जलग्रहण प्रबंधन हेतु भूमि उपयोग वर्गीकरण

21 Aug 2018
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4.1 प्रस्तावना
जलग्रहण क्षेत्रों में उत्पादन एवं उत्पादकता में सतत विकास सुनिश्चित करने की प्रथम कड़ी क्षेत्र में आने वाली भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि की वर्तमान स्थिति का व्यापक ज्ञान है जिसमें भू-स्वामित्व भू-अतिक्रमण के साथ-साथ भूमि में विद्यमान तत्व एवं वैज्ञानिक आधार पर भूमि के उपयोग की सिफारिशों की पालना किया जाना सम्मिलित है। इस इकाई में हम भूमि के उपयोग, वर्गीकरण से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से ज्ञानार्जन करेंगे।

4.2 भूमि के संरक्षित उपयोग में मृदा उपयोगिता (क्षमता) वर्गों की प्रासंगिकता
मृदा सर्वेक्षण के अंतिम परिणाम के रूप में उसकी अनुवांशिक क्षमताओं और समस्याओं को मध्य नजर रखते हुये अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार मृदा उपयोगिता (क्षमता) वर्गीकरण किया जाता है, जो कुछ सिद्धांतों व अनुमानों (एजम्पशन) पर आधारित है। कृषक अपने खेत की भूमि क्षमता को पहचान कर और उसके अनुरूप ही उपयोग में लेकर अधिकाधिक उत्पादन एवं लाभ प्राप्त कर सकता है और मृदा उत्पादन को अक्षुण बनाए रख सकता है।

भूमि उपयोग क्षमता वर्गों से अनभिज्ञ होने से कृषक प्रति हेक्टेयर कम उपज लेता है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ह्रास को बढ़ावा दे रहा है। मिट्टी की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है और मृदा उत्पादकता में स्थायित्व नहीं हो रहा है और भूमि का दुरुपयोग होने के कारण उपजाऊ भूमि सिमटती जा रही है।

प्रायः वह देखा गया है कि सामान्य जन बहुधा मृदा उत्पादकता एवं मृदा उर्वरता को एक ही मानते हैं जबकि मृदा उर्वरता सिर्फ मिट्टी में प्राप्त (उपलब्ध) पोषक तत्वों की मात्रा को दर्शाता है और मृदा उत्पादकता में सब उत्पादक कारकों का समावेश होता है। अतः उर्वरक भूमि भी अनुत्पादक हो सकती है तथा प्रबंध कौशल से इन दोनों प्रतिमानों का पूर्ण ध्यान रखना आवश्यक है।

ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें भू-सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न भू-क्षमता वर्गों के लिये दिये गये सुझावों के प्रति उदासीनता बरतने से सिंचित क्षेत्र में जल प्लावन क्षारीयता, लवणीयता की समस्या से हजारों हेक्टेयर भूमि बंजर हो गई है। अतः यह आवश्यक है कि भूमि का निरंतर एवं अधिकतम उपयोग निश्चित करने के लिये फसल चक्र, सिंचाई जल की मात्रा, कृषि क्रियाएँ, क्रॉपिंग पैटर्न आदि सभी बातें भू-उपयोगिता वर्गों पर आधारित हो।

अन्तरराष्ट्रीय प्रतिमानों के अनुसार मृदा को आठ भूमि उपयोगिता (क्षमता अथवा लेन्ड केपेबिलिटी (Land capability)) वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है जिसमें सबसे अच्छी व सुगमतापूर्वक कृष्य भूमि (वर्ग प्रथम) से लेकर नगण्य कृषि उपयोगिता वाली मृदाओं तक का समावेश किया जाता है जो कि केवल मनोरंजन या वन्य जीवों अथवा जल प्रदाय क्षेत्रों के रूप में ही काम में ली जा सकती है (वर्ग अष्टम)। वर्गों के साथ-साथ उप वर्ग जिनका वर्णन आगे दिया जाएगा, पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए क्योंकि समस्या की डिग्री (गंभीरता) उप वर्ग ही सूचित करते हैं। अतः एक ही वर्ग में विभाजित की गई मृदाओं के उप वर्गों की अलग-अलग किस्म की ओर अलग-अलग डिग्री की समस्याएँ हो सकती हैं। अतः उप वर्ग के आधार पर ही प्रबन्धकीय कौशल सुनिश्चित करना उपयुक्त है। भू-सर्वेक्षण द्वारा उपलब्ध नक्शों से बड़ी सारगर्भित जानकारी हासिल की जा सकती है। इसमें मुख्यतयाः भू-उपयोगिता वर्ग है जिसको भूमि पर प्रभाव डालने वाले प्रबल खतरे या प्रतिबन्ध के आधार पर पुनः उप वर्गों में विभक्त किया गया है। चार मुख्य उप वर्ग बनाए गए हैं जिसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है। इन्हें वर्ग के आगे लिखकर दर्शाया जाता है।

- प्रथम उप वर्ग ‘सी’ है जो कि जलवायु सम्बन्धी समस्या को दर्शाता है। जलवायु का शुष्क अर्द्धशुष्क होना, तापमान में परिवर्तन आदि।

- उप वर्ग ‘एस’ मृदा सम्बन्धी समस्या को दर्शाता है। यह समस्या पादप जड़ अवरोधों से सम्बन्धित हो सकती है। या भूमि में लवणों या क्षारों की समस्या हो सकती है। जल निकास या भू-उर्वर शक्ति में अत्यधिक न्यून हो सकती है।

- उप वर्ग ‘ई’ मृदा अपरदन या भू-क्षरण दर्शाता है। इसको ई1, ई2, ई3 व ई4, के रूप में दर्शाया जाता है। अतः अपरदन की तीव्रता को मद्देनजर रखते हुए तथा धरातल ढलाव के अनुरूप भू-संरक्षण के उपाय अपनाएँ।

