सांभर झील के आसपास जीवन: जल संरक्षण के सामुदायिक प्रयासों से हल हो रहा है जल संकट
सांभर झील के आसपास जीवन: जल संरक्षण के सामुदायिक प्रयासों से हल हो रहा है जल संकटछवि: स्वप्ना सरिता मोहंती

सांभर झील इलाके में पलायन का रुख मोड़ रहे हैं तालाब

राजस्थान के सांभर झील क्षेत्र में खारे भूजल और पानी की कमी के चलते लोगों की आजीविका और परिवार, दोनों बिखरने लगे थे। पिछले कुछ समय में यहां समुदायों ने तालाब बनाए हैं, जिनसे जीवन वापस पटरी पर लौटने लगा है।
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राजस्थान की सांभर झील के आसपास ग्रामीणों ने खूब तालाब बनाए हैं। ये तालाब खेतों को पानी तो दे ही रहे हैं, लोगों को उनका परिवार भी लौटा रहे हैं। जल संरक्षण के इन छोटे लेकिन असरदार प्रयासों से इस इलाके में बड़ा बदलाव आया है। जहां कभी सूखी धरती पर दरारें थीं, आज वहां हरियाली है। जहां से लोग रोज़ी-रोटी की तलाश में पलायन कर गए थे, वहां अब जीवन फिर से व्यवस्थित होने लगा है। यह कहानी है राजस्थान के उन गांवों की है जहां कुछ साधारण तालाबों ने असाधारण बदलाव रच डाला है।

सांभर झील के पीछे की अनसुनी कहानी

जयपुर के गुलाबी रंगों में सजे शहरी विस्तार से सिर्फ़ 80 किलोमीटर दूर फैली है सांभर झील। चांदी सी चमकती यह विशाल झील क्षितिज तक फैली हुई दिखती है। भारत में खारे पानी की यह सबसे बड़ी अंतर्देशीय झील है। वर्षों से एक मौन आकर्षण का केंद्र रही यह झील सैलानियों के बीच फ़्लेमिंगो पक्षियों, नमक के मैदानों और मन में बस जाने वाले डूबते सूरज के दृश्यों के लिए जानी जाती रही है। 

लेकिन अगर आप मुख्य मार्ग से थोड़ा हटकर चलें, बर्ड वॉचिंग के शौकीनों और इंस्टाग्राम की दुनिया से कुछ आगे बढ़ें, तो आपको एक और असाधारण दृश्य देखने को मिलेगा। राजस्थान की सूखी धरती पर आकार लेती एक ज़मीनी जल क्रांति का दृश्य।

अजमेर ज़िले के रूपनगढ़ के पास बसे नोसल और झाखोलाई जैसे गाँवों में बड़ी खामोशी से स्थितियां बदल रही हैं। यह बदलाव इलाके की धरती का परिदृश्य तो बदल ही रहा है, उन लोगों के जीवन को भी बदल रहा है जो इसे अपना घर कहते हैं। इन गांवों में समुदायों द्वारा मिलकर बनाए गए तालाब सिर्फ़ पानी के स्रोत नहीं। वे जीवन की डोर हैं, पलायन कर गए लोगों के वापस लौटने की कथा हैं, मानव जिजीविषा और पुनर्जीवन के जीवंत उदाहरण हैं।

तालाब ने परिवारों को फिर से जोड़ा

नोसल गांव, जहाँ कभी तपती धूप और खामोशी का राज था वहां अब हालात बदल गए हैं। खेतों में फसलों की सरसराहट सुनाई देती है, मवेशियों के गले में घंटियां गूंजती है। लेकिन यह दृश्य नया है। कोई दस साल पहले तक यहाँ के खेत वीरान थे। ज़मीन के नीचे का पानी पीने लायक़ नहीं था, ज़बरदस्त खारा था। सिंचाई का भी कोई दूसरा ज़रिया न था। परिवारों को नाउम्मीदी में शहरों की ओर पलायन ही आखिरी रास्ता लगता था।

इसी दौरान, इलाके के कोटड़ी गांव की एक स्थानीय संस्था 'मंथन' के एक प्रयास ने हालात बदल दिए। उन्होंने वर्षा जल संचयन के लिए एक तालाब बनाया, जो दस करोड़ लीटर तक पानी सहेज सकता है। इस साधारण से समाधान ने गांव के लोगों को उनका खोया हुआ पेशा और परिवार, दोनों लौटा दिए।

पेशे से किसान और कुम्हार, 73 वर्षीय नारायण प्रजापत कहते हैं, "हमने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी। मेरा बेटा शहर चला गया था। लेकिन जब तालाब में बारिश का पानी भर गया तो हमें फिर से पीने को मीठा पानी मिलने लगा। हम फिर से फसल उगाने लगे। मेरा बेटा लौट आया।" नारायण प्रजापत पानी की कमी के कारण मिट्टी के बर्तन बनाने काम भी बंद कर चुके थे। तालाब बनने के बाद उन्होंने खेत पर ही घर बना लिया और मिट्टी के बर्तन बनाने का अपना परंपरागत काम फिर से शुरू कर दिया। वे कहते हैं, “यह तालाब सिर्फ़ पानी नहीं लाया, यह हमारे परिवार को फिर से एक कर गया।”

