जल-जीवन योजनाओं में भूजल संरक्षण की जरूरत है
जल-जीवन योजनाओं में भूजल संरक्षण की जरूरत है

संदर्भ जलजीवन मिशन : जरूरी है गांवों में पेयजल की आपूर्ति हेतु वैकल्पिक और टिकाऊ जल-संसाधनों की तलाश (भाग 1)

किसी भी देश की वृद्धि और विकास के लिए प्रभावी जल प्रबंधन बहुत आवश्यक है, इसलिए जल-संचयन और भंडारण पर अधिक गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।  - गजेन्द्र सिंह मधुसूदन
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जल एक मूल्यवान प्राकृतिक संसाधन है, जो पृथ्वी की जीवनशक्ति, विकास की पोषणीयता, पर्यावरण की धारणीयता और पृथ्वी पर जीवन का पर्याय है। जीवन, आजीविका, खाद्य सुरक्षा और विकास की निरंतरता के लिए जल एक पूर्वापेक्षा है। यह सभी सजीवों की उत्तरजीविका का अनिवार्य अवयव है। दूर अतीत से आज तक हमारे विकास की कहानी पानी के दम से प्रगतिशील हुई है। सभी महान सभ्यताएं जल स्रोतों के निकट ही पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। आज भी मानव समाज की संस्कृतियां और आजीविकाएं जल पर आधारित हैं, जो वर्तमान में बढ़ते जल संकट के कारण तेजी से संकटासन्न हो रही हैं, क्योंकि एक तो मनुष्य की प्रकृति पर हावी होने की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के कारण प्रकृति अनियंत्रित हो रही है, जैसे भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन,  जिसने मौसम के साथ धरती पर हमारे जीवनयापन के तरीके को दुष्प्रभावित किया है। दूसरा, बढ़ती आबादी और विकास के बढ़ते भौतिकीकरण से पृथ्वी की पोषणीयता घट रही है और इसी अनुपात में जल संसाधनों का भी क्षरण हो रहा है। इस तरह वर्तमान में बढ़ते जल संकट की स्थिति के लिए मानव किसी न किसी स्तर पर स्वयं जिम्मेदार है। दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी और 15 प्रतिशत पशुधन का भरण-पोषण करने वाले भारत में विश्व के कुल उपयोगी जल संसाधनों का केवल 4 प्रतिशत उपलब्ध है, जिसके चलते भारत दुनिया का सर्वाधिक जल मांग वाला देश बन रहा है। 

जल संसाधनों की उपलब्धता में स्थिरता और आबादी में तेजी से हो रही वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता लगातार घट रही है। देश में उपलब्ध कुल धरातलीय और भौम जल संसाधनों की आकलित मात्रा 1869 घन किमी. है, जिसमें 690 घन किमी. धरातलीय या सतही जल और 432 घन किमी, भौम जल उपयोग करने योग्य है। इस तरह देश में उपलब्ध कुल जल संसाधनों के केवल 60 प्रतिशत यानी 1122 घन किमी. जल का लाभदायक उपयोग किया जा सकता है। जबकि देश में जल की मांग और खपत लगातार बढ़ रही है। देश में जल प्रयोग के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली जल की कुल खपत वर्ष 1990 में 552, वर्ष 2000 में 750 और 2010 में 954 घन किमी. थी, अब यह बढ़कर 1050 घन किमी. हो गई है. जो वर्ष 2025 तक बढ़कर 1164 घन किमी. हो जाएगी। देश की मौजूदा कुल जल खपत 1050 घन किमी. में से 76 प्रतिशत कृषि कार्यों में, 10 प्रतिशत उद्योगों में, 7 प्रतिशत ऊर्जा में, 5 प्रतिशत घरेलू और 2 प्रतिशत अन्य कार्यों में प्रयोग हो रहा है। इस प्रोफाइल से स्पष्ट है कि देश में कृषि क्षेत्र में सिंचाई कार्यों के लिए जल का सर्वाधिक उपयोग होता है। वर्ष 1950 में कुल सिंचित भूमि क्षेत्र 2.3 करोड़ हेक्टेयर था, जिसमें साढ़े छह दशकों में 3 गुना से अधिक वृद्धि हुई है। जबकि उद्योग, ऊर्जा और घरेलू क्षेत्र में जल की खपत लगातार बढ़ रही है। पिछले एक दशक में औद्योगिक और ऊर्जा क्षेत्र के लिए जल की खपत में दो गुना की वृद्धि हुई है, क्योंकि उद्योगों में वृद्धि के साथ विकास की आवश्यकताओं और शहरीकरण में लगातार वृद्धि हो रही है। ऐसे में जल की बढ़ती खपत को पूरा कर पाना एक बडी चुनौती है, जिसका सर्वाधिक दबाव पेयजल आपूर्ति पर पड़ेगा।