- उप वर्ग ‘डब्ल्यू’ अत्यधिक नमी या जल प्लावन को इंगित करता है। हमारे राज्य में जलग्रहण क्षेत्रों में यह वर्ग नगण्य है, केवल सिंचित क्षेत्रों में कुछ क्षेत्रफल ही इस उपवर्ग में आता है।

उपयोगिता वर्गों के साथ-साथ मृदा मानचित्र इकाइयां भी नक्शों पर दर्शाई जाती है। यद्यपि उपयोगिता श्रेणी का आधार मृदा इकाई ही है फिर भी भू-संरक्षण कार्यों के चयन हेतु समस्या की गम्भीरता का अनुमान मृदा इकाइयों द्वारा ही किया जा सकता है। जैसे मृदा की गहराई डी1, डी2, डी3 तथा डी4 पादप जड़ अवरोधकों की ओर इंगित करता है, इसी प्रकार ई1, ई2, ई3, तथा ई4, मृदा अपरदन की स्थिति स्पष्ट करती है। ए, बी, सी, डी, ई ढाल की स्थिति को प्रकट करता है तथा धरातल का ध्यान दिलाता है। अतः भू-संरक्षण कार्यों की योजना बनाते समय ये सब बातें ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है।

4.3 भूमि उपयोग क्षमता वर्गों का विवरण
मृदाओं को भूमि क्षमता उपयोगिता के आधार पर दो भागों में रखा गया है। कृष्य मृदा जो कि खेती के लिये उपयुक्त है तथा अकृष्य मृदा जो कि खेती के लिये अनुपयुक्त है किंतु अन्य उपयोगों में ली जा सकती है।

4.3.1 कृश्य मृदाएँ
इस समूह में 4 वर्ग शामिल हैं।
1. प्रथम भू-उपयोगिता (क्षमता) वर्ग

(i) मृदा में उसके उपयोग को सीमित करने वाली बहुत कम समस्याएँ हैं।
(ii) ये मिट्टियाँ उस जलवायु विशेष में होने वाली सभी फसलों के लिये उपयुक्त है।
(iii) ये अच्छी उत्पादक मिट्टियाँ हैं तथा सघन खेती के लिये उपयुक्त है।
(iv) मृदाएँ लगभग समतल भूमि पर होती है किंतु कभी-कभी तीव्र पारगम्यता वाली भूमि में हल्का साधारण ढलाव हो सकता है।
(v) जल या वायु द्वारा भू-क्षरण अत्यल्प होता है।
(vi) ये अत्यधिक गहरी, अधिक जल निकास युक्त मृदाएँ हैं जिनमें कृषि क्रियाएँ बिना किसी बाधा के आसानी से की जा सकती है।
(vii) इनकी जल धारण क्षमता बहुत अच्छी होती है जो कि अच्छी उर्वरा शक्ति भी संजोये हुए होती है अथवा जैविक खादों या उर्वरकों द्वारा दिये गये पोषक तत्वों का बहुत अच्छा प्रत्युत्तर (रिस्पॉन्स) देती है।
(viii) सिंचित क्षेत्र की दोमट मृदाएँ इस श्रेणी में रखी जा सकती है यदि शुष्क जलवायवीय क्षेत्रों में यह समस्या स्थाई सिंचाई के साधनों द्वारा दूर कर दी गई हो, किंतु सिंचाई कभी भी पूर्ण विश्वसनीय नहीं होती है अतः हम यह वर्गीकरण श्रेणी द्वितीय या तृतीय से शुरू करते हैं।
(ix) कभी-कभी ऐसी मृदाओं में कुछ शुरुआती कार्य करने पड़ सकते हैं जैसे इनमें समतलीकरण जरूरी हो सकता है अथवा लवणों के एकत्रीकरण को हटाना व अच्छी जल निकास की आवश्यकता हो सकती है।
(x) किंतु जहाँ पर लवणों के एकत्रीकरण भूजल स्तर, बाढ़, भू-क्षरण आदि की समस्याएँ होने की सम्भावना रहती है तो उन मिट्टियों में ये समस्याएँ स्थाई स्वभाव की मानी जाती है तथा इनका समावेश प्रथम वर्ग में नहीं किया जाता है।
(xi) प्रथम वर्ग की मृदाओं में अच्छा फसल उत्पादन बढ़ाने के लिये सामान्य प्रबन्धकीय तकनीकी में अधिक आर्थिक भार की जरूरत नहीं होती है।
(xii) ये तकनीकें निम्न में से कोई भी हो सकती है-

(अ) उर्वरक या चूना प्रदान करना।
(ब) आवरणीय या हरी खाद की फसलें उगाना।
(स) फसलों के अवशेष अन्य कूड़ा करकट तथा पशुओं के गोबर का संरक्षण तथा बायो कम्पोस्टिंग विधि से उत्तम दर्जे का जैविक खाद तैयार करना व उनका फील्ड क्रॉप में उपयोग करना।
(द) अनुकूलित फसलों को समुचित फसल चक्र के साथ उगाना।

प्रथम वर्ग में वर्गीकृत मृदाओं को कृषक, भू-संरक्षण कार्यकर्ता एवं अन्य विस्तार एजेंसियाँ निम्न प्रकार से उपयोग में लेकर अधिकाधिक लाभान्वित हो सकते हैं।

कृषक
प्रथम वर्ग की मृदाओं का भी संरक्षित उपयोग आवश्यक हो जाता है। इस वर्ग की भूमियों में अधिकतम उत्पादन के लालच में कृषक उनका अन्धाधुन्ध उपयोग करता चले, बेशुमार उर्वरक या अन्य रसायनों का प्रयोग करता रहे यह ठीक नहीं। बल्कि ऐसी मृदाओं का समुचित उपयोग योजनाबद्ध तरीके से करना चाहिये।

