हाड़ौती का भूगोल एवं इतिहास (Geography and history of Hadoti)
चौहान राजपूतों की 24 शाखाओं में से सबसे महत्त्वपूर्ण हाड़ा चौहान शाखा रही है। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड को हासी के किले से एक शिलालेख मिला था, जिसमें हाड़ाओं को चन्द्रवंशी लिखा गया है।1 सोमेश्वर के बाद उसका पुत्र राय पिथौरा या पृथ्वीराज चौहान राजसिंहासन पर बैठा। पृथ्वीराज चौहान शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी के साथ लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात चौहानों के हाथ से भारत-वर्ष का राज्य जाता रहा। फिर भी चौहान शाखाएँ यत्र-तत्र फैलती गयीं और चौहान क्षत्रिय जहाँ-तहाँ अपना शासन करते रहे।2 जब नाडोल के चौहान कुतुबुद्दीन ऐबक से हारकर भीनमाल में गये। उसी समय उस वंश के माणिक्यराय द्वितीय नामक वीर ने मेवाड़ के दक्षिण पूर्व में अपना राज्य स्थापित किया और बम्बावदा को अपनी राजधानी बनाया। माणिक्यराय की छठीं पीढ़ी में हरराज या हाडाराव नामक एक बड़ा प्रतापी वीर उत्पन्न हुआ। हरराज या हाड़ाराव के नाम पर चौहानवंश की इस शाखा का नाम हाड़ावंश पड़ा है, जिसमें कोटा-बूँदी राज्यों का समावेश होता है।3
हाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति
चौहटे च्यंतामणि चढ़ी, हाड़ी भारत हाथि।
अतएव उन लोगों को ‘हाड़ा‘ अमिधा प्रदान की गई थी। इस मत में ओझा का मत भी समविष्ट हो सकता है। क्योंकि वे यह मानते हैं, कि ‘हाड़ा‘ नाडोल से मेवाड़ के पूर्वी हिस्से में आये। फिर उनका अधिकार बम्बावदे पर हुआ। वहाँ की छोटी शाखा के वंशज देवा ने अपने पराक्रम के बल पर बूँदी का राज्य मीणों से छीन लिया, तब से उनकी विशेष उन्नति हुई और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया।10 इस प्रकार इस मत में हिड्डि’ धातु और हरराज दोनों का सम्बन्ध हाड़ा से बन जाता है। 17वीं शताब्दी का हाड़ाओं का सबसे विश्वसनीय प्राचीन काव्य ‘सुर्जन चरित्र’ है एवं हाड़ाओं के इतिहास की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें हाड़ाओं का मूल पुरुष पृथ्वीराज चौहान तृतीय के छोटे भाई माणिक्यराज को माना है। सुर्जन चरित्र का माणिक्यराज और हरराज एक ही व्यक्ति थे इससे ही हाड़ाओं की उत्पत्ति मानी है, हरराज से हाड़ा होना अधिक युक्तिसंगत लगता है।
पृथ्वीराजस्य तस्यैब समो भ्राता जयत्यजः।
माणिक्यराजो मतिमानं येन बुभुजे महीम (13/2)
इसके बाद इसके पुत्रों चण्डराज, भीमराज, विजयराज, रयण, केल्हण, गंगदेव और देवी सिंह का उल्लेख है। देवी सिंह को बूँदी राज्य का संस्थापक माना जाता है।11 समकालीन फारसी स्रोतों और ख्यातों से स्पष्ट है कि पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई का नाम हरराज था। हरराज ने कुछ समय तक अजमेर के आस-पास मुसलमानों से संघर्ष किया और बाद में ऊपरमाल क्षेत्र में चला गया। इस क्षेत्र से कई लेख चौहानों के मिल चुके हैं। कालान्तर में ऊपरमाल में हाड़ाओं का अधिकार हो गया। बम्बावदा में इनका अधिकार लम्बे समय तक था। इस प्रकार हरराज के ऊपरमाल क्षेत्र में रहने एवं वहाँ के वंशजों द्वारा निरन्तर राज्य करने की बात से यह प्रमाणित है कि हाड़ा उसके ही वंशज थे।
