मिंटडू नदी संकट: निर्माण-मलबा, घटता बहाव और समाधान की तलाश
हाल के वर्षों में, जोवाई बाइपास सड़क परियोजना से जुड़े निर्माण कार्यों ने मिंटडू नदी पर गहरा दबाव डाला है। सड़क निर्माण की प्रक्रिया से निकली मिट्टी-गाद, खनिज अवशेष और निर्माण-कचरा बड़ी मात्रा में नदी तंत्र में पहुंचने लगे हैं, जिससे मिंटडू की जल-गुणवत्ता, प्राकृतिक बहाव और जैव विविधता प्रभावित हुई है।
मिंटडू नदी की वर्तमान स्थिति: गंदला पानी, जमा हुआ कचरा, क्षतिग्रस्त किनारा
जोवाई, मेघालय के पश्चिम जयंतिया हिल्स क्षेत्र का एक प्रमुख कस्बा है, जो मिंटडू नदी के किनारे बसा हुआ है। खासी-जयंतिया पठार में बहने वाली यह नदी लंबे समय से स्थानीय ग्रामीण और शहरी समुदायों की दैनिक ज़रूरतों और आजीविकाओं से जुड़ी रही है। नदी में पाई जाने वाली स्थानीय मछलियों की प्रजातियां लंबे समय तक जोवाई क्षेत्र के मछुआरा समुदायों की आजीविका का आधार रही हैं।
लेकिन स्थानीय रिपोर्टों और क़ानूनी फ़ाइलों से यह साफ़ हो गया है कि मिंटडू नदी के पानी की पारदर्शिता और बहाव क्षमता अब पहले जैसी नहीं रह गई है। इस बदलाव का मुख्य कारण साल 2023 में शुरू हुई जोवाई बाइपास सड़क परियोजना को माना जाता है। दरअसल बाइपास निर्माण के दौरान निकाले गए मिट्टी-पत्थर और निर्माण-कचरा का अव्यवस्थित निपटान नदी के तटों और नदीपुट में हुआ। जिससे नदी में साइल्टेशन का दर (गाद जमना) बढ़ा और उसका बहाव बाधित होने लगा। नतीजतन नदी के कुछ हिस्से मटमैले और कीचड़ वाले पानी में बदल गए हैं और पारंपरिक जलमार्गों में बाधा आई है।
जोवाई बाइपास का व्यापक प्रभाव
तात्कालिक प्रभाव: जवाबदेही से जुड़ी जांच रिपोर्टों और न्यायालय में दायर मामलों से यह संकेत मिलता है कि जोवाई बाइपास परियोजना के दौरान हुए बड़े पैमाने के कट-एंड-फिल कार्यों से निकला मलबा और गाद नदी तंत्र पर दबाव का शुरुआती कारण बना। परिणामस्वरूप, कुछ हिस्सों में रेत, निर्माण-मलबा और बड़े बोल्डर नदी के प्राकृतिक प्रवाह-मार्ग में जमा होने लगे। इससे न केवल साइल्टेशन की समस्या बढ़ी, बल्कि बाढ़ के जोखिम में भी इज़ाफ़ा हुआ।
एनजीटी द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट और स्थानीय मीडिया की पड़तालों में भी अनियमित मलबा-डंपिंग और रेत-खनन को परियोजना से जुड़ा एक अहम कारण बताया गया है, जिसने नदी तंत्र पर पड़ने वाले दबाव को बढ़ाया और गहरा ही किया है।
जल गुणवत्ता और पारिस्थितिकी पर असर: इंटरनेशनल जर्नल ऑफ करंट रिसर्च में प्रकाशित ‘टॉक्सिक एलीमेंट्स ऑफ रिवर मिंटडू इन जयंतिया हिल्स डिस्ट्रिक्ट मेघालय, इंडिया’ नामक शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि मिंटडू नदी में मानसून सहित विभिन्न मौसमों में कुछ विषैले धातु तत्वों का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय किए गए मानदंडों से ऊपर पाया गया। इससे नदी की जल‑गुणवत्ता धीरे-धीरे प्रभावित हो रही है और घरेलू अपशिष्ट और अन्य स्रोतों से प्रदूषण बढ़ने की संभावना बनी हुई है।
जिला प्रशासन ने भी नदी किनारों पर रेत-खनन, अवैध गतिविधियों और मलबा-डंपिंग के कारण मिट्टी-गाद और पानी के धुंधलेपन जैसी पर्यावरणीय समस्याओं का उल्लेख किया है।
