सरस्वती की गहराई का अनुमान लगाने के लिए अनुसंधान केंद्रों का होगा निर्माण
सरस्वती की गहराई का अनुमान लगाने के लिए अनुसंधान केंद्रों का होगा निर्माण

सरस्वती की गहराई का अनुमान लगाने के लिए अनुसंधान केंद्रों का होगा निर्माण

हिमालय भूविज्ञान संस्थान भी उत्तरांचल के रूपण हिमनद से जो सरस्वती का उद्भव स्थान माना जाता है, उससे नमूने इकट्ठा करेगा। रूपण हिमनद को अब सरस्वती हिमनद भी कहा जाता है। इसरो की तीन सदस्यीय वैज्ञानिक टीम जो सरस्वती को जीवित करने का प्रयास कर रही है।
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इसरो जो वेद-पुराणों में वर्णित सरस्वती नदी का अध्ययन कर रहा है, वह पांच राज्यों हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में अपने शोध की संकलित रिपोर्ट बनाएगा। साथ ही देहरादून का वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान भी उत्तरांचल के रूपण हिमनद से जो सरस्वती का उद्भव स्थान माना जाता है, उससे नमूने इकट्ठा करेगा। रूपण हिमनद को अब सरस्वती हिमनद भी कहा जाता है। इसरो की तीन सदस्यीय वैज्ञानिक टीम जो सरस्वती को जीवित करने का प्रयास कर रही है, उन्होंने बुधवार को हरियाणा सरस्वती धरोहर विकास बोर्ड के अफसरों के साथ मिलकर आने वाले शोध कार्यों की योजना बनाई।

जोधपुर और बेंगलुरु से आए इसरो के वैज्ञानिक डा. जेआर शर्मा, डा. बीके भद्रा और डा. एके गुप्ता ने बोर्ड के उपाध्यक्ष धूमन सिंह किरमच से बातचीत में कहा कि पांच राज्यों में अब तक हुए शोध को संकलित करने का काम करना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि सरस्वती नदी के शोध को बढ़ावा देने के लिए इन पांच राज्यों में अनुसंधान केंद्र स्थापित किए जाएंगे। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड द्वारा सरस्वती नदी के किनारे वाले इलाकों में पीजीमीटर लगाए जाएंगे। इसके अलावा सरस्वती नदी के किनारे आदि बद्री, पंजाब में ड्रोन का उपयोग करके सर्वेक्षण किया जाएगा और हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के कुछ भागों में प्राचीन सरस्वती नदी और पुरातात्विक काल की नदी का विस्तृत अध्ययन किया जाएगा। बैठक में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से जुड़े देहरादून के वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डा. संतोष राय ने कहा कि ग्लेशियर से जहां से सरस्वती नदी का उद्भव हुआ है, वहां परीक्षण करना आवश्यक है। वाडिया संस्थान इस काम को करने को तैयार है

ब्रह्मपुराण, स्कन्द पुराण, शिवपुराण, भागवत पुराण आदि में सरस्वती तीस नदियों के रूप में अनेकधा अन्तर्कथाओं से विभूषित है। प्रयाग की सरस्वती तो सर्वाधिक चर्चित है जहां वे गंगा-यमुना के बीच से होकर दुर्ग के नीचे प्रवाहित होती हुई संगम स्थल में समाहित हो जाती है। पौराणिक संदर्भ में जब एक बार समृद्धिशाली उत्तर कौशल में सम्पूर्ण भारत के ऋषि-मुनियों का सम्मेलन हुआ तो उद्दालक मुनि के अनुष्ठान यज्ञ को सिद्ध करने के लिए सरस्वती जी प्रकट हुईं। वहां मनोरमा के नाम से पुकारी गई तथा सरयू नदी में समाहित हो गईं।

कहा जाता है कि जब ब्रह्माजी ने पुष्कर में महान यज्ञ किया तो ऋषियों की प्रार्थना पर ब्रह्मपत्नी सरस्वती नदी के रूप में प्रकट हुई। वहीं पर अत्यन्त प्रभायुक्त देह धारण करने से उन्हें सुप्रभा के नाम से संबोधित किया गया। एक अन्य कथा के अनुसार जब नैमिषरण्य में अट्ठासी सहस्त्र ऋषि-मुनियों द्वारा पुराणों की चित्र-विचित्र कथा वार्ता व मनन-चिंतन किया जा रहा था। तब उनके ध्यान करने पर उनकी सहायता करने के लिए सरस्वती प्रकट हुई। तब उन्हें कांचनाक्षी नाम दिया गया था। उस स्थल से कुछ दूर प्रवाहित होती हुई वे गोमती नदी में विलीन हो गई हैं। वहीं पर उनके प्रभाव से चक्रतीर्थ का उदय हुआ है। गया के ब्रह्मयोनि पर्वत के पास एक कुंड बनाती हुई सरस्वती फाल्गु नदी में जा मिलती है। इसके लिए पुराणों के गया माहात्मय में महाराज गया के महान यज्ञ के अनुष्ठान का वर्णन है। आज भी गया में अस्थियां प्रवाहित करना सद्गति का प्रतीक माना जाता है। गया से तीन किलोमीटर दूर पक्की सड़क से दो किलोमीटर पर सरस्वती नदी है जिसके तट पर सरस्वती देवी का मंदिर भी है।

