पानी से परवरिश
उत्तर बिहार में पानी अथवा दलदली क्षेत्र लोगों को आर्थिक सम्बल और आजीविका उपलब्ध कराने में बड़ी भूमिका निभाता है लेकिन अब तक इसका पूरा दोहन नहीं हुआ है। हालांकि स्थानीय स्तर पर हुए प्रयास सफलता की कई कहानियाँ बयां करते हैं लेकिन सरकारी प्रयास न के बराबर ही हुए हैं। पानी के अर्थतंत्र के तमाम पहलुओं पर रोशनी डालती अनिल अश्विनी शर्मा व मोहम्मद इमरान खान की रिपोर्ट…
बिहार में दलदली क्षेत्र से मछुआरों की आजीविका सुनिश्चित होती है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)दलदली भूमि (वेटलैंड) का नाम जेहन में आते ही अक्सर लोग-बाग नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं या आमतौर पर लोगों के चेहरे पर नकारात्मकता का भाव उभरता है। लेकिन उत्तर बिहार के दरभंगा जिले के तारवाड़ा गांव के मुन्ना सहनी और सुपौल जिले के दभारी गाँव के दिनेश मुखिया ने अपनी हाड़तोड़ मेहनत के दम पर दलदली भूमि पर लोगों की इस नकारात्मकता को सकारात्मकता में तब्दील कर दिखाया। उन्होंने दलदली भूमि को उपजाऊ भूमि की तरह ही अपनी आजीविका का मुख्य साधन बनाया।
मुन्ना सहनी कहते हैं, “मेरे लिये दलदली भूमि बेकार की भूमि नहीं है बल्कि यह पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का सबसे समृद्ध हिस्सा है। मैं इसी दलदली भूमि पर मछली पालन व मखाने की खेती साथ-साथ कर रहा हूँ और इससे अच्छी-खासी आमदनी (प्रति एकड़ 15 से 18 हजार रुपए) हुई है।”
मुन्ना सहनी एवं दिनेश मुखिया, दोनों ही छोटे किसान हैं और पिछले कुछ सालों के विपरीत अब उनके चेहरों पर चिन्ता नजर नहीं आ रही। क्योंकि उन्होंने दलदली क्षेत्रों को ही अपनी आजीविका का साधन बना लिया है।
किसी समय घोर उपेक्षित रहने वाले ये दलदली क्षेत्र अब इनके और इनके पड़ोसियों के लिये आजीविका का मुख्य स्रोत बन चुके हैं। ये किसान मुख्यतया मछुआरा जाति से हैं, जिन्हें स्थानीय लोग सहनी या मल्लाह कहकर बुलाते हैं। इनकी ही तरह सैकड़ों अन्य किसान भी हैं जो पहले की तुलना में अब काफी खुशहाल हैं।
स्थानीय भाषा में इस जमीन को ‘चौर’ कहा जाता है और अब तक इसे बंजर या बेकार ही समझा जाता था। लेकिन अब इन दलदली क्षेत्रों में मत्स्य पालन के साथ-साथ मखाना व सिंघाड़ा जैसी जलीय फसलों की खेती हो रही है। इनमें से कई लोग ऐसे हैं जो वर्षों से बेकार पड़े इन दलदली क्षेत्रों के एक या दो एकड़ के छोटे टुकड़ों पर ही मत्स्य पालन या मखाने की खेती कर रहे हैं। हालांकि इन दलदली क्षेत्रों का लाभ अकेले छोटे एवं हाशिए पर पड़े किसान ही नहीं उठा रहे हैं बल्कि कई अन्य लोगों ने भी इस भूमि को लाभप्रद बनाने के लिये भारी निवेश किया है।
उदाहरण के लिये मुजफ्फरपुर जिले में सराय्या ब्लॉक के नरसन चौर को लिया जा सकता है, जहाँ राजकिशोर शर्मा व राजेश शर्मा ने संयुक्त उद्यम की शुरुआत की है। इसके अलावा शिवराज सिंह भी मुजफ्फरपुर जिले के ही बंद्रा ब्लॉक में आने वाली कोरलाहा चौर में सफलतापूर्वक मत्स्य पालन कर रहे हैं। इसके अलावा वह दलदली भूमि का एक और बड़ा हिस्सा इसी काम के लिये विकसित करने में जुटे हुए हैं। उत्तरी बिहार में इनके जैसे लगभग 24 से अधिक लोग इस तरह के कार्यों में लगे हुए हैं।
मुन्ना सहनी दरभंगा जिले के किरतपुर ब्लॉक के अन्दर आने वाले तारवाड़ा गाँव में लगभग 10 एकड़ दलदली भूमि में मखाने की खेती के साथ-साथ मत्स्य पालन भी कर रहे हैं। लेकिन दिनेश ने सुपौल जिले के सुपौल ब्लॉक में पड़ने वाले दभारी गाँव में भूमि मालिकों (किसानों) से पट्टे पर लगभग 50 एकड़ की दलदली भूमि ली है। वह कहते हैं, “आठ साल पहले तक दलदली भूमि का कोई उपयोग नहीं था। भूमि मालिकों को इससे कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन मैंने एक पहल की और शुरुआत में कुछ एकड़ में मछली पालन के साथ-साथ मखाने की खेती शुरू की। बाद में मैंने उसका और विस्तार भी किया।”
मुन्ना व दिनेश दोनों को मत्स्य पालन एवं मखाने की खेती के लिये और दलदली भूमि की आवश्यकता है। वे और भी जमीन पट्टे पर लेकर इस दिशा में निवेश करना चाहते हैं लेकिन पूँजी के मामले में स्थानीय प्रशासन एवं बैंकों की उदासीनता आड़े आ रही है। मुन्ना कहते हैं, “मेरे पास पूँजी नहीं है, सरकार से अब तक कोई मदद नहीं मिली है।”
