पुडुचेरी में श्री अरबिंदो सोसाइटी की अगुवाई में किसान कर रहे हैं कम लागत वाली होम्योपैथी खेती, जिसे एग्रो-होम्योपैथी के रूप में पहचान मिल रही है।
पुडुचेरी में श्री अरबिंदो सोसाइटी की अगुवाई में किसान कर रहे हैं कम लागत वाली होम्योपैथी खेती, जिसे एग्रो-होम्योपैथी के रूप में पहचान मिल रही है। स्रोत: एसएएस

खेती का पुडुचेरी मॉडल: क्या होम्योपैथिक दवाएं ले सकती हैं नुकसानदेह रसायनों की जगह?

श्री अरबिंदो सोसाइटी की अगुवाई में कम लागत वाली इको-फ्रेंडली खेती के सफल प्रयोग को एग्रो-होम्योपैथी के रूप में पहचान मिल रही है।
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रासायनिक खादों और कीटनाशकों के बिना, प्राकृतिक संसाधनों से की जाने वाली खेती के तरीके हमारे देश में दशकों बाद एक बार फिर तेज़ी से इस्तेमाल होने लगे हैं। इस बीच पुडुचेरी के कुछ किसान ऑर्गेनिक फ़ार्मिंग (जैविक खेती) या नेचुरल फ़ार्मिंग (प्राकृतिक खेती) से आगे बढ़, रसायन मुक्‍त खेती का अनूठा प्रयोग करते नज़र आ रहे हैं, जिसे होम्‍योपैथिक खेती कहा जा रहा है। 

इंसानों का इलाज करने वाली होम्योपैथी की दवाओं के खेती में इस्‍तेमाल का यह अभिनव प्रयोग श्री अरबिंदो सोसाइटी (एसएएस) की अगुवाई में किया जा रहा है। खेती के इस नए सस्‍टेनेबल तरीके को कृषि-होम्योपैथी या एग्रो-होम्योपैथी के रूप में पहचान मिल रही है। एग्रो-होम्योपैथी की एक खूबी यह भी है कि यह खेती में पानी की खपत घटाने, जल प्रदूषण को कम करने और भूजल के रीचार्ज में भी मददगार है।

लैब टेस्‍ट और पायलट प्रोजेक्‍ट से छोटे पैमाने पर हुई शुरुआत 

न्‍यू इंडियन एक्‍सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह पहल कुछ वर्ष पहले एक छोटे से प्रयोग के रूप में शुरू हुई। इसके बेहतरीन नतीजों को देखने के बाद अब पुडुचेरी में इसे अपनाने वाले किसानों की संख्‍या तेज़ी से बढ़ती जा रही है। किसानों को कम लागत वाला खेती का यह पर्यावरण-अनुकूल तरीका काफ़ी पसंद आ रहा है, क्‍योंकि इससे उनका खर्च घट रहा है और मुनाफ़ा बढ़ रहा है। 

होम्योपैथ डॉ. उत्तरेश्वर पाचेगांवकर के मार्गदर्शन और श्री अरबिंदो सोसाइटी के सहयोग से 2018 में शुरू हुई आहार परियोजना में खेती में होम्योपैथी के उपयोग की संभावनाओं का पता लगाने के लिए प्रायोगिक स्‍तर पर होम्‍योपैथिक कृषि शुरू की गई। यह शोध ओस्टेरी के पास सोसाइटी के प्रायोगिक फार्म में शुरू हुआ। 

बेहतर संभावनाओं को देखते हुए इस प्रोजेक्‍ट को शुरुआत में नाबार्ड और बाद में टाटा ट्रस्ट का समर्थन मिला। इस पायलट प्रोजेक्‍ट के बारे में एसएएस के परियोजना समन्वयक डॉ. एफ जयचंद्रन ने बताया कि सबसे पहले उन्होंने प्रयोगशाला परीक्षणों से शुरुआत की। इसके बाद खेतों में काम शुरू किया गया। उनकी पहली फसल भिंडी थी। जब होम्‍योपैथी दवाओं का इस्‍तेमाल करने पर बेहतर अंकुरण और पौधे की मज़बूती देखी गई, तो धान की खेती में भी इसे आज़माने का फैसला लिया गया।

