कबरताल पर किसका हक: जातिगत रसूख तले सिमट रही है बिहार की कांवर झील
फ़रवरी 2022 में मैं राम सहानी से मिला। उम्र के छठवें दशक में पांव रख चुके राम बिहार के बेगूसराय ज़िले में कबरताल झील के किनारे चटखती हुई ज़मीन पर बैठे बांस के जाल को ठीक कर रहे थे। रंग उड़ी धोती पहने वे झील को देखते रहे, फिर बोले. “जो कुछ तुम्हें पानी के भीतर दिखता है, उस पर हम मछुआरों का हक है। जो सूखा है, वो किसानों का है। हमारे पुरखों ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी और पानी का अधिकार पाया। अब किसान नहर बनाकर झील को सुखाए जा रहे हैं। जब पानी नहीं होगा, तो झील और उसके संसाधनाों पर हमारा कोई हक नहीं बचेगा। किसान इस पर हल चलाएंगे, हमें भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। हमारी ज़िंदगी उनकी मेहरबानी पर चलेगी।”
राम साहनी के शब्द कबरताल के सूखने के पीछे की हकीकत की परतें उधेड़ कर रख देते हैं।
कबरताल को बचाना क्यों ज़रूरी है?
बिहार में सतही जल स्रोतों का जाल काफ़ी घना है। गंगा, कोसी, गंडक और सोन जैसी बड़ी नदियों और उनकी सहायक नदियां यहां बहुत से चौर (बाढ़ के मैदान) और मौन (गोखुर झील) बनाती हैं। बाढ़ के मैदान उस समतल ज़मीन को कहा जाता है, जो नदी में बाढ़ आने पर अकसर पानी में डूब जाता है। जबकि, गोखुर झील वह जल स्रोत होता है, जो नदी की धारा में बदलाव आने पर बनता है।
ये जल प्रणालियां भारी बाढ़ और सूखे के दौरान संतुलन बिठाने का काम करती हैं। बाढ़ के समय जहां नदी का अतिरिक्त पानी झील में जाकर आस-पास के इलाकों को डूबने से बचाता है, वहीं सूखे के समय ये झीलें पानी की ज़रूरत को पूरा करती हैं।
कबरताल एक ऐसी ही गोखुर झील है जो बूढ़ी गंडक नदी का रास्ता बदलने से बनी है। राजधानी पटना से करीब 145 तिमी दूर इस झील को कंवर झील भी कहा जता है। साल 1989 में इसे पक्षी विहार घोषित किया गया था और तब इसका क्षेत्रफल 6,786 हेक्टेयर था। साल 2020 में इसे रामसर स्थल का दर्ज़ा दिया गया।
रामसर स्थल का दर्ज़ा 1971 के रामसर सम्मेलन के मुताबिक उन प्राकृतिक और लगभग-प्राकृितक आद्रभूमियों को दिया जाता है जो संवेदनशील, संकटग्रस्त या अति संकटग्रस्त प्रजातियों या संकटग्रस्त पारिस्थितिक समुदायों को सहारा देती हों। कन्वेंशन के मुताबिक रामसर स्थल तय करने की शर्तें यहां दी गई हैं।
रामसर दस्तावेज के मुताबिक, बेगूसराय शहर से 21 किमी की दूरी पर मौजूद कबरताल बूढ़ी गंडक नदी और बागमती नदी की छोड़ दी गई धारा के बीच की निचली ज़मीन पर मौजूद कई उथली आद्रभूमियों में से सबसे बड़ी आद्रभूमि है। इनमें से कुछ आद्रभूमियां साल भर पानी में डूबी रहती हैं, जबकि बाकी में कुछ ही महीने पानी होता है।
बूढ़ी गंडक के बाढ़ (50 के दशक तक यहां कोसी का पानी भी आता था) के पानी के साथ आया पानी, गाद, और जलीय जीवों की प्रजातियां इस झील को मछुआरों और किसानों की आजीविका के लिए बहुत महत्वपूर्ण बना देती हैं। आसपास के करीब 17 गांवों के 15,000 परिवार इस झील पर निर्भर हैं।