आज से पाँच साल पहले तक मुन्ना कोसी नदी में बालू खोद कर एवं उसे बेचकर जीवन-यापन किया करते थे। लेकिन आज वे खुश हैं। वे पूरे ब्लॉक में अकेले ऐसे हैं जिसने अपनी आजीविका के लिये दलदली भूमि के उपयोग का एक मॉडल विकसित करने में सफलता तो पाई है, साथ ही अन्यों के लिये भी रोजगार के अवसर बनाए हैं। वह कहते हैं, “लगभग 20 से 25 स्थानीय लोग मेरे साथ मजदूरी या अन्य सम्बन्धित कामों में लगे हैं। मेरे तालाबों से मछलियाँ खरीदकर लोग उन्हें बेच भी रहे हैं। प्रारम्भ में सुधार धीमा और लाभ कम था लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। हम खुश हैं कि दलदली भूमि ने हमारी किस्मत बदल दी है। इन दलदली क्षेत्रों की बदौलत मेरा जीवन स्तर पाँच वर्ष पहले की तुलना में काफी बेहतर हो गया है। मैं और दस एकड़ जमीन पट्टे पर लेना चाहता हूँ।”
बिहार के दलदली क्षेत्र की मखाना एक अहम उपज है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)मुन्ना बताते हैं कि जहाँ तक दलदली क्षेत्रों की बात है, सरकार से मिली छोटी सी सहायता भी उनके जैसे लोगों की मदद कर सकती है और एक बड़ा बदलाव ला सकती है। सरकार चाहे तो बहुत विकास हो सकता है। उनसे प्रेरित होकर तीन अन्य लोगों ने अलग-अलग चौर में ऐसा ही करने की कोशिश की लेकिन निवेश के लिये धन की कमी के कारण उन्हें काम बीच में ही बन्द करना पड़ा।
दिनेश ने कहा सरकार से मिली थोड़ी सी मदद हम जैसे लोगों के लिये, जो कि कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं, काफी बड़ी राहत होगी। कुछ मदद मिल जाए तो बड़ा बदलाव सम्भव है। पैसे की कमी से कुछ लोग नहीं कर पाते हैं। कई लोग इस क्षेत्र में आने के लिये उत्सुक हैं लेकिन शुरुआती निवेश के लिये धन की कमी उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी है।
यदि उत्तर बिहार में दलदली भूमि के क्षेत्रफल को आंके तो पाएँगे कि इसका हिस्सा कुल क्षेत्रफल में ठीक-ठाक है। इस सम्बन्ध में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) द्वारा तैयार किए गए राष्ट्रीय वेटलैंड्स एटलस के अनुसार, बिहार के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 4.4 प्रतिशत (कुल मिलाकर 4,03,209 हेक्टेयर) दलदली क्षेत्र है। 4,416 बड़े एवं 17,582 छोटे दलदली क्षेत्रों (2.25 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल) की पहचान कर ली गई है।
राज्य के कुल दलदली क्षेत्रों का 92 प्रतिशत हिस्सा प्राकृतिक है, वहीं 3.5 प्रतिशत हिस्सा मानव निर्मित है। उत्तर बिहार में 2,69,418 हेक्टेयर दलदली भूमि है जो कि इस इलाके के कुल क्षेत्रफल का 4.96 प्रतिशत है। कटिहार में अधिकतम 21,011 हेक्टेयर (जिले के कुल क्षेत्रफल का 10.30 प्रतिशत) जमीन इस श्रेणी की है।
जहाँ तक कुल दलदली क्षेत्र की बात है तो कटिहार के बाद पश्चिमी चम्पारण, सारण, बेगूसराय एवं सुपौल का नम्बर आता है। दरभंगा जिले में भी 8,709 हेक्टेयर दलदली भूमि है जो कि इसके कुल क्षेत्रफल का 3.48 प्रतिशत है। मुजफ्फरपुर में 1,049 हेक्टेयर (2.60 प्रतिशत) दलदली भूमि है जबकि सुपौल में 19,285 हेक्टेयर जो कि इस जिले के कुल क्षेत्रफल का 4.7 प्रतिशत है।
दलदली भूमि से कारोबारी लाभ
दलदली भूमि से अकेले मुन्ना और दिनेश जैसे लोग ही लाभ नहीं उठा रहे हैं बल्कि अब इस काम में इलाके के व्यवसायियों ने भी इस दिशा में काम शुरू किया है। इस सम्बन्ध में राजेश कुमार नामक एक युवा व्यवसायी ने बताया, “हमने कई उपेक्षित एवं खाली पड़े दलदली क्षेत्रों को मछली पालन के लिये कई बड़े तालाबों में परिवर्तित कर दिया है और हम कुल सत्तर एकड़ की इस दलदली भूमि को एक एकीकृत कृषि केन्द्र के रूप में विकसित करेंगे।” उन्होंने आगे बताया कि मत्स्य पालन के लिये दलदली भूमि को विकसित करने का उनका यह उद्यम केवल डेढ़ साल पुराना है और इसे पूर्णतया विकसित होने में अभी डेढ़ से दो साल और लगेंगे। वह बताते हैं, “हमने इस साल कुल 36 लाख रुपए की मछलियाँ बेची हैं। हम अगले साल तक इस आँकड़े को दोगुना कर लेंगे। बाजार हमारे लिये कोई समस्या नहीं है। स्थानीय बाजार में माँग अधिक और आपूर्ति कम है।”
राजेश की बात की पुष्टि मुजफ्फरपुर जिला प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी भी यह कह कर करते हैं, “हर रोज 12 लॉरी भरकर मछलियाँ आंध्र प्रदेश से मुजफ्फरपुर लाई जाती हैं।” वहीं दूसरी ओर मुजफ्फरपुर के गाँव के पास शिवराज सिंह ने 25 किसानों से 102 एकड़ दलदली भूमि पट्टे पर लेकर उसमें मत्स्य पालन पर केन्द्रित एकीकृत खेती का एक सफल मॉडल प्रस्तुत किया है। इसके उलट राजेश एवं राजकिशोर ने 45 किसानों से दलदली भूमि खरीदकर उसे मत्स्य पालन केन्द्र के रूप में विकसित किया है।