एग्रो-होम्योपैथी से खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग घटाने में किसानों को मिल रही है मदद।
एग्रो-होम्योपैथी से खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग घटाने में किसानों को मिल रही है मदद। स्रोत: एसएएस

इस तरह किसानों तक पहुंची यह तकनीक

प्रयोगों में पौधों को कई बैचों में बांट कर उन पर छह होम्योपैथिक संयोजनों (कंपोजीशन) का इस्‍तेमाल करके आठ अलग-अलग तरह के ट्रीटमेेंट किए गए। इनमें सर्वोत्तम परिणाम देने वाले कंपोजीशन का चुनाव कर उसे चुनिंदा किसानों को खेतों में इस्‍तेमाल करने के लिए दिया गया। परिकलपेट के अर्जुनन, बहौर के सरवनन और कुरुविनाथम के अमृतलिंगम जैसे किसान इसमें भाग लेने वाले पहले किसानों में शामिल थे। 

फसलों के तीनों सीजन रबी, खरीफ और जायद में, जिन्‍हें स्‍थानीय स्‍तर पर  नवरई, सांबा और थलाडी कहा जाता है,  इन होम्‍योपैथिक संयोजनों ने फसल प्रतिरोधक क्षमता को मज़बूत करने और मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए रसायनों पर निर्भरता कम करने में बेहतरीन क्षमता का प्रदर्शन किया। 

पौधों की प्रतिरोधक क्षमता और मिट्टी की उर्वरता में हुआ इजाफ़ा

इस प्रोजेक्‍ट के सलाहकार और करैकल स्थित पंडित जवाहरलाल नेहरू कॉलेज ऑफ एग्रीकल्‍चर एंड रिसर्च इंस्‍टीट्यूट में कृषि विज्ञान के प्रोफेसर आर. मोहन का कहना है कि खेतों में उर्वरकों का छिड़काव करने से मिट्टी के सूक्ष्म जीवों को नुकसान पहुंचता है। पर, कृषि-होम्योपैथी के कंपोज़ीशन का पत्तियों पर छिड़काव करने से पौधों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। साथ ही, इससे सूक्ष्‍म जीवों को पोषण मिलने के कारण मिट्टी की जैव विविधता को भी बढ़ावा मिलता है।

इसके इस्‍तेमाल से खेतों में केंचुए और मिट्टी के सूक्ष्‍म जीव भी वापस आ रहे हैं। इस तरह, धीरे-धीरे मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता वापस आने लगती है। खेती में खतरनाक रसायनों का प्रयोग न होने से इंसानी सेहत को खतरा भी नहीं रहता। तीन साल तक लगातार होम्योपैथिक खेती करने से मिट्टी की उर्वरता में इतना सुधार हो जाता है कि उपज में स्थिरता आ जाती है। हालांकि, पहले दो वर्षों में उपज थोड़ी कम रहती है, लेकिन तीसरे वर्ष तक यह धीरे-धीरे बढ़ जाती है।

खेती की लागत घटी, किसानों की आय बढ़ी

कृषि-होम्योपैथी की सस्‍ती लागत की जानकारी देते हुए प्रोफेसर मोहन ने बताया कि एक किसान, जो रासायनिक खादों पर औसतन 20,000-30,000 रुपये प्रति हेक्टेयर खर्च करता था उसे होम्योपैथिक दवाओं पर केवल 700 रुपये प्रति हेक्टेयर खर्च करना पड़ रहा है। इससे खेती में आने वाली 7,000-8,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की मज़दूरी की लागत में भी अच्‍छी खासी कमी आती है। खेती में हानिकारक रसायनों का इस्‍तेमाल न होने के कारण किसानों को अपनी उपज के बेहतर दाम भी मिलने लगे हैं। 