बारिश और गंडक के पानी को जगह देकर कबराताल इलके की हाइड्रोग्राफ़ी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे आसपास के इलाके बाढ़ के खतरे से बच जाते हैं और भूजल का पुनर्भरण भी होता रहता है। सर्दियों में यह आर्द्रभूमि जल पक्षियों से भर जाती है। यह उत्तर बिहार में इन पक्षियों के इकट्ठा होने की सबसे खास जगहों में से एक है, खासकर प्रवासी बतखों और कोट पक्षियों के मामले में। यहां 200 से ज़्यादा पक्षियों की प्रजातियां दर्ज़ की गई हैं, जिमें से 58 प्रजातियां प्रवासी जल पक्षियों की हैं।
पक्षियों के अलावा यहां दर्ज़ की गई जैव विविधता में 165 पौधों की प्रजातियां हैं, जिनमें 44 फायटोप्लैंक्टॉन हैं, 46 मैकरोफाइट हैं और कई टुकड़ों में, ज़मीन पर उगने वाली 75 प्रजातियां मौजूद हैं। करीब 394 से ज़्यादा जंतु प्रजातियों में 70 ज़ूप्लैंक्टॉन, 39 कीट, 35 मछलियां, 17 मॉलस्क, 7 उभयचर, 5 सरीसृप और 221 पक्षियों की प्रजातियां हैं। इनमें से कई प्रजातियां संवेदनशील, दुर्लभ और संकटग्रस्त हैं।
सर्दियों में यहां पक्षी प्रेमियों और शोधार्थियों का हुजूम इकट्ठा होता है। कैमरे तस्वीरें उतारते हैं, पक्षीयों की सूची में बदलाव होते हैं, वैज्ञानिक पेपर लिखे जाते हैं और संरक्षण योजनाएं बनती हैं। पर जहां टेक्नोक्रेट इलाकों को नाप रहे होते हैं और अधिकारी रिपोर्ट बना रहे होते हैं, वहीं ज़मीन, पानी और अधिकार की एक जंग कबरताल के स्थानीय निवासियों में चुपचाप चल रही होती है।
खत्म होता कबरताल यहां एक पारिस्थितिकीय संकट नहीं रह जाता, यह जंग के नतीजों की बानगी भर रह जाता है। जंग, जो तय करती है कि आद्रभूमि पर किसका हक है और किसे इसके भविष्य से मिटा दिया जाने वाला है।
जातिगत समीकरणों में फंसकर सूख रहा है कबरताल
फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के दो शोधार्थियों के पेपर के मुताबिक साल 1984 में कबरताल करीब 6,786 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला था। साल 2004 में यह सिकुड़कर 6,044 हेक्टेयर रह गया, जबकि साल 2012 में इसका क्षेत्रफल महज़ 2,032 बचा था।
पिछले तीन दशकों में खेती की आधुनिक तकनीकों के कारण भी ताल में गाद और जलकुंभी जैसी आक्रामक प्रजातियां बढ़ी हैं। मौसम में बदलाव के साथ जब हर साल आद्रभूमि का कुछ हिस्सा प्राकृतिक रूप से सूखता है, तब रसूखदार भूस्वामी उस ज़मीन पर कब्ज़ा कर वहां खेती करने लगते हैं।
इस अवैध कब्ज़े के कारण आद्रभूमि का प्राकृतिक क्षेत्रफल लगातार कम हो रहा है। बरसात में जो ज़मीन वापस पानी से भर जाती थी वह झील से छीन ली जा रही है। हाल के सालों में छोटी नहरें बनाकर झील के पानी को जबरन सुखाया जा रहा है। इन भूस्वामियों के मुताबिक खेती को बढ़ाने के लिए यह ज़रूरी कदम है।