आगे चलकर इसे एक एकीकृत कृषि केन्द्र के रूप में विकसित करेंगे। राजकिशोर, जो कि मूल रुप से एक बिल्डर (अपार्टमेंट निर्माण का व्यवसाय) है, कहते हैं, “इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हमने बिना किसी सरकारी मदद के अच्छा खासा निवेश किया है। लेकिन हम इसकी सफलता को लेकर काफी आशान्वित भी हैं। हमारे काम से प्रभावित होकर कुछ लोगों ने हमारे ही प्रोजेक्ट के पास दलदली भूमि का एक बड़ा हिस्सा पट्टे पर लेकर मत्स्य पालन शुरू कर दिया है।” यह एक सकारात्मक संकेत है जिससे साफ दिखता है कि दलदली क्षेत्र में काफी सम्भावनाएँ निहित हैं।
राजेश पुराने समय को याद करते हुए बताते हैं कि किसी समय किसानों के लिये ये दलदली भूमि बिना किसी मुनाफे के एक बोझ जैसी थी और जब हमने उसे खरीदने में दिलचस्पी दिखाई तो वे तुरन्त मान गए क्योंकि उस समय वह जमीन निश्चय ही बेकार थी। उन्होंने माना कि तीन साल पहले उन्हें यह जमीन कौड़ियों के भाव मिल गई थी। वहीं आज नरसन चौर स्थित उनके प्रोजेक्ट के आस-पास की जमीन के दाम काफी ऊपर हो गए हैं।
वर्तमान में कुल 8 बड़े तालाब हैं, जिनमें मत्स्य पालन हो रहा है। सबसे बड़ा तालाब, 15, उससे छोटा 13 और सबसे छोटा 5 एकड़ का है। मानसून के बाद अधिकतर तालाबों का काम पूरा हो जाएगा। इसके अलावा मुर्गी पालन, डेरी एवं बकरी पालन की भी योजना है। राजकिशोर ने एकीकृत खेती के एक हिस्से के तौर पर 1000 नारियल के पौधे लगाने की अपनी नई योजना का खुलासा करते हुए कहा कि हमने कर्नाटक से नारियल के पौधे लाने का फैसला किया है।
पास के ही गाँव के मछुआरा समुदाय के हरेंद्र सहनी ने कहा कि कुछ सालों से सूखे पड़े इस दलदली क्षेत्र को मत्स्य पालन के लिये विकसित करने की योजना बिलकुल सही है। वह कहते हैं, “मछली पकड़ने के अलावा यहाँ कोई काम नहीं हो सकता।” सिकन्दर सहनी एवं रामदेव सहनी, दोनों ही राजेश के जग भारती मछली फार्म में काम करते हैं। उन्होंने बताया कि इन मछलियों के बाजार में पहुँचते ही कई लोग उनसे दलदली क्षेत्र में मछली पालन के बारे में जानकारी माँगते हैं। वे कहते हैं, “यह दलदली क्षेत्र करीब 100 एकड़ में फैला हुआ है और कई पीढ़ियों से इसमें जल जमाव था जो कि 2016 में सूख गया। जब इस जमीन में पानी था तब 100 से भी ज्यादा मछुआरे यहाँ मछलियाँ पकड़कर अपनी आजीविका चलाते थे। उन्हें भूस्वामियों को पैसे भी नहीं देने पड़ते थे।”
मुलटुपुर के दलदली क्षेत्र को सफलतापूर्वक एकीकृत कृषि क्षेत्र में बदलने के बाद मत्स्य विज्ञान के जानकार शिवराज अब हरपुर के सरैया में करीब 65 एकड़ भूमि को विकसित करने में जुटे हुए हैं। वे चरणबद्ध तरीके से वहाँ करीब 400 एकड़ जमीन को विकसित करने की योजना बना रहे हैं। वे कहते हैं, “मुझे उम्मीद है कि इस साल आगामी नवम्बर महीने से हम मछलियाँ पकड़ना शुरू कर देंगे क्योंकि अभी काम चल ही रहा है। वर्तमान में मैंने 6 स्थानीय निवासियों को काम पर रखा है और आगे भी कामगार रखूँगा। छठ त्यौहार के बाद पहली बार मछली तालाब से निकलेगी।” सिंह पहले ही मुलटुपुर गाँव के पास 102 एकड़ की दलदली जमीन को विकसित कर चुके थे। राज्यभर में हजारों एकड़ दलदली क्षेत्र का इस्तेमाल जलीय कृषि के लिये किया जा सकता है। वह कहते हैं, “उत्तर भारत के बेकार पड़े दलदली क्षेत्र न केवल बिहार को मछली पालन में अगुवा बना सकते हैं बल्कि यह राज्य पूरे देश में मछली का एक बड़ा आपूर्तिकर्ता बन सकता है। आवश्यकता है तो बस सही इस्तेमाल और प्रबन्धन की।”
लाभदायक कारोबार उपेक्षा का शिकार (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)मत्स्य पालन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी यशवीर चौधरी ने बताया कि मत्स्य पालन के लिये दलदली भूमि के कई बड़े, मध्यम और छोटे क्षेत्र विकसित किए गए। राजेश एवं शिवराज सहित ऐसे दो दर्जन से अधिक और लोग हैं, जिन्होंने मत्स्य पालन के लिये दलदली क्षेत्र को विकसित किया है। उनमें से कुछ ने भारी मात्रा में निवेश किया है और वे इस काम को व्यावहारिक और लाभप्रद बनाने की दिशा में कड़ी मेहनत कर रहे हैं। वह बताते हैं कि भरत लाल ने बनका चौर में 28 एकड़ की दलदली भूमि को मत्स्य पालन के लिये विकसित किया है।
चंदन चौधरी ने इसी चौर में मत्स्य पालन हेतु 14 एकड़ भूमि विकसित की है, सुधांशु कुमार ने खरौना चौर में 26 एकड़ जमीन विकसित की। अमित कुमार ने मरवान चौर में मत्स्य पालन के लिये 22 एकड़ भूमि, प्रभात सिंह ने रुटिन्या चौर में 18 एकड़, मुकेश प्रसाद ने खजूरी चौर मविन में 28 एकड़ और प्रकाश कुमार ने पिरौछा चौर में 7 एकड़ जमीन विकसित की है और इतना सब कुछ अकेले मुजफ्फरपुर जिले में ही हुआ है।