निरंतर लम्बे समय तक अपने खेत से अधिकतम पैदावार प्राप्त करने की दृष्टि से भूमि का संरक्षित उपयोग अत्यावश्यक है जिसमें जैविक खादों का प्रयोग, हरी खाद, जैव उर्वरक, जैविक कीट एवं व्याधि नियंत्रण, सीमित रसायनों का प्रयोग अच्छा जल निकास, फसल चक्र, सामान्य भू-संरक्षण के उपाय आदि बातें शामिल हैं।

यह अत्यावश्यक है कि कृषक उन भूमियों पर भी अपनी परम्परागत जैविक खादों के साथ सामंजस्य बैठाते हुए सीमित रूप से ही रासायनिक उर्वरकों व अन्य दवाओं का प्रयोग करे जिससे उसके खेत की मिट्टी का स्वास्थ्य भी बना रहे व अनावश्यक आर्थिक भार भी वहन नहीं करना पड़े।

भू-संरक्षण एवं विस्तार कार्यकर्ता
आजकल विभिन्न प्रकार के रसायनों के उपयोग से न केवल पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है अपितु भूमि भी बीमार होती जा रही है और उसका प्राकृतिक जैविक एवं वानस्पतिक संतुलन बिगड़ रहा है जिसके फलस्वरूप नई-नई पौध व्याधियाँ व कीट उत्पन्न हो रहे हैं जो फसल व जमीन को प्रभावित करते हैं व जाने-अनजाने में ही मृदा उत्पादकता का ह्रास हो रहा है।

इसके अलावा सामान्य भू-संरक्षण के तरीकों, समुचित जल निकास, उर्वरा शक्ति का संयोजन, बहुवर्षीय सुविचारित फसल चक्र, बाजार की माँग एवं अवस्था के अनुसार व्यवस्थित फसल पद्धति, मिश्रित खेती, उपलब्ध जनशक्ति का समुचित उपयोग, जैविक कृषि आदि बातों की सारगर्भित जानकारी, प्रदर्शन एवं प्रशिक्षणों में कृषक को दिया जाना आवश्यक है, ताकि प्रथम वर्ग की मिट्टियाँ काफी लम्बे समय तक निरंतर उपजाऊ बनी रह सके।

2. द्वितीय भू-उपयोगिता (क्षमता) वर्ग
(i) इस वर्ग की मृदाओं में कुछ समस्याएँ होती है जिनकी वजह से पादपों का चुनाव (चॉइस ऑफ़ क्रॉप्स) सीमित हो जाता है।
(ii) इन्हें मध्यम श्रेणी के भू-संरक्षण उपायों की जरूरत होती है।
(iii) समस्याएँ कम होती है तथा उन्हें सरलतापूर्वक हल किया जा सकता है।
(iv) इन मृदाओं को फिल्ड ग्रोप्स चारागाह, वन क्षेत्र, रेंज और आवरणीय व अन्य फसलों के लिये काम में लिया जा सकता है।
(v) समस्या अकेले या निम्न के सम्मिलित प्रभावों के कारण हो सकती है।

(क) हल्का ढाल
(ख) मध्यम जल या वायु क्षरण
(ग) मध्यम पुरातन विपरीत भू-अपरदन का प्रभाव
(घ) आदर्श से कम गहराई
(ङ) मृदा संरचना
(च) मामूली से मध्यम दर्जे की क्षारीयता लवणीयता
(छ) कभी-कभी बाढ़ग्रस्त होना
(ज) गीलापन लिये होना जिसे जल निकास द्वारा सुधारना संभव हो सकता है लेकिन मध्यम पारगम्यता स्थाई रूप से समस्याओं के रूप में विद्यमान रह सकती है।
(झ) भू-प्रबंध एवं उपयोग में मामूली जलवायवीय अवरोध हो सकता है।

(vi) प्रथम वर्ग की अपेक्षा फसलों का चयन कम मात्रा में उपलब्ध रहता है।
(vii) निम्न बातों पर विशेष ध्यान देना पड़ सकता है-

(अ) भू-संरक्षण के उपाय
(ब) भू-संरक्षण करने वाली फसल पद्धति का समावेश
(स) जल नियंत्रण उपाय
(द) कृष्य क्रियाएँ

(viii) उदाहरणार्थ हल्के ढाल युक्त इस वर्ग की गहरी मृदाओं में खेती करने पर मध्यम दर्जे का भू-क्षरण होता है जिसे नियंत्रित करने के लिये निम्न उपायों को सम्मिलित रूप से अपनाना पड़ सकता है।

(अ) लेवलिंग
(ब) स्ट्रिप क्रॉपिंग
(स) सम्मोच खेती
(द) फसल चक्र जिसमें घासें और दलहन शामिल हो।
(य) वानस्पतिक जल नियंत्रण क्षेत्र
(र) स्टबल मल्चिंग
(ल) आवरणीय या हरी खाद की फसलें
(व) उर्वरक
(ष) जैविक खाद इत्यादि

(ix) इन उपायों का यथार्थ समिश्रण अलग-अलग स्थानों पर बदल सकता है जो निम्न बातों पर निर्भर करेगा:

(अ) मृदा के आन्तरिक व बाह्य गुण
(ब) स्थलीय जलवायु
(स) फार्मिंग सिस्टम

इस वर्ग की मृदा के उपयोग के लिये कृषक भू-संरक्षण कार्यकर्ता तथा विस्तार एजेंसियों के लिये भूमिका निम्न प्रकार है-

कृषक वर्ग
इस वर्ग को मृदाओं में प्रथम वर्ग की मृदाओं की अपेक्षा समस्याएँ अधिक है। अतः कृषक को तदनुसार प्रबन्धकीय कौशल अपनाना चाहिये। यदि मृदाओं की गहराई आदर्श से कम है तो अत्यधिक लम्बी जड़ों वाली फसलों व फलदार पौधों को द्वितीय स्थान ही प्राप्त होगा। यदि ढलाव समस्या है तो समतलीकरण करना पड़ सकता है जिसमें कुछ आर्थिक भार भी पड़ सकता है। शस्य क्रियाएं ढाल को काटते हुए की जाए। यदि ढाल की दिशा में की जाएगी तो भू-अपरदन अत्यंत तीव्र गति से होगा तथा भूमि अनुपजाऊ हो जाएगी।