इसी प्रकार कुरुक्षेत्र में महात्मा कुरु के रूप में सरस्वती को प्रकट होना पड़ा था जहां वे सुरेणु के नाम से प्रवाहित हुई और कलकल बहती हुई दृषाद्वती नदी में मिल गई। कुरुक्षेत्र के पास ही पृथुदक तीर्थ स्थली है जहां महाराज पृथु ने महान तप किया था। यहीं विश्वमित्र ने ब्रह्मणत्व प्राप्त किया था। सरस्वती नदी यहां भी प्रवाहित हुई। उनके तट पर ब्रह्मयोनि, अवकीर्ण तीर्थ, वृहस्पति तीर्थ और ययाति तीर्थ स्थापित हुए। महाराज ययाति ने सरस्वती की कृपा हेतु ययाति तीर्थ पर एक सौ यज्ञ किए थे और राजा की मनोभावना के अनुसार सरस्वती नदी के दुग्ध, घृत और मधु को प्रवाहित किया था। सरस्वती नदी पर यहां पक्के घाट हैं तथा परशुराम, विश्वामित्र एवं वशिष्ठ के आश्रम हैं। सूर्य तीर्थ, शुक्र तीर्थ, फाल्गु तीर्थ तथा सोम तीर्थ से अवस्थित इस क्षेत्र को सरस्वती ओधवती के नाम से जाना जाता है।

पौराणिक गाथाओं के अनुसार हिमालय पर ब्रह्मजी ने महान यज्ञ किया तो सरस्वती देवी विमलोद के नाम से प्रकट हुईं। भागवत में उन्हें प्राची सरस्वती भी कहते हैं। सुप्रभा, कांचनाक्षी, विशाला, मनोरमा, ओघवती, सुरेणु तथा विमलोद कुल सातों सरस्वती देवियों के यहां एकत्र होने से इसे ‘सप्त सारस्वत’ की उपाधि से मंडित किया गया है।

मंकणक, देवल, जैगीषव्य, दधीचि आदि के आश्रमों से युक्त सरस्वती नदी की महिमा के पौराणिक संदर्भ सुनकर इस की पावनता के प्रति श्रद्धा से नयन झुक जाते हैं। दधीचि ऋषि से सरस्वती नदी के एक पुत्र भी हुआ था, जिसका नाम सारस्वत है। सारस्वत वंश से उत्पन्न पंजाब के ब्राह्मणों की एक शाखा आज भी सारस्वत ब्राह्मण कही जाती हैं। वशिष्ठ मुनि तथा नंदिनी गाय से जुड़ी गाथा के अनुसार नंदिनी को खड्ड से निकालकर सरस्वती सिद्धपुर में प्रवाहित होती है।

यदि वरियता के क्रम में देखा जाए तो सर्वप्रथम ऋग्वेद में सरस्वती पवित्र नदी और क्रमशः नदी देवता तथा वाग्देवता के रूप में वर्णित हुई है। यह भी कहा जाता है कि सरस्वती नदी मूलतः सतलुज नदी की एक सहायक नदी रही है। और जब सतलुज अपना मार्ग बदल कर विपाशा अर्थात व्यास में जा मिली तब भी सरस्वती उसके पुराने पेटे में बहती रही।

वैदिक ज्ञान और कर्मकांड के लिए प्रसिद्ध ब्रह्मवर्त, सरस्वती और दृषाद्वती के मध्य स्थित है। सरस्वती के बारे में मान्यता है कि राजस्थान से यह धरती के भीतर बहती हुई प्रयागराज में गंगा यमुना के संगम में जा मिलती है अतः प्रयाग को त्रिवेणी कहा जाता है।

कुरुक्षेत्र के समीप एक क्षीण धारा को सरस्वती की ही धारा बता कर इसे पंजाब की प्राचीन नदी बताया गया है। महाभारत कथा में वर्णन है कि उत्तम ऋषि के शाप से सरस्वती का जल सूख गया था। स्कन्द पुराण में भी उल्लेख है कि मार्कण्डेय ऋषि ने इसे 12 भाद्रपद शुक्ला को धर्मारण्य के अन्तर्गत द्वारिका तीर्थ में उतारा था। सरस्वती स्वर्ग और मोक्ष का एक मात्र हेतु है। हालांकि काल के प्रकार में सरस्वती के अवशेष तक दृष्टव्य नहीं है फिर सरस्वती नदी को कोरी पौराणिक कल्पना नहीं कहा जा सकता। सप्त सरिताओं में इसका उल्लेख है और सन् 1947 से पूर्व यह भारत की सीमा में ही थी और अब सिन्धु के रूप में पाकिस्तान के भूभाग में विद्यमान है।

भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय द्वारा नौ दिसंबर, 1966 को स्वीकृत एवं मुद्रित मानचित्र पत्र संख्या 5320/एसओआई/डी जीए 111 के अनुसार, सिरमौर जिला मुख्यालय की नाहन तहसील से 17 किलोमीटर दूर नाहन-देहरादून राष्ट्रीय उच्च मार्ग-72 पर बोहलियों के समीप स्थित मार्कंडेय आश्रम को भारतीय वैदिक सभ्यता की जननी सरस्वती नदी की उद्गम स्थली होने का गौरव प्राप्त है। हालांकि हरियाणा ऐसा नहीं मानता। तमाम तथ्यों और प्रमाणों के बावजूद वह सरस्वती नदी का उद्गम यमुनानगर जिले की काठगढ़ ग्राम पंचायत में आदिबद्री में होने का दावा करता है। इसरो, नासा तथा भारतीय वैज्ञानिकों के अब तक के अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो चुका है कि सरस्वती नदी कोई कल्पित नदी नहीं थी, बल्कि यह वास्तव में भारतीय भूमि पर बहती थी।

उपग्रहीय चित्रों एवं भू-गर्भीय सर्वेक्षणों से प्रमाणित हो चुका है कि लगभग 5,500 वर्ष पुरानी यह वैदिककालीन नदी हिमालय से निकलकर हरियाणा, राजस्थान एवं गुजरात में लगभग 1,600 किलोमीटर तक बहती हुई अरब सागर में विलीन हो जाती है। भारतीय सभ्यता का आधार सरस्वती नदी वैदिक सभ्यता के उद्गम, विकास और विलुप्त होने की गवाह रही है। दुर्भाग्यवश कालांतर में भू-गर्भीय परिवर्तनों के चलते सरस्वती की मुख्य सहायक नदी सतलुज ने पटियाला के दक्षिण में करीब 80 किलोमीटर दूर अपना बहाव 90 डिग्री बदलते हुए अपना रास्ता अलग कर लिया था। सरस्वती नदी के सूखने से इसके तट पर बसे लोगों ने विभिन्न दिशाओं का रुख किया। सिंधु घाटी सभ्यता को भारत की प्राचीन सभ्यता बताने वाले अंग्रेजी हुक्मरानों ने ऐतिहासिक तथ्यों से जो छेड़छाड़ की, उसका खामियाजा हम आज भी भुगत रहे हैं।

ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थलों की खुदाई से साबित हो चुका है कि सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर जिले की काठगढ़ ग्राम पंचायत में आदिबद्री स्थान पर पहाड़ों से मैदानों में प्रवेश करती है। जबकि ऋग्वेद, स्कंद पुराण, गरुड़ पुराण, वामन पुराण, पद्म पुराण आदि शास्त्रों में दी गई व्याख्या के आधार पर स्पष्ट है कि इस नदी उद्गम स्थल वर्तमान हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले की नाहन तहसील के गांव जोगी वन ऋषि मार्कंडेय धाम ही है।

यहां निकलने वाला जल गंगाजल की तरह शुद्ध है और कभी खराब नहीं होता। पुराणों में वर्णित है कि जहां मार्कंडेय मुनि ने तपस्या की, वहां सरस्वती नदी गूलर में प्रकट होकर आई। मार्कंडेय मुनि ने सरस्वती का पूजन किया। उनके समीप जो तालाब था, उसे अपने जल से भरकर सरस्वती पश्चिम दिशा की ओर चली गई। उसके बाद राजा कुरू ने उस क्षेत्र को हल से जोता, जिसका विस्तार पांच योजन का था। तब से यह स्थान दया, सत्य, क्षमा, आदि गुणों का स्थल माना जाता है। इसी स्थल पर मार्कंडेय को अमरत्व प्राप्त हुआ था। यहां गूलर के पेड़ों के बीच पानी की धार फूट पड़ी और महर्षि उसमें समा गए। मार्कंडेय द्वारा ग्रथों में वर्णित अपनी साधना के दौरान रमाई गई धूनी की सत्यता का अंदाजा यहां स्थान-स्थान पर मिलने वाली राख एवं कोयलों से लगाया जा सकता है। अगर इस स्थान की खोई महत्ता वापस दिलवाई जा सके, तो हिमाचल प्रदेश का धार्मिक महत्व हरिद्वार, ऋषिकेश और नासिक की तरह होगा। साथ ही, प्राकृतिक सुषमा से भरपूर यह राज्य तीर्थाटन के मानचित्र पर भी चमक उठेगा। लेकिन अपनी धरोहरों के प्रति हमारे यहां जिस तरह की उदासीनता है, उसे देखते हुए बहुत उम्मीद नहीं है।

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