इन पर्यावरणीय बदलावों का असर केवल जल-गुणवत्ता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मिंटडू पर निर्भर पारंपरिक आजीविकाओं और नदी से जुड़ी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को भी प्रभावित करने लगा है।
जोवाई बाइपास परियोजना के दौरान हुए बड़े पैमाने के कट-एंड-फिल कार्यों से निकला मलबा और गाद नदी तंत्र पर दबाव के शुरुआती कारणों में से एक है।
आजीविका और रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर: मिंटडू नदी के पानी में गाद की बढ़ती मात्रा, बदलते बहाव और पारिस्थितिकी बदलाव का असर यहां के स्थानीय लोगों के जीवन और घरों पर हो रहा है।
नदी का बदलता स्वरूप देखकर स्थानीय मछुआरों और छोटे‑किसानों का इस पर से भरोसा डगमगाने लगा है।
पहले नदी का पानी साफ़ हुआ करता था जिससे हल्की नावों और जालों की मदद से ही मछली पकड़ने का काम आसानी से हो जाता था। लेकिन अब मछलियां उतनी आसानी से पकड़ में नहीं आती हैं। नदी के अनेक पारंपरिक मछली घर अब गाद से भरे हैं, जिनमें मछली के जीवित रहने और उनके प्रजनन की क्षमता कम हो गई है।
नदी में जमा गाद से नदी तल की संरचना बदलती जा रही है, जिससे मछलियों की संख्या में कमी और उनके प्रजनन‑स्थलों में गिरावट का खतरा बढ़ रहा है। इन प्रभावों से जुड़े विस्तृत और नियमित सरकारी आंकड़े फिलहाल सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि, स्थानीय रिपोर्टें, निरीक्षण टिप्पणियां और समुदायों के अनुभव इस बदलाव की गंभीरता को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं।
नदी का पानी पहले नहाने-धोने और छोटे बच्चों के पानी में खेलने के लिए सुरक्षित माना जाता था। लेकिन अब गाद और निर्माण-कचरे के बहाव के बाद यह भरोसा टूटता जा रहा है।
मछलियों की घटती संख्या: मछलियों की घटती संख्या के कारण मछुआरों की आय पर असर पड़ने लगा है। उन परिवारों के लिए जो पीढ़ियों से नदी पर निर्भर रहे हैं, अब न केवल आजीविका बल्कि उनकी पहचान भी छिन्न-भिन्न हो रही है।
नदी का पानी पहले नहाने-धोने और छोटे बच्चों के पानी में खेलने के लिए सुरक्षित माना जाता था। लेकिन अब गाद और निर्माण-कचरे के बहाव के बाद यह भरोसा टूटता जा रहा है। लोग अब नदी के पानी में प्रवेश करने या उसमें कपड़े धोने से पहले हिचकिचाते हैं।
खेती पर पड़ने वाला प्रभाव: खेती पर भी मिंटडू नदी के बदलते बहाव का असर साफ़ दिखाई देने लगा है। मिंटडू के पानी से सिंचित खेतों में सिंचाई का पैटर्न बदल गया है। नदी की बहाव क्षमता में कमी और सिल्ट भराव के असर से खेतों तक पानी सीधा नहीं पहुंच पाता है, जिससे फसल उत्पादकता में कमी आई है।
यह स्थिति पारंपरिक कृषि-आजीविका के अस्तित्व को भी चुनौती दे रही है। छोटे किसानों के लिए यह अनियमितता सीधे आर्थिक और जीवनोपयोगी संकट की तरह सामने आ रही है।
नदी से जुड़ी अन्य प्रभावित आजीविकाएं: नदी के घाट का उपयोग केवल मछली पकड़ने के लिए ही नहीं होता, बल्कि नदी से जुड़ी अन्य गतिविधियां भी स्थानीय व्यापार का हिस्सा हैं। इसमें नदी तट पर बने छोटे-बाजार, किराये पर मिलने वाले नाव और स्थानीय पर्यटन शामिल हैं।