दूसरे जिले की बात करें तो सुपौल में गिरधारी मुखिया ने 12, अक्षत वर्मा ने कंडी चौर, दरभंगा जिले में 34 एकड़, गुड्डू कुमार ने देसुआ चौर, समस्तीपुर जिले में 12 एकड़ और सुनील कुमार ने साझिआडपई चौर, समस्तीपुर जिले में 56 एकड़ दलदली भूमि विकसित की है।
उदासीन रवैया
जहाँ तक बिहार राज्य सरकार द्वारा दलदली भूमि को विकसित करने की बात है तो इसमें राज्य सरकार के महकमे का रवैया उदासीनता भरा है। तभी तो राज्य के वन और पर्यावरण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “बिहार शायद एकमात्र ऐसा राज्य है, जहाँ दलदली क्षेत्रों की देखभाल के लिये कोई उचित निकाय नहीं है।”
ध्यान देने की बात है कि एक दलदली भूमि प्राधिकरण राज्य सरकार द्वारा 2012 में अधिसूचित अवश्य किया गया था, लेकिन अभी तक उसका गठन नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि सदस्यों के चयन पर वर्तमान मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के बीच उपजे मतभेदों के कारण औपचारिक रूप से इसका गठन नहीं हो पाया।
हालांकि राज्य सरकार ने 2012 में बिहार दलदली भूमि विकास प्राधिकरण को दलदली क्षेत्रों से सम्बन्धित नोडल नीति निर्धारक एवं योजना एजेंसी के रूप में गठित किया है, लेकिन आज तक इससे कुछ भी आगे नहीं बढ़ पाया है। वहीं वन विभाग के अतिरिक्त प्रधान मुख्य संरक्षक भरत ज्योति ने यह अवश्य कहा, “दलदली भूमि का संरक्षण सरकार की नजर में है। हम इसके लिये पूरी तत्परता से काम कर रहे हैं, इसका जल्दी ही परिणाम सामने आएगा।”
वहीं राज्य के वन और पर्यावरण विभाग के निदेशक संतोष तिवारी ने कहा कि सरकार मॉडल के रूप में दलदली भूमि झील विकसित करने योजना बना रही है और साथ ही उसके आस-पास रह रहे समुदायों के सतत विकास के लिये दीर्घकालिक योजना भी बनाई गई है। तिवारी बताते हैं कि केन्द्रीय एजेंसियों की मदद से सैटेलाइट मैपिंग के माध्यम से 100 एकड़ से अधिक में फैले 133 दलदली क्षेत्रों को चिन्हित किया जा चुका है।
सरकार ने राज्य के अन्य दलदली क्षेत्रों के संरक्षण के लिये कई कदम उठाए हैं। 12 जिलों के 28 दलदली क्षेत्रों को अलग से चिन्हित कर लिया गया है और उनकी अधिसूचना के लिये सिफारिश भी की गई है। इस सूची के मुताबिक पश्चिम चम्पारण जिले में ललसरैया, पूर्वी चम्पारण जिले में मोती झील एवं करैया मन, मुजफ्फरपुर जिले में मोनिका मैन, कोटियाशरीफ मैन और बन्यारा रहीवीन, सारण जिले में मिरासपुर बहियारा और अतनगर मैन, सिवान जिले में सुरला चौर, सलाह चौर और वैशाली जिले में कंसार चौर, लानल जेल, महापारा, हरही झील, दीघी झील और गंगा सागर झील में ताल, बैराला। समस्तीपुर जिले में दखलचौर, कबीरताल, बसही और बेगूसराय जिले में एकम्बा। कटिहार जिले में गोगबेल और बागारबील। भोजपुर में भागवत और चरखी और बक्सर जिले में कोलिया खाप दलदली भूमि शामिल हैं।
उत्तर बिहार में दलदली भूमि को यहाँ की जीवन रेखा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहाँ की अर्थव्यवस्था को सुगम बनाने में दलदली भूमि की भूमिका अहम है लेकिन उसका समुचित रख-रखाव या प्रबन्धन नहीं होने के कारण स्थानीय लोगों के लिये आजीविका का साधन नहीं बन पा रही है।
दरभंगा कॉलेज के प्रोफेसर विद्यानाथ झा ने दलदली भूमि एवं मखाना पर वृहद शोध कार्य किया है। उन्होंने बताया, “इस क्षेत्र में हजारों तालाब, कुएँ, चौर एवं झील एक साथ मिलकर इस क्षेत्र की जीवन रेखा का निर्माण करते हैं। वे सिंचाई के साथ-साथ मत्स्य पालन के स्रोत भी हैं और इस इलाके के जीव-जन्तुओं एवं मनुष्यों की जीविका का एक बड़ा हिस्सा भी पीढ़ियों से बने हुए हैं।”
उत्तर बिहार अपने दलदली क्षेत्रों के लिये जाना जाता है। उत्तर बिहार के बारे में कहा जाता है कि यहाँ समृद्ध संसाधनों पर गरीब आदमी निवास करता है। उदाहरण के लिये दरभंगा जिला बाढ़ग्रस्त इलाका माना जाता है। यहाँ लम्बे समय तक जमीन पानी में डूबी रहती है।
यहाँ चावल-गेहूँ की उत्पादकता (1.07 व 1.08 टन प्रति हेक्टेयर) बहुत कम है लेकिन दूसरी ओर इस जिले के दलदली इलाकों में बोरो चावल का उत्पादन अधिक होता है। यही नहीं यहाँ की दलदली भूमि में सर्दियों में मक्का, दाल और मखाना व सिंघाड़े का भी उत्पादन होता है। इसी प्रकार से समस्तीपुर जिले में 77 फीसदी जमीन दलदली है। वहीं वैशाली में 61.5 प्रतिशत इलाका बाढ़ग्रस्त है तो मुंगेर में बाढ़ग्रस्त क्षेत्र 57 प्रतिशत है।
