ग्लोबल वॉर्मिंग का बढ़ता असर

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पिघलती बर्फ से तापमान में वृद्धि

जर्मन मौसम विभाग (डीडब्ल्यूडी) द्वारा इस साल का अप्रैल महीना 1820 से अब तक का सबसे गर्म अप्रैल माह दर्ज किया गया है। डीडब्ल्यूडी ने यह भी रिपोर्ट की है कि बीते साल की गर्मियाँ अपेक्षाकृत गरम रही हैं और तापमान औसतन 8.3 के बजाय 9.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। तापमान में होती इस बढोतरी के चलते इस धारणा को भी बल मिला है कि ग्लोबल वॉर्मिंग अनुमान से ज्यादा और जल्दी अपना असर दिखा रही है।

इस रिपोर्ट के अनुसार 1890 से लेकर अब तक सबसे गर्म रहे 10 सालों में से 6 साल पिछले एक ही दशक के दौरान दर्ज किए गए हैं। 2008 में जर्मनी में उन दिनों की संख्या 1950 के साल से लगभग दुगनी रही जब पारा 30 डिग्री से ऊपर रहा।

कम्प्यूटर पर आधारित मॉडलों के अध्ययन से पता चलता है कि बहुत से जर्मन शहरों में आने वाले 50 वर्षों में साल से अधिकतर समय पारे के 25 डिग्री सेल्सियस या उससे ज्यादा रहने की उम्मीद है। डीडब्ल्यूडी के एक अध्ययन से पता चलता है कि 2050 तक सिर्फ फ्रैंकफर्ट में ही तापमान हर छठे दिन 25 डिग्री या उससे ज्यादा होगा।

शहरी योजना विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि बढ़ते तापमान का खासा असर शहरों व आबादी पर पड़ने वाला है। इससे बचने के लिए हर शहर के कम से कम 25 प्रतिशत भाग को हरा-भरा रखना होगा तथा शहरों के सभी इलाकों में जनसाधारण के लिए अधिक से अधिक पार्क बनाने होंगे।
 

समुद्र पर भी पड़ रहा है असर :

डीडब्ल्यूडी की इस रिपोर्ट में बढ़ते तापमान का कारण पूरी दुनिया में कार्बन डायऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन है। ज्यादा तापमान बढ़ने की सूरत में समुद्र का स्तर भयावह तरीके से बढ़ सकता है। वैसे ही 1961 से जलस्तर सालाना 1.8 मिलीमीटर के औसत से बढ़ रहा है। पर 1993 से 2003 में इसमें अच्छी-खासी बढ़त यानी 3.3 मिलीमीटर सालाना की वृद्धि देखी गई।

इसी तर्ज पर कुछ अन्य सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा कराए गए सर्वेक्षणों एवं अध्ययनों से पता चला है कि बदलती जलवायु से क्षेत्र विशेष की बर्फ पिघलने की गति पिछले 30 वर्षों में अनुमान से कहीं ज्यादा तेज हो गई है।

'विश्व का रेफ्रिजरेटर' कहे जाने वाले आर्कटिक में भी तेजी से बर्फ पिघल रही है। दरअसल आर्कटिक पर फैली विशाल बर्फीली चादर सूरज की ऊष्मा को परावर्तित कर अंतरिक्ष में भेज देती है जिससे समुद्र तथा धरती ठंडी रहती है, मगर तेजी से कम होती बर्फ के स्थान पर गहरे नीले समुद्र की सतह इस उष्मा को सोख रही है जिससे समुद्र भी गरम हो रहे हैं और पृथ्वी का वायुमंडल भी। 2005-08 ही में कम होती इस बर्फ की चादर की वजह से मध्य आर्कटिक सतह का तापमान सामान्य से 5 डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहा।

अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी के जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम के अंतर्गत जर्नल जियोफिसिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित स्टडी ऑफ एट्मॉस्फेरंड ओशियन व नेशनल ओशियनिक एंड एट्मॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन की पेसिफिक मरीन एनवायर्नमेंटल लैब की नई संयुक्त रिपोर्ट में भी कहा गया है कि हाल के वर्षों में गर्मियों के दौरान आर्कटिक समुद्र में फैले बर्फीले क्षेत्रों में इस बार भारी कमी देखी गई है, पिछले 30 वर्षों में 'समर सी ऑइस' अनुमानित 2.8 मिलियन स्क्वेयर मील घट गई है।

नेशनल स्नो एंड ऑइस डाटा सेंटर द्वारा जारी किए गए आँकड़ों से पता चलता है कि पिछले साल सितम्बर में 1.8 मिलियन स्क्वेयर मील बर्फ की चादर आर्कटिक पर फैली थी जो अब तक का दूसरा सबसे फैलाव था। इससे पहले 2007 में सबसे कम दर्ज किया गया फैलाव 1.65 मिलियन स्क्वेयर मील रहा है।

इसी तरह सर्दी के दिनों में आर्कटिक पर अधिकतम 5.8 मिलियन स्क्वेयर मील पर बर्फ की चादर फैली थी जो औसत से 278,000 स्क्वेयर मील कम थी। पिछले साल बर्फ की सतह पाँचवें सबसे कम क्षेत्रफल वाले फैलाव के रूप में दर्ज की गई, यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि सभी बड़ी गिरावटें पिछले 6 वर्षों में ही दर्ज की गई हैं।

हालाँकि अभी बहुत सी बर्फ कनाडा और ग्रीनलैंड में बची है मगर अलास्का तथा रूस के बर्फीले क्षेत्रों पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर पड़ रहा है। ग्लोबल वॉर्मिंग के अलावा इनसानी कार्यकलापों द्वारा होने वाले जलवायु परिवर्तन से चिंतित पर्यावरणविदों ने इस मुद्दे पर ओबामा प्रशासन का ध्यान आकर्षित किया है। लंदन में हुए जी-20 सम्मेलन मंं भी इस मुद्दे पर भी चर्चा हुई।

इन चेतावनियों को अनसुना करना संपूर्ण पृथ्वी के लिए घातक सिद्ध हो सकता है, पर इस दिशा में कई सरकारें तथा गैरसरकारी संगठन कार्य कर रहे हैं और हाल ही में हुए जलवायु परिवर्तन ने विकसित देशों को भी इस ओर सोचने पर मजबूर किया था।
 

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