तीन साल से होम्योपैथिक खेती कर रहे कुरुविनाथम के किसान जयचंद्रन इससे काफ़ी खुश हैं।

“हालांकि, पहले साल उपज 65 बैग प्रति एकड़ से घटकर 57 बैग रह गई। पर तीसरे साल मैंने उसी ज़मीन से 87 बैग फसल प्राप्त की। धान के दानों का वज़न अच्‍छा था, रंग बेहतर था। इसलिए मुझे अपने बैग के लिए भी काफ़ी अच्छी क़ीमत मिली। इसके बाद अब मैं भिंडी, बैंगन और बाकी सब्ज़ियों की खेती में भी इसका इस्तेमाल करने लगा हूं।” 

जयचंद्रन, होम्योपैथिक किसान, कुरुविनाथम

वे बताते हैं कि होम्योपैथिक दवाओं के इस्‍तेमाल के बाद खेती में महंगे कीटनाशकों की ज़रूरत लगभग खत्म हो गई है। वे नीम के तेल का इस्तेमाल कभी-कभार ही करते हैं, जिससे लागत में कमी आई है और मुनाफ़ा स्थिर हुआ है।

एग्रो-होम्योपैथी के पायलट प्रोजेक्‍ट में भाग ले रहे किसान, कृषि वैज्ञानिक और श्री अरबिंदो सोसायटी के सदस्‍य।
एग्रो-होम्योपैथी के पायलट प्रोजेक्‍ट में भाग ले रहे किसान, कृषि वैज्ञानिक और श्री अरबिंदो सोसायटी के सदस्‍य। स्रोत : एसएएस

पानी की खपत और प्रदूषण घटाने में भी मददगार

एग्रो-होम्योपैथी खेती में पानी की खपत घटाने और रसायनिक खादों और कीटनाशकों से होने वाले जल प्रदूषण को घटाने में भी मददगार है। पानी की खपत में यह दो तरह से कमी करती है। एक तो, होम्योपैथी दवाओं की मात्रा काफी कम होने के कारण इनके छिड़काव के लिए घोल बनाने में रासायनिक छिड़काव की तुलना में काफ़ी कम पानी की आवश्‍यकता होती है।

एग्रो-होम्योपैथी में एक एकड़ खेत में छिडकाव के लिए सिर्फ कुछ मिलीलीटर दवा को कुछ लीटर पानी में मिलाकर छिड़कना होता है। इसके विपरीत रासायनिक दवाओं और कीटनाशकों के छिड़काव के लिए सैकड़ों लीटर पानी का घोल बनाना होता है। इसके अलावा, एग्रो-होम्योपैथिक उपचार मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की सक्रियता बढ़ाते हैं। इससे मिट्टी की संरचना और जलधारण क्षमता यानी वाटर रिटेंशन में सुधार आता है। यह दवाएं पौधों की जड़ों को बेहतर तरीके से पानी को अवशोषित करने में भी सक्षम बनाती हैं, जिससे फसल को कम सिंचाई की आवश्‍यकता पड़ती है।

कुछ दवाएं, जैसे नेट्रम म्यूर, साइलीशिया और आर्सेनिक एल्ब पौधों की कोशिकाओं में जल संरक्षण तंत्र को सक्रिय करती हैं। इससे पौधों की ट्रांसपिरेशन यानी वाष्‍पोत्‍सर्जन की दर घटती है, जिससे खेती में पानी की जरूरत घटती है। इसके अलावा एग्रो-होम्योपैथी मिट्टी में जैविक सक्रियता को बढ़ाकर मिट्टी को पोरस बनाती है, जिससे ज़मीन में बरसाती पानी का रिसाव भी बेहतर होता है। इस तरह इससे भूजल पुनर्भरण (रीचार्ज) में भी मदद मिलती है। 

