वेम्बनाड झील: काली सीपियों की सिसकती सांसें, सैकड़ों परिवारों की ज़िंदगी हुई मुश्किल
भारत में सबसे बड़ी आर्द्रभूमि (रामसर स्थल), केरल की वेम्बनाड झील प्रणाली (वीएलएस) एक बड़े पारिस्थितिक संकट का सामना कर रही है। यह झील ब्लैक क्लैम यानी काली सीपी के उत्पादन में भारत में पहले स्थान पर है। लेकिन, बदलती पर्यावरणीय स्थितियों और बढ़ते प्रदूषण ने इस झील के पारिस्थितिक तंत्र को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। इसके कारण झील के रेतीले हिस्से में पाई जाने वाली काली सीपियों की संख्या में लगातार कमी दर्ज़ की जा रही है। अनूठे काले रंग और चमक वाले मोती बनाने वाली यह सीपियां न केवल कई परिवारों को रोजी‑रोटी का सहारा देती हैं, बल्कि झील के पानी को साफ़ कर स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र में अहम भूमिका भी निभाती हैं। लेकिन, पिछले कुछ दशकों में हुए बदलावों ने इनके अस्तित्व को संकट में डाल दिया है।
झील किनारे बनी झोपड़ियों में रहने वाले मछुआरा समुदाय के लोगों का जीवन और पूरी की पूरी दिनचर्या इन सीपियों और झील से ही जुड़ी हुई है। सुबह की पहली रोशनी के साथ ही वेम्बनाड झील में नावों के सरकने की आवाज़ सुनाई देने लगती हैं। हर सुबह मछुआरे इन मछलियों और काली सीपियों को पकड़ने के लिए डोंगों में पल्लू और लंबी डंडियों को ताने झील की सतह को खंगालना शुरू कर देते हैं। लेकिन, साल दर साल झील में घटते जा रहे पानी और बढ़ते प्रदूषण ने उनकी इस पारंपरिक जीविका सहित झील के पूरे इको-सिस्टम को बिगाड़ दिया है। वेम्बनाड झील के तेज़ी से घटते जल स्तर के कारण अब इसके तल में कीचड़ और गाद जमा होता जा रहा है, साथ ही प्रदूषण भी बढ़ रहा है। नतीजतन काली सीपियों की संख्या तेज़ी से घटती जा रही है। कड़ी मेहनत के बावजूद अब बहुत सीमित संख्या में काली सीपियां मछुआरों के हाथ लगती हैं, जिन्हें बेचकर वे बड़ी मुश्किल से अपना गुज़ारा कर पा रहे हैं।
साल दर साल वेम्बनाड झील में घटते जा रहे पानी और बढ़ते प्रदूषण ने उनकी इस पारंपरिक जीविका सहित झील के पूरे इको-सिस्टम को बिगाड़ दिया है।
समस्या की शुरुआत: झील का सिमटता दायरा, जल‑गुणवत्ता और पारिस्थितिकी का क्षरण
पिछले लगभग डेढ़ सौ सालों से वेम्बनाड झील धीरे-धीरे सिकुड़ती जा रही है। कहीं धान की खेती के लिए, तो कहीं शहर फैलाने या तटबंध बनाने के नाम पर झील के चारों ओर कई छोटे-बड़े रीक्लेमेशन हुए। धीरे-धीरे इन सबने मिलकर झील का पानी वाला हिस्सा लगातार छोटा कर दिया। अनुमान है कि साल 1880-2010 के बीच झील का करीब 60 फ़ीसद हिस्सा समतल भूमि में बदल दिया गया। एक रिपोर्ट के अनुसार, सन् 1900 में झील का क्षेत्र लगभग 365 वर्ग किलोमीटर था, जो अब घटकर लगभग 206.40 वर्ग किमी रह गया है। उसी अध्ययन में यह भी बताया गया है कि झील की औसत गहराई पहले 8-9 मीटर थी, लेकिन अब कई हिस्से घटकर लगभग 1.8-2.9 मीटर तक पहुंच गए हैं।
