मौसम विज्ञान की भूल-भूलैया मानसून
विश्व ने 1500 वर्षों से मौसम को ग्रीक खगोल विज्ञानी टोलेमी की आँखों से देखा
19वीं सदी के अधिकांश समय मौसम विज्ञान अकादमिक और कलाप्रेमी लोगों का शौक बना रहा क्योंकि भविष्य पूर्वानुमान अभी दूर की चीज थी- यह विज्ञान अभी एकदम बाल्यावस्था में और इसलिये अशुद्ध थी। इसके अलावा मौसम विज्ञानियों के पास समयोचित मौसम आँकड़े उपलब्ध नहीं थे। 1850 के दशक में बिजलीचालित टेलिग्राफी के आविष्कार से मौसम विज्ञान समेत सभी कुछ क्रान्तिकारी ढंग से बदल गया। मौसम विज्ञानी अब समूचे विश्व के मौसम आँकड़ों को हासिल कर सकते थे और उनका विश्लेषण कर सकते थे।आज हम मौसम केे उन्नत वैश्विक मानचित्रों, ग्राफों और तस्वीरों को सहज उपलब्ध पाते हैं। पर तनिक कोशिश करें तो उनके पीछे ग्रह के विभिन्न स्थानों और कालों के मौसम के लघुतम विवरणों को समेटते हुए मानचित्र तैयार करने का सम्मोहक अन्वेषण मिलता है। 18वीं सदी के आखिर से आरम्भ इस जटिल नाटक के विविध पात्र रहे जिसमें घुम्मकड़ खोजी, अमीर कूलीन लोग, वैज्ञानिक और आविष्कारक, सट्टेबाज पूँजीवादी और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्र-राज्य शामिल हैं।
विश्व ने 1500 वर्षों से अधिक मौसम (या जलवायु) को ग्रीक खगोलशास्त्री टोलेमी की आँखों से देखा है, जिनके लिये जलवायु केवल विषवत रेखा और ध्रुवों के बीच काल्पनिक रेखा में आपके स्थान का मामला था। सरलता से देखें तो कर्क या मकर रेखाएँ गर्म और आर्द्र होती है क्योंकि सूर्य की किरणें उन पर सीधी पड़ती है, उच्चतर अक्षांश शुष्क और शीतल होंगे क्योंकि उन पर सूर्य की किरणें तिर्यक होकर पड़ेगी।
अंग्रेज खगोलशास्त्री एडमंड हैले पहले विद्वान थे जिन्होंने मौसम के बारे में टोलेमी की सरल समझदारी को पेचिदा बना दिया जब उन्होंने कहा कि यह धरती और समुद्र के गर्म होने की भिन्नता है जो विषवत रेखा से ध्रुवों की ओर हवा की गति का कारण है। सन 1686 में उन्होंने सिद्धान्त दिया कि हवाओं की इस अदला-बदली का लाभ अक्सर नाविकों द्वारा जहाजों के नौवहन में उठाया जाता है जो भारतीय उपमहादेश में मानसून की वर्षा की उदघोषणा भी करते हैं।
अपनी परिकल्पना को पुष्ट करने के लिये उन्होंने हवा की अदला-बदली का एक मानचित्र, निश्चित रूप से विश्व का पहला मौसम-विज्ञानी चार्ट बनाया। हैले के समय में आँकड़ों के विश्लेषण के औजार के रूप में ग्राफ का इस्तेमाल कोई नहीं करता था। और शताब्दी के आखिर तक किसी ने नहीं किया। मौसम विज्ञानी प्रेक्षणों को लम्बी तालिका में उनके गुणात्मक व्याख्याओं के साथ दर्ज किया जाता था।
शुरुआती मौसम विज्ञानी पर्यवेक्षक इन तालिकाओं में खोजते थे कि मौसम की परिघटनाओं की कोई बनावट मिल जाये। वे अपना समय नष्ट कर रहे थे। जर्मन वैज्ञानिक व अन्वेषक एलेक्जेंडर हमबोल्ट ने 1817 में उत्तरी गोलार्द्ध की प्रसिद्ध तालिका बनाई जिसमें आईसोथर्म नामक नए औजार का इस्तेमाल किया गया। इसकी व्याख्या उन्होंने ‘‘समान औसत तापमान के क्षेत्रों का सीमांकन करती बराबर लाइनें’ के तौर पर की। जल्दी ही मौसम मानचित्रों में आईसोबार्स दिखने लगे।