दुनिया के 30 देशों में जल संकट एक बड़ी समस्या बन चुकी है और अगले एक दशक में वैश्विक आबादी के करीब दो-तिहाई हिस्से को जल की अत्यधिक कमी का सामना करना पड़ेगा। भारत में भी जल संकट अब वास्तविकता बन चुका है। वर्ष 1947 के मुकाबले देश में अब तक 35 प्रतिशत पानी समाप्त हो चुका है। पिछले 70 वर्षों में देश में पानी की उपलब्धता एक-तिहाई से कम रह गई है। देश में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता, जो वर्ष 1947 में 5150 घन मीटर थी, वह घटकर वर्ष 2001 में 1902 और 2011 में 1545 घन मीटर रह गई और इसके घटकर वर्ष 2025 में 1401 घन मीटर व 2050 में 1100 घन मीटर रहने का अनुमान है। जल संरक्षण के उचित तरीकों के अभाव और अमितव्ययी प्रवृत्ति के चलते हम लगातार भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं, जिसके कारण भूजल स्तर प्रति वर्ष एक फीट की गति से नीचे जा रहा है। भूजल के अनियंत्रित दोहन के कारण देश के 5800 में से करीब 890 ब्लॉक डार्क जोन में आ चुके हैं, जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। अब जल संकट की स्थिति से देश का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं है। कई शहरों में टैंकर ही जलापूर्ति के एकमात्र साधन बन चुके हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जल संकट विकराल त्तमस्या का रूप धारण कर चुका है। यहां अधिकांश महिलाएं अपना अधिकांश समय और श्रम घर की जल व्यवस्था में लगाती हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारतीय परिवारों का पांचवां हिस्सा और करीब 3.8 करोड़ महिलाएं आधा किलोमीटर से ज्यादा दूर से पीने का पानी लाती हैं। आज भी देश के 2.17 लाख ग्रामीण घरों की पहुंच शुद्ध पेयजल से दूर है। जल के अंधाधुंध दोहन से ज़मीन के नीचे के भंडार तो खाली हो ही रहे हैं, नदियां भी वर्षा के कुछ माह बाद ही सूख जाती हैं और कई तो समाप्त होने के कगार पर हैं। जबकि इन पर आबादी की निर्भरता उत्तरोतर बढ़ रही है, जैसे अकेले 1565 मील लंबी गंगा नदी से देश के 40 करोड़ लोगों का भविष्य जुड़ा है। देश में गर्मी के मौसम में बहुत से कुओं के सूख जाने के कारण भूजल स्तर में तीव्र गिरावट से पेयजल की समस्या और अधिक बढ़ रही है। ऐसे में यह समय की अपरिहार्य मांग है कि जलापूर्ति के वैकल्पिक जल संसाधनों की यथाशीघ्र तलाश और उनका यथोचित प्रबंधन किया जाए। 

