जल और जल-संकट (Water and Water Crisis)

Water
Water

जल को संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में ‘उदान’ तथा ‘उदक’ नाम से भी जानते हैं। उद् का अर्थ है- आर्द्र होना। ‘उद्’ शब्द से ही उद्जन शब्द बना है।

जलअंग्रेजी में जल को वाटर (watar) कहा जाता है। वातार (watar) शब्द से ही वाटर (water) शब्द बना है।

रूसी शब्द वोद (Vode) हिन्दी के (Ud) और अंग्रेजी के वाटर (watar) शब्द से ध्वनि साम्य रखता है। वोद (Vode) से ही वोदका (Vodka) शब्द बना है।

ग्रीक शब्द ह्यूडोर (Hudor) भी जल का ही बोधक है। ह्यूडोर (Hudor) शब्द से ही हाइड्रो (Hydro) शब्द बना है।

इस प्रकार-उदक तथा उदान (Udaan) का उद् (Ud) वोदका (Vodka) का वोद (Vode) और ह्यूडोर (Hudor) का हुद (Hud) ये सभी शब्द ध्वनि में समानता रखते हैं, इससे सिद्ध होता है कि यह शब्दर (उद्) भारोपीय भाषा परिवार से सम्बन्ध रखता है। सभी शब्दों का अर्थ एक ही है- ‘आर्द्र होना’ (to be moist)। उदान तथा उदक के अतिरिक्त हिन्दी में जल के कई नाम हैं-

जल - जल शब्द जल धातु से बना है। जल का अर्थ है- आवृत करना (to cover)। ऐसा माना जाता है कि जल ने ही इस पृथ्वी को आवृत कर रखा है। वायुमंडल में जल की उपस्थिति के कारण हमारी पृथ्वी एक नीले गृह के रूप में दिखती है।

पानीय-पा = पीना। पा धातु से पानीय शब्द बना है। जिसे हम पीते हैं वह पानीय कहलाता है। पानीय शब्द का नाम बिगड़कर (अपभ्रंश होकर) ‘पानी’ हो गया। आजकल पानीय कोई नहीं जानता। सभी लोग जल को पानी नाम से जानते हैं।

नीर-नी = ले जाना (to carry) जो बहता है, बहाकर ले जाता है नीर कहलाता है।

आपः- आप् = फैलना, व्याप्त होना (to prevade, to obtain)।

जो वि + आप + क्त = व्याप्त है, परिपूर्ण है सर्वत्र, वह आपः = विशिष्ट जल, है।

सलिल- सल = जाना (to go, to move)। जो जाता है, गमन करता है वह सलिल।

तोय- तु = भरना। पूर्त्यै याति = जो भर देता है वह तोय अर्थात जल।

अम्बु-अम्ब = शब्द करना।

जल का भाग जो रक्त में रहता है उसे अम्बु कहा गया है। एक छन्द का नाम भी अम्बु है।

शब्द करने के गुण के कारण ही जल को अम्बु कहा जाता है।

वारि- वृ = वरण करना, निवारण करना।

वारयति तृषाम, अर्थात जो प्यास का निवारण कर दे वह वारि है।

पयस - पी = पीना। पा = पीना।

जो पीने के योग्य हो वह पयस। पयस से पय शब्द बना है।

पय का अर्थ पानी या दूध होता है।

कं- संस्कृत भाषा में पानी को ‘कं’ नाम भी दिया गया है। कं से ही कमल और गंगा शब्द बने हैं।

कं (जलम) अलति (भूषयति) अर्थात जो जल की शोभा बढ़ाये वह कमल है।

कहा जाता है कि कं+गा = कंगा (जो जल में गमन करती है) से ही वर्तनी में आकर ‘गंगा’ शब्द बना है।