आईसोलाइन- आईसोथर्म और आसोबार्स जैसे औजारों के लिये व्यवहार में आने वाला सामान्य शब्द, बडे इलाकों के आँकड़ों से मौसम की बनावट को दृश्यमान बनाने का पहला व्यावहारिक तकनीक था। वे आज भी मौसम और जलवायु मानचित्रों के बुनियादी तत्व बने हुए हैं। हालांकि उन दिनों उपलब्ध आँकड़ों की सीमाओं का आइसोलाइन पर्दाफाश करती हैं। मौसम आँकड़ों के विभिन्न बिन्दुओं को जोड़ती बराबर रेखाएँ यद्यपि प्रभावशाली दिखती हैं, पर वे वास्तव में उन बिन्दुओं के बीच बहुत सारे रिक्त स्थानों, कई बार सैकड़ों किलोमीटर दूर, के महत्त्व को घटा देती हैं। मौसम वैज्ञानिक जानते हैं कि मौसम के अधिक सही प्रतिबिम्बन के लिये उन्हें अधिक आँकड़ों की जरूरत होगी।
आँकड़ों की वैश्विक माँग
वैश्विक मौसम मानचित्र बनाने का पहला प्रयास एक उत्साही अमेरिकी नौसैनिक अधिकारी मैथ्यू मौरी ने किया। उसने दुनिया भर में घूमने वाले जहाजों द्वारा हवा और समुद्र की धाराओं के आधार पर एकत्र मौसम के आँकड़ों को 1848 से आरम्भ करके 200 खण्डों में प्रकाशित किया। उसे श्रेय जाता है कि नौसैनिक अभिलेख के रूप में प्राचीनतम वैश्विक आँकड़ों के रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। 1872 में ब्रिटिश शाही नौसेना के जहाज एचएमएस चैलेंजर ने समूचे विश्व का चार वर्षीय वैज्ञानिक भ्रमण किया।
127000 किलोमीटर की इस समूची यात्रा के दौरान प्रत्येक दो घंटे के मौसम के आँकड़े दर्ज किये गए। जैसाकि मिचिगन विश्वविद्यालय में इतिहासकार पाॅल एडवर्ड ने इस बारे में 2010 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए वास्ट मशीन’ में लिखा है कि यह 19वीं सदी में मौसम उपग्रह का समतुल्य था। यह एक स्थान से अंशाकित उपकरणों और सुसंगत तकनीकों का उपयोग करके समूचे ग्रह का पर्यवेक्षण करने का प्रयास था।’
स्काॅटिश मौसम विज्ञानी एलेक्जेंडर बुचन ने चैलेंजर के असाधारण आँकड़ों में विद्यमान अनेक विसंगतियों को साफ करने के विशाल काम का जिम्मा उठाया। सात साल के परिश्रम के बाद 1889 में उन्होंने संशोधित आँकड़ों को एक पुस्तक ‘रिपोर्ट आॅन एटमोस्फेरिक सर्कुलेशन’ में वैश्विक और गोलार्द्ध के औसत तापमानों, दबावों और हवाओं को 52 सुन्दर रंगीन तस्वीरों के रूप में प्रकाशित किया।
हालांकि 19वीं सदी के अधिकांश समय मौसम विज्ञान अकादमिक और कलाप्रेमी लोगों का शौक बना रहा क्योंकि भविष्य पूर्वानुमान अभी दूर की चीज थी- यह विज्ञान अभी एकदम बाल्यावस्था में और इसलिये अशुद्ध थी। इसके अलावा मौसम विज्ञानियों के पास समयोचित मौसम आँकड़े उपलब्ध नहीं थे। 1850 के दशक में बिजलीचालित टेलिग्राफी के आविष्कार से मौसम विज्ञान समेत सभी कुछ क्रान्तिकारी ढंग से बदल गया।