एफ़पीओ बनाकर बढ़ाएंगे दायरा, सरकारी मदद की दरकार

फिलहाल बहौर क्षेत्र में लगभग 30 किसान नियमित रूप से होम्योपैथी कृषि की तकनीक का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। एसएएस ने इसे बढ़ाकर 300-400 किसानों को इसमें शामिल करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए किसानों का एक समूह यानी किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाने की तैयारी की जा रही है। इसके साथ ही कृषि-होम्योपैथी से की जा रही खेती को जैविक प्रमाणीकरण दिलाने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। इससे किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम दिलाने में मदद मिलेगी, जैसे कि ऑर्गेनिक फ़ार्मिंग करने वाले किसानों को मिलती है। 

इस तरह होम्योपैथी खेती के लाभ स्पष्ट हैं, लेकिन इसे बड़े पैमाने पर ले जाने की राह में कई तरह की चुनौतियां अभी बाकी हैं। सबसे ज़रूरी बात यह है कि इसमें बेहतर परिणाम देखने के लिए किसानों को धैर्य की आवश्यकता है। अगर सरकार शुरुआती वर्षों में उनका समर्थन करे, तो काफी बेहतर दीर्घकालिक परिणाम देखने को मिल सकते हैं, जिससे इस तकनीक को अपनाने में तेज़ी आएगी।

एग्रो-होम्योपैथी का इस्‍तेमाल करने से खाद और दवाओं का छिड़काव कम होने के कारण खेती में श्रमिकों की आवश्‍यकता भी घट जाती है।
एग्रो-होम्योपैथी का इस्‍तेमाल करने से खाद और दवाओं का छिड़काव कम होने के कारण खेती में श्रमिकों की आवश्‍यकता भी घट जाती है। स्रोत: एसएएस

यूपी में 15 ज़िलों के किसान भी कर रहे होम्योपैथी खेती

दैनिक भास्‍कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्‍तर प्रदेश में बरेली, हरदोई, पीलीभीत सहित करीब 15 ज़िलों के किसान खेती में होम्‍योपैथी दवाओं का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। इन्‍होंने दवाएं और ट्रेनिंग बरेली में रहने वाले होम्योपैथी के डॉक्टर विकास वर्मा से ली है। डॉक्टर वर्मा बताते है कि होम्‍योपैथी कृषि काफी सस्‍ती पड़ती है, क्‍योंकि फसल में दवा अधिक मात्रा में नहीं लगती है। 

उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि यदि एक बीघा मिर्च की खेती में फंगल इंफेक्शन (लीफ़ कर्ल) हुआ तो उसमें केवल 180 एमएल दवा लगेगी। जो भी किसान उनसे दवा लेने आता है उसे वे यह भी बताते हैं कि इसे कितने पानी में मिलाकर कितने क्षेत्रफल में छिड़कना है। इससे दवा बर्बाद भी नहीं होती। वह इस बात को भी पक्के तौर पर कहते हैं कि यह लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाएगी। क्योंकि, होम्योपैथी की दवा अगर किसी रोगी को फायदा नहीं करती, तो नुकसान भी नहीं करती।

बरेली के अखा गांव में आलू, गेहूं, दलहन की खेती करने वाले किसान ऋषि पाल सिंह ने बताया कि पहले वे कैमिकल कीटनाशक और फर्टीलाइज का इस्‍तेमाल करते थे। जब उन्हें होम्योपैथी दवाओं से फसल में लगने वाले रोगों के इलाज के बारे में पता चला तो उन्होंने इसका भी प्रयोग करके देखा। पहले दो साल तो उन्‍हें कोई ज़्यादा फायदा नज़र नहीं आया। बाद में इससे फसल पहले की तुलना में बेहतर होने लगी और पैदावार भी बढ़ गई। 

