रिसते हैदराबाद को समेटने वाले हाथ: कहानी पानी और परवाह की
एक करोड़ से ज़्यादा आबादी वाला शहर हैदराबाद 650 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है और यह शहर पानी की अपनी ज़रूरत के लिए कृष्णा, गोदावरी और मंजीरा जैसी नदियों पर निर्भर है। इन नदियों से आने वाला पानी कई सौ किलोमीटर लंबी पाइप से बहकर शहर की ज़मीन के नीचे बिछे पाईपलाइनों, वॉल्व और पंप-नेटवर्कों के जाल तक पहुंचता है।
आज की तारीख़ में तेलंगाना की राजधानी को हर दिन लगभग 550 मिलियन गैलन (एमजीडी) पानी मिलता है, जबकि अनुमान है कि इसकी दैनिक मांग 650 एमजीडी की है।
हैदराबाद महानगर जल आपूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड (एचएमडब्ल्यूएस एंड एसबी) की स्थापना नवंबर 1989 में हैदराबाद महानगर जल आपूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड अधिनियम 1989 (साल 1989 की अधिनियम संख्या 15) के तहत की गई थी। शहर को तीन नदियों से मिलने वाले पानी की पाइपलाइन प्रणाली के लिए योजनाओं और डिज़ाइन के निर्माण, उसके रखरखाव, संचालन और उसकी निगरानी का ज़िम्मा इसी बोर्ड का है।
सरकारी जल बोर्ड की व्यवस्था कागज़ पर देखने में काफ़ी कुशल और योजनाबद्ध मालूम होती है। भारत के पांचवें सबसे बड़े शहर में पानी की आपूर्ति को ढंग से संभालने के लिए, एचएमडब्ल्यूएस एंड एसबी ने शहर को 16 ज़ोनों (प्रभागों) में बांटा है। हर ज़ोन को छोटे-छोटे उप-विभागों में बांटा गया है, ताकि इलाकों या मोहल्लों के समूहों के हिसाब से लोगों तक पानी पहुंचाने में आसानी हो।
हालांकि, सच्चाई यही है कि असल ज़िंदगी में पानी की स्थिति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। यह बदलती रहती है। कभी सप्लाई का समय बदल जाता है, तो कभी दबाव कम या ज़्यादा हो जाता है, तो कहीं अचानक पाइप लीक होने लगते हैं।
व्यवस्था में आने वाले इन उतार-चढ़ावों को संभालने की ज़िम्मेदारी उन लोगों पर होती है जो व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर काम करते हैं। शहर में पानी की व्यवस्था दुरुस्त करने वाले लाइनमैन की ज़िम्मेदारी अपने डिवीजन के वॉल्व और पाइपलाइन के रखरखाव और मरम्मत की है। वहीं, शहर में बहुत बड़ी तादाद में ऐसे लोग भी हैं जो घरों में नल ठीक करने से लेकर पाइप की मरम्मत और कनेक्शन की समस्या को दूर करने के लिए काम करते हैं, ताकि पानी लगातार पहुंचता रहे। कुछ लोग अपना काम इतनी ज़िम्मेदारी से करते हैं कि कभी-कभी सरकारी अफ़सरों को खटकने लगते हैं। खालिद ने भी अपनी ज़िम्मेदारी इसी तरह उठाई।
दीवारों पर लिखा एक नाम
महज़ 24 साल के खालिद को सुबह से ही काम पर देखा जा सकता था। काम वाले दिनों में ज़्यादातर उनकी सुबह की शुरुआत सिंगरेनी कॉलोनी से होती थी। यह हैदराबाद के दक्षिणपूर्वी किनारे पर बनी एक सरकारी पुनर्वास बस्ती है। उनका नाम शहर के किसी रोस्टर या दस्तावेज में तो दर्ज़ नहीं था, लेकिन इमारतों की सीढ़ियों, दरवाज़ों, दीवारों और ऐसी तमाम जगहों पर लिखा दिख जाता था।