यदि भूमि में क्षार या लवणों की समस्या है तो कृषि विशेषज्ञों की सलाह (एक्सपर्ट एडवाइस) के अनुसार तुरंत सुधार के उपाय किये जाए तथा भविष्य में समस्या दोबारा प्रकट न हो इसका भी पूरा ध्यान रखा जाए। जल निकास का समुचित व्यवस्थित प्रबंध किया जाए।

यदि भूमि पर मध्यम दर्जे का भू-क्षरण हो रहा है तो उसे रोकने के उपायों को कृषकों को अपने स्तर पर प्रयास करने चाहिये।

शस्यगत उपाय अपनाने में तो कृषक को कोई अतिरिक्त खर्चा भी नहीं होता है, केवल उसे अपने साधनों को संयोजित करना पड़ता है व तकनीकी ज्ञान का असली जामा पहनाना पड़ता है। निर्माण कार्य महँगे होने से उसकी जगह आजकल वानस्पतिक अवरोधों व आवरणों की ही अधिक सिफारिश की जाने लगी है। यदि निर्माण कार्य किसान अपने स्वयं के साधनों से करने में समर्थ हो तो अवश्य करे, किंतु फिर भी वानस्पतिक आवरण एवं अवरोध भी उसे अपनाने होंगे। ऐसे वानस्पतिक आवरण उसके लिये भूमि को संरक्षित करने के अलावा अत्यंत उपयोगी भी होते हैं तथा उसको आर्थिक संबल भी प्रदान करते हैं व लम्बे समय तक बने रहते हैं।

यदि भूमि की उर्वरा शक्ति में न्यूनता है तो कृषक को जैविक खादों व उर्वरकों का सामंजस्य इस प्रकार बैठाने की आवश्यकता है कि भूमि का स्वास्थ्य अच्छा बना रहे एवं समस्याग्रस्त न हो पाये।

भूमि की उर्वरा शक्ति, बाजार माँग, स्वयं के साधनों को मध्य नजर रखते हुए भी फसल पद्धति व फसल चक्र चुनना चाहिये जिससे अपनी भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्रास किये बिना वह लम्बे समय तक निरंतर अधिकतम संभव उत्पादन प्राप्त करता रहे।

विस्तार कार्यकर्ता
भू-संरक्षण कार्यकर्ता एवं विस्तार एजेन्सीज इस वर्ग की मृदाओं के व्यवस्थित उपयोग के लिये समुचित कार्य योजना एवं पैकेज ऑफ प्रैक्टिसेज बनाकर कृषक को दें तथा समस्त सघन कृषि विकास कार्यक्रम अपनी देखरेख में कराएँ चूँकि मृदाओं में प्रथम वर्ग की अपेक्षा समस्याएँ ज्यादा है अतः प्रत्येक स्तर पर समस्याओं के समुचित निराकरण हेतु कृषक को विशेषज्ञों की सलाह की आवश्यकता होगी जिसका पूरा प्रबंध किया जाना जरूरी है।

भू-समतलीकरण, मेड़बन्दी, वानस्पतिक आवरण एवं अवरोध, स्थाई निर्माण कार्य सुविचारित फसल चक्र, फसल पद्धति, कृषि उद्यानिकी एवं कृषि वानिकी वगैरह सभी क्रियाओं को वैज्ञानिक प्रविधि के परिपेक्ष में करें।

3. तृतीय भू उपयोगिता (क्षमता) वर्ग
1. इन मृदाओं में गम्भीर समस्याएँ हो सकती है जिनके कारण,

(अ) पादन चयन समिति हो जाता है तथा
(ब) विशिष्ट भू-संरक्षण उपायों की आवश्यकता होती है।

2. जब कृषि कार्यों के लिये इन मृदाओं को उपयोग में लिया जाता है तो द्वितीय वर्ग की मृदाओं की अपेक्षा अधिक अवरोध सामने आते हैं।
3. कठिन किस्म के भू-संरक्षण उपाय करना जरूरी हो जाता है तथा उनका संरक्षण भी काफी मुश्किल होता है।
4. इन मृदाओं को फिल्ड क्रॉप्स, चारागाह, रेंज, वन्य क्षेत्र एवं वन्य जीवन, खाद्य तथा आवरणीय फसलों के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है।
5. इस वर्ग में उपस्थित समस्याएँ निम्न को सीमित करती हैं-

(अ) क्लीन कल्टीवेशन की मात्रा को
(ब) बुवाई के समय को
(ग) फसल चयन को

6. इन समस्याओं की उत्पत्ति निम्न एक या अनेक कारणों के प्रतिफलस्वरूप हो सकती है-

(अ) मध्यम ढाल
(ब) जल या वायु भू-क्षरण की तीव्र संवेदनशीलता
(स) पुरातन भू-अपरदन के गम्भीर विपरीत प्रभाव
(द) बार-बार बाढ़ग्रस्त होने से फसल नुकसान
(य) निम्न के कारण अल्प गहराई-
(i) मातृ चट्टान
(ii) हार्ड पेन (कठोर अधःस्तर)
(iii) फ्रेजी पेन
(iv) क्ले पेन इत्यादि
(v) जल निकास के पश्चात वापस गीलापन या जल प्लावन
(vi) अल्प जल धारण क्षमता
(vii) मध्यम लवणीयता अथवा क्षारीयता
(viii) मध्यम जलवायवीय समस्याएँ