इसका असर सीधे झील के विस्तार, गहराई और उसके प्राकृतिक वातावरण पर पड़ा है। जहां पहले रेतीला तल और खुला जल था, वहां अब उथला पानी, कीचड़ और महीन मिट्टी की परत जम चुकी है। झील में आने वाली पंबा, अचंकोइल, पेरियार, मनिम्मला आदि नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने वाले बैराज, तटबंध और जलमार्गों में किए गए मानव-हस्तक्षेपों ने पानी के प्राकृतिक उतार-चढ़ाव को रोक दिया। स्थानीय लोगों और समुदायों का कहना है कि झील की स्थिति ऐसी हो गई है कि इसमें रहने वाले जीवों के लिए सांस लेना मुश्किल होता जा रहा है। जहां बरसात के दिनों में जलजमाव जैसी स्थिति पैदा हो जाती है, वहीं गर्मियों में इसका दायरा तेजी से सिकुड़ने लगता है। यह प्राकृतिक असंतुलन झील की सीपियों के लिए बेहद हानिकारक साबित हुआ है।
झील में आने वाली पंबा, अचंकोइल, पेरियार, मनिम्मला आदि नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने वाले बैराज, तटबंध और जलमार्गों में किए गए मानव-हस्तक्षेपों ने पानी के प्राकृतिक उतार-चढ़ाव को रोक दिया।
इतना ही नहीं, झील के आसपास के इलाकों में होने वाली खेती में बढ़ते रासायनिक कीटनाशक भी बारिश में खेतों से बहकर झील में पहुंच कर जलीय जीवों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। साथ ही औद्योगिक इकाइयों का सीवेज और कस्बों का घरेलू कचरा और अनट्रीटेड सीवेज भी इसके प्रदूषण की गंभीरता को बढ़ा रहे हैं। इस सबके चलते झील तल में जमने वाला प्रदूषित कीचड़ क्लैम यानी काली सीपी के शुरुआती लार्वा-चरण को सबसे पहले प्रभावित करता है। इफ़ेक्ट ऑफ यूरिया, एन एग्रोकैमिकल ऑन दी हिस्टोलॉजी ऑफ ब्लैक क्लेम, विलॉरिटा साइप्रिनोइड्स नामक शोध में बताया गया है कि कृषि में इस्तेमाल होने वाली यूरिया और सीवेज के झील के पानी में घुल जाने से सीपियों की ऊतकीय संरचना और प्रजनन पैटर्न पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जल-गुणवत्ता और प्रदूषण काली सीपियों के स्वास्थ्य और उनके प्रजनन को प्रभावित कर उनके जीवन-चक्र को बाधित कर रहा है।
दरअसल, सीपियों के लार्वा को विकसित होने के लिए सख्त, रेतीला और ऑक्सीजन-समृद्ध तल चाहिए होता है, लेकिन झील के तल में लगातार प्रदूषित कीचड़ जमा होने के कारण उसे अनुकूल वातावरण नहीं मिल पा रहा है। नतीजा यह है कि इनके बचने की संभावना लगातार कम हो रही है। वेम्बनाड झील में सीपियों का प्राकृतिक प्रजनन चक्र भी कमजोर पड़ गया है। बड़ी सीपियां कम होती जा रही हैं और नए लार्वा ठीक से बढ़ ही नहीं पा रहे।। आंकड़े बताते हैं कि साल 2006 में जहां झील में लगभग 75,592 टन सीपियां मिलती थीं, वहीं 2019 तक इनका उत्पादन घटकर लगभग महज़ 42,036 टन रह गया। स्थानीय शोध रिकॉर्ड यह भी बताते हैं कि पारंपरिक क्लैम-घनत्व, जो कभी प्रति वर्ग मीटर हजारों में हुआ करता था, अब कई इलाकों में कुछ सौ प्रति वर्ग मीटर तक सिमट गया है।
