कश्मीर घाटी से क्यों गुम हो रहे हैं पारंपरिक धान के खेत और उनकी खुशबू?
कश्मीर में कभी चावल की अच्छी खासी खेती होती थी। पर अब चावल के खेतों की जगह या तो सेब के बगान लेते जा रहे हैं या फिर मकान। बदलते दौर और चलन के बीच कश्मीर के चावल किसान अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं और ज़मीन से जुड़े रहने के नए तरीके खोज रहे हैं। पर, उनके ज़हन में अपने खेतों में लहलहाती धान की फसल और उसकी खुशबू आज भी बसी हुई है।
मध्य कश्मीर में गांदरबल ज़िले के कुल्लान गांव में 52 वर्षीय किसान ज़ुल्फ़िकार अली शाह, हरे-भरे धान के खेतों के बीच खड़े हैं। उन्हें अपना बचपन आज भी याद है, जब उनका परिवार पानी से भरे खेतों में हंसी-मज़ाक के बीच पड़ोसियों के साथ मिलकर धान की रोपाई किया करते था। आज उन ज़मीनों पर या तो मकान और सड़कें बनी नज़र आती हैं या फिर सेब के बाग खड़े दिखते हैं।
कश्मीर का चावल इस सबके बीच कहीं गुम हो गया है। ज़ुल्फ़िकार उन ज़मीनों पर बने घरों की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, "ये पूरा इलाका कभी खेत हुआ करता था। धान का खेत। यहां कोई भी कंक्रीट की दीवार नहीं थी। दूर तक बस खेत थे, जिनमें लहलहाती थी धान की फसल।"
बस्तियों और इमारतों ने छीन लिए खेत
श्रीनगर के उत्तर में कभी एक छोटा सा कस्बा रहे गांदरबल के साल 2006 में ज़िला मुख्यालय बनने के बाद यहां का नज़ारा तेज़ी से बदल गया। खेतों की जगह आज बहुमंजिला घरों और नई सड़कों ने ले ली है। जिन ज़मीनों पर कभी धान उगाया जाता था, वहां अब रिहायशी बस्तियां बस गई हैं। खेती-बाड़ी दरकिनार कर दी गई। तुलुमुला और बीहामा जैसे गांवों के धान के खेत स्कूल और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बन गए। उसी साल तीन और कस्बों को ज़िला मुख्यालय घोषित किया गया और वहां भी कमोबेश यही ऐसे ही हालात देखने को मिल रहे हैं।
ज़ुल्फ़िकार सिर हिलाते हुए कहते हैं, "अब कोई चावल नहीं उगाता। लोगों ने अपनी ज़मीन बेच दी। कुछ ने घर, दुकानें और कॉम्प्लेक्स बना लिए। मैंने भी अपनी एक कनाल ज़मीन देकर घर बनवाया। कुछ ने तो खेती ही छोड़ दी।"
उन्होंने बताया, "मैं अपने पिता का इकलौता बेटा था। हमने सालों पहले एक घर बनाया था। अब मेरे चार बेटे हैं। मेरे पास आठ कनाल ज़मीन थी और हर बेटे के हिस्से दो-दो कनाल ज़मीन आई है। इसमें उन्होंने अपने-अपने घर और छोटे-छोटे सब्ज़ियों के खेत बनवाए। इससे खेती की ज़मीन और कम हो गई।" यह सारा बदलाव धीरे-धीरे हुआ। इमारत दर इमारत, खेत दर खेत। लेकिन ज़ुल्फ़िकार जैसे लोगों के लिए इस बदलाव को स्वीकार कर पाना मुश्किल हो रहा है। उनका गांव अब पहले जैसा नहीं दिखता। वे कहते हैं, '’अब ये एक कस्बा बन गया है। गांव वैसा नहीं रहा, जैसा मैंने सपना देखा था।"
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कश्मीर ने साल 1996 और 2023 के बीच लगभग 34,000 हेक्टेयर कृषि भूमि खो दी है। खेती वाली ज़मीन 1,63,000 हेक्टेयर से घटकर 1,29,000 हेक्टेयर रह गई है। इसकी मुख्य वजह इन ज़मीनों पर आवासीय और कॉमर्शियल निर्माण होना है। हालांकि, आज भी खेती ज़्यादातक ग्रामीण परिवारों के जीवन और आजीविका का आधार बनी हुई है, भले ही इसका स्वरूप बदल रहा है।
टेबल
ज़्यादा मुनाफे की चाहत ने उगाए सेब के बाग