तृतीय वर्ग की मृदाओं की भूमि के सम्बन्ध में निम्न नीति अपनाई जानी है ताकि इन गम्भीर समस्याओं को नियंत्रण में रखते हुए निरंतर लम्बे समय तक अधिकतम संभव फसल उत्पादन सुनिश्चित किया जा सके तथा भूमि की उर्वरा शक्ति को भी संरक्षित रखना संभव हो सके।

कृषक
तृतीय उपयोगिता वर्ग की मृदाओं में कृषक को अत्यधिक चौकन्ना हो जाना चाहिए और विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार अपने सीमित साधनों का उपयोग करते हुए फसल चयन के लेकर भूमि सुधार कार्यक्रम तक उसे एक व्यवस्थित कार्य योजना अपनानी होगी। भू-संरक्षण की दृष्टि से वानस्पतिक आवरण एवं अवरोध उसके लिये अच्छे कारगर साबित हो सकते हैं, ये कम खर्चीले होने के साथ-साथ स्थाई प्रकृति के भी होते हैं तथा अधिक प्रभावी भी रहते हैं। निर्माण कार्य काश्तकार की आर्थिक पहुँच के बाहर है किंतु फिर भी सामर्थ्यवान किसान स्थाई प्रकृति के निर्माण कार्य करवा सकते हैं।

समतलीकरण काफी महँगा कार्य है तथा अधिक ढाल होने पर या मध्यम अल्प से अल्प गहराई में इसे करवाना भी खतरनाक हो सकता है, अतः अपनी शस्य क्रियाओं का संयोजन इस प्रकार से करें कि ऐसे ढालू स्थानों पर भू-अपरदन प्रभावी तरीके से अवरुद्ध हो। ढाल को काटते हुए पट्टीदार खेती की अभिमति दी जा सकती है तथा समुच्चय खेती भी अत्यन्त उपयोगी रहती है।

इस प्रकार की मृदाओं से सीमित रूप से कृषि वानिकी एवं कृषि उद्यानिकी भी अपनाई जा सकती है यह भी कृषक के सामर्थ्य में ही हो सकने वाला कार्य है।

यदि क्षारीयता लवणीयता की मध्यम से गंभीर समस्या उत्पन्न हो रही है तो तुरन्त सुधार के उपाय किया जाना जरूरी है। यद्यपि यह काफी व्ययशील है किंतु वर्तमान में ऐसी मृदाओं के सुधार हेतु राज्य सरकार काफी अनुमानित दरों पर जिप्सम उपलब्ध करवा रही है। ऐसी मृदाओं में जैविक खेती काफी गुणात्मक परिवर्तन ला सकती है।

भू-संरक्षण एवं विस्तार कार्यकर्ता
भूमि में समस्याएँ अधिक होने से विस्तार कार्यकर्ताओं का दायित्व भी बढ़ जाता है। इस वर्ग की गम्भीर समस्यायुक्त मिट्टियों का कुशल प्रबंधन एवं पूर्ण वैज्ञानिक प्रविधि भू-सर्वेक्षण की सिफारिशों के अनुरूप ही अपनाई जानी चाहिये।

किसानों के लिये वानस्पतिक आवरण एवं अवरोधों के लिये सामयिक अनुकूलित पादपों की पौध अनुमानित दरों पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था करवानी चाहिए क्योंकि काश्तकार को पौधों की काफी मात्रा में आवश्यकता पड़ सकती है। अथवा विशेषज्ञ सलाह के अनुसार अपनी स्वयं की देखरेख में काश्तकार के खेत में ही नर्सरी तैयार करायें। नर्सरी में आर्थिक दृष्टि से उपयोगी व सक्षम आवरण व अवरोध प्रदान करने वाली प्रजातियों व प्रभेदों का चयन अत्यंत सावधानी से किया जाए क्योंकि काश्तकार के पूर्व अनुभव हमेशा उसे सचेत करते रहते हैं अतः पूर्ण सावधानी बरतनी नितांत आवश्यक है।

क्षारीय लवणीय क्षेत्रों का वर्षा से पूर्व ही मिट्टी परीक्षण करवाकर सिफारिश के अनुसार अनुदानित जिप्सम की समुचित व्यवस्था कराएँ तथा वर्षा पूर्व उसका उपयोग स्वयं की देख-रेख में ही करायें। प्रथम हरी खाद की फसल ढेंचा ही बोएँ तथा 35 से 45 दिन की फसल होने पर उसे पलटवा दें। इसके पश्चात रबी में गेहूँ की फसल लेने की सलाह दें।

4. चतुर्थ भू-उपयोगिता (क्षमता) वर्ग
1. मिट्टियों में अत्यंत गम्भीर समस्याएँ हैं जो निम्न को सीमित करती हैं-

(अ) फसल चयन
(ख) अत्यंत सावधानीपूर्ण भू-प्रबंध या दोनों की आवश्यकता हो सकती है।
2. तृतीय वर्ग की अपेक्षा इस वर्ग में समस्याएँ अत्यधिक गंभीर है तथा पादप चयन अत्यंत सीमित है।
3. जहाँ इस वर्ग की मिट्टियों में खेती की जाती है वहाँ अत्यंत सावधानीपूर्ण प्रबंध की आवश्यकता होती है। भू-संरक्षण के उपाय ज्यादा गम्भीर किस्म के तथा व्ययशील होते हैं तथा उन्हें संरक्षित भी कठिन कार्य है।
4. इस वर्ग की मृदाओं को निम्न उपयोग में लिया जा सकता है-

(अ) सीमित प्रकार की फसलें
(ब) वन्य क्षेत्र
(स) वन्य जीवन
(द) आवरणीय फसलें

5. यह मृदाएँ दो या तीन तरह की फसलों के लिये ही उपयुक्त है।
6. एकाकी अथवा एकाधिक निम्न स्थायी किस्म की समस्याओं के प्रभाव से फसल उत्पादन सीमित हो सकता है।