यह बदलाव स्थानीय मछुआरों के जीवन को गहराई से प्रभावित कर रहा है। उनका कहना है कि पहले जहां एक ही पल्लू (एक लंबी डंडी पर लगा लोहे का छोटा-सा रेक, जिसके पीछे जाल बंधा रहता है, इसी से मछुआरे झील की तलहटी से काली सीपियां खुरचकर निकालते हैं।) में भारी मात्रा में काली सीपियां इकट्ठी हो जाती थीं, अब घंटों की मेहनत के बाद भी नाव में मुश्किल से आधी भरत आती है। पानी की गुणवत्ता खराब होने के साथ ही झील को साफ़ करने के सीपियों के प्राकृतिक फिल्टर-फंक्शन में भी कमी आई है, जिससे झील में गंदगी बढ़ने से इसका पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो रहा है।
समुदाय पर असर: आजीविका का संकट और बदलता जीवन
वेम्बनाड झील के किनारे बसे गांवों में काली सीपियां मछुआरा समुदाय के सैकड़ों परिवारों के लिए पीढ़ियों से चली आ रही आजीविका का आधार रही हैं। इन्हें पकड़ने, उबालने, साफ़ करने और बाजार तक ले जाने का पूरा काम परिवारों की सामूहिक मेहनत से चलता रहा है। पुरुष झील में नाव चलाकर सीपियां पकड़ कर लाते हैं। महिलाएं उन सीपियों को उबालती और अलग करती हैं। बच्चे सीपियों के खोल बटोरने का काम करते हैं। इस तरह पूरा परिवार इस काम में जुटा रहता है। लेकिन, झील के सिकुड़ने और सीपियों की संख्या कम होने के साथ उनकी दिनचर्या का यह पारंपरिक ढांचा भी डगमगाने लगा है।
मुहम्मा गांव के रतीश बताते हैं “मछलियों की लगातार घटती संख्या के कारण अपनी आजीविका के लिए हमें सीपियों पर निर्भर होना पड़ा। झील में अब उतनी सीपियां भी नहीं बची हैं कि हमारी रोज़ की ज़रूरतें पूरी हो सकें। पहले सुबह एक चक्कर में जितनी सीपियां मिल जाती थीं, अब उतनी के लिए तीन-तीन चक्कर लगाने पड़ते हैं। डीज़ल का खर्चा काफ़ी बढ़ गया है, मेहनत ज़्यादा है, पर कमाई वही या उससे भी कम हो गई है।”
वहीं अशोकन आपबीती सुनाते हुए कहते हैं, “आज से क़रीब दस साल पहले 2-3 घंटे में जितनी सीपियां जाल में आ जाती थीं उतनी ही संख्या के लिए अब दिनभर का समय लग जाता है।”
मछलियों की लगातार घटती संख्या के कारण अपनी आजीविका के लिए हमें सीपियों पर निर्भर होना पड़ा। झील में अब उतनी सीपियां भी नहीं बची हैं कि हमारी रोज़ की ज़रूरतें पूरी हो सकें।
रतीश, मछली पालक, मुहम्मा गांव, केरल
महिलाओं पर सबसे ज्यादा असर: झील में सीपियों की घटती संख्या के कारण उसे उबालने, साफ़ करने और धूप में सुखाने जैसी प्रक्रियाओं को लेकर अब अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई है। पहले जहां एक दिन में 10-12 बोरी सीपियां आ जाती थीं, वहीं अब 3 से 4 बोरी भी मुश्किल से भरती हैं। इससे उन महिलाओं की आय घट गई है जो अपने घरों के आंगन में छोटे-छोटे समूह बनाकर इसके प्रसंस्करण यानी प्रोसेसिंग का काम करती थीं। घटती कमाई के कारण कुछ महिलाओं ने सिलाई और घरेलू मजदूरी जैसे अस्थायी काम पकड़ लिए हैं। झील से होने वाली उनकी स्थिर आय अब मौसम और किस्मत पर निर्भर हो कर रह गई है।