मौसम विज्ञानी अब समूचे विश्व के मौसम आँकड़ों को हासिल कर सकते थे और उनका विश्लेषण कर सकते थे। फिर भी अभी मौसम विज्ञान के जटिल भौतिकी की कम ही समझदारी थी। वैश्विक आँकड़ों की उपलब्धता मौसम पूर्वानुमान का कम-से-कम आरम्भिक बिन्दु जरूर है। अमेरीका ने इसका पहला पाइलट नेटवर्क 1849 में स्थापित किया। दस वर्षों में मौसम टेलीग्राफी नेटवर्क के पास 500 से अधिक मौसम विज्ञानी केन्द्र हो गए थे।
सन 1900 तक टेलीग्राफ नेटवर्क बड़े पैमाने पर फैला और विश्व का बड़ा हिस्सा, उपनिवेशों समेत टेलीग्राफ से जुड़ गया। इन क्षण भर में सम्प्रेषित आँकड़ों ने मौसम केन्द्रों को अल्प मियादी पूर्वानुमान करने में समर्थ बनाया। हालांकि पूर्वानुमान अभी भी पूरी तरह शुद्ध नहीं थे। कृषि और नौवहन में उनकी प्रत्यक्ष उपयोगिता ने मौसम टेलीग्राफी को शौकिया प्रकल्प से उठाकर विशाल अधिसंरचना में बदल दिया जिसका संचालन राष्ट्र-राज्य करने लगे।
चूँकि मौसम विज्ञान और मौसम केन्द्रों का विज्ञान दूसरे देशों में फैला था, इसलिये वैज्ञानिकों ने मौसम आँकड़ों के संग्रह का वैश्विक मानदंड (अनुमापन की इकाई, पर्यवेक्षण का समय, दर्ज करने का उपकरण और तकनीक) औद्योगिक उत्पादनों की तर्ज पर स्थापित करना चाहा। हालांकि मौसम विज्ञानियों को विभिन्न कारणों से (जिसमें दो विष्व युद्ध और परवर्ती शीतयुद्ध) इसके साकार होने में अगले 75 वर्षों तक इन्तजार करना पड़ा।
संख्यात्मक ग्रिड
मौसम विज्ञान के क्षेत्र में अगले बड़े क्षण दो विश्व युद्धों के साथ आये। युद्धरत सेनाओं को जल्दी ही समझ आ गया कि मौसम भविष्यवाणी का इस्तेमाल रणनीतिक हथियार के तौर पर खासकर वायु सैनिक युद्ध में किया जा सकता है। लगभग उसी समय वायुमण्डल का अध्ययन कर रहे भौतिकी विज्ञानियों ने निष्कर्ष निकाला कि तेजी से विकसित होते संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान में वायुमण्डल के ऊपरी परत का अनुमापन उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना सतह का।
इस प्रकार इस दोहरे प्रेरकों से प्रेरित होने के अतिरिक्त मौसम आँकड़ों के अन्तरराष्ट्रीय हिस्सेदारी के टूटने से राष्ट्रों ने सघन पर्यवेक्षण नेटवर्कों और विमानों द्वारा ऊपरी-वायु के अनुमापन के विकास में बड़े पैमाने पर निवेश करना आरम्भ किया। यह दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जारी रहा और इस बार उसे नई तकनीकों जैसे अधिक उन्नत विमान, रेडियो, एयर बैलून और अन्ततः कम्प्यूटर से सहायता मिली।
मौसम आँकड़ों के इस विशाल फैलाव से मौसम विज्ञान में अगली क्रान्ति -संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान (एनडब्ल्यूपी) की जमीन तैयार हुई। 1940 के दशक के आखिरी हिस्से तक दुनिया मौसम का कहीं अधिक व्याख्या कर रही थी जिसका पूर्वानुमानकर्ताओं या जलवायु विशेषज्ञों द्वारा लाभकारी ढंग से व्यवहार में लाया जाता था। आखिरकार 1950 के आखिरी दिनों तक एनडब्ल्यूपी मॉडल अधिक उन्नत और समावेशकारी हो गए, फिर भी यह स्पष्ट हो गया कि उपलब्ध आँकड़े पर्याप्त नहीं हैं-कम-से-कम सही स्थानों से और सही समय पर सही रूपरेखा में नहीं हैं।