ग्रामीण कश्मीर में ज़्यादार लोग अभी भी खेती पर निर्भर हैं, न केवल आय के लिए, बल्कि पहचान के लिए भी। लगभग 70% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। कई लोगों के लिए, यह केवल आमदनी का ज़रिया नहीं, बल्कि एक विरासत है।
पर, हाल के वर्षों में इस में बदलाव हुआ है और उपग्रह चित्र इस बदलाव की पुष्टि करते हैं। दक्षिण कश्मीर में 1990 से 2017 तक भूमि उपयोग पर नज़र रखने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि खेती में 5% की कमी आई है, जबकि बागवानी, खासकर सेब के बागों में, 4% से ज़्यादा की वृद्धि हुई है। इस अध्ययन में 5,454 वर्ग किलोमीटर के 113 गांवों और 23.8 लाख की आबादी को शामिल किया गया था। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि कृषि भूमि के घटने से खाद्य सुरक्षा को खतरा है। इससे मिट्टी की सेहत को भी नुकसान पहुंचता है, जिससे उत्पादकता कम हो सकती है।
कई और लोगों की तरह, ज़ुल्फ़िकार भी अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए धान की खेती पर निर्भर थे। लेकिन, घटती कृषि भूमि और खेती की बढ़ती लागत ने इसे जारी रखना मुश्किल बना दिया है। वे सवाल करते हैं, "लोग कहते हैं कि खेती में अब फ़ायदा नहीं रहा। लेकिन, कोई भी इस बारे में बात नहीं करता कि हम क्या खो रहे हैं।"
किसान पहले मुश्क बुडजी और अन्य स्थानीय चावल की कई पारंपरिक किस्में उगाते थे। अब, ज़्यादा पैदावार वाली किस्में उनकी जगह ले रही हैं। चावल की खेती से कम लाभ ने पहले ही कुछ किसानों को सेब की खेती की ओर रुख करने के लिए मज़बूर कर दिया है। शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तारिक रसूल कहते हैं, "चार कनाल धान की खेती से 20,000-24,000 रुपये की कमाई होती है, जबकि इतने ही बड़े सेब के बाग से कई गुना ज़्यादा आमदनी होती है।" आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, कश्मीर में लगभग 800 हेक्टेयर ज़मीन में सेब उगाए जाते हैं। सरकार की योजना साल 2026 तक इस क्षेत्र को बढ़ाकर 5,500 हेक्टेयर करने की है।
रसूल चेतावनी देते हैं कि खेती की ज़मीनों पर निर्माण का दबाव संकट को और बढ़ा रहा है। किसान जहां कम लाभ और बढ़ती लागत का हवाला देते हैं, वहीं विशेषज्ञ नीतिगत कमियों और कमज़ोर नियमन को भी ज़मीन के नुकसान के प्रमुख कारणों में बताते हैं। सरकार का कहना है कि वह सेब की खेती को बढ़ावा देने और कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने की योजना बना रही है, लेकिन कई किसानों का कहना है कि उन्हें शायद ही कभी सरकारी मदद मिलती है।
तेज़ी से बढ़ता शहरी विकास धान के खेतों को निगल रहा है। वह कहते हैं, "शहरी क्षेत्र बिना किसी योजना के उपजाऊ कृषि भूमि में पैर पसार रहे हैं। इसे लेकर कानून तो हैं, लेकिन उनका पालन शायद ही कभी होता है। एक बार ज़मीन चली गई, तो हम उसे वापस नहीं ला सकते। इसका असर भोजन, पानी और ग्रामीण रोज़गार पर पड़ता है। अगर यही सिलसिला जारी रहा, तो कश्मीर में रहने के लिए घर तो होंगे, लेकिन खाने के लिए पर्याप्त चावल नहीं होगा। हम एक-एक कनाल ज़मीन और पहचान, दोनों खो रहे हैं।”
तारिक रमज़ान, कृषि विशेषज्ञ और कृषि विभाग में क्षेत्र पर्यवेक्षक
नीतिगत बदलाव और ज़मीन की कीमत