बढ़ता आर्थिक दबाव: स्थानीय और बाहरी बाजारों में काली सीपियों के लिए अच्छी कीमत मिलती रही है। मांस, खाद्य प्रसंस्करण और पशु-आहार उद्योग में इनकी बड़ी मांग रही है। लेकिन, जब आपूर्ति घटने लगी तो ग्राहक भी दूसरी चीज़ों की ओर रुख करने लगे। इससे सीपियों की क़ीमत पर भी असर पड़ा। बिचौलियों से लेकर छोटे व्यापारियों तक का नेटवर्क कमजोर हुआ। आमदनी घटने लगी और झील पर निर्भर कई परिवार कर्ज़ में डूबने लगे। कई बुजुर्गों का कहना है कि एक दौर में इस झील ने हज़ारों परिवारों को रोज़गार दिया था। हमारा घर, हमारे बच्चे, उनकी पढ़ाई-लिखाई, शादी-ब्याह सब इसी झील के दम पर चला पर अब झील ही थक गई लगती है।
युवाओं का झील से मोहभंग: इस संकट का गहरा असर युवाओं पर भी दिखने लगा है। जहां इलाक़े के युवा पहले अपने पिता और दादा के नाव चलाने के पेशे को अपना लेते थे, वहीं अब वे शहर के होटल, निर्माण-स्थलों या छोटे कारखानों में काम ढूंढ़ने को प्राथमिकता देने लगे हैं। पलायन में आई इस तेज़ी ने समुदाय की हमेशा पानी के इर्द-गिर्द पनपने वाली सामूहिक पहचान को संकट में डाल दिया है।
परिस्थितिकी और आजीविका, दोनों की डोर एक ही: वेम्बनाड की कहानी यही बताती है कि पारिस्थितिकी का संकट सिर्फ प्रकृति का संकट नहीं होता। जब झील जैसा कोई इको-सिस्टम बीमार होता है, तो उसके सहारे खड़े हजारों लोग, उनका जीवन, उनका ख़ान-पान, उनका सांस्कृतिक ताना-बाना, सब कमजोर पड़ने लगते हैं। कभी झील के स्वास्थ्य का संकेत मानी जाने वाली काली सीपियां आज उसके विघटन की गवाही दे रही हैं।
सरकार और समुदाय के प्रयास: क्या रास्ता निकल सकता है?
झील की बदलती और बिगड़ती पारिस्थितिकी और अपनी आजीविका पर मंडराते संकट के बादलों को देखते हुए स्थानीय समुदायों और संस्थाओं ने समाधान की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू किए। मछुआरे, सहकारी समितियां, शोधकर्ता और स्थानीय संगठन मिलकर ऐसे उपाय तलाशने लगे, जो झील के संसाधनों को बचाने और आजीविका को स्थिर रखने में मदद कर सकें। छोटे प्रयोगों से लेकर व्यापक पुनर्स्थापन योजनाओं तक, संरक्षण के प्रयास अब एक संगठित और सामुदायिक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। इन हस्तक्षेपों में कुछ ठोस कदम शामिल हैं:
क्लैम-रेलेइंग: बचे हुए जीन पूल को फिर से फैलाना: यह एक स्पष्ट और तात्कालिक समाधान था। इसके तहत जहां उत्तरी भागों में स्पॉट-अबन्डनेंस यानी अति-उत्पादन हो रहा था, वहां से छोटी सीपियों को उठा कर उन हिस्सों में पुनर्स्थापित किया गया, जहां सीपियां लुप्त हो रही थीं। यह कोई साधारण ट्रांसप्लांट नहीं था। इसके पीछे वैज्ञानिक निशानदेही थी। उपयुक्त तल, पानी के खारेपन का स्तर और बचे-खुचे स्पैट (सीपियों के नन्हे-मुन्ने बच्चे, जो लार्वा चरण से निकलकर तल पर चिपकते हैं और आगे क्लैम बनते हैं।) के आधार पर जगह चुनी गई। केंद्रीय समुद्री मत्स्य अनुसंधान संस्थान (सीएमएफआरआई) के तकनीकी मार्गदर्शन और स्थानीय फिशरी विभाग की पुनरुद्धार योजनाओं की मदद से सीपियों के छोटे-छोटे बच्चों या बचे हुए स्पैट को उठाकर किसी अच्छी, सुरक्षित जगह पर दोबारा बिछाया गया ताकि वहां नए क्लैम-बेड बन सकें। इस प्रक्रिया को रेलेइंग कहा जाता है और इसकी मदद से कुछ इलाकों में तेजी से ही क्लैम-बेड (सीपियों के समूह) बनने लगे और मछुआरों की पकड़ लौटती नजर आई। इस पहल से कीचड़ भरे और बिगड़े हुए इलाक़ों में 20 हेक्टेयर से ज़्यादा हिस्से में नए क्लैम-बेड तैयार हुए, और कई जगहों पर रोज़ाना टनों के हिसाब से सीपियां पकड़ी जाने लगीं।
क्लैम-रेलेइंग प्रक्रिया की मदद से कीचड़ भरे और बिगड़े हुए इलाक़ों में 20 हेक्टेयर से ज़्यादा हिस्से में नए क्लैम-बेड तैयार हुए, और कई जगहों पर रोज़ाना टनों के हिसाब से सीपियां पकड़ी जाने लगीं।
समुदाय-आधारित संस्थाएं और पारंपरिक पारिस्थितिकी ज्ञान (टीईके) का उपयोग: पर्यावरण और पारिस्थितिकी शोध करने वाले अशोक ट्रस्ट - सामुदायिक पर्यावरण संसाधन केंद्र (एटीआरईई-सीईआरसी) और स्थानीय लेक-प्रोटेक्शन फोरम, क्लैम सहकारी समितियों ने स्थानीय समुदाय को आगे ला कर इस पहल में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की। इस तरह, केवल वैज्ञानिकों के ऊपर निर्भर न रहते हुए, स्थानीय मछुआरों की जमीन-स्तरीय जानकारी को व्यवस्था से जोड़ा गया। पार्टिसिपेटरी रिसोर्स मैपिंग (पीआरएम) और पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान के सहारे यह तय किया गया कि सीपियों का विस्तार किन हिस्सों में बेहतर तरीक़े से होगा, किस जगह पर ‘नॉन-कलेक्शन’ जोन बनाए जाएंगे और सतही स्तर के प्रबंधन का उचित समय कब होगा।
एटीआरईई-सीईआरसी की फील्ड-कार्ययोजना और सामुदायिक लीडरशिप ने क्लैम-रेलेइंग को व्यवहारिक रूप दिया। इसके साथ ही, झील संरक्षण मंच (एलपीएफ) जैसी जमीनी स्तर की समुदाय-आधारित संस्थाएं मछली और अन्य जलीय संसाधनों के प्रबंधन और संचालन के लिए पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान (टीईके) का उपयोग कर रही हैं। टीईके पर आधारित संरक्षण हस्तक्षेप झील की पारिस्थितिकी और उसकी जैव विविधता को बनाए रखने और आजीविका को सहारा देने में मदद कर रहा है। अब तक वेम्बनाड झील के विभिन्न हिस्सों में 26 मत्स्य अभयारण्य स्थापित किए जा चुके हैं।
वैल्यू-एडिशन और सहकारीकरण: केवल संसाधन को बढ़ाना ही काफी नहीं था। बिचौलियों के दबाव और गिरते दामों से मछुआरों की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। इसलिए सहकारी समितियों को सक्रिय कर बाजार-कड़ी मजबूत की गई और महिलाओं के लिए क्लैम-बेस्ड वैल्यू-एडिशन (कटलेट, पेस्ट, प्रोसेस्ड मीट) की ट्रेनिंग शुरू की गई, ताकि कच्चा माल बेचने के बजाय स्थानीय स्तर पर ही अधिक मूल्य हासिल किया जा सके। एटीआरईई की रिपोर्ट इन छोटे उद्यमों और स्वयं सहायता समूहों के प्रयासों के बारे में बताते हैं, जो क्लैम-आधारित आजीविका को योगदान दे रहे हैं।