पीलीभीत के कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्‍ठ वैज्ञानिक एस.एस. ढाका का कहना है कि होम्योपैथी का सिद्धांत है कि वह बीमारी पर नहीं, बल्कि बीमारी के प्रति शरीर की इम्यूनिटी बढ़ाने का काम करती है। जिसकी वजह से बॉडी खुद-ब-खुद ठीक हो जाती है। ठीक इसी तरह से यह पौधों पर भी काम कर रही है। होम्‍योपैथी दवाएं पौधों की इम्यूनिटी को खासा बढ़ा देती हैं। इसकी वजह से पौधे फसल में होने वाली बीमारी को अपने आप ठीक कर लेते हैं। उन्होंने भी कुछ किसानों के साथ इसका प्रैक्टिकल किया, तो पता चला कि यह वाकई काम कर रही है। इससे फसल की गुणवत्ता बेहतर हुई और उसकी पैदावार भी बढ़ी।

होम्योपैथी के इलाज से न केवल फायदा होता है बल्कि होम्योपैथी की दवा से फसलों का इलाज करना काफी सस्ता पड़ता है। रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्‍तेमाल को होम्योपैथी के सहारे एकदम से तो नहीं छोड़ा जा सकता। पर, धीरे-धीरे रासायनिक खादों को छोड़ा जा सकता है।

राजेंद्र प्रसाद कन्नौजिया, हरदोई ज़िले में गेंहू, मक्का, धान और मेंथा की खेती कर रहे किसान

बीजों के अंकुरण से लेकर रोगों से बचाव, फ्लावरिंग और फ्रूटिंग को बेहतर बनाने तक के लिए हो रहा है होम्‍योपैथी दवाओं का इस्‍तेमाल।
बीजों के अंकुरण से लेकर रोगों से बचाव, फ्लावरिंग और फ्रूटिंग को बेहतर बनाने तक के लिए हो रहा है होम्‍योपैथी दवाओं का इस्‍तेमाल। स्रोत: एसएएस

किन चीज़ों के लिए हो रहा होम्योपैथी दवाओं का इसतेमाल

एग्रो-होम्योपैथी अभी विकास के शुरुआती चरण में है। खेती में होम्योपैथिक दवाओं का इस्‍तेमाल कई तरह की समस्‍याओं के समाधान के लिए किया जा रहा है। फिलहाल इनका प्रयोग मुख्‍य रूप से जिन चीज़ों के के लिए किया जा रहा है, वे इस प्रकार हैं-

  1. बीज अंकुरण: कुछ होम्योपैथिक दवाएं बीजों की जीवन शक्ति यानी अंकुरण को बढ़ाने की क्षमता रखती हैं। बीजों के अंकुरण की प्रक्रिया को तेज़ करती हैं।

  2. मिट्टी की सेहत में सुधार: ये दवाएं मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीव गतिविधि को बढ़ा कर उसकी सेहत और उर्वरता को बेहतर बनाने में मददगार हो सकती हैं। 

  3. पौधों की वृद्धि: ये दवाएं बीज के विकास की क्षमता यानी ग्रोथ में सुधार करती हैं। साथ ही जड़ों की वृद्धि को बढ़ावा देकर पौधों की पोषक तत्‍वों को अवशोषित करने की क्षमता को बढ़ा सकती हैं।

  4. पुष्पन (फ्लावरिंग): होम्योपैथिक दवाएं पौधों में पुष्प निर्माण को प्रोत्साहित कर सकती हैं। साथ ही फूलों की सेहत और उनकी गुणवत्ता को बढ़ाती हैं। 

  5. फलन (फ्रूटिंग):  फ्लावरिंग के साथ ही यह फ्रूटिंग को बढ़ाने में भी मददगार होती हैं। यह पौधों में फॉस्फोरस और पोटेशियम के अवशोषण की क्षमता को बढ़ाती हैं। इससे  प्रक्रिया में तेज़ी आने के साथ ही फलों की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। 

  6. कीट और रोग प्रबंधन : पौधों में लगने वाले कीट किसानों की सबसे बड़ी समस्‍या बनते हैं। होम्योपैथिक उपचार इन समस्याओं का समाधान करने में मदद करते हैं। खास बात यह है कि रासायनिक दवाओं की तरह होम्योपैथिक दवाएं पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचातीं।