जहां जलवायु परिवर्तन ज़मीनी हालात को बदल रहा है, वहीं भूमि नियमों ने भी इसमें भूमिका निभाई है। साल 2022 में, नए सरकारी नियमों ने ज़मीन मालिकों को कम प्रतिबंधों के साथ कृषि भूमि को व्यावसायिक या औद्योगिक उपयोग के लिए बदलने की छूट दे दी। कृषि भूमि के व्यावसायिक या औद्योगिक उपयोग के लिए 400 वर्ग मीटर की सीमा हटा दी गई।
अब ज़िला कलेक्टर के नेतृत्व में एक ज़िला-स्तरीय समिति आवेदनों की समीक्षा करती है और 30 दिनों के भीतर निर्णय लेती है। मालिक ज़मीन के बाज़ार मूल्य का 5% शुल्क के रूप में देता है और लैंड यूज़ बदल जाता है। हालांकि, अगर दो साल के भीतर ज़मीन का उपयोग स्वीकृत अनुसार नहीं किया जाता है, तो अनुमति रद्द कर दी जाती है। ज़्यादातर भूमि परिवर्तन से निजी बिल्डरों और संपन्न परिवारों को फ़ायदा होता है। कुछ किसान अपनी ज़मीन बेचकर या किराये की संपत्ति बनाकर तुरंत मुनाफ़ा कमा लेते हैं। लेकिन, जल्दी और कम समय के लिए मिलने वाले ये फायदे लंबे समय की सुरक्षा की कीमत पर आते हैं।
साल 2025 की सरकारी रिपोर्ट इस प्रवृत्ति की पुष्टि करती है कि अनियोजित विकास और कृषि भूमि परिवर्तन ने स्थानीय खाद्य उत्पादन को कम कर दिया है, जिससे कश्मीर खाद्यान्न के लिए दूसरे राज्यों से आयात पर तेज़ी से निर्भर होता जा रहा है। यह इस बात की चेतावनी है कि भविष्य में इस बदलाव का और भी गहरा असर देखने को मिलेगा। सर्वेक्षण में कहा गया है, "महंगाई दर राष्ट्रीय औसत से ज़्यादा बनी हुई है।" साथ ही, भूमि उपयोग में बदलाव के नियमों में ढिलाई और कृषि नीति की खामियां, खेती को लगातार नुकसान पहुंचा रही हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि कश्मीर में बुवाई रकबा कुल क्षेत्रफल का लगभग 30% है, लेकिन इसमें से ज़्यादातर ज़मीन पर अब खेती नहीं होती। कुछ खेत सूखे पड़े हैं। कुछ पर पहले ही निर्माण कार्य हो चुका है। वास्तविक खेती बहुत कम ज़मीन पर होती है। नीतिगत बदलावों ने कई किसानों को प्रभावित किया है। बांडीपोरा के याकूब नबी डार ऐसे ही एक किसान हैं जिन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
कम मुनाफ़ा किसानों को धान की खेती से दूर कर रहा है
बांडीपोरा ज़िले में, अजस गांव के 38 वर्षीय किसान याकूब नबी डार धीरे-धीरे धान की खेती से दूर हो गए हैं। उनके पास बांडीपोरा और गांदरबल ज़िलों में 43 कनाल ज़मीन है, लेकिन अब वे चावल की खेती बहुत कम करते हैं। वे कहते हैं, "चावल का कोई बाज़ार नहीं है। हमें सिंचाई सहायता नहीं मिलती। नुकसान बहुत ज़्यादा था।"
उन्होंने 2020 में सेब के बाग लगाने शुरू किए और सड़क किनारे दुकानें बनाकर किराए पर देने लगे। इस तरह वे उन कई लोगों में शामिल हो गए जो आमदनी के नए तरीकों को आज़मा रहे हैं। जम्मू और कश्मीर के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि हिस्सेदारी 2004-05 के 28% से घटकर 2022-23 में 16% रह गई है। स्थानीय चावल की कीमतें आसमान छू रही हैं और विरासत धूमिल हो रही है।
याकूब कहते हैं, "सेब के पेड़ों को कम पानी की ज़रूरत होती है। वे अधिक आमदनी भी देते हैं।" इसका असर छोटे किसान पर सबसे ज़्यादा होता है। कंगन के हिलाल अहमद गनी के पास सिर्फ़ दो कनाल ज़मीन है। "15 साल पहले, मेरे खेत में कम से कम दो क्विंटल चावल होता था। अब मुझे मुश्किल से 50 किलो चावल ही मिल पाता है," वे कहते हैं। दलदली ज़मीन बीजों के जमने में मुश्किले पैदा करती है। बढ़ती गर्मी और अनियमित बारिश ने छोटे किसानों की स्थिति और भी बदतर बना दी है।