जलजीवन मिशन में पेयजल की आपूर्ति हेतु वैकल्पिक जल संसाधन

1 - वर्षाजल का संचयनः 

भारत में वार्षिक वर्षा का औसत 116 सेंटीमीटर है जिसमें 75 प्रतिशत दक्षिणी-पश्चिमी मानसून (जून से सितंबर), 13 प्रतिशत उत्तरी-पूर्वी मानसून (अक्टूबर से दिसंबर), 10 प्रतिशत मानसून पूर्व स्थानीय चक्रवातों द्वारा (अप्रैल से मई) तथा 2 प्रतिशत पश्चिमी विक्षोभ (दिसंबर से फरवरी) से होती है। इस तरह यद्यपि वार्षिक वर्षा और वर्षा की मात्रा देश में एक समान नहीं है, लेकिन वर्षाजल का संचय एक सर्वसुलभ साधन है, क्योंकि देश को हर साल वार्षिक वर्षा और वर्षाजनित स्रोतों से औसतन 4000 घन किमी. जल प्राप्त होता है, जो देश के कुल जल संसाधन 1869 घन किमी. के दो गुना से अधिक है। इसके बावजूद देश के किसी न किसी क्षेत्र में सूखे की स्थिति बनी रहती है। इसलिए मौजूदा जल संकट को दूर करने के लिए वर्षाजल संचयन ही एकमात्र सार्वभौमिक विकल्प है। यदि छतों से गिरने और सड़कों पर बहने वाले वर्षाजल का कृत्रिम पुनर्भरण किया जाए, परंपरागत जल स्रोतों का जीर्णोद्धार और छोटे भूमिगत बांधों का निर्माण कर वर्षाजल संचित किया जाए तो जल संकट की समस्या का बेहतर समाधान किया जा सकता है, क्योंकि वर्षाजल संचयन से भूजल पर निर्भरता में कमी के अलावा जल क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के साथ उच्च गुणवत्ता का जल प्राप्त होता है। इससे न्यूनतम लागत पर जलापूर्ति के साथ सभी को समुचित मात्रा में जल उपलब्ध होता है।

यदि अनेक स्रोतों से प्राप्त वर्षाजल को उत्पादक कार्यों और पोषणीयता के लिए उपयोग हेतु एकत्र किया जाए तो जल-संचयन की इस प्रक्रिया को वर्षाजल संग्रहण कहा जाता है। जल-संग्रहण क्षेत्र खुली छत, छज्जा, आंगन, लॉन या खुले मैदान का उभरा क्षेत्र हो सकता है। आरसीसी शीटों का उपयोग भी वर्षाजल संग्रहण के लिए किया जा सकता है। यदि भवनों की कठोर एवं पानी न सोखने वाली छतें हैं तो इनका जलभरण क्षेत्र निःशुल्क रूप से उपलब्ध रहता है और जल के उपयोग की आवश्यकता वाले क्षेत्रों में वर्षाजल एकत्रित किया जा सकता है। कच्चे और पक्के भू-क्षेत्रों, खुले मैदानों, पार्कों, बरसाती नालियों, सड़क, खड़ंजे व अन्य खुले क्षेत्रों से बहने वाले वर्षाजल का प्रभावी रूप से संग्रहण किया जा सकता है। मैदानों से वर्षाजल संग्रहण के लिए विस्तृत क्षेत्र उपलब्ध रहता है, लेकिन यह तकनीक ऐसे क्षेत्रों में अधिक उपयोगी है, जहां बरसात कम होती है। अधिकांश आवासीय कॉलोनियों में बरसाती नालियों का तंत्र विधिवत बना रहता है। यदि इन नालियों को स्वच्छ रखा जाए तो वर्षाजल संग्रहण का यह एक सस्ता साधन है। जहां भूमिगत जल पीने योग्य नहीं है, वहां वर्षाजल को भंडारण के विकल्प के रूप में उपयोग किया जा सकता है। वर्षाजल पुनर्भरण के लिए संग्रहण स्थान की उपलब्धता के आधार पर टैंक जमीन के ऊपर, आधे जमीन के अंदर या पूर्णतया जमीन के अंदर बनाए जा सकते हैं और टैंक में रखे पानी की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए रखरखाव के कुछ उपाय जैसे टैंक की सफाई, जीवाणुनाशक आदि का उपयोग किया जा सकता है।

