिक जल में विभिन्न आयन्स जैसे पोटैशियम (K+), सोडियम (Na+), मैग्नीशियम (Mg++), कैल्शियम (Ca++), क्लोराइड (Cl-), सल्फेट (So4), कार्बोनेट (Co3--), बाई कार्बोनेट (HCO3), नाइट्रेट (No3) पाये जाते हैं। जल के नमकीन (Salinity) होने के लिये ये आयन उत्तरदायी होते हैं। प्राकृतिक जल और नमकीनता वनस्पतियों और जन्तुओं की विभिन्न स्पेसीज की उपलब्धता विभिन्न क्षेत्रों के लिये उत्तरदाई हैं।

मृदु जल - कठोर जल

जल दो प्रकार का होता है। एक जल जिसमें क्लोराइड, सल्फेट, बाईकार्बोनेट, कार्बोनेट नहीं होते हैं, वह मृदु जल कहलाता है। यह साबुन के साथ शीघ्र झाग देता है। दूसरा जल-जिस जल में क्लोराइड, सल्फेट, बाईकार्बोनेट, कार्बोनेट उपस्थित होते हैं वह कठोर जल कहलाता है समुद्रीय और प्राकृतिक जल में सामंजस्य स्थापित कर जलीय दुनिया का निर्माण होता है।

पीने योग्य जल रंगहीन, गन्धहीन, स्वाद में मीठा होता है। इस जल का PH मान 7-8.5 के मध्य होता है। इस जल में नगण्य मात्रा में लवण और धातुएँ होती हैं। नदी के जल की शुद्धता निम्न मापदण्डों पर आधारित है -

एक घुलित ऑक्सीजन (Dissolved Oxygen) जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा जितनी अधिक होगी, जल उतना ही शुद्ध होगा। दूसरा बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (बीओडी) है। कार्बनिक पदार्थ को जीवाणु द्वारा ऑक्सीकृत करने के लिये आवश्यक ऑक्सीजन की मात्रा को बीओडी कहते हैं। कार्बनिक पदार्थ की अधिक मात्रा ऑक्सीजन की मात्रा को कम करती हैं तीसरा केमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (सीओडी) है। ऑक्सीजन की वह मात्रा जो जल में उपस्थित कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ को ऑक्सीकृत करने के लिये आवश्यक होती है, सीओडी कहलाती है। चौथा मापदण्ड कोलीफॉर्म की उपस्थित मात्रा है। कोलीफॉर्म जीवाणु होते हैं। कोलीफॉर्म समूह में एरोबिक (Aerobic), एनएरोबिक ग्राम निगेटिव (Anaerobic gram negative) जीवाणु होते हैं। इनकी अल्प मात्रा भी सही नहीम रहती है।

पॉल्यूशन (Pollution) या प्रदूषण की परिभाषा


जल में अन्य पदार्थों का मिलना या जल में उपस्थिति पदार्थों की मात्रा का बढ़ना पॉल्यूशन (Pollution) या प्रदूषण कहलाता है। पॉल्यूशन शब्द लैटिन भाषा के शब्द पोल्यूशनम (Pollutionem) से लिया गया है। इसका अर्थ गन्दा करना है। जल मृदा व हवा जीवन के लिये अनिवार्य हैं। जल मृदा व हवा में अतिरिक्त पदार्थों के एकत्रित होने से इनके गुणों में परिवर्तन होता है। इसे प्रदूषण या पॉल्यूशन कहते हैं, जिन पदार्थों की उपस्थिति से मृदा, जल, वायु के भौतिक, रासायनिक गुणों में परिवर्तन होता है, उन्हें पॉल्यूटेंट कहते हैं। पॉल्यूटेंट हानिकारक होते हैं।