नारा- जल का एक नाम ‘नारा’ भी है।

अयन का अर्थ घर होता है। नारा अयनं यस्य सः = नारायणः। जल ही घर है जिसका = नारायण, विष्णु। अर्थात ईश्वर का मूर्त रूप ‘जल’ है। जल का कोई रूप, रंग, आकार नहीं होता। ईश्वर निराकार है, निर्गुण है। जल भी निराकार है, निर्गुण है। किन्तु जल को जिस आकार में रखो उसी आकार का हो जाता है। अर्थात निराकार भी साकार हो जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि जल में ‘स्मृति’ का गुण है तथा ‘चेतना’ का और प्रतिपालन करने का गुण है। विज्ञान में अभी यह बात सिद्ध होना शेष है।

गोथे (Goethe) की उक्ति है कि प्रत्येक वस्तु जल से ही उद्भवित हुई और जल द्वारा ही प्रतिपालित होती है। जल जीवनी-शक्ति का दाता है। अतः जल को देवता के रूप में मान्यता दी गई है। जल को दूषित करना, या गन्दा करना, जल देवता का अपमान है। भारतीय संस्कृति में जल को देवता मानकर उसके प्रति आदर, श्रद्धा और पूजा का भाव रखा जाता है। हम सबका कर्तव्य है कि आर्द्र भूमियों, नदी, तालाब, सागर, कुआँ, बावड़ी आदि जल के अनेक स्रोतों का संरक्षण करें, उन्हें पवित्र बनाये रखें।

पृथ्वी पर जल की उपलब्धता

झीलें :


झीलें पृथ्वी तल पर पाये जाने वाली प्रमुख स्थिर जल राशियाँ हैं। झीलें जलीय गुणवत्ता एवं प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। इस दृष्टि से अलवणीय या स्वच्छ जलीय झीलें, लवणीय या खारे पानी की झीलें तथा हिम झीलें प्रमुख हैं। स्थिति के अनुसार पर्वतीय, पठारी तथा मैदानी झीलें होती हैं। उत्तरी-पश्चिमी रूस की लाडोगा, ओनेगा, अरल सागर तथा बेकाल आदि मैदानी भागों की तथा मध्य एशिया की कोरोनार, अफ्रीका टाना, दक्षिणी अमेरिका की टीटीकाका, पर्वतीय व तिब्बत की मानसरोवर झील महत्त्वपूर्ण हैं। विश्व की प्रमुख झीलें इस प्रकार हैं-

विश्व की प्रमुख झीलेंयह विदित है कि झीलों की उत्पत्ति हिमनदों से, ज्वालामुखी से, भ्रंशन क्रिया तथा संपीडन आदि से होती है। इस क्रम में पूर्वी अफ्रीका की रिट घाटी में रुडोल्फ, अल्बर्ट, एडवर्ड तथा टांगानिका स्वच्छ पानी की सबसे लंबी तथा बेकाल सबसे गहरी झील है। कैस्पियन सागर लवणीय जल की सबसे लंबी झील है। भारत की सांभर तथा चिल्का, लवणीय जल की विशाल झीलें हैं। महाराष्ट्र की लोनार झील क्रेटर झील है।

रूस की ब्रास्तक झील विश्व की सबसे बड़ी मानव निर्मित झील है, जिसे अंगारा घाटी में बनाया गया है। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया की आयर झील पूर्णतया शुष्क झील है, जिसकी तली में लवणों की परत जमा है। मृत सागर एक अत्यधिक लवणीय (238) है, जो सागर तल से 384 मीटर नीचे है।

महान झीलें :