यहीं से लोगों को पता चलता था कि पानी, नल, पाइपलाइन या ऐसी कोई भी दिक्कत होने पर किसे बुलाना है। इन इमारतों में रहने वाले लोग छत टपकने, फ़र्श पर पानी जमा हो जाने या पाइप के फटने या जाम होने पर ख़ालिद को ही बुलाते थे। औज़ारों से भरे अपने बैग और पाइप का बंडल हाथ में लिए, इन समस्याओं को दूर करने की समझ के साथ खालिद ने पानी की उस व्यवस्था को सम्भाले रखा था जिसे शहर ने बहुत पहले ही ढहने के लिए छोड़ दिया था।
सुबह-सुबह एक-कमरे वाले घरों में लोगों के जागने, नलों में पानी आना शुरू होने और पंखों के चलने की आवाज़ के बीच, खालिद बुलावे पर लोगों की पानी से जुड़ी दिक़्क़त को दूर करने निकल पड़ते थे।
कभी वह उफनती नाली के पास झुककर काम करते या फिर फटी हुई पाइप को जांचते। कभी लोग उसे पानी से लबालब दरवाज़ो तक ले जाकर कनेक्शन ठीक करने या नया ‘कनेक्शन’ लगाने के लिए कहते। यह कनेक्शन ऐसे इंतज़ाम का स्थानीय नाम है जिसमें मोहल्ले तक आ चुकी पाइपलाइन के पानी को घर तक पहुंचाने के लिए खालिद जैसे प्लंबर की मदद की ज़रूरत होती है।
सिंगरेनी कॉलोनी का जीवन
सिंगरेनी कॉलोनी साल 2005 में बनी थी। इसे उन लोगों के रहने के लिए बनाया गया था जिनके घर उस इलाके की झुग्गियों में लगी आग में जल गए थे। हैदराबाद में अलग-अलग योजनाओं के तहत ऐसी दर्ज़नों कॉलोनियां बनाई गई हैं जिनका रखरखाव और मरम्मत अक्सर चुनावी दावों और वादों का विषय बनकर रह जाता है। जैसे कि तेलंगाना सरकार ने साल 2023 में इन घरों की मरम्मत के लिए 100 करोड़ रुपये के बजट की घोषणा की थी।
हालांकि, इन कॉलोनियों को बनाने के पीछे कम-आय समूह वाले परिवारों को स्थायी घर मुहैया करवाने की नीयत थी, लेकिन इनमें से कुछ इमारतें तो बनने के तुरंत बाद ही जर्जर होने की स्थिति में आ गईं। यह स्थिति केवल एक इमारत या बस्ती की नहीं है। देखने पर पता चलता है कि इस तरह की लगभग सभी कॉलोनियों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है।
स्कूल ऑफ़ एनवायरनमेंट एंड आर्किटेक्चर (एसईए) के संस्थापक और शिक्षक प्रसाद शेट्टी का कहना है कि आजकल "आवास" के नाम पर जो बनाया जाता है, वह असल में गरीबों का घर नहीं, बल्कि ज़मीन-जायदाद का कारोबार (रियल एस्टेट) बनकर रह जाता है।
इसमें हैरानी की बात नहीं कि सिंगरेनी को लोग एक लावारिस बस्ती कहते हैं, एक ऐसी अनाथ बस्ती जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। यहां पानी दो दिन में एक बार आता है और वह भी अक्सर आधे घंटे से भी कम समय के लिए। लोग जितना हो सके पानी जमा कर लेते हैं, बचे हुए को साफ करते हैं, या फिर खालिद के आने का इंतज़ार करते हैं।
इसी कॉलोनी में रहने वाली शहाना बेगम (42), याद करते हुए बताती हैं कि लगभग दस साल पहले नगर निगम ने यह कहकर छत पर लगे पानी के टैंक हटा दिए थे कि इमारतें उनका वज़न नहीं झेल सकतीं। अब जब घर के ऊपर पानी की टंकी नहीं है, तो लोगों को मुख्य सप्लाई लाइन से सीधे अपने घरों में कनेक्शन लेना पड़ता है।