हाड़ौती प्रदेश का नामकरण
’मोहरें एजेन्सी हाड़ौती सन 1860’
तथा दूसरी मोहर सन 1929 ईस्वी की है, जिस पर इस प्रकार लिखा हुआ है :-
‘‘मोहर कचहरी एजेन्ट हाड़ौती अज तरफ गवर्नर जनरल नाजिम आजम मुमालिका महकमा सरकार दौलत मदार अंग्रेज बहादुर कं. 1929 सन।”
इन दोनों मोहरों से शासन सुविधा के लिये हाड़ौती शब्द को गढ़ लेने की बात उचित सी प्रतीत होती है। बूँदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घकाल तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने के कारण हाड़ौती के नाम से विख्यात है। अंग्रेजों के सिक्कों को पुष्ट करने हेतु बूँदी के डिंगल कवि और इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस क्षेत्र ‘‘हड्डवती’’ या “हाड़ौती” के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा हैः-
हड्डन करि विख्यात हुव हड्डवती यह देश,
चहुवान कुल चक्र को रवि जह राम नरेश।15
हाड़ौती क्षेत्र के नामकरण के सम्बन्ध में राजस्थानी भाषा और साहित्य के लेखक फतमल ने अपने गीत में हाड़ौती शब्द का इस प्रकार प्रयोग किया है।
‘‘फतमल तू ही है हाड़ौती रो राव।
हूँ रे टोडा की नागरू बामणी।
पाणीडे गई थी रे तालाब।
लसकर आयो रे हाड़ा राव को।16
सन 1518 ई. के कुंभलगढ़ के शिलालेख में भी हाड़ौती शब्द का उल्लेख ‘‘हाड़ावाटी” मिलता है।
हाड़ावटी देशपतीन स जित्वा तन्मण्डल चात्मवशीचकार।17
यह प्रयोग हाड़ावती शब्द का डिंगल भाषागत चारणी का प्रयोग है। जिसमें ट-वर्गीय ध्वनियों का प्रचुरता से प्रयोग मिलता है। डिंगल राजस्थान की शताब्दियों पूर्व से काव्य भाषा रही है और राजस्थान में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है। अतः राजदरबार के वातावरण में संपृक्त ‘‘हाड़ावटी’’ शब्द का शिलालेख में प्रयुक्त होना स्वाभाविक लगता है, जो कालान्तर में हाड़ाउती या हाड़ौती रूप धारण कर गया। विभिन्न साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि हाड़ा राज्य की बूँदी में स्थापना के साथ ही शासन सुविधा की दृष्टि से किसी नामकरण की आवश्यकता हुई होगी, तभी से पण्डितों या चारणों द्वारा दिया गया नाम ‘‘हाड़ावती या हाड़ावटी’’ प्रचलित हो गया।
हाड़ौती बोली/भाषा :
हाड़ौती की भौगोलिक स्थिति
दक्षिणी-पूर्वी हाड़ौती पठार
(अ) विन्ध्य कगार भूमि :-
यह कगार भूमि क्षेत्र बड़े-बड़े बलुआ पत्थरों से निर्मित है जो स्लेटी पत्थरों के द्वारा पृथक दिखाई देती है। कंगारों का मुख बनास और चम्बल के बीच दक्षिण व दक्षिणी पूर्वी दिशा की ओर है तथा बुन्देलखण्ड में पूर्व की तरफ फैले हुए हैं। उत्तर-पश्चिम में चम्बल के बायें किनारे पर तीव्र ढाल वाले कगार दिखलाई देते हैं। तत्पश्चात एक कंगार खण्ड स्थित है जो धौलपुर और करौली के क्षेत्रों पर फैला है। इस क्षेत्र की कंगार भूमियों की ऊँचाई 350 मीटर से 550 मीटर के बीच है। इसमें रेतीली चट्टानें तथा पत्थर हैं। इन चट्टानों के विशाल रूप चम्बल नदी के बायें किनारे देखे जा सकते हैं।23
(ब) ढक्कन का लावा पठार :-