सरकारी पहल और तकनीकी समर्थन: कई सफल रिलेइंग अभियानों के पीछे सीएमएफआरआई का तकनीकी मार्गदर्शन और केरल फिशरी विभाग/ज़िला पंचायत के आर्थिक समर्थन का बड़ा हाथ रहा है। रिपोर्ट बताती है कि 2020-21 में रीजनरेशन-प्रोजेक्ट में सैकड़ों टन बेबी क्लैम का रिले किया गया और कुछ स्थानों पर पुनः ताज़ा क्लैम-बेड बनने पर दैनिक पैदावार का स्तर टनों में पहुंचता देखने को मिला। इस तरह वैज्ञानिक-प्रशासनिक कदमों के मेल ने मछुआरों को महामारी के समय भी आय का स्रोत लौटाने में मदद की।
रिलेइंग की प्रक्रिया ने यह साबित कर दिया कि यदि सही जगह, खारेपन की सही मात्रा वाली जगह के चुनाव के साथ ही कुछ समय के लिए ‘नो-कलेक्शन’ जैसी शर्तें लागू कर दी जाएं, तो काली सीपियों की घटती संख्या को फिर से बहाल किया जा सकता है। स्थानीय सहकारी और फोरम मिलकर इसे लागू कर सकते हैं। साथ ही प्रोसेसिंग और वैल्यू-एडिशन से भी आय में वृद्धि हो सकती है।
हालांकि इस प्रक्रिया और उपाय की अपनी चुनौतियां भी हैं। पर्यटन-कचरा, बैराज-कार्यक्षण यानी बैराज को कब और कितना खोला-बंद किया जाए, पानी का बहाव कैसे नियंत्रित किया जाए, इन सबका रोज़मर्रा के तरीक़े और नियम से जुड़े लंबे-समय के हाइड्रोलॉजिक परिवर्तन, और बड़े पैमाने पर सिल्टेशन/प्रदूषण जैसी समस्याओं का समाधान अकेले रिलेइंग से नहीं मिलने वाला है। लंबे समय तक सुधार के लिए ज़रूरी है कि ज़मीन के उपयोग की योजना, गंदे पानी का प्रबंधन, और थानेरमुकोम बैराज को चलाने के तरीके, इन सब पर मिलकर एक साफ़-सुथरी और एकजुट जल-नीति बनाई जाए।
वेम्बनाड झील की कहानी केवल एक पारिस्थितिक संकट की कहानी नहीं, बल्कि यह उन हजारों लोगों के जीवन, मेहनत, संस्कृति और भविष्य की कहानी भी है, जो पीढ़ियों से इस जल-परिवेश पर निर्भर रहे हैं। काली सीपियां, जो कभी झील की सेहत और समृद्धि का संकेत थीं, आज उसी टूटती हुई पारिस्थितिकी का आइना बन गई हैं। झील का सिकुड़ना, तल का बदलना, प्रदूषण और अनियोजित विकास तबाही का ऐसा चक्र बना चुके हैं, जिसमें पारिस्थितिकी और आजीविका साथ-साथ कमजोर पड़ती चली गईं। वेम्बनाड को बचाने का अर्थ है उसके गाद, उसके पानी, उसके जीव-जंतुओं और उन सभी लोगों को बचाना, जो हर सुबह इस झील की सांसों में अपनी रोज़ी-रोटी तलाशते हैं। यह महज़ एक पारिस्थितिक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और मानवीय प्रतिबद्धता का भी सवाल है। वेम्बनाड झील अगर फिर सांस लेने लगेगी, तो उसके किनारों पर बसने वाले घर, नावें, कहानियां और इनसे जुड़ी ज़िन्दगियां भी राहत की सांस ले सकेंगी