इन व्यवस्थाओं के चरमराने का सीधा असर महिलाओं पर ही पड़ता है। जब छत पर लगी पानी की टंकियों को हटा दिया गया और पानी की आपूर्ति पाइपों से पूरी होने लगी तो सब अनियमित हो गया। अब घरों में केवल पानी नहीं आता बल्कि उसके साथ आती है सीलन जो रसोई, दीवारों, बिस्तरों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में घुस जाती है।
क्योंकि घरों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी अक्सर महिलाओं पर होती है, इसलिए वे दिनभर पोछा लगाने, चीज़ें सुखाने और उनकी जगहें बदलने जैसे कामों में लगी रहती हैं, ताकि उनका घर रहने लायक़ बना रहे। नर्सिंग की पढ़ाई करने वाली कृपा अपनी परेशानी बताते हुए कहती हैं, "मुश्किल केवल पानी के समय पर आने या न आने की नहीं है, बल्कि समस्या यह है कि जब पानी आता है तब हम ये समझ नहीं पाते कि इतना पानी निकालें या बहाएं कहां?"
क्लासरूम के बाहर सीखना और व्यवस्था को बनाए रखना
खालिद यहीं सिंगरेनी में ही बड़े हुए हैं। उनकी मां उन लोगों में थी जिसे यह जगह मूल रूप से आवंटित हुई थी। 17 साल की उम्र में ही खालिद ने प्लंबिंग (नलसाजी) का काम सीखना शुरू किया और राजन्ना नाम के एक ठेकेदार के साथ काम करने लगे। राजन्ना उन्हें हैदराबाद के हयातनगर, उप्पल, एल.बी. नगर और बंदलागुड़ा जैसे बाहरी और नए बसने वाले इलाक़ों में बन रही नई इमारतों के प्रोजेक्ट्स पर ले जाता था।
ये वे इलाके थे जहां शहर आउटर रिंग रोड और हाईवे के किनारों पर फैल रहा था। खालिद को इस काम की ट्रेनिंग इन्हीं नई बन रही इमारतों और छतों पर मिली। उन्होंने इन्हीं जगहों पर नलों-पाइपों (फिटिंग्स) को जोड़ना, कनेक्शन की जांच करना और हर तरह के मुश्किल हालात में काम करना सीखा।
उन्हें सिंगरेनी में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों की गुणवत्ता और क्षमता, घरों और इमारतों की जर्जर होती स्थिति और वहां रहने वाले परिवारों की ज़रूरतों की बहुत अच्छी और गहरी समझ हो चुकी थी। वे जानते थे कि कहां का वॉल्व जाम है या कौन सी लाइन मुड़ गई या फिर कौन सी छत में दरारें पड़नी शुरू हो गई हैं।
व्यवस्थित निकासी या दबाव नियंत्रण (प्रेशर कंट्रोल) की उचित व्यवस्था न होने के कारण पानी आने पर इन सीलन और दरार वाले कमरों में कुछ ही देर में पानी जमा होने लगता है। इसलिए, उन्होंने बाज़ार से पाइप और फिटिंग के हिस्से जुटाकर ख़ुद ही पानी के छोटे टैंक बनाने शुरू कर दिए। वे पुराने शहर के मकैनिकों और सप्लायरों की मदद से इन हिस्सों को जोड़कर काम चलाने वाले नए डिज़ाइन (मॉडल) तैयार कर लिया करते थे।
इतना ही नहीं खालिद ने कॉलोनी के दूसरे युवाओं को भी बिना किसी औपचारिक शिक्षा या स्थायी काम के इसका प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। उन्होंने एक छोटी सी टीम बना ली थी जिसमें घरों की ज़रूरत के अनुसार टैंक काटने, आकार बदलने और लगाने का काम करने वाले लोग थे।
कुछ लोग इस टीम की चर्चा सुनने के बाद इससे जुड़े तो कुछ ने उसका काम देखकर उनके साथ आने का फ़ैसला किया। काम से होने वाली कमाई को सब में बराबर बांटा जाता था। उस आदमी को थोड़ा ज़्यादा पैसा यानी बोनस मिलता था जो नया काम लाता था। धीरे-धीरे खालिद एक ऐसा नाम बन गए जिसे लोग सिर्फ लीकेज ठीक करने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए भी बुलाने लगे ताकि वह उनके घरों को रहने लायक बना दे।