प्रदूषकों के प्रकार -


पॉल्यूटेंट दो प्रकार के होते हैं। एक ‘बायो डिग्रेडेबल पॉल्यूटेंट’ - वे पदार्थ जो कार्बनिक वेस्ट और सीवेज को ऑक्सीकृत या सूक्ष्म जीवों द्वारा पूर्ण रूप से विखण्डित कर देते हैं। ‘बायो डिग्रेडेबल पॉल्यूटेंट’ कहलाते हैं। विखण्डित होने पर दुर्गन्ध वाली गैस उत्पन्न करते हैं। दूसरा ‘नॉन बायो डिग्रेडेबल पॉल्यूटेंट’ - वे पदार्थ जो कार्बनिक और सीवेज को ऑक्सीकृत या सूक्ष्म जीवों द्वारा पूर्ण से विखण्डित नहीं करते हैं। वरन वहाँ उपस्थित रहकर हानिकारक परिणाम देते हैं। नॉन बायो डिग्रेडेबल पॉल्यूटेंट कहलाते हैं। जैसे भारी धातुएँ क्रोमियम, कैडमियम, मरकरी, डीडीटी आदि।

जल के भौतिक, रासायनिक गुणों में परिवर्तन, कुछ पदार्थों की उपस्थिति से होता है, तो उसे जल प्रदूषण कहते हैं। जल प्रदूषण कई प्रकार का होता है, जैसे 1. भौतिक प्रदूषण, 2. अकार्बनिक प्रदूषण, 3. कार्बनिक प्रदूषण, 4. बायोलॉजिकल प्रदूषण, 5. पेस्टीसाइड प्रदूषण, 6. गारबेज प्रदूषण, 7. ऑयल प्रदूषण

भौतिक प्रदूषण:- जिन पदार्थों के मिलने से जल के रंग, स्वाद, गन्ध में परिवर्तन हो जाता है, उसे भौतिक प्रदूषण कहते हैं। कुछ पदार्थ जल में मिलकर रंग देते हैं, जिससे जल रंगीन हो जाता है। कुछ सूक्ष्म जीव जल में मिलकर विशेष गन्ध देते हैं। जल का स्वाद भी परिवर्तित हो जाता है।

अकार्बनिक प्रदूषण :- कुछ उद्योगों के स्राव में सल्फाइड, नाइट्राइट, सल्फेट, फॉस्फेट पाया जाता है। ये पदार्थ जल में मिलकर धीरे-धीरे विखण्डित होते रहते हैं जिससे दुर्गन्ध जैसे निकलती है। अकार्बनिक पॉल्यूटेंट से सीओडी में परिवर्तन हो जाता है व जल प्रदूषित हो जाता है जो स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।

कार्बनिक प्रदूषण :- उद्योगों के स्राव में कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जो जल में मिलकर जल के (PH) मान को परिवर्तित कर देते हैं, जिससे घुलित ऑक्सीजन, बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (बीओडी) में परिवर्तन हो जाता है। पेस्टीसाइड, फंगीसाइड, बैक्ट्रीसाइड प्रायः कार्बनिक पदार्थ होते हैं। इनका सरलता से विखण्डन नहीं होता है तथा ये बीओडी की मात्रा बढ़ा देते हैं तथा ये बीओडी की मात्रा बढ़ा देते हैं। जो अहितकर है। सरलता से विखण्डित होने वाले पदार्थ भी जल को प्रदूषित करते हैं।

बायोलॉजिकल प्रदूषण :- यह प्रदूषण प्लान्ट टोक्सीन, कोलीफॉर्म, बैक्टीरिया, स्पेटोकोकी वाइरस द्वारा उत्पन्न किया जाता है। सूक्ष्म जीव और वाइरस (Viruses) कई जलीय रोगों जैसे कॉलरा, डिसेन्ट्री, टाइफायड, हेपेटाइटिस, गैस्ट्रोएनटेरीटिस, पोलियो को जन्म देते हैं। बैक्टीरिया और वाइरस जल में उत्पन्न होकर जल को प्रदूषित करते हैं। यह बायोलॉजिकल प्रदूषण कहलाता है।

गारबेज प्रदूषण :- प्रदूषण का मुख्य स्रोत गारबेज है जो नदियों में पाया जाता है। क्योंकि नदियों में कूड़ा-करकट, गन्दगी मिला दी जाती है। गारबेज में भारी धातुएँ जैसे निकिल, क्रोमियम, कोबाल्ट, कैडमियम, लेड भी पाये जाते हैं, जो हानिकारक हैं। इन धातुओं के कारण फाइटो टॉक्सीसिटी लेवल अधिक हो जाता है, जो पेड़ों और मनुष्यों में रोग उत्पन्न करते हैं। गारबेज के सड़ने पर विखण्डन होता है जिससे गैसें निकलती हैं, जो दुर्गन्ध उत्पन्न कर, पर्यावरण को भी प्रदूषित करती हैं गारबेज के जल में मिलने से जल प्रदूषित होता है।