मध्य प्रदेश के विन्ध्य पठार के पश्चिमी भाग तीन सकेन्द्रिय कगारों के रूप में विस्तृत हैं। यह तीन सकेन्द्रीय कगार, तीन प्रमुख बलवा पत्थरों की परित्यक्त शिलाओं के बीच-बीच में स्लेटी पत्थर भी मिलते हैं। दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान की यह भौतिक इकाई ‘‘ऊपरमाल” के नाम से जानी जाती है। यह विस्तृत एवं पथरीली भूमि है जिसमें कोटा, बूँदी पठारी भाग भी सम्मलित है। विन्ध्य कंगारों के आधार तल क्षेत्रों तक ढक्कन ट्रेप लावा के जमाव दिखाई देते हैं। चम्बल और इसकी सहायक नदियाँ जैसे काली सिन्ध और पार्वती ने कोटा में एक त्रिकोणीय कापीय बेसिन का निर्माण किया है जिसकी औसत ऊँचाई 210 मीटर से 215 मीटर के बीच है। बूँदी व मुकन्दवाड़ा की पहाड़ियाँ इसी पठारीय भाग में है। नदियों द्वारा इस पठारीय भाग को काफी काट-छांट कर परिवर्तित किया है। इसी पठारी भाग से बिजौलिया, माताजी का नाला, बुद्धपुरा बेरीसाल बूँदी आदि स्थानों से मकान की छत में काम आने वाली पट्टियाँ, कातलें आदि बहुतायत से निकाले जाते हैं। इस क्षेत्र में गन्ना, चावल, कपास, अफीम, जौ, गेहूँ, चना आदि की खेती भी कापीय एवं काली मिट्टी के क्षेत्रों में की जाती है। इस भाग में पथरीली भूमि तथा पर्वत हैं। पर्वत इस प्रकार के हैं कि उनके बीच कार, मोटर, बैलगाड़ी आदि चलाना भी कठिन है। इसी पठार में कहीं-कहीं पर काली मिट्टी भी मिलती है।24
पहाड़
नाला
मुकन्दरा घाटी व दर्रा
जलवायु
नदियाँ
मिट्टी
वनों की स्थिति
उपज
सिंचाई
खानें
झील एवं तालाब
हाड़ौती का इतिहास परिदृश्य
बूँदी
‘गज नव बारह शब्द गत, सक विक्रम सम्बन्ध।
दिन नवमी आषाढ़ बदी, मीणा तोड़ि मदन्ध।।
मारि सकल इमि पाई मधु, राखि सनातन राह।
धकि लीघी बूँदी घरा, देवे कँवर दुबाह’।। वंश भास्कर ।।
समर सिंह (1343-1346 ई.)
हाड़ा राव नरपालजी (1349-1370 ई.)
हाड़ा राव हामाजी (राव हम्मीर) (1388-1403 ई.)
‘‘जब तक मैं बूँदी पर अधिकार नहीं कर लूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण न करूँगा।’’
राणा की इस प्रतिज्ञा को सामन्तों की राय में इतने अल्पकाल में पूरा करना असम्भव था क्योंकि चित्तौड़ से 60 मील दूर सशक्त हाड़ा राव को परास्त करने में जितना समय लग जाता उतने समय तक अन्न जल त्यागे हुऐ महाराणा का जीवन संदिग्ध ही था। समस्या का यह उपाय खोजा गया कि बूँदी के दुर्ग का एक कृत्रिम नमूना मेवाड़ में ही निर्मित किया जाए तथा उस पर अधिकार करके महाराणा की प्राण रक्षा की जाये, किन्तु इस योजना की क्रियान्विति का मेवाड़ की सेना में सेवारत एक हाड़ा सरदार कुम्भा ने इसे हाड़ाओं के सम्मान का प्रश्न मानकर इस कृत्रिम आक्रमण का सशस्त्र विरोध किया।
‘‘हाड़ा राव हम्मीर ने महाराणा की पुरमाण्डल की ओर बढ़ती सेना को रोककर मध्यस्तता की तथा अपने पिता नापाजी के समय मेवाड़ से छिना गया प्रदेश मेवाड़ को पुनः सौंपकर अपनी एक पौत्री का विवाह महाराणा के पुत्र खेतल से कर दिया।”
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हाड़ा राव वीरसिंह (1403-1413 ई.)
हाड़ा राव बेरीशाल (1413-1459 ई.)
हाड़ा राव भांडाजी (1459-1503 ई.)
राव नारायणदास (1503-1527 ई.)
राव सूरजमल हाड़ा (1527-1531 ई.)
हाड़ा राव सूरताण (1531-1554 ई.)
राव सुर्जन हाड़ा (1554-85 ई.)
राव भोज (1585-1607 ई.)
राव रतनसिंह हाड़ा (1607-1631 ई.)
राव शत्रुसाल हाड़ा (1631-1658 ई.)
राव भावसिंह हाड़ा (1658-1681 ई.)