उत्तरी अमेरिका की पाँच विशाल झीलों की एक शृंखला महान झीलों के नाम से जानी जाती है जो संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा में स्थित है। सुपीरियर, मिशिगन, ह्यरन, इरी तथा ओंटेरियो आदि पाँचों झीलें एक दूसरे से परस्पर अन्तर्सम्बद्ध रूप से फैली हुई हैं। सुपीरियर झील इनमें सबसे बड़ी है तथा ओंटेरियो सबसे छोटी झील है। महान झीलें लगभग 245000 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैली हुई हैं। इन झीलों में स्वच्छ जल पाया जाता है। सुपीरियर झील विश्व की सबसे बड़ी स्वच्छ जल की झील है, जिसका क्षेत्रफल 82100 वर्ग कि.मी. है। संयुक्त राज्य अमेरिका के मिनिसोटा, बिस्कॉन्सिन तथा मिशिगन राज्यों में सुपीरियर झील के कुल क्षेत्रफल का 53600 वर्ग कि.मी. क्षेत्र पाया जाता है। इस झील का शेष क्षेत्र कनाडा में फैला हुआ है। इरी तथा ओंटारियो झीलों के मध्य प्रवाहित नियाग्रा नदी पर विश्व प्रसिद्ध नियाग्रा प्रपात स्थित है जो जल शक्ति का प्रमुख स्रोत है।

जल की समस्या और जनसंख्या वृद्धि :


वस्तुतः निर्बाध गति से बढ़ती हुई जनसंख्या ही जल की समस्या का प्रमुख कारण है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल में से 97.5 प्रतिशत जल लवणीय है और शेष मृदु जल का एक प्रतिशत से भी कम जल मनुष्य की पहुँच में है। अत्यल्प मृदु जल पृथ्वी के नीचे और पहाड़ों की चोटियों पर है।

आज चिन्ता का विषय है कि मानवीय गतिविधियाँ जल को विकृत एवं अनुपयोगी बना रही हैं। प्रदूषण ने जल के एक बड़े भाग को उपयोग के लायक नहीं छोड़ा है। प्रदूषण के चिह्न अब सुदूर क्षेत्रों में भी दृष्टिगोचर हो रहे हैं। विकासशील देशों में लगभग 90 प्रतिशत मल-जल बिना किसी उपचार के ही जल संसाधनों में मिल जाता है। डॉ. पियरेनजलिस के अनुसार, अनुपचारित मल-जल पूरे विश्व में कीटनाशकों का खतरा उत्पन्न कर रहा है।

कृषि क्रांति के साथ विश्व की जनसंख्या में प्रथम बार महत्त्वपूर्ण वृद्धि देखी गई। इस समय जनसंख्या मुख्यतः पशुपालन तथा वनस्पतियों के बाहुल्य के स्थानों पर केन्द्रित रही। कृषि क्रांति के उपरांत जनसंख्या विकास का महत्त्वपूर्ण समय नगरों के विकास का समय रहा है।

आधुनिक काल का प्रारंभ सन 1600 ई. से माना गया है। इस समय विश्व की जनसंख्या लगभग 51.5 करोड़ थी, जो बढ़कर सन 1950 ई. में 250 करोड़ तक पहुँच गई। विश्व की जनसंख्या में विगत तीन शताब्दियों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। औद्योगिक क्रांति के कारण भी जनसंख्या में त्वरित वृद्धि हुई है। इसमें 1750 से 1900 के मध्य वृद्धि मध्यम रही परंतु 1900 से 1950 के मध्य वृद्धि दर अत्यधिक तीव्र हुई। विश्व की जनसंख्या वृद्धि नीचे लिखे अनुसार है-

विश्व में जनसंख्या वृद्धि

भारत में जनसंख्या वृद्धि :


भारत में जनसंख्या की गणना की सर्वमान्य जानकारी सन 1881 के उपरान्त मानी गई है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रथम जनगणना 1901 में हुई उस समय भारत की जनसंख्या 23.8 करोड़ थी, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान बढ़कर 36.10 करोड़ तथा सदी के अंत में चार गुना से भी अधिक 102.70 करोड़ हो गई।

भारत में जनसंख्या का आकार एवं वृद्धि दर (1901-2001)केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों से विदित होता है कि स्वतंत्रता के समय भारत की जनसंख्या 40 करोड़ थी और वर्तमान में लगभग 120 करोड़ हो चुकी है। अनुमान है कि यह वर्ष 2025 में बढ़कर लगभग 150 करोड़ हो जाएगी। 1950 में देश में प्रति व्यक्ति पानी की औसत उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो इस समय 1869 घन मीटर है।

