यह आग कैसे बुझेगी
जलवायु परिवर्तन (फोटो साभार: राष्ट्रीय सहारा) कल्पना करिए, आप ऐसी जगह हो जहाँ तेजी से फैलती आग आपकी तरफ आ रही हो, आपको पता है कि इसे बुझाया नहीं गया तो यह आपको भी जलाती हुई बढ़ती जाएगी और न जाने कितनी दूरी तक सब कुछ भस्मीभूत कर देगी, लेकिन आप उसे बुझाने के लिये कुछ नहीं कर पाते। आपने अपने इर्द-गिर्द ऐसी व्यवस्था खड़ी कर ली है जिससे बाहर आना आपके लिये असम्भव और जोखिम भरा भी है। ठीक यही स्थिति दुनिया की है। वायुमंडल का तापमान खतरनाक तरीके से बढ़ रहा है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार पिछले 22 वर्षों के दौरान हाल का 20 वर्ष सबसे गर्म रहा। अभी जो चार वर्ष बीता है, उसमें सबसे ज्यादा गर्मी दर्ज की गई।
अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ना होगा
जलवायु परिवर्तन के इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक तापमान 1.5 डिग्री बढ़ जाएगा। जाहिर है इसका परिणाम विनाशकारी होगा। यह बात पहले से साफ है कि विश्व या सृष्टि को बचाने के लिये कार्बन उत्सर्जन में वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत की कमी लाने और 2050 तक उत्सर्जन शून्य करने की जरूरत है। उसके साथ तेजी से अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ना होगा। तो दुनिया को बचाने का यह सूत्र सभी देशों को पता है, लेकिन हो क्या रहा है? पोलैंड के कातोविसे शहर में 03 दिसम्बर से 14 दिसम्बर तक जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन का 24वां सम्मेलन (कोप 24) आयोजित हुआ। इस सम्मेलन से यदि किसी ने कार्बन उत्सर्जन की दिशा में प्रगति की उम्मीद की होगी तो उसे नासमझ के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता।
हालांकि सम्मेलन कार्बन उत्सर्जन कम करने पर केन्द्रित था। चीन ने वर्ष 2014 में 12454.711 मीट्रिक टन ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन किया। 6673.4497 मीट्रिक टन के साथ अमेरिकी दूसरे और 4224.5217 मीट्रिक टन के साथ यूरोपीय संघ तीसरे स्थान पर रहा। भारत चौथे और रूस पाँचवे स्थान पर रहा। पूरे विश्व में होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 10 देशों का अंशदान तीन-चौथाई है। पोलैंड में इसे कम करने पर बात तो हुई, लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात।
धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के तय लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाए, संकल्प और प्रतिबद्धता से देश इस दिशा में जुट जाएँ, जो करना है करें ऐसा स्वर तो निकला ही नहीं। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस की पीड़ा इन शब्दों में देखी जा सकती है, ‘‘जो देश सबसे ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन करते हैं, उनकी तरफ से ‘पेरिस समझौते’ को मानते हुए उत्सर्जन कम करने की दिशा में समुचित प्रयास नहीं किये गए। हमें ज्यादा लक्ष्य और ज्यादा कार्रवाई करने की जरूरत है। अगर हम विफल होते हैं तो आर्कटिक और अंटार्कटिक इसी तरह पिघलता रहेगा। समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, प्रदूषण से ज्यादा लोगों की मौत हो जाएगी। जल-संकट बड़ी आबादी को प्रभावित करेगा और संकट बढ़ेगा।”
ऐसा तो है नहीं कि जिन देशों के बारे में गुटेरेस कह रहे हैं उनको इन भावी भयावहता का इल्म नहीं है। किन्तु जिस ढाँचे में उन्होंने अपना पूरा आर्थिक ताना-बाना खड़ा कर लिया है, उसमें इस लक्ष्य के लिये काम करना कठिन है। आखिर तीन वर्ष पूर्व पूरी दुनिया ने पेरिस में एक स्वर से सहमति जताकर समझौता किया था। वह धरती को बचाने का सबसे सफल सम्मेलन माना गया। देशों की जिम्मेवारियाँ तय हुईं, कुछ रास्ते निकाले गए जिन पर सबको आगे बढ़ना था। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा थे। ट्रम्प ने ‘पेरिस समझौता’ को अमेरिका विरोधी करार देकर उससे अपने को बाहर कर लिया।
हालांकि नवम्बर 2016 से लागू ‘पेरिस समझौते’ को 197 में से 184 देशों ने मंजूरी भी दे दी है। लेकिन अमेरिका के बिना यह बेमानी है। अगर अमेरिका जैसा देश इससे सहमत नहीं है तो फिर इसके सफल होने की सम्भावना खत्म हो जाती है। ट्रम्प कहते हैं कि ‘पेरिस समझौता’ में चीन और रूस जैसे देशों को पूरी छूट मिल गई है, भारत को विकासशील देश होने के नाते क्षतिपूर्ति मिलनी है और हमारे न केवल हाथ-पैर बाँधे गए हैं, बल्कि हमें खरबों डॉलर देने को बाध्य किया गया है। इससे अमेरिका का विकास रुक जाएगा और खजाना खाली हो जाएगा।