मरम्मत, देखभाल और रखरखाव की अहमियत
तो, खालिद असल में क्या कर रहे थे? मरम्मत या फिर देखभाल? आम तौर पर “मरम्मत” का मतलब होता है टूटी चीज़ को ठीक करना, और “मेंटेनेंस” यानी देखभाल का मतलब होता है उसे इस तरह से रखना ताकि चीज़ें टूटने से बची रहें। लेकिन सिंगरेनी जैसी जगहों पर यह फ़र्क साफ़ नहीं होता।
खालिद का काम इन दोनों के बीच था। वह केवल खराबी को दूर नहीं करते थे बल्कि मरम्मत के बाद चीज़ों को इस स्थिति में ला देते थे कि दीवारों और छतों से पानी रिसने और इमारत की हालत बिगड़ने के बावजूद, चीज़ें कुछ और दिन काम कर सकें।
भारत में प्लंबिंग का प्रशिक्षण इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट्स (आईटीआई) जैसे संस्थानों में दिया जाता है और ओड़िशा के सेंट्रल टूल रूम एंड ट्रेनिंग सेंटर जैसे संस्थान प्रशिक्षित और प्रमाणित प्लंबर तैयार करते हैं। लेकिन खालिद जैसे बहुत सारे लोग इन व्यवस्थाओं के बाहर रहकर ही खामियों को सुधारते हुए और स्थानीय समस्याओं को सुलझाते हुए इन कामों में महारत हासिल करते हैं।
हालांकि, उनका ज्ञान प्रमाणित या सत्यापित नहीं होता, लेकिन उनके अनुभव की अपनी कीमत है। यह ज्ञान पानी के कम दबाव, पुरानी पाइपलाइन, अस्थायी कनेक्शन और कमज़ोर इमारतों जैसी असल परिस्थितियों में काम करने और समस्याओं से निपटने से मिलता है।
ज़मीन पर किए गए इन कामों को मान्यता न देने की यह पूरी धारणा इन मज़दूरों और कामगारों की नहीं बल्कि नीतियों की सीमित सोच को दिखाती है और बताती है कि कैसे ये नीतियां प्रतिभाओं का गला घोंट देती हैं। ये नीतियां समस्याग्रस्त और ढह चुकी व्यवस्थाओं के साथ काम करके उन्हें कारगर बनाने से मिले अनुभव और ज्ञान की गहराई और कीमत को नज़रअंदाज़ करती है।
हालांकि, कुछ पुराने प्लंबर खालिद को अनुभवहीन और लापरवाह बताते थे और हो सकता है कि उसके कुछ तरीकों पर जायज़ सवाल भी उठाए जा सकते हों। लेकिन, जो बात उसे सबसे अलग बनाती थी, वह थी उसकी अपने काम के ज़रिए उन व्यवस्थाओं को काम करने लायक बनाने की क्षमता जिसे बाकी सबने बर्बादी के लिए छोड़ दिया था।
खालिद अपने काम के चुनाव को लेकर भी सतर्क रहा करते थे। मसलन वह इलेक्ट्रिक मोटर लगाने से मना कर देते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि ज़्यादा दबाव से पुरानी पाइप फट जाएंगी और कमज़ोर इमारतें और भी खराब हालत में पहुंच जाएंगी।
दूर से देखने पर लगता था कि वह पानी की छोटी सी टंकी ही तो लगा रहा है, लेकिन असल में उसकी फिटिंग पूरी इमारत में पानी के बहाव की व्यवस्था बदल देती थी। पहले जो पानी इधर-उधर फैलकर दीवारों को कमजोर करता था, गलियारों में भर जाता था और गाड़ियों के फिसलने का कारण बनता था, अब वही पानी सही दिशा में नियंत्रित होकर लोगों के इस्तेमाल में आने लगा था।