ऑयल प्रदूषण :- जब जल में जीवाश्म ऑयल मिल जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है। जल की घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे जलीय जन्तु मर जाते हैं जब ऑयल टैंकर के रिसाव के कारण या टैंकर के नष्ट होने के कारण ऑयल जल में मिलकर जल को प्रदूषित करता है, इसे ऑयल प्रदूषण कहते हैं।

पेस्टीसाइड प्रदूषण :- कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिये, फसलों में रोग उत्पन्न न होने के लिये कुछ रसायन छिड़के जाते हैं ये रसायन पेस्टीसाइड कीटनाशक कहलाते हैं। पेस्टीसाइड मिट्टी में पहुँच जाते हैं। फिर वर्षाजल के साथ सतह तथा भूमिगत जल को प्रदूषित कर देते हैं। यह पेस्टीसाइड प्रदूषण कहलाता है।

जल प्रदूषण कई कारणों से होता है। घरेलू बहिस्राव या सीवेज डिस्चार्ज-वैज्ञानिक मेटकाफ और इडी (Mecaff & Eddy) के अनुसार घरेलू बहिस्राव में घुलित ठोस, सस्पेन्डेड ठोस नाइट्रोजन, कार्बनिक नाइट्रोजन, फास्फोरस, क्लोराइड, कैल्शियम कार्बोनेट, सिन्थेटिक डिटर्जेन्ट और जीवाणु पाये जाते हैं। दैनिक घरेलू कार्यों जैसे-खाना पकाना, स्नान करना, कपड़े धोना, घर की सफाई, फल सब्जियों का कूड़ा, गन्दा जल एवं अन्य प्रदूषणकारी अपशिष्ट पदार्थ होते हैं। वर्तमान समय में सफाई के लिये संश्लेषित प्रक्षालकों का उपयोग तीव्र गति से बढ़ रहा है। ये जलस्रोतों को प्रदूषित कर रहे हैं।

वाहित मल :- इसके अंतर्गत घरेलू एवं सार्वजनिक शौचालयों से निःसृत मानव मल-मूत्र आते हैं। वाहित मल में कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। ठोस मल का अधिकांश भाग कार्बनिक होता है। इसमें मृतोपजीवी, रोग कारक सूक्ष्मजीवी विद्यमान होते हैं। वाहित मल नाली, सीवर से होता हुआ जलस्रोत मुख्यतया नदियों में सीधे मिला दिया जाता है। खुले स्थानों में मनुष्य और पशुओं द्वारा त्याज्य मल भी वर्षाजल के साथ बहता हुआ जलस्रोतों में मिल जाता है। जो जल प्रदूषण का कारण बनता है। जनसंख्या वृद्धि के कारण वाहित मल जल प्रदूषण की समस्या को जटिल बना रहा है।

औद्योगिक बहिस्राव :- विकास में उद्योगों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अत्यधिक औद्योगीकरण के कारण निकलने वाला बहिस्राव सीधे जल में मिला दिया जाता है। जिससे जल प्रदूषित हो रहा है। उद्योगों में उत्पादन प्रक्रिया के पश्चात अनुपयोगी पदार्थ बचे रह जाते हैं या उत्पन्न होते हैं, इन्हें औद्योगिक अपशिष्ट कहते हैं। अपशिष्ट में अम्ल, क्षार, लवण, वसा, तेल, धात्विक तत्व, विषैले रसायन विद्यमान होते हैं। जो जल में मिलकर जल को प्रदूषित करते हैं। कागज, चीनी, वस्त्र, चमड़ा, शराब, औषधि निर्माण, खाद्य प्रसंस्करण, रंगाई, छपाई उद्योगों से पर्याप्त मात्रा में अपशिष्ट निःसृत होते हैं। जिनका निस्तारण जलस्रोतों मुख्यतया नदी में सीधे रूप से किया जाता है। औद्योगिक अपशिष्ट कार्बनिक पदार्थ होते हैं, जिनका अपघटन बैक्टीरिया द्वारा होता है। यह क्रिया मन्दगति से होती है और दुर्गन्ध भी उत्पन्न करती है। धातुएँ आर्सेनिक, लेड, मरकरी, क्रोमियम, लोहा, जिंक, तांबा जल के पीएच स्तर को अव्यवस्थित कर देते हैं। तेल, ग्रीस, चर्बी, वसा घुलित ऑक्सीजन की मात्रा को कम करती है। जिससे जलीय जन्तु विशेषकर मछलियाँ प्रभावित होती हैं।