अमेरिका की नासमझी
एक ओर हम मानते हैं कि ‘पेरिस समझौता’ इस धरती यानी मानवता को बचाने का समझौता है, जो सबके हित में है, जबकि ट्रम्प कहते हैं कि अमेरिका और उसके नागरिकों के हितों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य को निभाते हुए ‘पेरिस समझौते’ से बाहर निकाल रहे हैं। सामान्य सी बात है, जो सम्पूर्ण धरती को बचाने का समझौता है, जिसमें सबका हित है, जिसके साकार होने से पूरी मानवता बच सकती है, सृष्टि बच सकती है वह अमेरिका के नागरिकों के हित में नहीं है यह कैसे मान लिया जाए? ट्रम्प का कहना है कि समझौता ऐसा हो जो अमेरिका के उद्योगों, कामगारों और कर देने वाले नागरिकों के हितों का ध्यान रखे। यही मूल बात है जिसे समझने की आवश्यकता है। पूरा आर्थिक ढाँचा बनाए और बचाए रखते हुए वायुमंडल को जहर और तापमान से मुक्त करना सम्भव नहीं। ट्रम्प खुलकर बोल रहे हैं, लेकिन ‘पेरिस समझौते’ को स्वीकारते हुए भी ज्यादातर विकसित देशों की सोच लगभग यही है। हम भारत और चीन को भी इससे अलग नहीं कर सकते।
औद्योगिक क्रान्ति ने जिस उद्योग और कारोबार आधारित सभ्यता को जन्म दिया, उसका केन्द्र बिन्दु भोग और अत्यधिक भोग था। इस सभ्यता ने उन्नति का अर्थ यह मान लिया कि मनुष्य के शरीर को सुख देने वाले जितने साधन मिलते जाएँ, वही उन्नति का सोपान होगा। इसमें आप धरती के गर्भ में पड़े हुए खनिजों को अन्धाधुन्ध निकालते गए, कारखानों के लिये खेती या जंगल लगे जमीन का उपयोग हुआ, फिर उसके साथ कारोबार के अन्य तंत्र विकसित करने पड़े, ढुलाई के लिये वाहन.., उनके लिये चमचमाती सड़कें..सूची लम्बी हो जाएगी। यह सब प्रकृति को खाकर ही विकसित होते हैं। हर उत्पादन में ईंधन का खर्च और उससे निकलने वाला धुआँ और भट्टी का तापमान पूरे वायुमंडल में जहर और गर्मी बढ़ाता है।
एक ओर यह स्थिति है तो दूसरी ओर अपने गर्भ के खनिजों से सन्तुलित पोषण लेने वाली धरती को पोषण तत्व मिलना कम हो गया। हर उत्पादन को जल चाहिए तो जल कम होने लगे। पक्के मकानों के लिये ईंट-मिट्टी को पकाकर बनेगा, सीमेंट के लिये चूना पत्थर चाहिए तो पहाड़ों को काटो, पत्थरों के लिये भी..। तो धरती के नीचे और ऊपर की पूरी सम्पदा को हम खत्म करने पर उतारू हैं। यह ऐसा मकड़जाल है, जिसमें पूरी दुनिया फँस गई है। सबको चिन्ता है कि तापमान न घटा तो हम नष्ट हो जाएँगे। ‘पेरिस समझौता’ भी इस सभ्यता के ढाँचे में ही रास्ता निकालने की बात करती है। यह सम्भव नहीं।
हमें भी दिखानी होगी समझदारी
भारतीय मनीषियों ने भोगवाद पर टिकी इस औद्योगिक सभ्यता के खतरे से बार-बार आगाह किया है। भारत की सोच शरीर को नश्वर मानने की है। जो नश्वर है उसके सुख की चिन्ता मूर्खता है। पश्चिम और भारत की सोच में यह मूल अंतर था। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ यानी त्यागपूर्वक भोग करो, जो भी उपलब्ध है, उसका न्यूनतम उपभोग करो; यह जीवन सूत्र हमारे यहाँ था। आज भी इस पूरी मानव सभ्यता को बचाने का यही रास्ता है। गाँधी जी ने बार-बार कहा है कि यूरोपियन अपनी सभ्यता के ऐसे गुलाम हो गए हैं कि इनसे बाहर नहीं निकले तो वे नष्ट हो जाएँगे। डॉ. राममनोहर लोहिया तो पश्चिमी सभ्यता के नष्ट होने को अवश्यम्भावी कह गए हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति, प्रकृति और परमेश्वर के बीच सम्बन्धों की बात की। विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और गाँधी जी सभी मानते थे कि भारत ही वह देश है, जो अपनी सन्तुलित-संयमित जीवनशैली वाली व्यवस्था से विश्व को रास्ता दिखा सकता है। जब भारत ही उस औद्योगिक सभ्यता की सुरंग में दौड़ लगा चुका है तो फिर रास्ता बताएगा कौन? भारत चाहे धरती के तापमान को कम करने की जितनी बातें करे, अपने अपराध से हम भी बच नहीं सकते। क्या आज भारत स्वयं ऐसी स्थिति में है कि इस सभ्यता की दौड़ में स्वयं को संभालते हुए, ठहरकर सोचे, जो कुछ हो गया है उसे सन्तुलित करने का प्रयास करे? अगर नहीं तो फिर हम दूसरों से ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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