मिथिला के दलदली क्षेत्रों की पहचान है कि यहाँ मखाने की फसल उगाई जाती है। इसके अलावा अन्य जलीय फसलें भी हैं। इस इलाके के दलदली क्षेत्र जलीय जैव विविधता का भंडार हैं और आस-पास की जनसंख्या के लिये सतत आजीविका का आधार प्रदान करते आए हैं। झा की मानें तो उत्तर बिहार की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक इसकी जलीय सम्पदा पर निर्भर करती है और दलदली क्षेत्र उसके अन्तर्गत आते हैं।
गंगा के तटीय क्षेत्र में परिवहन के लिये नावों का उपयोग किया जाता है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)मत्स्य पालन की विशाल क्षमता रखने के बावजूद यह राज्य अब तक इसका दोहन करने में असफल रहा है। इस हिसाब से देखा जाए तो मत्स्य पालन क्षेत्र खाद्य सुरक्षा एवं रोजगार उत्पादन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अपने जीवन-यापन के लिये इस पर निर्भर है। यह राज्य के लिये बहुमूल्य राजस्व भी पैदा करता है।
मखाना मुख्य रूप से मिथिलांचल, सीमांचल और कोशी क्षेत्र के आठ जिलों में उगाया जाता है। इसकी खेती दलदली क्षेत्रों एवं तालाबों में खासकर होती है। झा के अनुसार, “बिहार के कुल मखाना उत्पादन का 90 प्रतिशत यह क्षेत्र उपजाता है।”
आजीविका का साधन
उत्तर बिहार में दलदली भूमि स्थानीय लोगों के लिये आजीविका का एक बड़ा साधन है। इस बात की पुष्टि दक्षिण एशियाई देशों की सरकारों के साथ करने वाले ग्रुप एक्शन ऑन क्लाइमेट टुडे ने अपनी रिपोर्ट में की है। कहा है कि बिहार में दलदली भूमि आजीविका के मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही है।
अपनी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर बिहार में आने वाली भयंकर बाढ़ का नियंत्रण करने में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसके अलावा दलदली भूमि भूजल स्तर को बढ़ाती है, पेयजल और सिंचाई में भी कारगर है। इसकी बदौलत राज्य में मत्स्य पालन को एक सुरक्षित स्थान मिलता है। यही नहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके चलते राज्य में 49 लाख मछुआरों की आजीविका सुनिश्चित होती है।
चावल, सिंघाड़ा और मखाना की खेती भी इस दलदली भूमि में ही होती है। दलदली भूमि यहाँ की संस्कृति का न केवल एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि वह यहाँ की जमीनी आबोहवा में रच बस गई है। यहाँ के त्यौहार, लोक प्रथाएँ और लोक कथाएँ दलदली भूमि पर पारिस्थितिकी तंत्र में एक-दूसरे में गुथ गए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार में दलदली भूमि के विकास को लेकर दबाव बढ़ता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण है राज्य में बढ़ती आबादी के लिये भोजन और पानी की जरूरतों को पूरा करना। राज्य में दलदली भूमि के विकास में आने वाली अड़चनों का मुख्य कारण है यहाँ के शासन व प्रशासन द्वारा पारिस्थितिकीय कार्य प्रणाली के मूल्यों की समझ का कम होना।
फिर राज्य में अभी दलदली भूमि का उपयोग केवल मौसमी तौर पर कृषि उपयोग के लिये ही होता है। उत्तर बिहार में 70 फीसदी से अधिक बाढ़ तो यहाँ बने 3,000 किलोमीटर लम्बे तटबन्धों के कारण आती है। ये तटबन्ध नदी की कनेक्टिविटी को तो प्रभावित करते ही हैं, साथ ही इसका परिणाम यह होता है कि यहाँ की दलदली भूमि में रासायनिक पदार्थों व कीटनाशकों का समावेश हो जाता है।
राज्य में बड़े पैमाने पर रोजगार की तलाश में पलायन होता आया है। इस सम्बन्ध में दरभंगा जिले के एक जल कार्यकर्ता नारायणजी चौधरी ने कहा कि मिथिलांचल की हजारों एकड़ भूमि को बंजर माना जाता है। लेकिन इसका उपयोग बड़े पैमाने पर पर मत्स्य पालन और मखाने की खेती के लिये किया जा सकता है।
इससे गरीबी और क्षेत्र में बड़े पैमाने पर होने वाले पलायन को रोकने में मदद मिलेगी। उत्तरी बिहार आमतौर पर आजीविका की खोज में राज्य से पलायन के लिये जाना जाता है। उन्होंने बताया, “कोसी तटबन्ध के दोनों किनारों पर हजारों एकड़ भूमि बेकार पड़ी है, जिसका इस्तेमाल मत्स्य पालन एवं जलीय कृषि के लिये किया जा सकता है।”
दलदली भूमि पर विशेष अध्ययन करने वाले बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के पूर्व अतिरिक्त सचिव गजानन मिश्र कहते हैं- “नदियों एवं दलदली क्षेत्रों के बीच का सदियों पुराना सम्बन्ध टूट चुका है। ऐसा तटबन्धों, सड़कों, रेल की पटरियों एवं अन्य मानवीय गतिविधियों की वजह से हुआ है। इस इलाके में दलदली क्षेत्रों की बिगड़ती हालत के लिये यही गतिविधियाँ प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।”