नदी की पारदर्शिता और बहाव में आने वाले बदलाव के कारण पारंपरिक पर्यटन-आकर्षणों में भी कमी आई। इसके परिणामस्वरूप घाट पर नाव किराए पर देने वाले और चाय-दुकान चलाने वाले छोटे व्यापारियों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है।
स्थानीय पर्यटन विभाग नियमित आंकड़े जारी नहीं करता, लेकिन स्थानीय लोगों की प्रतिक्रियाएं और पर्यावरणीय निरीक्षण इस बात का संकेत देते हैं कि यह प्रभाव समय के साथ बढ़ रहा है।
नदी की पारदर्शिता और बहाव में आने वाले बदलाव के कारण पारंपरिक पर्यटन-आकर्षणों में भी कमी आई। इसके परिणामस्वरूप घाट पर नाव किराए पर देने वाले और चाय-दुकान चलाने वाले छोटे व्यापारियों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है।
नदी के पुनर्जीवन के लिए उठाए जा रहे कानूनी और प्रशासनिक कदम
लोगों की शिकायतों और स्थानीय निगरानी के बाद इससे जुड़े सभी मामले एनजीटी तक पहुंचे। एनजीटी ने निरीक्षण के आदेश जारी कर संयुक्त समिति बनाई और इसके मध्यम से ही निर्माण-एजेंसियों, पब्लिक वर्क्स विभाग तथा ठेकेदारों को साइट-बनेन और अवैध डंपिंग रोकने के निर्देश दिए हैं। मेघालय उच्च न्यायालय और राज्य सरकार ने भी खनन और डंपिंग पर रोक के निर्देश और निगरानी बढ़ाने का आश्वासन दिया है। साथ ही नदी से गाद हटाने (डी-सिल्टिंग) और तट-स्थिरीकरण के कार्यक्रम शुरू करने का रास्ता अपनाया गया है।
सरकार और पर्यावरण विभाग ने कुछ प्राथमिक कदम उठाए हैं। डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट बताती है कि नदी की डी-सिल्टिंग का काम शुरू हो चुका है और मार्च 2026 तक इसे पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। यह तात्कालिक बहाव बहाली के लिए जरूरी कदम है। लेकिन विशेषज्ञ और एनजीटी-समिति ने यह साफ कहा है कि केवल डी-सिल्टिंग से स्थायी सुधार नहीं होगा बल्कि स्रोत-स्तर पर ही निर्माण-डिजाइन, कचरा-प्रबंधन और स्थायी रोकथाम के उपाय अपनाने होंगे।
वैज्ञानिक चेतावनियां और संचालन के ख़तरे: विशेषज्ञों का मानना है कि यदि डी-सिल्टिंग पर्यावरण-संवेदनशील तरीके से नहीं की गई, तो नदी किनारे की जैविक तंत्र को नुकसान पहुंच सकता है। इससे वनस्पति और छोटे जलीय जीवों पर प्रतिकूल असर होगा।
साथ ही, यदि डम्पिंग-सोर्स पर नियमित रूप से कड़ी निगरानी और दंडात्मक कार्रवाई के उपाय नहीं अपनाए गए तो नदी में गाद का स्तर फिर से बढ़ने लगेगा। शोध बताते हैं कि मिंटडू जैसे पर्वतीय-नदियों में खनन, घरेलू अपशिष्ट और खतरनाक सीवेज-इनपुट दीर्घकालिक खतरा हैं। इसलिए बहु-आयामी रणनीति को सर्वोत्तम माना जाता है, जिसमें स्रोत-नियंत्रण, चैनल बहाली और सामुदायिक प्रबंधन तीनों शामिल हों।
स्थानीय समुदाय की भागीदारी
स्थानीय समुदाय और खूइद या का वाह म्यंतडू (केवाईएम) जैसे नागरिक संगठन जोवाई बाइपास परियोजना के तहत सड़क निर्माण के खिलाफ विरोध दर्ज कर चुके हैं। समूह के संस्थापक और नेताओं ने 2021 में मीडिया के माध्यम से यह आरोप लगाया कि निर्माण कंपनी ने “सरकार के आदेशों का उल्लंघन करते हुए मलबा और मिट्टी नदी में बहने दी है। इससे नदी की जैविक सेहत और पीने के पानी के स्रोत प्रभावित हो रहे हैं।”