(अ) तीव्र सीधे ढाल (स्टीप स्लोप्स)
(ब) जल व वायु भू-अपरदन के प्रति तीव्र संवेदनशीलता
(स) पुरातन भू-क्षरण के गम्भीर प्रभाव
(द) अल्प मृदा गहराई
(य) अल्प जल धारण क्षमता
(र) बारम्बार जल प्लावन व बाढ़ग्रस्त होने से फसलों का गम्भीर विनाश
(ल) जल निकास के पश्चात अत्यधिक गीलापन व लगातार जल प्लावन से हानि
(व) गम्भीर क्षारीयता लवणीयता
(ष) मध्यम विपरीत जलवायु

7. आर्द्र क्षेत्रों में

(अ) कुछ मृदाएँ यदा कदा कृषि के लिये उपयुक्त हो सकती है किंतु नियमित खेती के लिये अनुपयुक्त होती है।
(ब) कुछ अल्प जल निकास मुक्त समतल मृदाओं में भू-क्षरण नहीं होता है किंतु अन्तः शस्य फसलों के लिये अनुपयुक्त हो सकती है क्योंकि उनके शुष्क के लिये चूने की आवश्यकता होती है।
(स) कृषि फसलों के लिये उनकी उत्पादकता अल्प होती है।
(द) कुछ चतुर्थ वर्ग की मृदाएँ एकाधिक विशिष्ट फसलों जैसे फलदार पादपों, आभूषणीय पेड़ों या झाड़ियों के लिये अच्छी उपयुक्त हो सकती हैं।

चतुर्थ वर्ग की मृदाएँ विभिन्न यूजर एजेन्सीज के लिये उपयोगी हो सकती है जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

कृषक वर्ग
इस वर्ग की मृदाओं के लिये कृषकों को यह जान लेना चाहिये कि उनकी भूमि सीमान्त रूप से कृषक श्रेणी की है जिसमें एकाधिक अति गंभीर समस्याओं का समावेश है। अतः विशिष्ट प्रबन्धकीय कौशल, सघन भू-संरक्षण उपाय, भूमि सुधार के अति व्ययशील तरीके इत्यादि अपनाये जाने नितांत आवश्यक होंगे।


एल्पाइन घासएल्पाइन घासइस श्रेणी की मिट्टियों में कभी-कभी अच्छी वर्षा के सालों में फसल लें तथा बीच-बीच में दो या तीन साल के लिये परती छोड़ें या चारागाह के रूप में इन्हें काम में लें। ऐसी मृदाओं में कृषि उद्यानिकी तथा कृषि वानिकी की विभागीय सिफारिश की गई है। कृषक को विशेषज्ञों की अभिमति से व्यवस्थित योजना बनानी होगी ताकि फलदार पौधें और वानिकी पादप प्रभावी तरीके से भूमि को संरक्षित करते हुए उसे आर्थिक संबल भी प्रदान करें।

मृदाओं में गहराई की अति गम्भीर समस्या हो सकती है अतः उपयुक्त पादपों को शुरुआती दौर में जमाने के लिये मिट्टी की आवश्यकता होगी। ऐसी भूमि में कुओं का निर्माण इस प्रकार किया जाना ज्यादा समायोजित होगा कि आस-पास की बहकर आने वाली मिट्टी व पानी उनमें भरें तथा उन्हें संरक्षित भी करें। अनुकूल प्रजातियों का चयन भी कृषक को विशेषज्ञों की राय व अपने परम्परागत अनुभव में सामंजस्य बिठाते हुए करना होगा। उदाहरणार्थ विभागीय सिफारिशें ऐसी मृदाओं में टोटलिस के पौधें लगाने की है किंतु काश्तकार देशी बबूल में ज्यादा रूचि रखते हैं क्योंकि देशी बबूल आर्थिक दृष्टि से उसके ज्यादा अनुकूल पड़ता है जबकि भू-अपरदन नियंत्रण में इन दोनों प्रजातियों की भूमिका लगभग एक जैसी है। अरस्तु फील्ड कार्यकर्ताओं को, कृषक की माँग और अनुभव को अवश्य उचित स्थान दिया जाना चाहिए।

भू-संरक्षण एवं विस्तार कार्यकर्ता
पूर्व वर्णित उप वर्गों (सब क्लासेज) करें मध्यनजर रखते हुए समस्या की तीव्रता (डिग्री) के अनुसार कारगर कार्य योजना बनाकर व्यवस्थित प्रयत्न आवश्यक है। मानसून प्रारंभ होने से पूर्व ही फलदार पौधों अथवा कृषि वानिकी के पादपों की समुचित व्यवस्था तथा खेत में गड्डे खुदवाने उन्हें वैज्ञानिक विधि से भरवाने की पूर्व तैयारियाँ करनी जरूरी है। विशिष्ट समस्या की तीव्रता की दृष्टि से पादपीय अवरोधों व आवरण की दूरी तय करनी होगी जिससे प्रभावी ढंग से जल व भूमि का संरक्षण हो सके।

सुनियोजित तरीके से उपरोक्त कार्यक्रम अपनाने से पूर्व ही खेत के चारों तरफ फेंसिंग (तारबन्दी) बाड़ अथवा डोली की व्यवस्था करानी आवश्यक है। सबसे अच्छी फेन्सिंग कांटेदार तारों की होती है किंतु साथ ही यह अत्यधिक महँगी होने से सामान्य किसान की पहुँच से बाहर होती है। अरस्तु इन परिस्थितियों में लाइव फेंसिंग (कंटिली झाड़ियों की फेंसिंग) सर्वोत्तम रहती है। इस प्रकार के फेंसिंग के लिये नागफनी की एक मीटर की दूरी पर दो कतारें उगाना सबसे अच्छा रहता है। इसके अलावा जलवायवीय परिस्थितियों के अनुसार बेरी या मुमटा (अकेसिया कटेचू विलायती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा Prosopis juliflora) अथवा रतनजोत को भी इस काम के लिये विकसित किया जा सकता है। चूँकि खड़े ढलान की मृदाओं की जल धारण क्षमता अल्प हो सकती है अथवा अधिकतर जल बहकर चला जाता है जिसके कारण नमी में कमी हो सकती है अतः प्रथम वर्षा के साथ ही लाइव फैन्सिंग फलदार पौधों और कृषि वानिकी के पौधों की बुवाई की जानी चाहिए।