कागज, दुग्ध उत्पादों का प्रशोधन, रंगाई, धुलाई केंद्र, मोटर सर्विस स्टेशन से बीओडी और क्षार जल में मिलते हैं। ये जलस्रोतों में मिलकर जल को प्रदूषित कर देते हैं। विभिन्न उद्योगों में निःसृत प्रदूषक का स्रोत एवं जल पर प्रभाव:-सारणी के द्वारा बताया गया है।

सारणी : विभिन्न उद्योगों में निःसृत प्रदूषक का स्रोत एवं जल पर प्रभाव

वर्ण

स्रोत

जल पर प्रभाव

अम्ल एवं क्षार

कोयले की खानें, वस्त्र रसायन

जल का पीएच स्तर अव्यवस्थित होना, उद्योग, इस्पात लगाना पारिस्थितिकी संतुलन में परिवर्तन।

क्लोरीन, फिनोल, फर्मलीन हाइड्रोजन परॉक्साइड

कागज, वस्त्र, पेंसिलीन रंग रासायनिक उद्योग

सूक्ष्म जीवाणुओं का विनाश स्वाद परिवर्तन, दुर्गन्ध

लोहा, कैल्शियम, मैग्नीशियम, क्लोरीन, सल्फेट

सीमेन्ट, धातु, काँच, चिनी मिट्टी उद्योग

जल की कठोरता, खारेपन का उत्पन्न होना

दृश्य एवं गन्धदायक पदार्थ

साबुन, चमड़े की रंगाई खाद्य एवं माँस प्रशोधन, पेट्रोलियम शोधन-शालायें

तेल, चर्बी, ग्रीस, रंग से घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम होना

जीवाणुओं द्वारा अपघटित पदार्थ

चीनी, शराब उद्योग, चर्म शोधन, दुग्ध प्रशोधन, कागज, वस्त्र उद्योग

मत्स्य विनाश दुर्गन्ध

विषैले पदार्थ आर्सेनिक सायनाइड कैडमियम, जिंक, लोहा, तांबा

चर्म शोधन, वस्त्र उद्योग, बैटरी बनाना, प्लेट बनाना, क्लोरीन उत्पादन

मछली एवं फलेकटन का विनाश, विष का प्रभाव

रोगजनित जीवाणु (वायरस)

चमड़े की रंगाई, मुर्गी पालन अपशिष्ट जल

प्रदूषित जल से सिंचाई करने पर मानव, पशु और पौधों में संक्रामक रोग उत्पन्न

कृषि बहिस्राव :- फसलों से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये नई-नई पद्धतियों को उपयोग में लाया गया। हरित क्रांति इसी का परिणाम है। नई पद्धतियों के अंतर्गत रासायनिक उर्वरकों, अपतृण नाशकों, कीटनाशक दवाओं एवं सिंचाई के उपयोग में वृद्धि हुई है। अधिकांश उर्वरक अकार्बनिक फास्फेट, नाइट्रोजन होते हैं। उर्वरक वर्षाजल या सिंचाई जल के साथ बहकर भूजल में, पोखरों, तालाबों, नदियों तक पहुँच जाते हैं। नाइट्रोजन की अधिक मात्रा विशेषकर झील में ड्यूट्रोफिकेशन की प्रक्रिया तीव्र हो जाती है। जिससे जल में शैवाल की वृद्धि हो जाती है। शैवाल के मृत होने से अपघटक बैक्टीरिया उत्पन्न हो जाते हैं। जैविक पदार्थों के अपघटन की प्रक्रिया से जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। जलीय जीवों की कमी होने लगती है। जल प्रदूषित हो जाता है।

दोषपूर्ण कृषि पद्धतियों से भूक्षरण में वृद्धि हो रही है जिससे नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, साथ ही नदी का जल भी ऊँचा हो जाता है। कीचड़ मिट्टी के जमाव से जल भी प्रदूषित हो जाता है।