राव अनिरुद्ध हाड़ा (1681-1695 ई.)
राव राजा बुद्धसिंह (1695-1739 ई.)
महाराव उम्मेदसिंह (1743-1771 ई.)
महाराजा राव विष्णु सिंह (1773-1821 ई.)
महाराव राजा राम सिंह (1821 -1889 ई.)
जिसकी शर्तें निम्नलिखित है :-
महाराजा राव रघुवीर सिंह (1889-1927 ई. )
महाराव राजा ईश्वर सिंह (1927-1945 ई.)
महाराव राजा बहादुर सिंह (1945 -1948 ई.)
कोटा का इतिहास
राव मुकन्दसिंह (1648-1658 ई.)
राव जगतसिंह (1658-1683 ई.)
राव किशोर सिंह (1684-1695 ई.)
राव रामसिंह (1695-1707 ई.)
महाराव भीमसिंह (1707 -1720 ई.)
महाराव दुर्जनसाल (1723-1756 ई.)
महाराव शत्रुसाल (1758-1764 ई.)
महाराव गुमानसिंह (1764-1770 ई.)
महाराव उम्मेदसिंह (1770-1819 ई.)
महाराव किशोर सिंह (1819-1827 ई.)
‘‘महाराव नाममात्र का शासक है। जालिम सिंह के साथ जो कम्पनी की सन्धि हुई उसके खिलाफ महाराव की दलीले नहीं सुनी जा सकती।”
कोटा राज्य का वास्तविक शासक जालिम सिंह है न कि महाराव। महाराव की स्थिति सताराके राजा या मुगल सम्राट से ज्यादा अच्छी नहीं थी। ये बातें कोटा नरेश को स्वीकार नहीं थी इसलिये जालिम सिंह से लड़ाई करने के लिये सेना के साथ किशोर सिंह रंगबाड़ी तक आ पहुँचे। तब कम्पनी के पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड ने रंगबाड़ी पहुँचकर कोटा नरेश को विश्वास दिलाया कि उनकी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान में कोई कमी नहीं आयेगी। साथ में यह भी कहा कि कम्पनी ने जो शासन शक्ति जालिम सिंह को दी हैं। उसमें भी किसी प्रकार की कमी नहीं आयेगी।114 पॉलिटिकल एजेन्ट ने कम्पनी की ओर से महाराव किशोर सिंह और जालिम सिंह को खिलअते देकर सम्मानित किया।115 और गोवर्धनदास को कोटा से बाहर कर दिल्ली और झाबुआ भेज दिया। अब जालिम सिंह और किशोर सिंह आमने-सामने हो गये। किशोर सिंह ने देखा कि आत्मरक्षा करना असम्भव है, तो वह मध्य रात्रि को गुप्त रास्ते से बूँदी पहुँच गये। जहाँ बूँदी नरेश राव राजा विष्णुसिंह ने किशोर सिंह का स्वागत किया और सम्मानपूर्वक अपने पास ठहराया और सहायता का आश्वासन दिया। कम्पनी के एजेन्ट और जालिम सिंह ने अब बूँदी नरेश के नाम खरीते भेजे कि महाराव किशोर सिंह का बूँदी में रहना वांछनीय नहीं है, तब किशोर सिंह भरतपुर होते हुए दिल्ली पहुँचे जहाँ पर कम्पनी के कर्नल टॉड ने बहुत समझाया, परन्तु किशोर सिंह ने निश्चय कर लिया कि जालिम सिंह से शासन सूत्र छीनने के लिये एक बार पुनः प्रयत्न किया जावे। इस उद्देश्य से वह कोटा की ओर रवाना हो गये। गोवर्धनदास के प्रयत्न से रेजिडेन्सी का खजांची और मीरमुंशी कोटा नरेश के पक्ष में हो गये। मार्ग में किशोर सिंह यह घोषित करते हुए आये कि कम्पनी सरकार से उनका कोई विरोध नहीं है और कम्पनी की आज्ञा से वह अपना राज्य प्राप्त करने के लिये कोटा जा रहे हैं।