धान की खेती में गिरावट के साथ, स्थानीय चावल की मांग तेज़ी से बढ़ी है। इस बीच, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये मिलने वाले सरकारी कोटे में कमी के कारण स्थानीय चावल की बढ़ती मांग ने पिछले दो वर्षों में चावल की कीमतों को बढ़ा दिया है। पिछले एक साल में चावल की कीमतें दोगुनी हो गई हैं, जिससे ग्राहकों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया है।
चावल की स्थानीय किस्में जो कभी 2,500-3,000 रुपये प्रति क्विंटल बिकती थीं, अब 5,500 रुपये की हो गई हैं। मुश्क बुडजी जैसे प्रीमियम चावल के दाम तो 10,000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गए हैं। इस चावल को साल 2023 में मिला जीआई टैग कश्मीर की इस विरासत को मिला एक सम्मान था। लेकिन, खेती की बढ़ती मुश्किलों के चलते आज बहुत कम किसान चावल की इस किस्म को उगा रहे हैं।
चावल सिर्फ़ अनाज नहीं, परंपरा का हिस्सा है
कश्मीर में, चावल सिर्फ़ भोजन नहीं है, यह पहचान, रीति-रिवाज़ों और गौरव से जुड़ा है। खासकर मुश्क बुडजी जैसी विरासती किस्में, जिन्हें कभी-कभी सिर्फ़ खास मौकों पर ही परोसा जाता था। इसकी मीठी सुगंध और समृद्ध बनावट इसे खास बनाती है। पर, धान के खेतों का तेज़ी से खत्म होना कश्मीर में खाद्य सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा करता है। राज्य में आज 13.4 लाख टन की ज़रूरत के मुकाबले केवल 4.5 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है, जो 8.9 लाख टन की बड़ी गिरावट को दिखाता है।
आधिकारिक अनुमान चेतावनी देते हैं कि यह कमी अगले साल तक 36% और साल 2030 तक 50% से ज़्यादा हो सकती है। स्थानीय उत्पादन घटने के साथ चावल की कीमतें बढ़ी हैं, और अध्ययनों से पता चलता है कि ग्रामीण परिवार पहले से ही भोजन की मात्रा में 40% और कैलोरी में 38% की कमी का सामना कर रहे हैं। कई लोग अब आयातित चावल या सस्ते विकल्पों पर निर्भर हैं, मुख्य खाद्य पदार्थों पर ज़्यादा खर्च कर रहे हैं, जबकि खाने की गुणवत्ता में कमी आ रही है। इस तरह धान की खेती में गिरावट ने न केवल कश्मीर की खाद्य सुरक्षा, बल्कि दैनिक पोषण को भी कम कर दिया है।
खेती में रोज़गार और आमदनी भी घटी
सर्वेक्षण के अनुसार, कृषि भूमि के आवासीय और व्यावसायिक उपयोग ने कृषि क्षेत्र में रोज़गार को कम कर दिया है। साल 1961 में, कश्मीर का 85% कार्यबल इसी क्षेत्र में था। आज, यह केवल 28% रह गया है। अन्य लोगों ने भी यही रास्ता अपनाया है, धान की खेती को छोड़ दिया है, अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरी में।
अध्ययनों से पता चलता है कि कश्मीर के कई हिस्सों में धान से आय बेहद कम है, पहाड़ी इलाकों में केवल 213 रुपये प्रति हेक्टेयर और करेवा पर केवल 373 रुपये प्रति हेक्टेयर। घाटी के निचले इलाकों में भी, जहां हालात बेहतर हैं, किसान मुश्किल से 1,500 रुपये प्रति हेक्टेयर कमा पाते हैं, और लागत-लाभ अनुपात 1.04 से 1.28 के बीच है। इसका मतलब है कि धान की खेती पर खर्च किए गए हर एक रुपये पर, कुछ पैसे ही ज़्यादा मिलते हैं, जिससे सेब के बागों या दुकानों द्वारा ज़्यादा मुनाफ़े का वादा किए जाने पर किसानों के पास खेती जारी रखने का कोई खास प्रोत्साहन नहीं बचता।