अपतृणनाशक एवं कीटनाशक रसायनों का उपयोग बढ़ गया है। अधिकांश कीटनाशक विषैले पदार्थों जैसे मरकरी, लेड, फ्लोरीन, क्लोरीन, फास्फोरस आर्सेनिक पदार्थों से बनाये जाते हैं। ये कीटनाशक फसलों पर छिड़के जाते हैं जिससे इनकी मात्रा भूजल में पहुँच जाती है। सिंचाई जल से मिलकर पोखर, तालाब तक पहुँचकर ये जल को प्रदूषित करते हैं।

ऊष्मीय प्रदूषण :- उत्पादन संयंत्रों में विभिन्न रिएक्टरों के अतितापन के निवारण के लिये नदी एवं तालाबों के जल का उपयोग किया जाता है। शीतलन प्रक्रिया के फलस्वरूप उष्ण हुआ जल पुनः जलस्रोतों में मिलाया जाता है। इससे जलस्रोतों के जल में ताप वृद्धि हो जाती है। यह हानिकारक होती है। उष्णीय प्रदूषण का प्रभाव जलीय जीवों पर पड़ता है। जल के तापमान बढ़ने से ऑक्सीजन की घुलनशीलता कम हो जाती है। लवणों की मात्रा बढ़ जाती है। जीवाणुओं के ऊपर अनेक परिवर्तन होते हैं। जीव संरचना में परिवर्तन हो जाता है।

तैलीय प्रदूषण :- समुद्रों में तेल प्रदूषण की सम्भावना अधिक है। तेलवाहक जहाजों से तेल समुद्र में गिरता है। कभी आग भी लग जाती है। यह तेल घुलित ऑक्सीजन की मात्रा को कम करता है। जलीय जीवों का जीवन समाप्त हो जाता है।

जल प्रदूषण की पहचान के लिये मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं। जिनकी कमी या अधिकता होने पर जल प्रदूषित माना जाता है।

भौतिक मापदण्ड- इसमें रंग, प्रकाश वैधता, संवहन एवं ठोस पदार्थ आते हैं

रासायनिक मापदण्ड- इसमें घुलित ऑक्सीजन, बीओडी, सीओडी, पीएच मान, अम्लीयता या क्षारीयता, भारी धातुएँ आते हैं।

जैविक मापदण्ड- इसमें बैक्टीरिया, कोलीफॉर्म, एल्गी, वाइरस आते हैं।

नगरों, बस्तियों, उद्योगों से निस्तृत गन्दा जल, जलस्रोतों में मिलकर, जल को प्रदूषित कर रहे हैं। उद्योगों से प्राप्त अपशिष्ट भी जलस्रोतों में मिलाया जाता है। इससे जल प्रदूषण विकराल रूप धारण कर चुका है।

जल प्रदूषण का प्रभाव जलीय जीवन एवं मनुष्य दोनों पर पड़ता है। जलीय जीवन पर जल प्रदूषण का प्रभाव पादपों एवं जन्तुओं पर परिलक्षित होता है। औद्योगिक अपशिष्ट एवं बहिस्राव में विद्यमान अनेक विषैले पदार्थ जलीय जीवन को नष्ट कर देते हैं। जल प्रदूषण का प्रभाव स्वास्थ्य पर सीधे रूप में पड़ता है। यह जल के सम्पर्क में आने से होता है। जल में उपस्थित रोग वाहक बैक्टीरिया, वायरस, प्रोटोजोआ एवं कृमि मानव शरीर में पहुँच जाते हैं जिससे हैजा, टाइफाइड, शिशु प्रवाहिका, पेचिश, पीलिया, अतिसार, एक्जीमा, जियार्डियता, स्ट्रंजिवाइडियोसिस, लेप्टोस्पाइरोसिस रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जल में उपस्थित रासायनिक पदार्थों के कारण उदरसूल, कोष्ठबद्धता, ब्रिक्क शोध, पादपात रोग उत्पन्न हो जाते हैं। यकृत, गुर्दे एवं मस्तिष्क पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। जल प्रदूषण से संक्रामक रोग उत्पन्न हो रहे हैं। उद्योगों के प्रदूषणकारी तत्वों के कारण मछलियों का मर जाना सामान्य बात हो गई है। मछलियों के मरने का तात्पर्य प्रोटीन के अच्छे स्रोत का समाप्त होना है। साथ ही मछली के व्यापार से जुड़े लोगों की आजीविका भी समाप्त हो जाती है।