जल संकट :


- आने वाले समय में जल संकट इतना विकराल रूप धारण कर सकता है कि इससे युद्ध और विनाश भी जन्म ले सकता है। अतः इस विनाश से बचने के लिये आवश्यक है कि जल संरक्षण के लिये आज से ही कठिन प्रयास किया जाये।

- वनस्पति के जीवन की अनिवार्य शर्त है पानी।

- प्राणवायु (ऑक्सीजन) के बाद जल ही सबसे महत्त्वपूर्ण है जीवन के लिये।

- पृथ्वी के 70 प्रतिशत भाग पर जल है। उसमें 67 प्रतिशत समुद्रों में खारे जल के रूप में भरा है। मीठा पानी 2.5 प्रतिशत से भी कम है। इस मीठे पानी का दो तिहाई भाग हिमखण्डों में जमी अवस्था में है। शेष बचा हुआ मीठा पानी, जलचक्र का नियमित भाग है। इस प्रकार जो थोड़ा सा पानी बचा है उसे भी प्रदूषित करेंगे तो जो भयावह स्थिति आयेगी उसकी कल्पना करना कठिन है।

जल संकट पर नवंबर 2006 को दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा रिपोर्ट जारी की गई थी जिसके अनुसार दुनिया में जल के लिये मारा मारी बढ़ रही है। नदियों का प्रवाह कम हो रहा है, भू-जल का स्तर कम होता जा रहा है। जल के लिये युद्ध होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग साफ पानी से वंचित हैं नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं। जन संख्या बढ़ती जा रही है।

24 मार्च 2003 को जापान के क्योटो शहर में वर्ल्ड वाटर फोरम का महाअधिवेशन आयोजित किया गया जिसके अनुसार जल संपदा के संरक्षण के लिये नेटवर्क तैयार करने का निर्णय लिया गया, नदियों, वेटलेंडों के जल प्रबंधन की समस्या का समाधान ढूंढने के लिये निर्णय लिया गया।

जल के लिये देशों में तनाव :


जल की बढ़ती समस्या के साथ विभिन्न देशों में परस्पर तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है। विश्व में 714 ऐसी नदियाँ या झीलें हैं जो दो या अधिक देशों में साझा हैं। ऐसे देशों में जल के प्रदूषण तथा अभाव के कारण तनाव उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ-

संयुक्त राज्य तथा मेक्सिको के बीच कोलेरेडो नदी के जल को लेकर, ईराक तथा सीरिया के बीच फरात नदी के जल पर, भारत तथा पाकिस्तान के बीच सिन्धु नदी के जल पर, भारत तथा बंगला देश के बीच गंगा नदी के जल प्रवाह पर, इजराइल तथा जोर्डन के बीच जोर्डन नदी के जल को लेकर, अर्जेन्टाइना तथा ब्राजीव के बीलच लाप्लाटा नदी जल सम्बन्धी विवाद एवं तनाव उत्पन्न हुए हैं। इससे अन्तरराष्ट्रीय युद्ध की प्रबल संभावना हो जाती है।

हिमालय के ग्लेसियर सिकुड़ने का खतरा :


आईपीसीसी (International Penal on Climate change) का गठन सन 1988 में संयुक्त राष्ट्र और डब्ल्यू.एम.ओ. ने मिलकर किया था। इसमें 2500 वैज्ञानिकों ने छह वर्ष के रिसर्च के बाद एक रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट में हिमालय के ग्लेशियरों के सिकुड़ने का खतरा बताया गया है तथा भारत के कई समुद्री तटों के जलमग्न होने का खतरा भी बताया गया है।

अतः भविष्य में जल संकट को देखते हुए तथा जलीय आवास के जैविक विविधता के पर्यातंत्र को बचाये रखने के लिये हमें अपने वेटलैंड एवं अन्य जलस्रोतों के संरक्षण के लिये अभी से प्रबंध करने के कार्य को गति देनी होगी।