कम्पनी का खजांची साथ होने से लोग भी उनके साथ सहानुभूति करने लगे। महाराव किशोर सिंह 1821 ई. के वर्षाकाल में कोटा की सीमा में पहुँचे, हाड़ा राजपूत और जागीरदार सब जालिम सिंह के शासन से असन्तुष्ट थे। वे लोग उसके शासन को राजनीतिक अतिक्रमण समझते थे और सब किशोर सिंह को गद्दी पर बैठाने के पक्षधर थे। इसलिये सब हाड़ा सरदार महाराव के पक्ष में लड़ने के लिये उनके झण्डे के नीचे एकत्र होने लगे। उधर जालिम सिंह ने कम्पनी से सैनिक सहायता प्राप्त कर ली। मांगरोल के पास दोनों सेनाएँ आमने-सामने आ गयी। लड़ाई आरम्भ होने से पहले पॉलिटिकलएजेन्ट और एक अंग्रेज अफसर दरबार को समझाने के लिये उनके डेरे पर गये, परन्तु महाराव किशोर सिंह ने इस बात को नहीं माना और पुनः 1818 ई. में कर्नल टॉड को भेजी गयी शर्तों को दोहराया, जिसमें जालिम सिंह के फौजदार बने रहने पर कोई आपत्ति नहीं थी। माधोसिंह को जागीर देकर कोटा से दूर रखने, ब्रिटिश सरकार को या अन्य रियासतों को पत्र दरबार की सम्मति से भेजे जाने, सेना दरबार के अधिकार में रहने की बात कही गयी थी। उपरोक्त शर्तों को मानने के लिये पोलिटिकल एजेन्ट तैयार नहीं हुआ। कम्पनी सरकार अपनी गुप्त सन्धि के अनुकूल जालिम सिंह को वास्तविक और महाराव को नामधारी शासन बनाने पर तुली हुई थी। अन्त में 1 अक्टूबर 1821 ई. में लड़ाई शुरू हो गयी।116 युद्ध में महाराव किशोर सिंह की हार हुई। महाराव किशोर सिंह पार्वती नदी को पार करके बड़ौद पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने अपने वीर हाड़ा भाइयों से विदा ली और स्वयं नाथद्वार की ओर रवाना हुये। वहाँ उनसे मिलने के लिये उदयपुर नरेश महाराव भीमसिंह आये। महाराणा भीमसिंह की कोटा राजपरिवार से रिश्तेदारियाँ थीं। महाराणा भीमसिंह ने कम्पनी सरकार और महाराव किशोर सिंह में समझौता कराने के लिये मध्यस्थ की हैसियत से पत्र व्यवहार किया। 1822 ई. को नाथद्वारा में महाराव किशोर सिंह और कुंवर माधोसिंह और कम्पनी के प्रतिनिधि कर्नल टॉड के बीच एक सन्धि हुई। इस सन्धि के अनुकूल निम्नलिखित शर्तें तय हुई-
कुँवर माधोसिंह झाला कोटा का फौजदार रहेगा और राज्य शासन उसके हाथ में रहेगा। पुण्य ईनाम, त्योहार और सैनिक जुलूसों का प्रबन्ध कोटा नरेश के सुपुर्द होगा। छत्र, चवर आदि राजचिह्न किले में रहेंगे, वहीं नक्कारखाना रहेगा। सवारी में राज्य का सम्पूर्ण लवाजमा दरबार के साथ रहेगा। इनाम जो वितरण किया जावेगा वह कोटा नरेश की तरफ से होगा। नगर के भीतर के व बाहर के सब राजमहलों पर कोटा नरेश का अधिकार होगा और उनकी रक्षा तथा मरम्मत के लिये पर्याप्त रुपये दिये जावेंगे। महाराजा पृथ्वीसिंह के पुत्र रामसिंह के निर्वाह के लिये उचित प्रबन्ध होगा और विष्णुसिंह जिन पर दरबार का विश्वास नहीं है वह अणता में रहेंगे। महाराव किशोर सिंह के व्यक्तिगत और अन्तपुर के खर्च के लिये उतना रुपया निश्चित किया जावेगा, जितना महाराणा उदयपुर खर्च करते हैं।117
जब महाराव किशोर सिंह 1821 ईस्वी में कोटा पहुँचे तो पॉलिटिकल एजेन्ट और जालिम सिंह ने उनका स्वागत किया और पुनः कोटा राज्य का शासन पूर्ववत होने लगा। महाराव किशोर सिंह के वापिस आने के बाद जालिम सिंह भी अधिक अर्से तक जीवित नहीं रहे और 1823 ई. में जालिम सिंह का देहान्त हो गया और उनका बेटा माधवसिंह रियासत का काम करता रहा। महाराव किशोर सिंह भी अधिक दिन तक राजसुख नहीं भोग सके। आषाढ़ शुक्ला अष्टमी 1827 ई. के दिन उनका देहान्त हो गया।
महाराव रामसिंह (1827-1865 ई.)