एग्रो होम्‍योपैथी से रसायनमुक्‍त इको फ्रेंडली खेती के साथ ही अच्‍छी फसल लेने में भी किसानों को मिल रही है मदद।
एग्रो होम्‍योपैथी से रसायनमुक्‍त इको फ्रेंडली खेती के साथ ही अच्‍छी फसल लेने में भी किसानों को मिल रही है मदद। स्रोत: एसएएस

किस रोग में कौन सी दवा 

डॉ. विकास वर्मा ने बताया कि यदि किसी फसल में वायरल या बैक्टीरिया का इंफेक्शन हुआ है तो उसमें कैल्केरिया सल्फ, कालीम्यूर, फैरमफॉस, साइलीसिया, सल्फर, नैट्रम म्यूर आदि दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। दवा की मात्रा के बारे उन्होंने बताया कि जिस तरह इंसानों के होम्योपैथी इलाज में काफी कम मात्रा में दवा दी जाती है, ठीक उसी तरह पौधों की बीमारी में काफ़ी कम मात्रा में दवा लगती है। 

मिसाल के तौर पर, मिर्च की फसल में लीफ़ कर्ल जैसी वायरल बीमारी होने पर बीघा खेत में केवल 50 मिलीलीटर ही दवा ही दी जाती है। इतने से ही वायरल बीमारी खत्म हो जाती है। पौधों को भी वही दवाएं दी जाती हैं, जो इंसानों में वायरल इन्फेक्शन खत्म करने के लिए इस्‍तेमाल होती हैं। 

एग्रो-होम्योपैथी में पौधों की सामान्य समस्याओं या रोगों के उपचार में जिन प्रमुख दवाओं का इस्‍तेमाल किया जाता है, पारंपरिक होम्योपैथिक सिद्धांतों और प्रयोगों के आधार पर उसकी एक तालिका पंडित जवाहरलाल नेहरू कॉलेज ऑफ़ एग्रीकल्‍चर एंड रिसर्च इंस्‍टीट्यूट के प्रो. आर. मोहन तैयार की है। ये उपचार, पूरक पद्धति पर आधारित होते हैं, यानी रोग के लक्षणों और दवा पर पौधों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करते हैं। इसलिए, स्थिति के अनुसार दवाओं और उनकी मात्रा में अंतर हो सकता है। मोटे तौर पर सामान्‍य संदर्भ के लिए तालिका इस प्रकार है : 

सावधानियां

  • अधिकांश दवाएं 30C या 6X पोटेंसी में प्रयोग की जाती हैं।

  • 5 मिलीलीटर दवा को 1 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे या ड्रेंचिंग के रूप में दिया जाता है।

  • रोग खत्‍म होने तक 7–10 दिन के अंतराल पर दवा दोहराई जाती है।

  • किसानों को यह बात ध्‍यान में रखनी चाहिए कि यह पद्धति अभी प्रयोगात्मक चरण में है और पूर्ण रूप से स्वीकृत या प्रमाणित पद्यति नहीं बन पाई है।

  • एग्रो-होम्योपैथी में वैज्ञानिक रूप से बड़े-पैमाने पर अध्ययन और लंबी अवधि के ट्रायल की कमी है। इसलिए इसके प्रभाव और विश्वसनीयता पर प्रश्न बने हुए हैं।

  • किसानों द्वारा एग्रो-होम्योपैथी पद्धति को अपनाने पर शुरुआती वर्ष में उपज में उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। जैसे शुरुआती एक-दो वर्षों में उपज गिरावट देखने को मिल सकती है, पर बाद में सुधर दिखाई देता है। 

  • एग्रो-होम्योपैथी के असरदार नतीजे प्राप्‍त करने के लिए धैर्य और लंबे समय की रणनीति की जरूरत होती है। इसके परिणाम कृषि की प्रक्रिया, उपज की-सर्तों, मौसम जैसे कारकों पर निर्भर करते हैं।

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