उत्तर भारत को क्यों महसूस हो रही है तापमान से 10 डिग्री ज़्यादा गर्मी
बीते दिनों उत्तर भारत के कई हिस्सों में हीटवेव के बीच नमी भरी मानसूनी हवाओं के चलते एक नया मौसमी ट्रेंड देखने को मिला। गर्मी और हवा में बढ़ी आर्द्रता के चलते ऐसी स्थिति बनी जिससे लोगों को वातावरण के वास्तविक तापमान से तकरीबन 10 डिग्री ज़्यादा गर्मी महसूस हुई। मौसम विज्ञान की भाषा में इसे ‘हीट इंडेक्स इफ़ेक्ट’ के नाम से जाना जाता है। मिसाल के तौर पर एक इंडिया टुडे में मौसम विभाग (IMD) के हवाले से प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक जून के दूसरे सप्ताह में दिल्ली में 42.2 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया,पर मानसूनी हवाओं के चलते हवा में अधिक आर्द्रता (40 से 80 फीसदी) होने के चलते लोगों को 53.5 डिग्री सेल्सियस (करीब 10 डिग्री ज्यादा) के बराबर गर्मी महसूस हुई।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इस बार मानसून के करीब दो सप्ताह पहले आ जाने के कारण बंगाल की खाड़ी से नम मानसूनी हवाएं हीटवेव के बीच ही दिल्ली तक पहुंच गईं। इससे भीषण गर्मी के बीच हवा में आर्द्रता का स्तर बढ़ा है। यानी तापमान तो नीचे नहीं आया पर हवा में नमी या उमस बढ़ जाने के कारण तापमान से ज़्यादा गर्मी महसूस होने की स्थिति पैदा हो गई।
इसको एक उदाहरण के ज़रिये इस प्रकार से समझा जा सकता है कि अगर वास्तविक तापमान 40 डिग्री सेल्सियस दर्ज़ किया जा रहा है और हवा में आर्द्रता का स्तर 20 फीसदी या उससे कम है तो आपको 40 डिग्री सेल्सियस के बराबर ही गर्मी महसूस होगी। लेकिन, अगर तापमान 40 डिग्री है और हवा में आर्द्रता का स्तर भी 40 फीसदी के करीब पहुंच जाए तो आपको 48 डिग्री सेल्सियस के बराबर गर्मी महसूस होगी।
वास्तविक गर्मी और महसूस होने वाली गर्मी (फील्स लाइक टेंप्रेचर) के इस अंतर को ‘हीट इंडेक्स’ या ‘डिस्कंफर्ट इंडेक्स’ के ज़रिए नापा जाता है। दिल्ली में मौसम विभाग ने पिछले साल हीट इंडेक्स की शुरुआत की है। इस इंडेक्स के तहत मौसम के तीन कारकों जैसे हवा की स्पीड, तामपान और नमी के स्तर के आधार पर गर्मी का विश्लेषण किया जाता है। इस विश्लेषण के आधार पर मौसम विभाग सहनीय और असहनीय गर्मी का चार्ट बनाता है। विभाग हर दिन अपने बुलेटिन में हीट इंडेक्स के आधार पर भी गर्मी की जानकारी देता है।
हीटवेव के दिनों में 51% की वृद्धि से बढ़ी समस्या
इंटीग्रेटेड रिसर्च एंड एक्शन फॉर डेवलपमेंड और कनाडा की संस्था इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर की ओर से दिल्ली और राजकोट आदि शहरों के लिए हीटवेव वाले दिनों की संख्या में वृद्धि का विश्लेषण किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में दिल्ली में 49 दिनों तक हीट वेव दर्ज की गई जो 2019 में बढ़ कर 66 दिनों तक पहुंच गई, यानी एक साल में लगभग 35% की वृद्धि हुई।
वहीं 2001 से 2010 तक के आंकड़ों पर नज़र डालें तो हीट वेव के दिनों में 51% की वृद्धि दर्ज हुई। इससे हीटवेव का दौर मानसून के आगमन से भी आगे तक चला गया है। ऐसे में हीटवेव और मानसूनी नम हवाओं के मेल से ऐसी स्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं, जिनके चलते लोगों को वास्तविक तापमान से ज़्यादा गर्मी महसूस होती है। इसके चलते शहरी इलाकों में बिजली की खपत चरम पर पहुंच जाती है और विद्युत आपूर्ति में लोड बढ़ने के चलते बार-बार पावर कट और ट्रांसफॉर्मर जलने जैसी घटनाएं सामने आती हैं। ऐसे में, न केवल जीवन की गुणवत्ता प्रभावित होती है, बल्कि गरीब और मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों के लिए यह हीटवेव जानलेवा साबित होती है।
शहरी इलाकों में ‘ग्रीन कवर एरिया’ बढ़ाने की जरूरत
द इंडिपेंडेंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते पिछले कुछ सालों से गर्मी के मौसम में आर्द्रता का स्तर बढ़ रहा है। साथ ही, हवाओं के रुख में भी बदलाव हुआ है। पहले जहां दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के मौसम में उत्तर पश्चिमी हवाएं दर्ज़ की जा रहीं थीं वहीं अब पूर्वी हवाएं दर्ज़ की जाने लगी हैं, जिनमें नमी अपेक्षाकृत अधिक होती है।