यह छोटी-सी मरम्मत दिखने में मामूली हो सकती थी, लेकिन इससे पानी की बर्बादी में कमी आई, रोज़मर्रा के खतरे घटे और सबसे ज़रूरी बात कि लोगों के घरों में नियंत्रण और सम्मान का एहसास पैदा हुआ।
देखभाल जब जन-प्रबंधन की रणनीति हो और मरम्मत अस्थायी जोड़-तोड़ न होकर असली ढांचा बन जाए
खालिद की कहानी अनोखी नहीं है। पूरे हैदराबाद समेत भारत के कई शहरों में उनके जैसे अनगिनत लोग इस तरह के कामों में लगे हुए हैं। उन्हें किसी संस्थान ने औपचारिक रूप से नियुक्त नहीं किया है, लेकिन वे रिस रही पाईपलाइनों वाली कॉलोनियों, ढांचों और अवैध बस्तियों की जीवनरेखा हैं।
ऐसे घरों में जहां बमुश्किल एक बिस्तर और चूल्हे भर की जगह होती है, पानी की सही और बेहतर व्यवस्था के कारण चीज़ों को नए तरीके से व्यवस्थित कर पाने के नए रास्ते खुले हैं। कुछ लोगों ने बार-बार पानी जमा हो जाने वाले कोनों में अस्थायी शौचालय, ऊंचे प्लेटफ़ॉर्म बनवा लिए हैं, वहीं कुछ ने अस्थायी दीवारें खड़ी कर ली हैं और फिटिंग को मज़बूत करवा लिया है।
ये छोटे-छोटे सुधार अक्सर सरकार द्वारा मुहैया करवाए गये अस्थायी शौचालयों से ज़्यादा टिकाऊ साबित हुए। इस तरह यहां प्लंबिंग का काम केवल पाइप लगाने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह लोगों की निजता, सफ़ाई और सम्मान की बुनियाद भी बन गया।
जब नालियां जाम हो जाती हैं, पाइप से पानी रिसने लगता है और लोग यह तय नहीं कर पाते कि उन्हें पानी जैसी ज़रूरी सुविधा कैसे और कब मिलेगी, तो यह बात साफ़ हो जाती है कि शहरों में पानी की राजनीति सिर्फ नदियों से पानी लाने या नई पाइपलाइन बिछाने तक सीमित नहीं है।
यह रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहाव, रुकावटों और टूट-फूट से जुड़ी है, जिससे करोड़ों लोगों का जीवन प्रभावित होता है। मरम्मत और देखभाल को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। ये दोनों ही चीजें जल प्रबंधन के केंद्र में होनी चाहिए क्योंकि इन पर ही पानी की सही व्यवस्था टिकी होती है। हमें रोज़मर्रा के जीवन में इन दोनों कामों की कीमत भी समझनी होगी क्योंकि इनसे आम लोगों के पानी से जुड़े अनुभव तय होते हैं।
अगर हम मज़बूत और टिकाऊ शहरों की अवधारणा को लेकर गंभीर हैं तो हमें मरम्मत को सिर्फ आपात स्थिति में या ज़रूरत पड़ने पर किया जाने वाला अस्थायी काम नहीं, बल्कि एक ज़रूरी ढांचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) मानना होगा, जिसे निवेश, प्रशिक्षण, निरंतरता और देखभाल की ज़रूरत होती है।
आज कई व्यावसायिक प्लेटफ़ॉर्म पर घरेलू सेवा देने वाले लाखों लोगों का नाम दर्ज़ हैं। लेकिन उनका काम अकसर लेन-देन तक सीमित होता है और उन्हें समुदाय की समस्याओं की वैसी समझ नहीं होती। अगर समुदाय में कुछ लोगों के पास ये हुनर पहले से ही मौजूद है, तो हम उन लोगों के लिए बेहतर अवसर और सम्मानजनक व्यवस्था को बनाने का प्रयास क्यों नहीं करते हैं जो वास्तव में हमारे शहर की व्यवस्थाओं को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। हम उन्हें सार्वजनिक व्यवस्था का हिस्सा बनाने की दिशा में काम क्यों नहीं कर सकते?