एक समय था जब मिथिलांचल (दरभंगा एवं आस-पास के 12 जिलों को मिलाकर बना) में खेती के नजरिए से दलदली भूमि काफी महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। किसान धान और मक्का की विशिष्ट किस्में तो उगाते ही थे, साथ-ही-साथ मत्स्य पालन भी होता था। ये फसलें बिना किसी सिंचाई एवं खाद के उपजती थीं और मूल खर्च केवल बीजों का आता था।
धान और मक्का के 15 फुट लम्बे तने जानवरों के लिये चारे का काम करते थे। मिश्र ने कहा, “लेकिन अब यह सब खत्म हो चुका है। कुछ नहीं बचा।” उनका कहना है कि बिना उर्वरकों के ही इस दलदली भूमि की उत्पादकता काफी अधिक हुआ करती थी और लोग एक हेक्टेयर भूमि से 2 से 4 क्विंटल तक छोटी मछलियाँ पकड़ लिया करते थे।
अब वर्तमान उत्पादकता घट गई है और रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल चरम पर है। इसके फलस्वरूप जहरीले तत्व पानी में प्रवेश कर जाते हैं। यही कारण है कि अब समूचा दलदली क्षेत्र ही जहरीला हो चला है। उन्होंने बताया कि हाल ही में दरभंगा से यूरोपीय देशों को भेजी गई मखाने की एक खेप को अत्यधिक कीटनाशक होने की वजह से वापस भेज दिया गया।
दलदली क्षेत्र एक समृद्ध जलीय संसाधन है लेकिन लगातार इनका ह्रास होता आ रहा है। उत्तरी बिहार के हर गाँव की कम-से-कम 5 से 10 प्रतिशत जमीन इस श्रेणी में आती है। मिश्रा बताते हैं कि आर्द्र क्षेत्रों को बचाने की दिशा में नीतिगत स्तर पर राज्य सरकार द्वारा अब तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं।
यही कारण है कि दिन प्रतिदिन दलदली भूमि की स्थिति खराब होती जा रही है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र के लोकगीतों में दलदली क्षेत्रों को नदियों के भाई के रूप में दर्शाया गया है। क्योंकि ये दलदली क्षेत्र ही नदियों को सूखे मौसम में जिन्दा रखते हैं। लेकिन अब ये दलदली क्षेत्र अपनी यह भूमिका नहीं निभा पा रहे और इसके कई कारणों को इंगित करते हुए मिश्रा ने बताया, “अब नदी और दलदली क्षेत्रों के बीच का पुराना गहरा रिश्ता करीब-करीब खत्म हो चुका है। यह दिख भी रहा है क्योंकि कई दलदली क्षेत्र अब सूख चुके हैं। उन्हें पुनर्जीवित करना बहुत ही कठिन है।”
आमतौर पर यह देखा जाता है कि दलदली जमीन को लेकर लोगों में काफी भ्रम होता है और लोग-बाग इसे अच्छी नजर से नहीं देखते। दरभंगा के दलदली क्षेत्रों की पारिस्थितिकी पर शोध कार्य करने वाले शमीम बार्बी ने बताया, “कालक्रम में एक धारणा बन चुकी है कि ये दलदली क्षेत्र वास्तव में बेकार हैं क्योंकि इस जमीन पर पानी भरा है। लेकिन दरअसल ये दलदली क्षेत्र प्रकृति के ‘गुर्दे’ हैं। यह स्थापित तथ्य है कि सरकार भी यह मानती है कि दलदली क्षेत्र एक मूल्यवान पर्यावरण प्रणाली है और इसे बंजर कहना कहीं से भी उपयुक्त नहीं है।” दलदली क्षेत्र मखाना, सिंघाड़ा और मत्स्य पालन के लिये उपयुक्त हैं। अगर सरकार चाहे तो वह इन दलदली क्षेत्रों को बचा सकती है। इनका बड़े स्तर पर ह्रास हुआ है लेकिन अब भी उम्मीद कायम है।
उत्तर बिहार में नदी तटबन्धों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र बताते हैं कि दलदली क्षेत्र बाढ़ के प्रभाव को कम करते हैं, भूजल के स्तर को बरकरार रखते हैं और जीवन-यापन में भी सहायक होते हैं। उनका कहना है- “इन दलदली क्षेत्रों को यथासम्भव बहाल करना चाहिए और इनके अतिक्रमण को भी रोकने की आवश्यकता है।” उनका मानना है कि दलदली भूमि में आजीविका की सम्भावना है और सही तरीके से विकसित किए जाने की सूरत में यह बाढ़ के साथ-साथ कोसी, सीमांचल एवं मिथिलांचल से लगातार होते पलायन को भी कम करेगा।
उत्तर बिहार में काम कर रहे एक पर्यावरण कार्यकर्ता रणजीव ने कहा कि कुछ दशकों पहले एक समय था जब देसरिया चावल (दलदली क्षेत्रों में उपजने वाली धान की एक खास किस्म) और कवई मछली के लिये मिथिलांचल प्रसिद्ध हुआ करता था। अब वैसा नहीं रहा। दलदली क्षेत्रों में उगाई जाने वाली किस्में या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं। वह कहते हैं, “देसरिया चावल और कवई मछली का उपयोग मेहमानों के लिये सम्मान के प्रतीक के तौर पर किया जाता था। लेकिन अब दोनों गायब हैं।”