झालावाड़ का इतिहास
बारां का इतिहास
संदर्भ
1. कन्हैयालाल शर्मा-हाड़ौती बोली और साहित्य, पृ.सं. 1, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर, 1920
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20. बद्रीनारायण वर्मा -कोटा भिति चित्रांकन परम्परा, अध्याय 2, पृ.सं. 7 सर जार्ज राधा पब्लिकेशन नई दिल्ली, 1989
21. डॉ. जगत नारायण-कोटा के महाराव उम्मेदसिंह द्वितीय एवं उनका समय पृ.स. 1, नेहा विकास प्रकाशन, कोटा, 1983
22. डॉ. चन्द्रशेखर भट्ट - उपरोक्त, पृ.सं. 59
23. डॉ महावीर सिंह, सुखविन्दर सिंह, विजय सिंह गहलोत -कल्चर हैरिटेज ऑफ हाड़ौती, पृ. सं. 11, हिन्दी साहित्य मन्दिर, जोधपुर 1995
24. प्रो.एच.एस. शर्मा एवं डॉ. एम.एल. शर्मा-राजस्थान का भूगोल पृ.सं. 27 पंचशील प्रकाशन जयपुर 2009
25. जगदीश सिंह गहलोत -राजपूताना का इतिहास (बूँदी राज्य) पृ.सं. 4 हिन्दी साहित्य मंदिर,जोधपुर 1960।
26. प्रोफेसर एच.एस.शर्मा,एम.एल.शर्मा-उपरोक्त, पृ. सं. 363
27. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-1 पृ. सं. 11
28. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त, पृ.सं. 5
29. हाड़ौतिका त्रैमासिकी पत्रिका, पृ.सं. 23 जनवरी-मार्च 2009,शिकारखाना हवेली,कोटा।
30. प्रोफेसर एच एस शर्मा, एम एल शर्मा- उपरोक्त, पृ.सं. 78
31. सूर्यमल्ल मिश्रण ने वंश भास्कर में चव्हाण व उसके पीछे 36 राजाओं के शासन करने का उल्लेख लिखा है। बी.एन धौंधियाल-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजैटियर बूँदी, गवर्नमेन्ट सेन्ट्रल प्रेस, जयपुर 1964
32. रामकरण आसोपा- उपरोक्त,पृ.स. 518-522,1899
33. हर्षनाथ का शिलालेख,
34. बिजोलिया का शिलालेख वि.स. 1226, फाल्गुन बदी 3, ईस्वी सन 1170 को प्राप्त हुआ है।
35. नाडोल का शिलालेख,
36. विजयपाल चौहान का वि.स. 1354 का एक शिलालेख जो बूँदी से तीन मील दूर महादेव के मन्दिर के पास प्राप्त हुआ।
37. पं. गंगासहाय -वंश प्रकाश, पृ.स. 33, श्री रंगनाथ मुद्रणालय बूँदी 1927
38. रामकरण आसोपा- उपरोक्त, भाग 3, पृ.स. 1625,
39. जगदीश सिंह गहलोत -उपरोक्त, पृ.सं. 44
40. पं. जगत नारायण- उपरोक्त, भाग-1, पृ.सं. 38
41. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, 4 पृ.सं. 1678
42. तब नरपाल सज्जि दल सत्वर, प्रथम चढ़यो खिच्चिये महेश पर, कोटा पुरहि प्रपात किय, द्रुत तँहँ बन्धु जुगहि उपदा दिय-वंशभास्कर भाग 4,पृ.सं. 1725
43. अरविन्द कुमार सक्सेना - बूँदी राज्य का इतिहास, पृ.स.10, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 1992
44. रामकरण ओसापा -उपरोक्त, भाग 4, पृ. सं. 1791-92
45. डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा -उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग 3, पृ.स. 24, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर 1938
46. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त, पृ.सं.49-50
47. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 3, पृ.सं. 1708
48. बलदेव मिश्र, ज्वाला प्रसाद मिश्र एवं राय मुंशीप्रसाद- टॉड कृत राजस्थान का इतिहास, भाग 2, जिल्द-4, पृ.सं. 794 यूनिक ट्रेडर्स जयपुर, 1987
49. कविवर श्यामलदास- वीर विनोद, भाग 2, पृ.सं. 107, महाराणा मेवाड़ हिस्टोरिकल पब्लिकेशन ट्रस्ट, उदयपुर, 2007
50. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 4, पृ.सं. 2065
51. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 14
