बढ़ता ही जा रहा अंटार्कटिका की बर्फ में छेद का आकार: जानिए भारत के लिए है कितना ख़तरा
समुद्र की बर्फ में बने ऐसे छेदों को पोलिन्या के नाम से जाना जाता है। हम जिस छिद्र की बात कर रहे हैं उसे मौड राइज पोलिन्या (Maud Rise Polynya) का नाम दिया गया है। यह नाम उस स्थान पर पानी के नीचे के स्थित उस जलमग्न पहाड़ के नाम पर दिया गया है, जिसके ऊपर वेडेल सागर इलाके में यह छेद बना था। पहली बार इसे 1974 और 1976 में देखा था। तब यह आकार में काफी छोटा था और इसे तात्कालिक समझा गया था। आगे चलकर यह कुछ वर्षों के अंतराल पर अलग-अलग आकार में प्रकट होने लगा और हर बार यह एक ही स्थान पर खुलता था, जिसके चलते वैज्ञानिकों को इसे एक स्थायी छिद्र मानने को मजबूर होना पड़ा। हालांकि अगले कुछ वर्षों में कभी-कभी कई सालों तक यह बिल्कुल भी नहीं दिखाई दिया, जिससे मान लिया गया कि दोबारा बर्फ जमने से यह पोलेन्या भर गया है। पर, वैज्ञानिकों की उम्मीदों को इसने एक बड़ा झटका 2016-17 में अपना विकराल रूप दिखा कर दिया।
2016 -17 में पोलिन्या दिखा चुका है विकराल रूप
साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय के साइंस एडवांस अध्ययन के मुख्य लेखक आदित्य नारायणन के मुताबिक 2016 और 2017 में मौड राइज़ पोलिन्या का आकार आश्चर्यजनक रूप से काफी तेजी से बढ़ गया। अगस्त 2016 में इसे लगभग 33,000 वर्ग किलोमीटर (13,000 वर्ग मील) के आकार में देखा गया, जो लगभग तीन सप्ताह तक बना रहा। इसके अगले साल सितंबर 2017 में पोलिन्या फिर से दिखाई दिया, जो शुरू में तो 9,500 वर्ग किलोमीटर में फैला था, पर 1 दिसंबर तक यह नाटकीय रूप से बढ़कर लगभग 298,100 वर्ग किलोमीटर (115,100 वर्ग मील) तक फैल गया था, जो 79 दिनों तक खुला रहा। इस कारण वैज्ञानिकों को इस घटना को करीब से देखने और करीब 50 साल पुराने रहस्य को सुलझाने में मदद मिली।
भारत के लिए क्या हो सकता है खतरा
अंटार्कटिका की समुद्री बर्फ में हुए छेद का आकार बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। ताजा वैज्ञानिक अध्ययनों में पता चला है कि इस छेद (Polynya) का आकार बढ़कर अब स्विट्जरलैंड के बराबर हो गया है। अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने का मामला सुनने में हमें भले ही बहुत दूर-दराज़ का लगे, लेकिन इसका असर भारत सहित पूरी दुनिया पर पड़ने वाला है। क्योंकि इससे समुद्र का जलस्तर (Sea Level) बढ़ने से दुनिया भर में कई तटवर्ती इलाकों के डूबने का खतरा है। खासकर, भारत जैसा 7,500 किलोमीटर लंबी तट रेखा वाला देश इसे महज़ एक वैश्विक समस्या या ध्रुवीय भौगोलिक बदलाव समझ कर इससे आंखें नहीं फेर सकता। अपनी विशाल समुद्री सीमाओं के चलते भारत इस संकट से अछूता नहीं रह सकता। अंटार्कटिका की पिघलती बर्फ का संकट आने वाले वर्षों में भारत की दहलीज़ पर दस्तक दे सकता है। अभी समय है कि दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी और विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर हम इसे लेकर आवाज उठाना और इसपर लगाम लगाने के उपायों में शिरकत करना शुरू कर दें। वर्ना, आने वाले कुछ वर्षों में हमें अपने कई तटवर्ती इलाकों और द्वीपों को समुद्र में डूबसे से बचाने के उपायों पर इसका कई गुना धन खर्च करना पड़ सकता है। समय का संकेत यही है कि अब हमें ऐसे गंभीर पर्यावरणीय खतरों को 'वैश्विक'' नहीं, बल्कि स्थानीय' समझ कर कदम बढ़ाने होंगे, क्योंकि प्रकृति की प्रक्रियाएं ज्यादा सयम तक देश-देशांतर की सीमाओं में बंधी नहीं रहती हैं। IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) के अनुसार, यदि अंटार्कटिका की बर्फ लगातार पिघलती रही, तो 2100 तक वैश्विक समुद्र स्तर में 1 मीटर तक की वृद्धि संभव है। यह भारत के लिए गंभीर चेतावनी है, विशेषकर निम्नलिखित तटीय इलाकों के लिए:
किन भारतीय शहरों और द्वीपों को सबसे अधिक खतरा?