चूंकि वर्षाजल जीवाणुओं और कार्बनिक पदार्थों से मुक्त एवं हल्का होता है, इसलिए यह पीने के लिए उपयुक्त होता है और इसके शुद्धीकरण हेतु खर्चीले उपायों की और पुनर्भरण कार्य में किसी प्रकार की ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती है। कृत्रिम पुनर्भरण करने से वर्षाजल का वाष्पीकरण एवं निस्पंदन कम होता है। इसलिए वर्षाजल संग्रहण या रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के लिए सरकार द्वारा भी बहुआयामी प्रयास किए जा रहे हैं। देश के कई राज्यों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य बना दिया गया है। लेकिन जन-चेतना के अभाव में अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। मध्यप्रदेश में 140 वर्गमीटर या उससे अधिक क्षेत्रफल पर निर्मित होने वाले सभी भवनों में रेनवॉटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य है और ऐसे भवनों पर पहले साल सम्पत्ति कर में 6 प्रतिशत की छूट का प्रावधान है। राजस्थान ने सभी सरकारी भवनों में रेनवॉटर हार्वेस्टिंग करवाना अनिवार्य कर दिया है। दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, बिहार, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी नई इमारतों में कानूनन रेनवॉटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य है। कर्नाटक में रेनवॉटर हार्वेस्टिंग करवाने पर सम्पत्ति कर में 5 वर्ष तक के लिए 20 प्रतिशत की छूट मिलती है। पंजाब में लुधियाना और जालंधर नगर निगमों में यह अनिवार्य है। सूरत महानगरपलिका ने तो रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के प्रति लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए इसमें आने वाले खर्च पर 50 प्रतिशत सब्सिडी देने की योजना बनाई है। उत्तर प्रदेश सरकार ने भवनों में वर्षाजल संचयन योजना को अनिवार्य करने के साथ सभी ग्रुप हाउसिंग योजनाओं में छतों तथा खुले स्थानों से प्राप्त बरसाती जल को परकोलेशन पिट्स के जरिए भूजल रिचार्जिंग को अनिवार्य कर दिया है।

2 - जलसंभरों का विकासः 

जलसंभर पेय जलापूर्ति की समुदाय आधारित व्यवस्था है। यह एक पारिस्थितिकी प्रणाली है जो मृदा, जल और जैव तत्वों के बीच उचित संतुलन कायम करने के अलावा जैव संसाधनों का अनुकूलतम नियोजन भी करती है। जलसंभर में जल निकासियों और ढलानों से आते हुए वर्षा और बहाव का जल निम्नतम स्थान पर पहुंचता और संकलित होता है। यद्यपि जलसंभर में प्रग्रहण क्षेत्र, कमान क्षेत्र और जलधारा का मुहाना क्षेत्र शामिल होता है, लेकिन भू-आकृतिक स्थितियों जैसे मैदानों, घाटियों, लहरदार पहाड़ियों, उबड़-खाबड़ क्षेत्रों आदि सभी जगह जलग्रहण क्षेत्र के अनुरूप जलसंभरों का विकास किया जा सकता है। ये बड़े, छोटे, लघु, मध्यम, दीर्घाकृत, तिकोने, गोलाकार आदि किसी भी रूप में विकसित किए जा सकते हैं। जलसंभरों का विकास और प्रबंधन जल संचयन की धारणीयता को बढ़ाता है, यह पारिस्थितिकीय संतुलन के साथ भावी पीढ़ी के हितों से समझौता किए बिना वर्तमान आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने की अवधारणा पर आधारित है। इसके प्रबंधन से पेय जलापूर्ति के अलावा पूरक सिंचाई के लिए संग्रहित वर्षाजल का कारगर उपयोग सुनिश्चित होता है। जल निकासी की क्षमता में सुधार और बाढ़, भूमि कटाव, तलछट का नियंत्रण होता है। घरेलू, औद्योगिक व कृषि आवश्यकताओं के लिए प्रचुर मात्रा में जलापूर्ति के अलावा दर्षाजल का स्व-स्थाने संरक्षण होता है। प्रायः जलसंभर को गांव की सीमा में ही होना चाहिए, यदि जलसंभर का कोई भाग गांव की सीमा के बाहर भी हो तो पड़ोसी गांवों की सहमति से विकसित किया जा सकता है। यदि जलसंभर का क्षेत्र दो गांवों में आता है तो इसे दो उप-जलसंभर क्षेत्रों में बांटा जा सकता है। इसके लिए सार्वजनिक भूमि का अधिकाधिक उपयोग किया जाना चाहिए।

(लेखक भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय में वरिष्ठ तकनीकी सहायक हैं।) 

ई-मेल: gajendra.singh88@gov.in

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