जल के लिये अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन :


12 से 15 जनवरी 2004 को नई दिल्ली में जल के सार्वभौमिक तथा विवेकसम्मत उपभोग के लिये अन्तरराष्ट्रीय जल सम्मेलन आयोजित किया गया। 16 से 22 मार्च 2006 को मैक्सिको में चौथा वर्ल्ड वाटर फोरम संपन्न हुआ।

भारत के संविधान में पानी :


भारत के संविधान में प्रवेश-56, सूची-1 एवं 2 में जल के सम्बन्ध में केन्द्र तथा राज्यों के दायित्वों का निर्धारण किया गया है। इसके अनुसार जल प्रदाय, सिंचाई और नहर निकास और बांध, जलाशय और जल विद्युत राज्य के विषय हैं। केन्द्र के दायित्व, संसद द्वारा पारित विधि के अन्तर्गत अन्तरराज्यीय नदियों तथा घाटियों के संचालन और विकास तक सीमित हैं।

भारत सरकार द्वारा केन्द्र में पर्यावरण विभाग की स्थापना सन 1980 में की गई इससे पूर्व केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल की स्थापना सन 1972 में हो गई थी।

भारतीय जल प्रदूषण अधिनियम सन 1974 में बनाया गया। पक्षियों की सुरक्षा के लिये अन्तरराष्ट्रीय कन्वेंशन पर हस्ताक्षर सन 1955 में हुए तब से पक्षियों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

भारत की राष्ट्रीय जल नीति :


पहली जलनीति सन 1987 में लागू की गई थी। इसे बाद में सन 2002 और सन 2012 में पुनः संशोधित करके लागू किया गया।

राष्ट्रीय जलनीति 1987 :


1987 ई. में भारत सरकार ने एक जलनीति की घोषणा की। इसका सारांश निम्नवत है।

जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन, मानव की एक मौलिक आवश्यकता तथा अमूल्य राष्ट्रीय सम्पत्ति है। अस्तु, जल का नियोजन एवं विकास राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए।

देश में अनुमानतः वर्षों से प्राप्त जल की मात्रा 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर है जिसमें से 17.8 करोड़ हे.मी. सतह पर विद्यमान रहता है। इसका 50 प्रतिशत लाभप्रद उपयोग में लाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त 4.2 हे.मी. भूमिगत संभाव्य जल भी उपलब्ध हो सकता है। परन्तु जल की उपलब्धता में अत्यधिक क्षेत्रीय एवं सामयिक विभिन्नता है। तथापि, जल संसाधन एक संपूर्ण एवं अविभाज्य संसाधन है। वर्षा, नदी जल, तालाब, झील तथा भूमिगत जल सभी एक ही तंत्र के अभिन्न अंग हैं। दूसरी ओर जल तंत्र संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का अभिन्न अंग है।

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में विभिन्न उपयोगों हेतु जल की मांग में सतत वृद्धि होना अपरिहार्य है। यद्यपि जल का उपयोग घरेलू, औद्योगिक कृषिगत, विद्युत उत्पादन, नौ परिवहन, मनोरंजन, सबमें होता है, किन्तु सर्वाधिक मांग सिंचाई के लिये होती है। किसी एक सिंचाई परियोजना के क्रियान्वयन में ही पर्यावरण सुरक्षा, विस्थापितों का पुनर्वास, जनस्वास्थ्य, बांध सुरक्षा आदि अनेक समस्यायें प्रकट होती हैं। इन सबके समाधान हेतु एक सामान्य उपागम अत्यावश्यक है। इनके अतिरिक्त लाभ के वितरण में समता एवं सामाजिक न्याय की समस्यायें भी जुड़ जाती हैं। कुछ सिंचाई परियोजनाओं के कमान्ड क्षेत्र में जल जमाव एवं मिट्टी में लवणता वृद्धि की कठिनाइयाँ भी उपस्थित हुई हैं। इन सभी समस्याओं का समाधान एक समान नीति एवं उपायों से ही हो सकता है। वस्तुतः निम्न नीति निर्देशों का पालन अपेक्षित है।