बंगाल की खाड़ी की ओर से आने वाली ये नम हवाएं दिल्ली की हवा में आर्द्रता यानी उमस बढ़ा रही हैं। कई बार यह स्थिति दो-तीन दिन तक लगातार बनी रहती है। हालात को देखते हुए शहरी इलाकों में ग्रीन कवर एरिया को बढ़ाने की ज़रूरत बताई गई है। पार्क, बगीचे, ग्रीन रूफ, सड़क किनारे ग्रीन बेल्ट जैसे शहरी ग्रीन स्पेस न केवल वातावरण को ठंडा रखने में सहायक होते हैं, बल्कि हवा में मौजूद नमी, प्रदूषण और ताप को भी संतुलित करते हैं।
यह ग्रीन कवर ‘अर्बन हीट आइलैंड’ प्रभाव को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो कि उन क्षेत्रों में अधिक प्रबल होता है जहां कंक्रीट और डामर की जैसी वातावरण को गर्म करने वाले स्ट्रक्चर ज्यादा होते हैं और हरियाली काफी कम होती है। जिन इलाकों में हरित क्षेत्र अधिक होते हैं, वहां दिन और रात के औसत तापमान में 2 से 4 डिग्री सेल्सियस तक की कमी देखी जाती है। साथ ही ये हरित क्षेत्र वाष्पोत्सर्जन (evapotranspiration) की प्रक्रिया के जरिये आर्द्रता यानी नमी के उतार-चढ़ाव को भी संतुलित करने में मददगार होते हैं। हरियाली से इलाके की मिट्टी की नमी बनी रहती है, जो तापमान को नियंत्रित रखने में सहायक होती है।
खेती पर भी पड़ेगा औसत तापमान में बढ़ोतरी का असर
डब्ल्यूएमओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2024 और 2028 के बीच हर साल के लिए वैश्विक औसत सहती तापमान सन 1850-1900 में दर्ज किए गए तापमान के मुकाबले 1.1 डिग्री सेल्सियस से 1.9 डिग्री सेल्सियस तक अधिक होने का अनुमान है। इसके चलते इस साल मई का महीने अबतक की सबसे गर्म मई के तौर पर दर्ज किया गया। आने वाले वर्षों में इस रिकॉर्ड के टूटने की 86% संभावना है।
ये संकेत बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के इन पैटर्न के चलते आने वाले दिनों में हमें बाढ़, सूखा, पीने के पानी कि किल्लत, चक्रवात और हीटवेव जैसी घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा गर्मी बढ़ने के कारण ग्लेशियर के तेज़ी से गलने से नदियों में बाढ़ जैसी स्थितियां बनेंगी। इससे समुद्र के जल स्तर में भी वृद्धि देखने को मिलेगी।
जलवायु और मौसम में इन बदलावों का असर फसल चक्र और कृषि पैदावार पर भी असर होगा। अचानक काफी ज़्यादा बारिश या फिर सूखे जैसी स्थितियां पैदा होने से फसलों को नुकसान होने की संभावना बढ़ेगी। ऐसे हालात के बीच सबसे बड़ी चुनौती खाद्य सुरक्षा को सुनश्चित करना होगा। बढ़ती गर्मी साफ संकेत दे रही है कि जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाले दिनों में कृषि क्षेत्र की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। हालात को देखते हुए फसलों के ऐसे बीज तैयार करने की जरूरत है, जो बढ़ती गर्मी को बर्दाश्त कर सकें। साथ ही कम पानी में बेहतर उत्पादन वाली किस्में तैयार करनी होंगी।
15% तक घट सकती है लोगों की कार्यक्षमता
केम्ब्रिज विश्वविद्यालय में रामित देबनाथ और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, भारत के कुल हिस्से का 90 फीसदी हीटवेव को लेकर बेहद खतरनाक ज़ोन हैं। राजधानी दिल्ली के सभी लोग ऐसे ही क्षेत्र में रह रहे हैं जहां हीटवेव का असर जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर सकता है। अध्ययन में यह भी चेतावनी दी गई है कि यदि हालात ऐसे ही बने रहे, तो आने वाले वर्षों में हीट इंडेक्स इफ़ेक्ट यानी तापमान और आर्द्रता के संयुक्त प्रभाव की वजह से भारत में औसतन 15% तक लोगों की कार्यक्षमता (Productivity) घट सकती है।
यह प्रभाव केवल बाहरी मज़दूरी या निर्माण कार्यों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पुलिस, सफाईकर्मी, खेतिहर मजदूर, ट्रैफिक कंट्रोल जैसे आउटडोर कार्यों के अलावा, एयर कंडीशनर या ठंडी जगह उपलब्ध न होने की स्थिति में घरों, दफ्तरों और फैक्ट्रियों में काम कर रहे लोगों पर भी पड़ सकता है।