यदि तीव्र गति से बहते पानी के लिये अलावरोधों जैसे एलएसडी, नाला बंडिंग, वगैरह के कच्चा या पक्के निर्माण कार्य कराये जाते हैं तो यह कार्य मई जून तक ही कार्य करवा लेना चाहिए तथा वर्षा शुरू होते ही वानस्पतिक अवरोधों व आवरण का इन्हें सहयोग अवश्य मिलना चाहिए। यदि नर्सरी के तैयार पौधें नहीं हो तो अच्छी तरह से डोरमेंट ब्रेक किये हुए पादपों के बीज की ही बुवाई इन निर्माण कार्यों के ऊपर व आस-पास आवश्यक रूप से करनी चाहिए। यदि ढाल ज्यादा है तो गैबियन्स का निर्माण करायें अन्यथा तीव्र जल प्रवाह पहली ही तेज वर्षा में एलएसडी को अस्त-व्यस्त या छिन्न-भिन्न कर सकता है। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि एलएसडी अथवा गैबियन्स में आस-पास में सुगमतापूर्वक जितने बड़े से बड़े पत्थर उपलब्ध हो उनका प्रयोग करें।

इस वर्ग की मृदाओं में फसल, घास व पेड़ों के मिश्रण का समावेश ही सर्वोत्तम रहता है। घास में शीघ्र बढ़ने वाली तथा फैलने वाली घासों का चयन किया जाय। काजरी जोधपुर तथा केन्द्रीय घास अनुसंधान केन्द्र झांसी द्वारा कुछ उत्कृष्ट घासों के प्रभेद तैयार किये गए हैं। इन घासों की उत्पादकता लगभग 40 क्विंटल 7 हेक्टेयर तक की जा सकती हैं।

ये मृदाएँ अल्प उर्वरता स्तर की होती है अतः फसलों, घासों व पादपों में दाल वाले पादपों का समावेश आवश्यक रूप से किया जाय। प्रथमतः ये उनकी पौष्टिकता और गुणवत्ता में सुधार करेंगी। इसके अलावा इनकी जल व भूमि संरक्षण क्षमता भी अन्य श्रेणी की फसलों से अधिक होती है तथा कृषक के लिये आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त है।

मरुस्थलीय क्षेत्रों में गर्मी की तेज हवाओं, अंधड़ों व तूफानों से वायु भू-अपरदन अत्यंत तीव्र हो जाता है। यह भू-क्षरण सरफेस कीप, साल्टेशन व सस्पेंशन की प्रक्रिया द्वारा पूरा होता है। 90 प्रतिशत क्षरण प्रथम दो क्रियाओं द्वारा ही सम्पन्न होता है जिसमें मृदाकण अधिकतम एक से डेढ़ फुट की ऊँचाई तक उछलते हुए गमन करते हैं। अरस्तु मल्चिंग द्वारा या तो पूर्ण जैविक आवरण प्रदान किया जाय अन्यथा इनके मार्ग में न्यूनतम 45 सेन्टीमीटर ऊँचाई के अवरोध खड़े किये जाएँ जिससे इस पर 90 प्रतिशत तक नियंत्रण पाया जा सके। काजरी जोधपुर में किये गये प्रयोग से निष्कर्ष निकाला गया है कि यदि बाजरे की फसल को 45 सेंटीमीटर की ऊँचाई पर से काटा जाए तथा उसके ठूंठ सुरक्षित ढंग से खेत में रखे जाएँ तो वायु भू-क्षरण को प्रभावी तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त वायु की विपरीत दिशा में (वायु की प्रवाह की दिशा को काटते हुए वायु अवरोधक की 3 पंक्तियाँ लगानी चाहिए। इसमें पेड़ों का चयन इस प्रकार से किया जाए कि नीचे से ऊपर तक पूर्ण सुरक्षा कवच मृदा को प्राप्त हो सके। वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाले हैं कि वायु अवरोधक अपनी ऊँचाई से 30 गुणा दूरी तक भूमि को संरक्षित करने में समर्थ होते हैं। अतः इस दूरी के बाद दूसरी विउ वायु अवरोधक की पट्टी लगाई जानी ज्यादा उपयुक्त रहती है। शस्य क्रियाओं का समायोजन भी व्यवस्थित ढंग से वैज्ञानिक विधि अपनाते हुए जल व वायु भू-संरक्षण को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इसमें पट्टीदार खेती, मिश्रित फसलें, सुविचारित फसल चक्र, कवर क्रॉप्स क्लोप को काटते हुए खेती, समुच्च रेखाओं पर खेती व सिंचाई आदि सम्मिलित हैं।

क्षारीय मृदाओं के लिये
क्षारीय मृदाओं के सुधार हेतु राष्ट्रीय क्षारीय लवणीय मृदा अनुसंधान संस्थान, करनाल ने निम्न तकनीक अभिमत की हैं-