यह भीषण आवश्यकता जो एनडब्ल्यूपी की सफलता के लिये अति महत्त्वपूर्ण था, संयोग से विश्व मौसम विज्ञानी संगठन (डब्ल्यूएमओ) के तत्वाधान में विश्व मौसम प्रहरी (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू) के 1963 में गठन का कारण बना। डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू एक विशाल ग्रहीय नेटवर्क है जो पूरे वर्ष प्रतिदिन हर घंटे मौसम सूचनाएँ जमीनी मौसम केन्द्रों, जहाजों, विमानों, रडारों और उपग्रहों से एकत्र करता है।
यह आँकड़ा मौसम में रुचि रखने वाले हर किसी के लिये आसानी से उपलब्ध है। इन्हें केवल एकत्र नहीं किया जाता, बुचन की परम्परा के अनुसार दोबारा जाँचा जाता है, साफ किया जाता है, व्याख्या की जाती है और आखिरकार कम्प्यूटर मॉडल द्वारा एकीकृत किया जाता है। 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश कला-समीक्षक और बहुश्रुत जाॅन रस्कीन ने ‘सुव्यवस्थित और समकालिक पर्यवेक्षण की सटीक प्रणाली’ का सपना देखा था। डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू में वह सपना साकार हुई है।
‘पेचिदा मानसून के पूर्वानुमान की चुनौती बरकरार’ इस ग्रह का सर्वाधिक जटिल मौसम प्रणाली है मानसून, इसका पूर्वानुमान कठिन है। इसलिये 2012 में मानसून मिशन की स्थापना के माध्यम से हमारा मकसद पूर्वानुमान प्रणाली को उन्नत बनाना है ताकि हम सुसंगत ढंग से विश्वसनीय मानसून पूर्वानुमान उपलब्ध करा सकें। और हम इसमें काफी अच्छी तरह से सफल रहे। हाल तक पूर्वानुमान करने की हमारी योग्यता काफी कमजोर थी। अब मौसम विज्ञानी मानदण्डों के निरीक्षण और अनुमापन के लिये तकनीकों के आगमन से हमें वर्तमान परिस्थितियों की बहुत बेहतर समझ है जो भविष्य के पूर्वानुमान के लिये आवश्यक है। हमने भारतीय मानसून की संवेदनशीलता और परिवर्तनशीलता को ध्यान में रखकर उपग्रह से प्राप्त चित्रों के ग्रिड-आकार को मानक 100 वर्ग किलोमीटर से घटाकर 38 वर्ग किलोमीटर करके उनके रिजोल्यूशन को बढ़ा दिया है। इसने हमें स्थानीय कारकों जैसे बादलों के आवरण का निरीक्षण बहुत अधिक विशुद्ध ढंग से करने में मदद की है। मानसून के संख्यात्मक मॉडलिंग में उन्नयन ने भी पूर्वानुमान करने की क्षमता को बेहतर बनाने में बहुत मदद की है। जल्दी ही हम समयोचित मानसून पूर्वानुमान प्रणाली स्थापित करने में सक्षम होंगे। हालांकि अनेक विकसित देशों से अलग भारत के पास अपना मौसम पूर्वानुमान मॉडल नहीं है। हम अमेरिकी मॉडल एनसीईपी सीएफएस वी 2.0 का उपयोग करते हैं। हम इसके कुछ हिस्सों में अपने निरीक्षणों और गणनाओं को डालकर इसे मानसून का पूर्वानुमान करने के लायक बना रहे हैं। हमने इस मॉडल को जनवरी 2015 में संचालित किया। हम अभी इसे उन्नत बना रहे हैं। उसके बाद हम दूसरे मानसून मिशन की योजना बना रहे हैं जिसके अन्तर्गत हमारा फोकस आम लोगों तक सूचनाओं को कारगर ढंग से बताने और प्रचारित करने पर होगा। (सूर्याचंद्रा ए राव, एसोसिएट मिशन निदेशक, मानसून मिशन, केन्द्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय) |