अत्यधिक गर्मी में शरीर को सामान्य तापमान बनाए रखने में ज्यादा ऊर्जा लगती है, जिससे थकान जल्दी होती है, ध्यान केंद्रित करने की क्षमता घटती है, और गलतियां बढ़ जाती हैं। शहरी गरीबों, झुग्गियों में रहने वालों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर इसका सबसे ज्यादा असर देखा जाता है, क्योंकि उन्हें न तो गर्मी से उबरने के लिए ठंडी जगह मिलती है और न ही पर्याप्त चिकित्सा सहायता।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि हीट इंडेक्स इफ़ेक्ट के चलते भारत में लगभग 48 करोड़ लोगों के जीवन की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इसका असर शारीरिक स्वास्थ्य के अलावा मानसिक स्थिति, आर्थिक आय और सामाजिक उत्पादकता पर भी पड़ेगा, जिससे दीर्घकालिक विकास की गति धीमी हो सकती है। यह जलवायु परिवर्तन की वह चुनौती है, जिसे अब केवल मौसम से जुड़ी समस्या नहीं माना जा सकता, बल्कि यह जनस्वास्थ्य और आजीविका संकट के रूप में असर दिखा सकती है।
क्या-क्या हो सकते हैं समाधान
हीट इंडेक्स इफ़ेक्ट या हीट स्ट्रेस से निपटने के लिए अबतक इस्तेमाल हो रहे मौसम विभाग के पारंपरिक चेतावनी तंत्र से इतर हाल के वर्षों में तैयार नए वैज्ञानिक सूचकांकों को प्रयोग में लाना होगा। इनमें सबसे प्रमुख वेट बल्ब ग्लोब चेंपरेचर (WBGT) इंडेक्स है। साइंस जर्नल ओएचएस ऑनलाइन की रिपोर्ट के मुताबिक यह इंडेक्स तापमान, आर्द्रता, हवा की रफ्तार और धूप जैसे कारकों को मिलाकर यह बताता है कि किसी स्थान पर वातावरण मानव शरीर के लिए कितना सुरक्षित है। इससे खुले में काम करने वाले श्रमिकों को समय रहते अलर्ट किया जा सकता है। साथ ही कंपनियां और सरकारें यह तय कर सकती हैं कि लोगों की सेहत की सुरक्षा की दृष्टि से कब काम को रोकने या घटाने की ज़रूरत है।
दूसरा उपाय है ‘हीट-रेजिलिएंट वर्क शेड्यूलिंग एल्गोरिद्म’ का इस्तेमाल। नेचर इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुछ अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने मौसम के आंकड़ों, स्थानीय तापमान ट्रेंड्स व संभावनाओं के आधार पर इस डेटा-संचालित एल्गोरिद्म को विकसित किया है।
यह एक डेटा आधारित तकनीक है, जिसमें मौसम की भविष्यवाणी, स्थानीय तापमान ट्रेंड और काम के घंटों की उत्पादकता को जोड़कर यह तय किया जाता है कि किस क्षेत्र में किस समय तक सुरक्षित रूप से काम किया जा सकता है। यानी यह देखा जाता है कि कब किस क्षेत्र में काम करना स्वास्थ्य और उत्पादकता की दृष्टि से सुरक्षित है। इससे मजदूरों को हीटवेव के दौरान लंबे समय तक बाहर काम करने से रोका जा सकता है और उत्पादकता भी घटने से बचाई जा सकती है। आजकल AI और सैटेलाइट डेटा का उपयोग करके ऐसे एल्गोरिद्म से ‘हीट डायनमिक्स मॉडल’ तैयार किए जा रहे हैं। भारत में निर्माण, डिलीवरी या सफाई कर्मियों के प्रबंधन में ऐसे मॉडल बहुत उपयोगी हो सकते हैं।
इसके साथ ही, थर्मल-मैपिंग आधारित अर्ली वॉर्निंग सिस्टम को शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में लागू करने की ज़रूरत है। यह तकनीक ज़मीन की सतह का तापमान मापकर हीटवेव की तीव्रता और संभावित जोखिम वाले इलाकों की पहचान करती है। इसमें सैटेलाइट-आधारित थर्मल मैपिंग से तापीय हॉटस्पॉट्स की पहचान की जा सकती है।
मीडिया वायर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली और बेंगलुरु में इस तकनीक का उपयोग प्रयोग के तौर पर किया जा रहा है, जिसमें AI और GIS आधारित मॉडलों से इमारतों, मार्केट्स और झुग्गी बस्तियों में जोखिम स्तर मैप होकर उपायों के लिए अलर्ट सिस्टम बनाये जा रहे हैं। इससे स्वास्थ्य विभाग, नगर निकाय और आपदा प्रबंधन इकाइयों को समय रहते चेतावनी जारी करने और स्थानीय उपाय लागू करने में मदद मिल सकती है। साथ ही स्थानीय प्रशासन, स्वास्थ्य विभाग और आपदा प्रबंधन तंत्र को तेज़ी से कदम उठाने में मदद मिल सकती है।