आद्रभूमि एक सार्वजनिक संसाधन है, जिसमें मछली पकड़ने का अधिकार मछुआरा समुदायों के पास है। पर असल में इसका नियंत्रण भूमिहार और ब्राह्मण जैसी जातियों के रसूखदार भूस्वामियों के पास है, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से खेतिहर कुलीनों का दर्ज़ा मिला हुआ है। बांध और खाइयां बनाकर, नहरें खोदकर उन्होंने कबरताल को सुखाने का बंदोबस्त कर लिया है। जो हिस्सा सूखता है, उसे धान और गन्ने के खेतों में बदल दिया जाता है।
इन भूस्वामियों के लिए झीलों का संरक्षण एक साज़िश है।
झील का संरक्षण रूसी प्रवासी पक्षियों को बचाने के लिए रूसियों और इंदिरा गांधी की मिली-जुली साज़िश थी। बिहार के विकास का एक ही तरीका है, ऐसी झीलों को सुखाकर पंजाब और हरियाणा की तरह आधुनिक तरीकों से खेती की जाए।
मंझौल का एक ब्राह्मण भूस्वामी
विकास के इस स्वार्थी, क्रूर और अदूरदर्शी नज़रिए में मंझोले किसान भी इन भूस्वामियों का साथ देते हैं। इनके पास या तो ज़मीन के छोटे टुकड़े हैं या फिर ये बड़े भूस्वामियों की ज़मीन को बंटाई पर लेकर खेती करते हैं। बदले में इन्हें कमाई का थोड़ा सा हिस्सा मिलता है।
इस पूरे बंदरबांट में जिसके हिस्से कुछ नहीं आता वह है मुसहर समुदाय। झील में पानी रहे या न रहे यह महादलित समुदाय अनदेखा रह जाता है। जाति व्यवस्था में अछूत माने जाने वाले इस समुदाय का आद्रभूमि पर कभी कोई हक नगीं रहा। आद्रभूमि से इनका रिश्ता शोषण आधारित व्यवस्था का हिस्सा है। इन्हें झील के पानी का इस्तेमाल करने या मछली पकड़ने का हक कभी नहीं मिला।
इसके उलट, ये दिहाड़ी मज़दूर की तरह काम करते हैं, जिसके बदले में इन्हें कुछ किलो अनाज या बचा हुआ भूसा मिल जाता है। इसके अलावा, भूस्वामियों की दया से कभी-कभी इन्हें सूखती आद्रभूमि पर झोंपड़ियां बनाने की इजाज़त दे दी जाती है। ज़मीन, जीवन और गरिमा का इनका अधिकार मौजूदा जाति व्यवस्था में कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे इनका भविष्य स्थाई रूप से हाशिये पर धकेल दिया गया हो।
दूसरी ओर, साहनी (मछुआरा उपजाति) समुदाय मानता है कि उनके अधिकार छीना जा रहा है। अगर पानी नहीं रहेगा, तो इस संसाधन पर उनका कोई हक नहीं रहेगा। यह उन कुछ समुदायों में से हैं जिनके पास पारंपरिक रूप से पारिस्थितिकी का ज्ञान और झील से रिश्ता रहा है। हालांकि, पारिस्थितिकी पर सबसे कम असर डालने वाली उनकी मछली पकड़ने की परंपराएं, मछलियों के प्रजनन के मौसम का पारंपरिक प्रबंधन और आद्रभूमि के संरक्षक की उनकी भूमिका को शायद ही कभी संरक्षण कार्य के एक हिस्से के तौर पर स्वीकार किया जाता है।
बातचीत के दौरान एक मछुआरे ने इसे सबसे सही शब्दों में कहा था, “अगर पानी खत्म हो जाएगा, तो हमारी रोज़ी तो खत्म होगी ही, झील से हमारा रिश्ता भी खत्म हो जाएगा।”