कोलकाता (पश्चिम बंगाल): सुंदरबन डेल्टा पहले से ही समुद्र स्तर में वृद्धि से प्रभावित है।
मुंबई (महाराष्ट्र): आर्थिक राजधानी होने के साथ-साथ समुद्र के पास बसी है।
चेन्नई (तमिलनाडु): तटीय कटाव और बाढ़ की घटनाएं पहले से बढ़ रही हैं।
विशाखापट्टनम (आंध्र प्रदेश): बंदरगाह शहर है, समुद्र स्तर वृद्धि से व्यापारिक ढांचा प्रभावित हो सकता है।
कोचीन (केरल): निचले तटीय इलाके और बैकवाटर क्षेत्र संवेदनशील हैं।
पोरबंदर/भावनगर (गुजरात): खारा पानी और तटीय भूमि कटाव की समस्या पहले से है।
पुरी और कटक (ओडिशा) : तीव्र चक्रवातों और समुद्र अतिक्रमण का खतरा
लक्षद्वीप और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह
समुद्र में जलस्तर वृद्धि का सबसे गंभीर खतरा इन द्वीपों को है। ये द्वीप समुद्र तल से सिर्फ 1 से 2 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं। ऐसे में अगर समुद्र का जलस्तर 1 मीटर बढ़ता है, तो इनके बड़े हिस्से जलमग्न हो सकते हैं। IPCC की रिपोर्ट कहती है कि कई द्वीप 21वीं सदी में ही पूरी तरह डूब सकते हैं। इसके अलावा समुद्र के स्तर वृद्धि के साथ तूफानों की तीव्रता भी बढ़ सकती है। साथ ही इससे स्थानीय समुदायों और जैवविविधता पर गहरा असर पड़ेगा।
क्यों बनता है पोलिन्या, समझिये कुछ मूल बातें
मौड राइज पोलिन्या सहित ध्रुवीय बर्फ में बनने वाले अन्य छिद्रों के बनने का कारण कुछ विशेष प्रकार की समुद्री और वायुमंडलीय स्थितियों के एक साथ पैदा होना होता है। समुद्री कारक की बात करें, तो वेडेल गाइरे नाम की गोलाकार महासागरीय धारा, के तेज होने से समुद्र का गर्म, नमकीन पानी सतह पर आ गया। उधर, वायुमंडलीय परिस्थितियों में मजबूत चक्रवाती तूफान और वायुमंडलीय धाराओं (Atmospheric currents) के इससे टकराने गर्म पानी के ऊपर तैरती बर्फ की ऊपरी परत में कटाव से से पोलिन्या का निर्माण हुआ।
दक्षिणी महासागर आम तौर पर एक परतदार केक की तरह होता है। ठंडे और अपेक्षाकृत ताजे पानी से जमी बर्फ की एक पतली कैप नीचे स्थित पानी की नमकीन गर्म परतों के ऊपर तैरती रहती है। इसकी वजह दोनों तरह के जल के घनत्व का अंतर होता है। बर्फ का केक उस समय ढह कर पोलिन्या बन जाता है जब ऊपरी परत के भारी होने पर नीचे से नमकीन पानी की परत खिसक जाती है। ऐसे में बर्फ का भारी ढक्कन अपने ही वजन के चलते टूट जाता है। बर्फ के धंसने से बने पोलिन्या से गर्म जल की गर्मी आसमान की ओर बढ़ती है। यह एक प्रकार से महासागर के "साँस" लेने जैसा होता है। हर साल भयंकर हवाएं बर्फ़ को दूर धकेलती जाती हैं। समुद्र की गहराई में स्थित करीब 4,600-फुट ऊंचा समुद्री पर्वत (सीमाउंट) मौड राइज़, धाराओं को मोड़कर और पानी को तंग सर्पिलों में फंसा लेता है।
वैज्ञानिक पहले इस बात को लेकर हैरान थे कि मॉड राइज पोलिन्या आखिर बना कैसे? लेकिन नासा अर्थ ऑब्जर्वेटरी से मॉड राइज पोलिन्या के हवाई दृश्य देखने के बाद अब इसका जवाब मिल गया है।
धरती पर क्या हो सकता है पोलिन्या असर
दक्षिणी महासागर की समुद्री बर्फ में छेद स्थानीय लग सकता है, फिर भी इसके प्रभाव दूर तक देखने को मिल सकते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर यह छेद इसी तरह बढ़ता रहा तो कुछ वर्षों में यह अंटार्कटिका को दो टुकड़ों में बांट सकता है। इसमें छोटा टुकड़ा ताकतवर समुद्री धाराओं के साथ बह कर किसी गर्म स्थान पर जा कर पिघल सकता है। बड़ी मात्रा में बर्फ पिघलने से पूरी दुनिया के समुद्री जल स्तर में तेजी से बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है।
पोलिन्या के शोध से जुड़ी यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया सैन डिएगो (UCSD) की प्रोफेसर सारा गिल ने कहा, "पोलिन्या बनने के बाद कई सालों तक पानी में बने रह सकते हैं। वे समुद्रों में पानी के प्रवाह और धाराओं द्वारा महाद्वीप की ओर गर्मी ले जाने के तरीकों को बदल सकते हैं। इसके चलते अंटार्कटिका के पास के समुद्र में बनने वाला घना पानी वैश्विक महासागर में फैल सकता है। इस बहाव से कार्बन युक्त पानी ऊपर की ओर खिंचेगा और अपने भीतर मौजूद CO₂ को हवा में छोड़ सकता है, जो धरती पर बढ़ते ग्रीन हाउस प्रभाव को और भी तेजी से बढ़ा सकता है।"
वह बताती हैं '' यह भारी नमकीन पानी अंततः जल धाराओं की ग्लोबल कन्वेयर बेल्ट को भरता है, जिसका प्रभाव जलवायु पर पड़ता है। इस तरह भविष्य में मौड राइज का यह तंत्र पृथ्वी के गर्म होने की रफ्तार में बढ़ोतरी कर सकता है। हालांकि यह काफी हद तक हवाओं और जल धाराओं में होने वाले बदलावों पर निर्भर करेगा।'’