शहरों में ऐसी रोज़गार गारंटी योजनाएं शुरू हों जो इलाके में मरम्मत और देखभाल करने वाली टीम को फंड दें, अनौपचारिक प्रशिक्षण (अपरेन्टिसशिप) की कीमत को समझें और ऐसे लोगों को लंबे समय के लिए तय सार्वजनिक भूमिकाएं मिलें जो पहले से ही यह काम कर रहे हैं। इससे शहर में मरम्मत और देखभाल का काम तो बेहतर और सुचारु होगा ही, काम करने वालों को इज़्ज़त और सुरक्षा भी मिल सकेगी।
यह असंभव नहीं है। बस उसी व्यवस्था को मज़बूत करने करने की ज़रूरत है जो पहले से मौजूद है। खालिद जैसे लोगों को सहारा देने की ज़रूरत है जो हमारे शहरों में अगली पंक्ति में मुस्तैद रहकर तय करते हैं कि हम पानी और ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे करेंगे। इससे यह भी तय होत है कि एक घर, एक व्यक्ति और एक कामकाजी समाज के रूप में हम अपना जीवन कैसे जियेंगे।
अब इस व्यवस्था की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा है। भारतीय शहरों में यूं भी ऐसे घर सीमित संख्या में ही हैं जिन तक कमज़ोर आय वाला तबका पहुंच सकता है। ऐसे में जब सिंगरेनी जैसी कॉलोनियों को टूटने-गलने के लिए छोड़ दिया जाता है, तो यह कमी और भी बढ़ जाती है। इसलिए, ज़रूरी है कि रखरखाव और मरम्मत को एक बाद में सोचे जाने वाले तकनीकी विषय के रूप में नहीं, बल्कि शहरी प्रबंधन की रणनीति के रूप में देखा जाए।
इसके लिए ज़रूरी है उचित मेहनताना, सुरक्षा उपकरण, स्थायी रोज़गार और ज्ञान साझा करने के लिए मंच। सबसे बढ़कर, हमें यह सोच बदलनी होगी कि कीमत सिर्फ नई चीज़ों की ही नहीं, बल्कि उन लोगों के काम की भी होती है जो पहले से मौजूद व्यवस्थाओं को टूटने से बचाए रखते हैं।
ख़ालिद अब हमारे बीच नहीं हैं। इस कहानी के लिखे जाने के कुछ समय बाद ही एक दुर्घटना में उनका निधन हो गया। उनका योगदान आज भी उस बस्ती के लोगों की यादों में ज़िंदा है जिनकी उन्होंने मदद की थी। यह लेख उनके जीवन, उनके काम और एक रिसते शहर में गरिमा लाने की उनकी कोशिशों को सम्मान देने का एक प्रयास है।
इंडिया वाटर पोर्टल पर मूल रूप से अंग्रेज़ी में छपे इस लेख का अनुवाद डॉ. कुमारी रोहिणी ने किया है।