52. कविवर श्यामलदास- उपरोक्त भाग- 2, पृ.सं. 87, 108
53. डॉ. जगदीश सिंह गहलोत-उपरोक्त, पृ.सं. 56
54. रामकरण आसोपा, उपरोक्त भाग 5, पृ.सं. 2201
55. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना -उपरोक्त, प्र.सं. 15
56. कर्नल जेम्स टॉड - उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 805
57. कुम्भ भगवन्त तबसाह प्रति यू कहो लग्गि चिर निठ्ठ चितौर अप्पन लझो। मुख्य दुर्गेश जयमल्ल जो ना मरै पुनिहुँ जय माहि बहु अब्द संसय परै।। तोहु तिमि हास बहू आस दल को तहाँ ज्योति अब आहि गढ माहि सुर्जन जहाँ।। इपट तिहि अप्पि यह दुर्ग अब अंग मै। जिमि सु निज होइ इत अमल अप्पन जमै।। वंश भास्कर भाग 5, पृ.स. 2264
58. जगदीश सिंह गहलोत-उपरोक्त, पृ.स. 59-60
59. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, पृ.स. 809
60. खाफीखा जिल्द 1, पृ.स. 384 उद्रत, जगदीश सिंह गहलोत, उपरोक्त, पृ.स. 67
61. रामकरण आसोपा, भाग 5, पृ.स. 2496
62. कविवर श्यामलदास- उपरोक्त, भाग 2, पृ.स. 111
63. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, पृ.स. 811
64. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ. स. 20
65. जदुनाथ सरकार -हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब, भाग 4, पृ.स. 268, 272, एम.सी. एण्ड सनसकोलकाता 1942 ई.
66. लज्जाराम मेहता -पराक्रमी हाड़ा राव, पृ.सं. 179 श्री वेकंटेश्वर स्टीम मुद्रणालय मुम्बई 1915
67. प. गंगासहाय-वंश प्रकाश पृ.सं. 76
68. जगदीश सिंह गहलोत- उपरोक्त, पृ.सं. 73
69. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 819
70. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 21
71. कविवर श्यामलदास- उपरोक्त, भाग-2, पृ.सं. 115
72. जगदीश सिंह गहलोत- उपरोक्त, पृ.सं. 79
73. पीताम्बरदत्त शर्मा-बूँदी राज्य के ऐतिहासिक स्थल, पृ.सं.25, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 2008
74. पंडित गंगा सहाय - उपरोक्त, पृ.सं. 89
75. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 7, पृ.सं. 3371
76. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त, पृ.सं. 84
77. डॉ. अरविन्द कुमार सक्सेना- उपरोक्त, पृ.सं. 27
78. पं. गंगासहाय-वंश प्रकाश, पृ.सं. 116
79. एचिसन- ट्रीट्रीज, जिल्द-3, पृ.सं. 219 उद्रत जगदीश सिंह गहलोत, उपरोक्त पृ.स.-103
80. पीताम्बर दत्त शर्मा- उपरोक्त, पृ.स 30,
81. जगदीश सिंह गहलोत - उपरोक्त पृ.सं. 106
82. डॉ. मोहनलाल गुप्ता-कोटा सम्भाग का जिलेवार सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पृ.सं. 9 राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर 2009
83. पं. जगतनारायण - उपरोक्त, भाग 1, पृ.सं. 59
84. रामकरण आसोपा, उपरोक्त, भाग 5, पृ.सं. 2499
85. खर्जूरी, अरण्डखेटक, केथोनी रुपये आवा कनवास मधुकरगढ़, दिग्धोद रहलमिलि अष्टक यह ग्रामक सहआस।। वंश भास्कर।। 2543
86. माधोसिंह पिसरे रावरतन रा ब इजाफा पान्सदी जात व पान्सद सवार व मन्सब दो हजार व पान्सदी हजार व पान्सदी सवार बरनावाख्ता परगना कोटा व पलायता रा दर जागीर ओ मुकर्रर गर्दानीदन्द-बादशाहनामा। अब्दुल हमीद लाहौरी- बादशाहनामा, पहली जिल्द पृ.सं. 401
87. पं. जगतनारायण - उपरोक्त, भाग 1, पृ.सं. 66
88. अब्दुल हमीद-बादशाहनामा, जिल्द 2, पृ.सं. 423, उद्रत कोटा राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ.सं. 71
89. अब्दुल हमीद-बादशाहनामा, जिल्द 2, पृ.सं. 641