बिहार में मछली की माँग 6.42 लाख मीट्रिक टन से अधिक है (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)उत्तर बिहार में दलदली भूमि का सही प्रबन्धन नहीं होने के कारण अब इस इलाके में मखाने के उत्पादन में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। इस सम्बन्ध में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) पटना में डिवीजन ऑफ सोशियो इकोनॉमिक्स एंड एक्सटेंशन एंड ट्रेनिंग के प्रमुख और मुख्य वैज्ञानिक उज्जवल कुमार ने कहा “उत्तर बिहार में दलदली भूमि के प्रबन्धन की प्रमुख समस्या है। हम दलदली भूमि प्रबन्धन में सक्षम नहीं हैं और इसी का परिणाम है कि अब तक दलदली भूमि का ठीक से उपयोग नहीं किया जा सका है।” दलदली भूमि के साथ ही अन्य जल निकाय भी कम हो रहे हैं और यह पारिस्थितिकी तंत्र के लिये एक बुरा संकेत है। उन्होंने बताया 2009-10 में 15,000 हेक्टेयर जमीन में मखाने की खेती की जाती थी, जिसमें ज्यादातर दलदली भूमि शामिल थी लेकिन अब यह कम होकर लगभग 10,000 हेक्टेयर तक सिमट गई है। साथ ही उत्पादकता भी कम हो गई।
हालांकि आईसीएआर ने जल निकायों के संकुचन के मद्देनजर उच्च उत्पादकता के लिये मखाना की एक नई किस्म विकसित की है। दलदली भूमि का उपयोग बड़े पैमाने पर मखाना और सिंघाड़ा के उत्पादन तथा मछली पकड़ने के लिये किया जा सकता है। यहाँ ताजे पानी के झींगा होने की भी सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन आज तक दलदली भूमि का उत्पादन के लिये उपयोग शुरू नहीं हुआ।
कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताया, “भूमि विन्यास, पुनर्वसन और नवीनीकरण के माध्यम से दलदली भूमि को उत्पादक उपयोग के लिये विकसित करने की आवश्यकता है।” दलदली भूमि समेत जल निकायों का कम उपयोग किया जा रहा है। एकीकृत खेती का प्रचार कर किसानों को दलदली भूमि का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है। यह एक उपयुक्त विकल्प है। कुमार कहते हैं, “हमें मौद्रिक अवधि में प्रति व्यक्ति भूमि और जल उत्पादकता में वृद्धि करनी है। अधिकतम उपयोग काफी उपयोगी साबित होगा क्योंकि उत्पादन की कम लागत लाभ को बढ़ावा देगी। साथ ही स्थानीय निवासियों के लिये आजीविका के अवसर बढ़ेंगे और नौकरियाँ पैदा होंगी।” वहीं इस बारे में आईसीएआर पटना के पशुधन और मत्स्य प्रबन्धन के प्रमुख वैज्ञानिक कमल शर्मा ने कहा कि दलदली भूमि एक प्राकृतिक संसाधन है जो आजीविका का एक बड़ा स्रोत हो सकता है।
दलदली भूमि को एक दीर्घकालिक स्थिरता के साथ मत्स्य के लिये विकसित किया जाना चाहिए। हमें पारिस्थितिकी तंत्र से छेड़छाड़ किए बिना, दलदली भूमि का उत्पादन बढ़ाने के लिये विकसित करने पर गौर करना चाहिए।
हालांकि राज्य मत्स्य पालन निदेशालय के आँकड़े यह बता रहे हैं कि गत वर्ष के मुकाबले इस वर्ष मछली का उत्पादन अधिक हुआ है। आँकड़ों के अनुसार, राज्य ने 2017-18 के दौरान 5.35 लाख मीट्रिक टन मछली का उत्पादन किया जोकि 2016-17 के कुल उत्पादन 5.10 लाख मीट्रिक टन से अधिक है। इस अधिक उत्पादन की सच्चाई यह है कि आज भी बिहार 6.42 लाख मीट्रिक टन मछली की वार्षिक माँग को पूरा करने के लिये अन्य राज्यों की आपूर्ति पर निर्भर करता है। बिहार से 30,000 मीट्रिक टन मछली पड़ोसी नेपाल और पश्चिम बंगाल जाती है।
बिहार में मछली की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 7.7 किलोग्राम है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह औसत 10 किलोग्राम प्रति व्यक्ति है। दलदली क्षेत्र समेत अन्य जल संसाधनों के होने के बावजूद बिहार अपनी माँग को पूरा करने लायक पर्याप्त मछली नहीं पैदा कर पा रहा है। राज्य सरकार ने 2021-22 के अन्त तक मछली उत्पादन को बढ़ाकर 8 लाख मीट्रिक टन करने का लक्ष्य रखा है। ऐसा बिहार को मछली सरप्लस बनाने की दृष्टि से किया जा रहा है।
कृषि वैज्ञानिक और आईसीएआर के पूर्व महानिदेशक मंगल राय ने कहा, “यदि आंध्र प्रदेश 2 लाख एकड़ में मत्स्य पालन करके देश भर के बाजारों के लिये इतनी मछलियों का उत्पादन कर सकता है, तो यह सोचने वाली बात होगी कि बिहार के दलदली क्षेत्रों में कितनी क्षमता है। आंध्र प्रदेश में पैदा की गई मछलियों से पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, झारखंड और ओडिशा एवं बिहार में मछली की लगभग 40 प्रतिशत जरूरत पूरी हो रही है।” उत्तर बिहार का दलदली क्षेत्र आज हीरे की तरह मूल्यवान है। यह एक दशक पहले सोने की खान हुआ करती थी। क्षेत्र दलदली भूमि से भरा हुआ और बाढ़ इलाके के लिये एक अभिशाप हो सकता है लेकिन यह बिहार को समृद्ध बनाने का एक बड़ा अवसर है। इसके लिये व्यवस्थित निवेश की आवश्यकता है। यह बाकी किसी भी क्षेत्र में निवेश से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