ये कहानी यहीं नहीं रुकती। हाल ही में उस तालाब को और गहरा किया गया है, ताकि अब वह पहले से लगभग दोगुना पानी समेट सके।

तालाबों में समेटा जा रहा है वर्षा का जल
तालाबों में समेटा जा रहा है वर्षा का जलछवि: स्वप्ना सरिता मोहंती

महल और किले नहीं, तालाब हैं असली ज़रूरत

इन गांवों न तो किसी राजा का महल है न ही कोई किला। यहां के लोगों के लिए इनके तालाब ही गर्व का कारण हैं। झाखोलाई गांव में बना तालाब हर साल 10.6 करोड़ लीटर वर्षा जल संग्रहित करता है। एक समय जो किसान बारिश की बेरुखी और खारे भूजल के भरोसे जीते थे, वही अब साल में दो फसलें ले पा रहे हैं। उनका परिवार अब शहरों की ओर जाने की बजाय वापस लौटने लगा है। बच्चियां जो पहले परिवार के लिए पानी जुटाने में समय बिताती थीं, अब स्कूल जाने लगी हैं।

यह बदलाव जिस दूरदर्शी सोच से आया है उसकी नींव तेजा राम माली ने वर्ष 1998 में मंथन संस्था के रूप में रखी थी। तेजा राम याद करते हैं, 'यहाँ सबसे बड़ी तकलीफ़ पानी की थी। औरतें पानी के लिए मीलों चलती थीं, बच्चियां स्कूल नहीं जा पाती थीं। उन्हीं दिनों हमें अहसास हुआ कि बारिश तो हमारे आँगन में गिरती है, बस हम उसे थाम नहीं पा रहे हैं।' 

आज तेजा राम और उनकी टीम ने सांभर क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक के मेल से 24 ऐसे तालाब बनाए हैं जिनमें 400 लाख लीटर पानी हर वर्ष जमा होता है। यह काम बहुत चमक-दमक भरा नहीं है और इसमें वक्त भी लगता है। पर यह समाधान स्थायी है, ठोस है और जीवन बदलने वाला भी।

स्थानीय तालाबों से संभव हो सकी है खेती
स्थानीय तालाबों से संभव हो सकी है खेतीछवि: स्वप्ना सरिता मोहंती

हौसलों की एक जीवंत दास्तान

सांभर के ग्रामीण इलाकों से होकर गुज़रना एक जीवित कहानी के पन्नों से होकर गुज़रने जैसा है। हर गांव का तालाब, हर हरा-भरा खेत, हर लौटता प्रवासी, एक छोटी लेकिन गहरे अर्थों वाली शुरुआत की गवाही देता है। यह यात्रा तेज़ रफ्तार से भागती दुनिया से अलग है। यह यात्रा समझाती है कि कम संसाधनों में भी जीवन बेहतर हो सकता है। तालाब बनने के बाद झाखोलाई गांव के किसानों ने लगभग 100 नई ट्यूबवेल खुदवाई हैं, जिनसे वे अपने खेतों में फसल सींच रहे हैं। 

यहां कुछ दिन ठहरिए, ज़मीन खुद अपने रहस्य खोलने लगेगी। उस हैंडपंप से आपको ताजा-मीठा पानी मिलेगा, जो कभी सूख गया था। वे किसान मिलेंगे जो मजबूरी में शहर चले गए थे, पर अब लौटकर अपने खेतों में फिर से फसल उगा रहे हैं। आपको यह महसूस होगा कि महत्वपूर्ण यात्राएं सिर्फ़ वे नहीं होतीं जिन्हें अकेले तय किया जाए। वे यात्राएं और भी गहरी और निर्णायक हो सकती हैं जिन्हें लोग मिलकर तय करते हैं।

दूरी कम हुई, पर मंज़िल इतनी पास भी नहीं

हालांकि, सब कुछ पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है। बढ़ती लवणता और पारिस्थितिकी असंतुलन के कारण खुद सांभर झील भी संकट में है। आसपास की कई बस्तियों में आज भी पीने योग्य पानी की कमी है। कई गांवों में आसानी से उपलब्ध मीठा पानी अब भी सिर्फ़ कल्पना में ही बसता है। 

लेकिन अब एक नई उम्मीद ज़मीन पकड़ रही है। हर साल बारिश जब किसी पुराने, सूखे पड़े तालाब को फिर से भर देती है, तो जीवन एक बार फिर लौट आने का वादा करता मालूम होता है।

यात्रा के लिए सुझाव:

मानसून के दौरान या उसके तुरंत बाद (अगस्त से अक्टूबर) इस क्षेत्र की यात्रा करें, ताकि आप भरे हुए तालाबों और हरे-भरे खेतों को देख सकें। अगर आप वाकई इस धरती की नब्ज़ को समझना चाहते हैं, तो कोटड़ी या रूपनगढ़ जैसे गांवों में स्थानीय होमस्टे में किसान परिवारों के साथ रहें। यहां पानी की उस कहानी को महसूस करें जिसे ये किसान राजस्थान के सूखी ज़मीन पर दर्ज़ कर रहे हैं।

यह लेख मूल रूप से The Daily Guardian में प्रकाशित हुआ है। हिंदी अनुवाद केसर सिंह का है।

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