हाईलैंड पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, जोवाई के निवासी और केवाईएम ने मिलकर नदी-सफाई और जागरूकता मुहिम में हिस्सा लिया। कई बिंदुओं पर उन्होंने ठेकेदारों द्वारा की गई अवैध कार्रवाई का फोटो/वीडियो रिकॉर्ड कर प्रशासन को सौंपा, जो बाद में आधिकारिक दायरियों में सबूत के रूप में उपयोग हुआ।
करीब एक साल पहले केवाईएम नेता एसके लाटो ने मीडिया के माध्यम से निवेदन करते हुए कहा, “राज्य सरकार से हमारा निवेदन है कि इस समस्या को तुरंत सुलझाया जाए और जैसा वादा किया गया था, वैसे ही नदी और नालियों को ठीक कर दिया जाए। दो साल हो चुके हैं, और हम अब और देरी नहीं कर सकते।”
स्थानीय समुदायों और संगठनों का तर्क है कि तट-रक्षण और पानी की सुरक्षा का दीर्घकालिक संचालन तभी टिकाऊ रहेगा जब स्थानीय लोग निर्णय-प्रक्रिया और रख-रखाव में औपचारिक रूप से हिस्सा लें और उसे अपनाएं।
राज्य सरकार से हमारा निवेदन है कि इस समस्या को तुरंत सुलझाया जाए और जैसा वादा किया गया था, वैसे ही नदी और नालियों को ठीक कर दिया जाए। दो साल हो चुके हैं, और हम अब और देरी नहीं कर सकते।
एसके लाटो, केवाईएम नेता, मेघालय
व्यावहारिक सुझाव और आगे की राह
स्रोत-नियंत्रण को अनिवार्य करना: निर्माण स्थलों पर निकलने वाले मलबे का सही हिसाब, सुरक्षित भंडारण और प्रमाणित निपटान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसके लिए एनजीटी के निर्देशों और स्थानीय पर्यावरणीय नियमों का सख़्ती से पालन ज़रूरी है।
वैज्ञानिक, चरणबद्ध डी-सिल्टिंग: रिवर-बेड यानी नदी-तट से गाद हटाने का काम वैज्ञानिक निगरानी के साथ, चरणबद्ध और न्यूनतम हस्तक्षेप वाले तरीकों से होना चाहिए जिसमें जल-गुणवत्ता और बायो-इंडिकेटर्स की मॉनिटरिंग की भी सुविधा हो।
स्थायी तट-स्थिरीकरण: बांस और नेटिव प्लांटिंग के साथ बायो-इंजीनियरिंग के तरीकों को अपनाया जा सकता है ताकि कटाव पर दीर्घकालिक नियंत्रण रहे।
निरीक्षण और पारदर्शी निगरानी: नियमित स्वतंत्र पर्यावरण ऑडिट और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध मॉनिटरिंग-डैशबोर्ड की व्यवस्था भी कारगर साबित हो सकती है।
सामुदायिक भागीदार और अधिकार: स्थानीय पंचायतों, मछुआरा समूहों और नागरिक निगरानी समितियों को आधिकारिक रूप से निगरानी का अधिकार दिया जाना चाहिए। साथ ही, ऐसा सरल अलर्ट सिस्टम हो जिसमें नदी में गाद बढ़ने, मलबा डालने या पानी के गंदा होने जैसी किसी भी समस्या की सूचना तुरंत संबंधित विभागों तक पहुंच सके और समय रहते कार्रवाई हो सके। परियोजना से जुड़ी योजनाओं, नीतियों और निगरानी में स्थानीय लोगों के अनुभव और ज्ञान को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि नदी को सबसे बेहतर वही समझते हैं।
मिंटडू नदी का संकट केवल गाद या प्रदूषण का मामला नहीं है, बल्कि उससे जुड़ी आजीविकाओं, स्थानीय अर्थव्यवस्था और सामुदायिक भरोसे का भी संकट है। स्थायी समाधान तभी संभव है जब स्रोत-स्तर पर सख़्त नियंत्रण, वैज्ञानिक नदी-प्रबंधन और पारदर्शी निगरानी को साथ-साथ लागू किया जाए। सबसे अहम यह कि स्थानीय समुदायों को निर्णय-प्रक्रिया और दीर्घकालिक रख-रखाव में औपचारिक भागीदार बनाया जाए, क्योंकि नदी का भविष्य अंततः उसी सहभागिता पर निर्भर करता है।