90. कविवर श्यामदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1410
91. पं. जगतनारायण - उपरोक्त,भाग-1, पृ.सं. 93
92. मोहम्मद सालेह काम्बोह-अमर ए सालेह, जिल्द 3, पृ.स. 286, 287, उद्रत प. जगतनारायण, भाग 1, पृ.स. 97
93. कविवर श्यामदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1410
94. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-1, पृ.स. 92
95. उपरोक्त, भाग-1, पृ.सं. 100-101
96. रामकरण आसोपा, भाग 5, पृ.स. 2338, वीर विनोद, भाग 3, पृ.सं. 1411
97. मिर्जा निज़ाम मुहम्मद - काज़मी-आलमगीरनामा, पृ.सं. 263, उद्रत प. जगतनारायण, भाग 1,पृ.स. 103
98. रामकरण आसोपा- उपरोक्त भाग 5, पृ.स. 2889, वीर विनोद भाग 3, पृ.सं. 1411
99. कर्नल जेम्स टॉड-उपरोक्त, भाग-2, जिल्द-4, पृ.सं. 866
100. मुंशी मूलचन्द-तवारीख राज्य कोटा हिस्सा अव्वल, भाग-1, पृ.स.122, उद्रत पं. जगतनारायण - कोटा राज्य का इतिहास, भाग 1, पृ.सं. 129
101. पं. जगतनारायण, उपरोक्त, पृ.स. 132
102. ईरविन-लेटर मुगल्स, जिल्द 1, पृ.सं. 34 प. जगतनारायण, भाग 1, पृ.स. 138
103. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 6, पृ.सं. 3040-43
104. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द-3, पृ.स. 555
105. श्यामरू दुर्जनसल्ल के, भो भूहित घमसान, अग्रज भ्याम ही मारी कै, भो नृप दुज्जनसाल।। वंश भास्कर।। 3094
106. डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा- उपरोक्त, भाग 3, पृ.स. 933
107. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग-2, पृ.स. 48
108. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.सं. 883
109. रामकरण आसोपा- उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 3817
110. कविवर श्यामलदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1420
111. कर्नल जेम्स टॉड- उपरोक्त, भाग 2, जिल्द 4, पृ.सं. 911-12
112. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 3912
113. पं. जगत नारायण- उपरोक्त, भाग-2, पृ.सं. 112
114. कर्नल जेम्स टॉड उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.स. 935-936
115. रामकरण आसोपा-उपरोक्त, भाग 8, पृ.सं. 4024
116. कविवर श्यामलदास-उपरोक्त, भाग 3, पृ.सं. 1424
117. कर्नल जेम्स टॉड-उपरोक्त, भाग-2, जिल्द 4, पृ.स. 947
118. पं. जगतनारायण- उपरोक्त, भाग 2, पृ.सं. 127
119. डॉ. बी.एन.घौघियाल-राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजेटियर झालावाड़, पृ.स. 21, 22, गवर्नमेन्टसेन्ट्रल प्रेस जयपुर 1964
120. डॉ. बी.एन. घौघियाल- राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गजैटियर, बांरा, पृ.स. 42-46, गवर्नमेन्टसैन्ट्रल प्रेस, जयपुर, 1997
राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में जल विरासत - 12वीं सदी से 18वीं सदी तक (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | हाड़ौती का भूगोल एवं इतिहास (Geography and history of Hadoti) |
2 | हाड़ौती क्षेत्र में जल का इतिहास एवं महत्त्व (History and significance of water in the Hadoti region) |
3 | हाड़ौती क्षेत्र में जल के ऐतिहासिक स्रोत (Historical sources of water in the Hadoti region) |
4 | हाड़ौती के प्रमुख जल संसाधन (Major water resources of Hadoti) |
5 | हाड़ौती के जलाशय निर्माण एवं तकनीक (Reservoir Construction & Techniques in the Hadoti region) |
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