22 मार्च जलदिवस पर विशेष: वर्ष 2025, ग्लेशियरों के संरक्षण का अंतरराष्ट्रीय वर्ष
संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2025 को ग्लेशियरों के संरक्षण का अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है और इस बार विश्व जलदिवस (22 मार्च) भी इसी थीम पर केंद्रित है। इसकी आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि वैश्विक तापमान में लगातार होती वृद्धि कई तरह के खतरे पैदा कर रही है, इनमें से एक है तेजी से पिघलते ग्लेशियर। इन ग्लेशियरों के पिघलने से जहां हिमनद झीलों के क्षेत्र में इजाफा हो रहा है, वहीं नई झीलें भी अस्तित्व में आ रहीं हैं, लेकिन साथ ही यह झीलें अस्थिर भी हो रही हैं, जिसकी वजह से पहाड़ी इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है।
गौरतलब है कि अक्टूबर 2023 में ऐसी ही एक हिमनद झील के फटने से भारत में विनाशकारी बाढ़ आई थी। इस बाढ़ ने 55 जिंदगियों को लील लिया था। साथ ही तीस्ता-3 जलविद्युत परियोजना पर गहरा असर डाला था। इस दौरान दक्षिण ल्होनक हिमनद झील के किनारे टूट गए थे। इसी तरह जून 2013 में केदारनाथ में आए सैलाब ने हजारों जिंदगियों को छीन लिया था।
तेजी से पिघलती बर्फ
अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'नेचर' में छपे एक शोध से पता चला है कि दुनिया भर के ग्लेशियरों में जमा बर्फ पहले के मुकाबले 30 प्रतिशत ज्यादा तेजी से पिघल रही है। हिमालय के ग्लेशियर भी इनसे अलग नहीं है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक इन ग्लेशियरों से पिघला कुछ पानी हिमनद झीलों में जमा हो जाता है। ऐसे में अगर झीलों के किनारे या बांध टूटते हैं, तो इसकी वजह से आने वाली बाढ़ निचले इलाकों के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है। जर्मनी के पाट्सडैम विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए अध्ययन के मुताबिक कई पहाड़ी क्षेत्रों में छोटी हिमनद झीलें बाढ़ के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील हैं। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल 'नेचर वाटर' में प्रकाशित हुए हैं।
बाढ़ का यह जोखिम हिमनद झीलों की बढ़ती संख्या और आकार से कहीं ज्यादा तापमान पर निर्भर करता है। विज्ञानियों ने 1990 से 2023 के बीच 13 पहाड़ी क्षेत्रों में 1,686 हिमनद झीलों का अध्ययन और झीलों में आई बाढ़ की उपग्रह से प्राप्त छवियों का विश्लेषण किया था।
विश्लेषण से पता चला है कि बर्फ से बनी झीलें सिकुड़ रही हैं, जबकि जिन झीलों के किनारे ग्लेशियरों द्वारा बहा कर लाए मलबे (मोरेन) से बने हैं, वे स्थिर बनी हुई हैं। अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता डाक्टर जार्ज वेह के मुताबिक हिमनद झीलों में आने वाली बाढ़ें एक तरह व्यवहार नहीं करती। इनमें से जिन झीलों के किनारे बर्फ से बने होते हैं वे अक्सर टूट जाते हैं, क्योंकि बर्फ तेजी से अस्थिर हो जाती है। कुछ हिमनद झीलों के किनारे ग्लेशियरों द्वारा बहा कर लाए मलबे (मोरेन) से बने होते हैं।
हिमालय, अलास्का और पैटागोनिया क्षेत्र में ग्लेशियरों द्वारा बहाकर लाए मलबे (हिमोढ़) से बनी झीलों से निचले क्षेत्रों में समुदायों और बुनियादी ढांचे के लिए खतरा बढ़ रहा है। ऐसा ही कुछ अक्टूबर 2023 में भारत में देखने को मिला था। हालांकि शोधकर्ताओं के मुताबिक इस तरह की घटनाएं दुर्लभ हैं।
बेहद संवेदनशील है हिमालय
द इंटरनेशनल सेंटर फार इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) के मुताबिक पर्वतीय ग्लेशियरों के पीछे हटने से ग्लेशियल झीलों का आकार और संख्या बढ़ गई है। शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियरों के पीछे हटने और प्राकृतिक आपदाओं के बीच मजबूत संबंध पर प्रकाश डाला है, साथ ही इनकी निरंतर निगरानी की आवश्यकता पर बल दिया है।
पाट्सडैम विश्वविद्यालय द्वारा किए एक अन्य अध्ययन के अनुसार हिमालय क्षेत्र की हजारों प्राकृतिक झीलों पर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। शोधकर्ताओं ने इसके लिए बढ़ते तापमान को जिम्मेदार माना है। विज्ञानियों के अनुसार इसके चलते घाटियों में बहने वाली नदियों पर भी बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। अध्ययन के अनुसार 2003 से 2010 के बीच सिक्किम हिमालय में 85 नयी झीलें सामने आई थीं। इन झीलों के किनारे ढीली चट्टानों और बर्फ से बने होते हैं, जिन्हें हिमोढ़ या मोरेन कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते जैसे-जैसे यह बर्फ पिघलती है, किनारे की चट्टानें पानी के लिए रास्ता छोड़ देती हैं, जोकि बाढ़ का कारण बनता है।
विश्लेषण से पता चला है कि हिमालय क्षेत्र में करीब 5,000 झीलों पर बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि उनके किनारे कमजोर और अस्थिर हैं। विज्ञानियों का मत है कि जिन झीलों में ज्यादा पानी है, उनसे बाढ़ का खतरा भी उतना ज्यादा है। विज्ञानियों ने इस बात की भी पुष्टि की है कि निकट भविष्य में पूर्वी हिमालय की हिमनद झीलों के कारण आने वाली बाढ़ का खतरा तीन गुना अधिक हैं। अगर हम अभी भी नहीं चेते और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए अपने-अपने व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास प्रारंभ नहीं किए तो अगले दशक में हिमालयी ग्लेशियरों का करीब दो-तिहाई हिस्सा पिघल सकता है। इसकी वजह से इस क्षेत्र में मौजूद झीलों में पानी की मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाएगी, जोकि नदी घाटियों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए गंभीर संकट पैदा कर सकती है।
(साभार - डाउन टु अर्थ)