1. जल संसाधन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष जल की गुणवत्ता है। सतहगत एवं भूमिगत जल को प्रदूषणमुक्त करने तथा जल की गुणवत्ता में वृद्धि जल का पुनर्चक्रण एवं जल का पुनरुपयोग करने के लिये अधिकांश वैज्ञानिक विश्लेषण एवं नवीनतम तकनीकी साधनों का उपयोग करना।

2. सम्बन्धित राज्यों की जल की आवश्यकताओं को मद्दे नजर रखते हुए जल को नियोजित ढंग से पर्यावरणीय ठोस एवं समन्वित विधि से संरक्षित एवं विकसित करना।

3. जल संसाधन का नियोजन एक जल चक्रीय इकाई जैसे नदी बेसिन के आधार पर करना जल को अधिकाधिक समय तक रोके रखने तथा जल की क्षति न्यूनतम करने के सभी उपाय करना।

4. उक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक सूचनातंत्र विकसित करना जिसके अन्तर्गत आंकड़े भण्डारों की वृद्धि करना तथा उन्हें शृंखलाबद्ध करना।

5. नदी के नियोजित विकास एवं प्रबंध हेतु समुचित संगठन का निर्माण करना।

6. जल संपन्न क्षेत्रों से जलाभाव क्षेत्रों में जल उपलब्ध कराने की राष्ट्रीय आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए एक नदी बेसिन से दूसरी बेसिन में जल प्रवाह की व्यवस्था करना।

7. जल संसाधन का विकास यथासंभव बहुउद्देशीय करना। जल विकास परियोजना में सिंचाई, बाढ़- नियंत्रण, जल विद्युत उत्पादन, मत्स्यपालन, नौ परिवहन एवं मनोरंजन का सम्मिलित लक्ष्य होना चाहिए परन्तु सर्वाधिक प्राथमिकता पेयजल को मिलनी चाहिए।

8. बहुउद्देशीय परियोजना प्रस्तुत करते समय इसके मानव जीवन अधिवास, व्यवसाय, आर्थिक एवं अन्य सम्बन्धित पक्षों पर इसके प्रभाव का आकलन अनिवार्य है। विशेषतया, समाज के निर्बल वर्गों तथा अनुसूचित जाति, जनजाति पर इनके प्रभाव का मूल्यांकन अत्यावश्यक है।

9. ऐसी परियोजना के निरूपण एवं क्रियान्वयन में पर्यावरण की गुणवत्ता तथा पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। जहाँ अपरिहार्य हो, क्षति पूर्ति की व्यवस्था होनी चाहिए।

10. पहाड़ी क्षेत्रों में ऐसी परियोजना का क्रियान्वयन करते समय सुनिश्चित पेयजल की उपलब्धता, जल विद्युत उत्पादन की संभावना तथा समुचित सिंचाई सुविधा पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इन सबकी व्यवस्था करते समय प्राकृतिक स्वरूप ढाल की तीव्रता, तीव्र अपवाह एवं मिट्टी की अपरदनशीलता का ध्यान रखना आवश्यक है।

11. भूमिगत जल की संभाव्य उपलब्धता का समय-समय पर आकलन करते रहने चाहिए।

12. भूमिगत जल का दोहन उसके पुनर्वेशन के अनुरूप होना चाहिए। इस प्रकार के पुनर्वेशन बढ़ाने के समुचित उपाय किये जाने चाहिए।

13. सतहगत एवं भूमिगत जल का समेकित एवं अन्तर्वैकल्पिक उपयोग, परियोजना के प्रारंभ से ही करना चाहिए।

14. समुद्रतट के निकट भूमिगत जल का अधिक दोहन नहीं होना चाहिए, जिससे खारे पानी के भूमिगत मीठे जल में मिश्रण की संभावना न उत्पन्न हो।