जैसे-जैसे आद्रभूमि सिकुड़ रही है, समुदायों के सहजीवन की जगह भी उसी अनुपात में कम हो रही है। मछुआरे अब कम मछली पकड़ पाते हैं। जीवन यापन के लिए उन्हें दूसरे काम करने पड़ते हैं। या तो वे शहर जाकर मज़दूरी करते हैं या आसपास के इलाके में मज़दूरी के लिए, पहले से ही वंचित दलित समुदायों से मुकाबला करते हैं। रसूखदार जातियां उन खेतों को जोतती जाती हैं, जो कभी उनके थे ही नहीं। एक सामुदायिक पारिस्थितिकी तंत्र निजी ज़मीनों के टुकड़ों में
कैसे खत्म हो रही है झील की पारिस्थितिकी
खेती से निकले रसायनिक उर्वरक जब झील में जाते हैं, तो पहले से ही सिमट रही झील को पर दबाव और बढ़ जाता है। हर साल खेतों की मिट्टी और रसायन कबरताल में मिलते हैं और इसका दम और घुटने लगता है। झील में बढ़ रही जलकुंभी इन रसायनों की मदद से और फल-फूल उठती है।
प्रशासन कई बार झील से सिल्ट और जलकुंभी निकालने का काम करता भी है, पर यह एक तो बहुत खर्चीला है और दूसरे यह अस्थाई समाधान है। असली समस्या पर प्रशासन कोई कदम नहीं उठाता क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे रसूखदार समुदायों का सामना करना पड़ेगा। असली समस्या है, झील के किनारों पर मशीनों से होती जुताई, रसायनिक उर्वरकों का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और नहरों की खुदाई।
कबरताल के प्रबंधन की योजनाएं सबसे साफ दिखते सच पर आखें मूंद लेती हैं। सच यह है कि जाति तय करती है कि कबरताल पर किसका कब्ज़ा होगा और इस नाजायज़ कब्ज़े का नतीजा है कबरताल की पारिस्थितिक त्रासदी। यह आद्रभूमि जलवायु परिवर्तन या ध्यान न देने के कारण खत्म नहीं हो रही है, इसे खत्म करने के लिए ढांचागत हिंसा, सामाजिक बलप्रयोग और कानूनी अस्पष्टता का इस्तेमाल किया गया है।
ताकत के इस खेल को नज़रअंदाज़ करके ये योजनाएं एक राजनीतिक समस्या का तकनीकी-पारिस्थितिक समाधान देती हैं और दोनों ही मसलों पर बेअसर हो जाती हैं।
कबरताल, जातिगत प्रभुत्व, सामुदायिक संसाधन पर हक की लड़ाई और चुप करा दिए गए इतिहास के कारण हो रहे पर्यावरण के नुकसान का स्पष्ट उदाहरण है। यह बिहार के उस उलझे हुए सामाजिक भूगोल का आईना बन जाता है जहां पानी का सवाल सत्ता के सवाल से अलग नहीं किया जा सकता। कबरताल को बचाने का मतलब है उस वर्ग का सामना करना जो ज़मीन, पानी और वैधता तक पहुंच को अवैध तरीके से नियंत्रित करता है।
संरक्षण पूरे समाज की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। और भारतीय समाज जातियों में बंटा हुआ है। हकीकत से नज़र चुराने से वह बदल नहीं जाती। इससे व्यवस्था महज़ और ज़्यादा अन्यायपूर्ण होती जाती है। सवाल असल में यह नहीं है कि कबरताल को बचाया जाए या नहीं है, सवाल है कैसे।
सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि भूमि सुधारों या आर्थिक नीतियों की तरह संरक्षण का काम भी तटस्थ नहीं है। यहां कुछ लोग फ़ायदे में होते हैं, कुछ नुकसान में। संरक्षण से फ़ायदे और नुकसान में आने वालों के मसले पर जब तक काम नहीं होगा, तब तक उन्हीं असमानताओं को और गहरा करने का खतरा बना रहेगा जिनके कारण कबरताल का यह हाल हुआ है।