जल प्रदूषण से क्षेत्र विशेष का जलीय पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहा है। जल प्रदूषण का प्रभाव कृषि भूमि पर पड़ता है। जब प्रदूषित जल कृषि भूमि से गुजरता है तो उस भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। रंगाई-छपाई उद्योग से निःसृत दूषित जल कृषि भूमि को बंजर बना रहा है। प्रदूषित जल से सिंचाई करने से कृषि उत्पादन प्रभावित होता है। उत्पादन चक्र में प्रदूषक आ जाते हैं जिससे उत्पादन कम हो जाता है। प्रदूषित जल से जलस्रोतों का सम्पूर्ण जल पारिस्थितिकीय तंत्र अव्यवस्थित हो जाता है।

जल प्रदूषण एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है। यदि इसकी रोकथाम की व्यवस्था न की तो समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। अतः रोकथाम करना आवश्यक हो गया है। जल प्रदूषण को बढ़ावा देने वाली प्रक्रियाओं पर रोक लगाना आवश्यक है। किसी प्रकार के अपशिष्ट या अपशिष्ट युक्त बहिःस्राव को जलस्रोतों से मिलने नहीं देना चाहिए।

घरों से निकलने वाले मलिन जल एवं वाहित मल को एकत्रित कर संशोधन संयंत्रों में पूर्ण उपचार करना चाहिए। कुओं, तालाबों के चारों ओर दीवार बनाकर विभिन्न प्रकार की गन्दगी को रोकना होगा। जलाशयों के आस-पास गन्दगी करने, नहाने, कपड़े धोने पर रोक लगानी होगी। पशुओं के जलाशय में नहलाने पर भी रोक लगानी होगी। उद्योगों के स्राव और अपशिष्टों का बिना उपचार किये जलस्रोतों में विसर्जित करने पर रोक लगानी होगी।

कृषि कार्यों में उर्वरकों एवं कीटाणुओं की मात्रा पर अंकुश लगाना चाहिए। समय-समय पर जलाशयों में उपस्थित अनावश्यक जलीय पौधे एवं तल में एकत्रित कीचड़ को निकाल देना चाहिए। जन साधारण के मध्य जल प्रदूषण के कारणों, दुष्प्रभावों एवं रोकथाम की विधियों के बारे में जागरूकता करनी होगी। जल का उपयोग करने वाले लोग जल को प्रदूषित न करें। सरकार द्वारा बनाये गये क़ानूनों का सही रूप में पालन करना होगा। ‘जल प्रदूषण निरोधन एवं नियंत्रण अधिनियम 1974’, ‘जल कर प्रदूषण नियंत्रण एवं निरोधन अधिनियम 1979’, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1980 का पालन कठोरता से करना होगा।

स्वयंसेवी संस्थाएँ भी जन चेतना जागृत करने, जन साधारण को जल प्रदूषण रोकने का सराहनीय कार्य कर रही हैं। इसे और आगे बढ़ाना होगा। सभी को कार्य करना होगा, तभी जल प्रदूषित नहीं होगा।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि जल प्रदूषण गम्भीर समस्या है इससे सभी प्रभावित हो रहे हैं। इस ओर सबका ध्यान आकर्षित करने की आवश्यकता है। सबके प्रयासों से ही जल प्रदूषण की समस्या समाप्त हो सकती है।

संदर्भ :-


1. एनवायरन्मेंटल केमिस्ट्री, कुदेशिया वीपी, प्रगति प्रकाशन, मेरठ।
2. पर्यावरण तथा प्रदूषण, रघुवंशी अरूण एवं चन्द्रलेखा, हिन्दी ग्रन्थअकादमी, भोपाल।
3. पर्यावरण प्रदूषण, पशुपति नाथ एवं सिद्धनाथ, चुघ पब्लिकेशन, इलाहाबाद।
4. मानव पर्यावरण की सामाजिक समस्याएँ, प्रसाद गुरू, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ।

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