15. वरीयताक्रम से पेयजल, सिंचाई, जलविद्युत, नौ परिवहन के आधार पर जल उपयोग का प्रारूप निश्चित होना चाहिए।

16. जल उपयोग एवं भूमि उपयोग नीतियों में पूर्ण समन्वयन स्थापित होना चाहिये।

17. संपूर्ण देश में जल प्रदेशों का सीमांकन होना चाहिये तथा तदनुरूप ही आर्थिक कार्यकलाप विकसित होने चाहिये।

18. बाढ़ नियंत्रण हेतु एक महायोजना बनाना चाहिये एवं प्रत्येक बाढ़ की संभावनायुक्त नदी बेसिन का नियमन होना चाहिये।

19. समुद्र लहरों अथवा नदी जल द्वारा अपरदन न्यूनतम करने के लिये उपयुक्त कार्यक्रम बनाना चाहिये।

20. सूखाग्रस्त क्षेत्रों में मिट्टी में आर्द्रता संचयन, जल दोहन तकनीक, वाष्पीकरण क्षति न्यून करने, भूमिगत जल की संभाव्यता बढ़ाने तथा जल संपन्न क्षेत्रों से जल प्राप्त करने की दिशा में समुचित प्रयास किये जाने चाहिए।

21. वाटर रेगूलेटरी अथॉरिटी की स्थापना करना।

राष्ट्रीय जलनीति 2002 :


राष्ट्रीय जल नीति में पानी को एक नैसर्गिक साधन मौलिक मानवीय आवश्यकता तथा मूल्यवान राष्ट्रीय सम्पत्ति कहा गया है। अर्थात जल एक मौलिक मानवीय आवश्यकता होने के बावजूद इस संसाधन पर समाज का कोई अधिकार नहीं वह केवल उपयोगकर्ता है। अतः सरकार अपने नियम कायदों के अनुसार जल सम्बन्धी कार्यक्रम और योजनाओं को तय करेगी। इस नीति में जल संसाधनों की आयोजना, विकास एवं प्रबंधन पर विशेष बल दिया गया है। जल आवंटन की प्राथमिकताओं का निर्धारण किया गया है। पेयजल, सिंचाई, जल विद्युत पारिस्थितिकी, कृषि उद्योग, गैर उद्योग, नौकायन आदि अन्य उपयोग इस क्रम में आते हैं।

राष्ट्रीय जल नीति सन 2012 :


सन 2012 में राष्ट्रीय जल नीति में नीचे लिखे बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है-

1. राष्ट्रव्यापी सूचना तंत्र की स्थापना
2. पुनर्चक्रण की योजना
3. पर्यावरण एवं मानव स्थापना का ध्यान रखते हुए योजनाएँ बनाना।
4. बांधों के सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशों का पालन।
5. भूमिगत जल का समुचित उपयोग एवं सीमा।
6. पेयजल, सिंचाई, जल विद्युत, नौकायन उद्योग तथा अन्य उपयोगों हेतु जल की गुणवत्ता का निर्धारण करना।
7. किसानों के हित में भू सतह के जल तथा भूमिगत जल के उपयोग हेतु कीमत का समुचित निर्धारण।

 

भोजवेटलैंड : भोपाल ताल, 2015


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जल और जल-संकट (Water and Water Crisis)

2

वेटलैंड (आर्द्रभूमि) (Wetland)

3

भोजवेटलैंड : इतिहास एवं निर्माण

4

भोजवेटलैंड (भोपाल ताल) की विशेषताएँ

5

भोजवेटलैंड : प्रदूषण एवं समस्याएँ

6

भोजवेटलैंड : संरक्षण, प्रबंधन एवं सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल प्लानिंग एण्ड टेक्नोलॉजी (CEPT) का मास्टर प्लान

7    

जल संरक्षण एवं पर्यावरण विधि

8

जन भागीदारी एवं सुझाव

 

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