गांदरबल के लार के 57 वर्षीय किसान अयूब लोन के पास 15 कनाल में फैला एक छोटा सा सेब का बाग है। बेहतर मुनाफ़े की उम्मीद में उन्होंने धान की बजाय सेब की खेती की। अयूब कहते हैं, "मुझे लगा कि बागवानी से मदद मिलेगी। चावल की खेती कारगर नहीं हो रही थी। पानी की कमी थी, और हम मुश्किल से गुज़ारा कर पा रहे थे।"
जलवायु परिवर्तन की भी पड़ी मार
कश्मीर के किसानों को जलवायु संकट की नई समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है। क्योंकि, कश्मीर के बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा ने धान की खेती को और कठिन बना दिया है। धान की रोपाई की कश्मीरी पद्धति, थेजकाड (नर्सरी) जैसी पारंपरिक प्रथाएं मौसमी पैटर्न पर निर्भर करती हैं।
यह प्रक्रिया अप्रैल के मध्य में धान भिगोने से शुरू होती है, उसके बाद नर्सरी तैयार करना, मई से जून तक रोपाई और सितंबर से अक्टूबर के बीच कटाई होती है। इस साल कश्मीर में असामान्य रूप से 37°C से अधिक तापमान दर्ज किया गया, जो सामान्य से लगभग 10°C अधिक है। ऐसी गर्मी इन सदियों पुरानी कृषि प्रथाओं को बाधित करती है।
एक्शनएड की साल 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार, कश्मीर में औसत तापमान 1.45°C बढ़ा है। जम्मू में यह 2.32°C बढ़ा है। इस जून में अब तक, जम्मू और कश्मीर में 26% कम बारिश दर्ज की गई है। चावल की खेती में बहुत ज़्यादा पानी लगता है, इसलिए इसे जारी रखना कठिन होता जा रहा है। किसान अब अनियमित वर्षा, पिघलते ग्लेशियरों और सूखते जलस्रोतों से जूझ रहे हैं। सर्दियों और बसंत में तापमान में काफी वृद्धि हुई है। कुछ स्थानों पर सर्दियों के तापमान में 1.3°C की वृद्धि देखी गई है। यह बदलाव खेती पर असर डालता है, खासकर चावल की खेती पर।
याकूब नबी डार भी जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं। वे कहते हैं, "बेमौसम बारिश और देर से बर्फबारी ने हमें बहुत नुकसान पहुंचाया है। हर साल, किसानों को नुकसान उठाना ही पड़ता है।"
कुल्लन में, ज़ुल्फ़िकार के 22 वर्षीय बेटे आदिल, खेती करने के बारे में नहीं सोच रहे हैं। वे कहते हैं, "मेरे पिता को खेती में काफी संघर्ष करना पड़ा। इसलिए मैं खेती करने के बजाय शहर में काम करना पसंद करुगा।" उनका यह निर्णय खेती से दूर एक व्यापक पीढ़ीगत बदलाव को दर्शाता है।
इस साल, सर्दियों में सूखे ने बुरी तरह प्रभावित किया। नदियां सूख गईं, जिससे कश्मीर में चावल की खेती और कम हुई है। कृषि विशेषज्ञ डॉ. तारिक का कहना है कि जलवायु परिवर्तन ने जम्मू-कश्मीर में पारंपरिक कृषि पद्धतियों को काफ़ी हद तक बदल दिया है। अनियमित वर्षा और पानी की कमी किसानों के लिए अपनी फ़सलों को बचाए रखना मुश्किल बना रही है। मज़बूत जलवायु-रोधी रणनीतियों के बिना, कृषि उत्पादकता में गिरावट जारी रहेगी। अगर यही हाल रहा, तो केंद्र शासित प्रदेश खाद्य आयात पर बहुत अधिक निर्भर हो सकता है। सरकार को टिकाऊ कृषि कार्यक्रम शुरू करने चाहिए, सिंचाई में सुधार करना चाहिए और किसानों के लिए बाज़ार तक बेहतर पहुंच बनानी चाहिए।"