राज्य के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि अगर दलदली क्षेत्रों का प्रभावी उपयोग राज्य में सुनिश्चित किया जाए तो सम्भव है कि दलदली क्षेत्रों का पुराना वैभव लौट आए। किसानों को कृषि वानिकी, शुष्क भूमि बागवानी, वाणिज्यिक मत्स्य पालन, मत्स्य पालन, डेयरी, कुक्कुट और अन्य पशुपालन आधारित उद्यमों को एकीकृत कृषि के दृष्टिकोण से कार्यान्वित करने हेतु प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
इस बारे में कृषि विशेषज्ञ व समस्तीपुर के पूसा स्थित राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति गोपालजी त्रिवेदी ने सुझाव दिया कि शुष्क भूमि कृषि दलदली भूमि क्षेत्रों के लिये अनुपयुक्त है। अगर हम मुलटुपुर में एकीकृत खेती के लिये दलदली भूमि विकसित कर सकते हैं, तो बाढ़ प्रभावित उत्तर बिहार क्षेत्र में सैकड़ों ऐसे गाँव हैं, खासकर सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल में, जहाँ लोग कृषि के लिये अपनी दलदली भूमि को विकसित कर सकते हैं।
जलीय अर्थव्यवस्था (फोटो साभार - डाउन टू अर्थ)विश्व बैंक द्वारा तैयार की गई एक नवीनतम रिपोर्ट “वेटलैंड मैनेजमेंट इन बिहार द केस ऑफ कांवर झील” के अनुसार इस क्षेत्र की जलीय व्यवस्था को बनाए रखने में इस झील की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस दलदली क्षेत्र में 17 गाँवों के करीब 15 हजार परिवार यहीं पैदा होने वाली मछली एवं जलीय पौधों का इस्तेमाल, भोजन, चारे व पुआल के तौर पर करते हैं। कांवर झील में मत्स्य पालन में काफी कमी आई है।
पिछले पाँच वर्षों में यहाँ आने वाली वीवरबर्ड पक्षी की संख्या में भी कमी आई है। रिपोर्ट बताती है, “कांवर आर्द्र क्षेत्र फिलवक्त सिकुड़ता चला जा रहा है। इसका कारण है नदियों से लगातार टूटते सम्बन्ध और 2001 से ही लगातार कम हो रही बारिश।”
बिहार वेटलैंड्स इंटरनेशनल के राज्य संयोजक अरविंद मिश्र ने बताया कि 12 मई, 2015 को आयोजित की गई स्टेट बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की बैठक में कांवर झील पक्षी अभयारण्य को ‘डाउनसाइज’ करने का फैसला लिया गया था। मिश्रा बताते हैं कि एजेंसियाँ अभयारण्यों में केवल वर्तमान जलाप्लावित क्षेत्रों पर ही विचार करती हैं और ये क्षेत्र समय के साथ लगातार घटते ही चले जा रहे हैं। वह बताते हैं, “यदि संरक्षित क्षेत्र 6,311 हेक्टेयर से घटाकर 3,000 हेक्टेयर कर भी दिया जाए तो वे इस 3,000 हेक्टेयर पर दबाव डालेंगे। ऐसा पानी के बहाव को रोककर और बचे-खुचे पानी को इन्हीं दलदली क्षेत्रों से काटकर निकाले गए खेतों की सिंचाई के बहाने बाहर पम्प कर किया जाएगा। अगर ऐसा हुआ तो यह झील जल्दी ही खत्म हो जाएगी।”
सफल प्रयोग
आईसीएआर के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है कि कैसे पानी आधारित आजीविका का स्रोत समुदायों को और अधिक आय अर्जित करने में सहायक साबित हो सकते हैं। लेकिन इसके लिये सरकार को उन स्थानीय संसाधनों का उपयोग करने की एकीकृत प्रणाली शुरू करनी होगी। इससे आय कई गुना बढ़ सकती है।
आईसीएआर ने उत्तर बिहार में जहाँ-जहाँ दलदली भूमि में पारम्परिक फसलों पर प्रयोग किया है, वहाँ-वहाँ लोगों की आय में छह से सात गुना वृद्धि दर्ज हुई है। उदाहरण के लिये आईसीएआर ने वैशाली जिले के एक छोटे से भाग (2000 मीटर स्क्वायर) में प्रयोग किया। इस प्रयोग में पाया गया है कि किसानों द्वारा पारम्परिक तरीके से एकीकृत खेती की गई तो किसानों की आय में 5 से 6 गुना वृद्धि हुई।
इसी प्रकार से आईसीएआर ने मुंगेर में मखाना और सिंघाड़े के पारम्परिक बीजों का उपयोग कर खेती की गई। यह प्रयोग इस दृष्टिकोण से सफल रहा है कि मखाने की खेती से किसानों को अतिरिक्त आय 20,015 रुपए प्रति हेक्टेयर हुई। वहीं इससे 240 लोगों को रोजगार भी मिला। इसके अलावा मछली पालन में भी अतिरिक्त आय 11,806 रुपए हुई। इसमें 24 लोगों को रोजगार मुहैया हुआ। साथ ही सिंघाड़े से अतिरिक्त आय 13,445 रुपए की हुई और इससे 83 लोगों को प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष रोजगार मिला। इस प्रणाली के उपयोग से यह बात सामने आई है कि मखाना और मछलियों की औसत उपज से भी सकल और शुद्ध आय हुई।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यदि उत्तरी बिहार के दलदली क्षेत्रों में पारम्परिक तौर-तरीके से खेती की जाए तो आने वाले समय में यह दलदली क्षेत्र एक बार फिर अपनी पुरानी रंगत में लौट सकता है। जरूरत है तो इस कार्य को विस्तार देने की।
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