1. क्षेत्र को समतल करें तथा चारों तरफ मजबूत डोलियाँ बनाएँ।
2. वर्षा के अतिरिक्त जल के निकास की समुचित व्यवस्था करें।
3. नजदीकी उपलब्ध मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला से जाँच करायें जिससे समस्या की प्रकृति और मात्रा ज्ञात की जा सके तथा तदनुसार ही सुधारकों की मात्रा का निर्धारण किया जा सके।
4. मई माह में चूर्ण में जिप्सम की समुचित मात्रा भूमि की ऊपरी 10 से.मी. सतह में मिलाएँ।
5. यदि उपलब्ध हो तो जिप्सम मिलाने के पश्चात 10 से 15 दिन तक अच्छी किस्म का पानी खेत में खड़ा रहने दें और यदि वह अनुपलब्ध है तो खेत को वर्षा के लिये छोड़ दें।
6. करनाल घास/पारा घास या बरमूडा घास खरीफ की पहली फसल के रूप में उगायें।
7. अधिक उपज देने वाली घास व सहनशील फसलों का चयन करें।
8. पादप संख्या सामान्य से अधिक रखें
9. समय पर तुलनात्मक रूप से बड़े पौधें लगाएँ।
10. सिफारिश की गई कि नत्रजन की सामान्य मात्रा से नत्रजन की मात्रा 25 प्रतिशत अधिक दें।
11. जस्ता उर्वरक भी अवश्य दें।
12. रबी में गेहूँ/बरसीम या जौ बोयें।
13. गेहूँ में नत्रजन की मात्रा 25 प्रतिशत अधिक दें।
14. गेहूँ के अधिक उपज देने वाले प्रभेद राज 3077, राज 1972 तथा के-65।
15. गेहूँ में हल्की और बार-बार सिंचाई करें।
16. यदि अच्छी किस्म का सिंचाई जल उपलब्ध है तो गर्मी में ढेंचा की हरी खाद की फसल लें।
17. कम से कम तीन साल यह फसल चक्र अपनाएँ।
18. अधिक समय तक खेत को खाली नहीं रखें।

लवणीय मृदाओं के लिये
लवणीय मृदाओं के सुधार हेतु निम्न तकनीक अपनाई जा सकती है-
1. मिट्टियों को सिंचाई या वर्षा के जल से लीच (निक्षालन) करें। भूमि में अतिरिक्त लवणों को हटाने का यह एक मात्र तरीका है।
2. खेत में जल निकास का समुचित प्रबंध कर लीचिंग प्रभावी तरीके से की जा सकती है।
3. भूमि से हटाये गए लवणों की मात्रा पूरी तरह पानी की किस्म के बजाय भूमि में से पास होने वाले पानी की मात्रा पर निर्भर करती है।
4. लवण हटाने वाला जल जड़ क्षेत्र से नीचे चला जाना चाहिए अतः धरातलीय सीपेज द्वारा डिस्चार्ज हो जाना चाहिये या नालों में बह जाए अथवा कृत्रिम जल निकास सिस्टम द्वारा हटाया जाय।
5. सुधार के लिये जल मात्रा का जहाँ तक सम्बन्ध है वह विशेषज्ञों की राय के अनुसार प्रयोग किये जाएँ।
6. बहुधा लवणीयता को उसकी मूल मात्रा से पाँचवे हिस्से तक घटाने के लिये जितनी इकाई भूमि गहराई की है उतनी ही इकाई पानी की गहराई की होनी चाहिए।
7. उदाहरणार्थ यदि ऊपरी सतह की 60 सेन्टीमीटर मृदा में लवणों की मात्रा पाँचवे हिस्से तक कम की जानी है तो 60 से.मी. पानी पास करने की जरूरत होगी।
8. पूरे सुधार के लिये बहुत ही कम मामलों में 100 सेन्टीमीटर से अधिक पानी पास करने की आवश्यकता होती है।

अन्य वर्गों के लिये
अन्य वर्ग यथा वानिकी, सार्वजनिक निर्माण विभाग, डेयरी विकास, सिंचाई तथा ऋण दात्री संस्थाओं के लिये इन मृदाओं का उपयोग हो सकता है।

चूँकि इन मृदाओं की उत्पाद क्षमता अधिक नहीं है। अच्छा यह होगा कि ऐसी मृदाओं पर सामाजिक वानिकी अथवा कृषि वानिकी या कृषि उद्यानिकी को बढ़ावा दिया जाए जिसमें फसलों, घास व फलों का उत्पादन कर कृषक की सभी प्रकार की आवश्यकताओं यथा खाद्यान्न, चारा, ईंधन वगैरह की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा ऐसी मृदाओं पर निर्माण कार्य यथा भवन, सड़कें, बांध पुल वगैरह का निर्माण अति आवश्यक स्थिति में ही करवाएँ। डेयरी और पशुपालन विभाग भी इन मृदाओं का उपयोग चारागाह विकास हेतु कर सकते हैं। सिंचाई विभाग द्वारा ऐसी मृदाओं पर सिंचाई देने के पूर्व अत्यन्त सावधानीपूर्वक सिंचाई जल प्रबंधन की व्यवस्था करनी होगी अन्यथा जल प्लावन व सीमा की समस्या पैदा हो सकती है।

ऋणदात्री संस्थाओं को इन मृदाओं का आकलन इनके वैज्ञानिक वर्गीकरण के आधार पर ही करना चाहिए।

4.3.2 अकृष्य मृदाएँ (वर्ग पंचम से अष्टम)
इस प्रकार की मृदाएँ कृषि के लिये उपयुक्त नहीं हैं किंतु उन्हें चारागाह विकास, वानिकी, मनोरंजन, वाटर सप्लाई, वन्य जीवन विकास जैसे कार्यों के लिये भली प्रकार उपयोग में लिया जा सकता है।

5. पंचम (उपयोगिता क्षमता वर्ग)
(क) ऐसी मृदाएँ कम या नहीं के बराबर होती हैं। इनमें ऐसी समस्याएँ होती है जिनके कारण इनका उपयोग निम्न के लिये सीमित हो जाता है।

(अ) चारागाह (पाश्चर)
(ब) रेंज (घास के मैदान)
(स) वानिकी एवं वन्य जीवन भोजन तथा
(द) आवरण

(ख) ये मृदाएँ पादपों के प्रकार को सीमित करती हैं तथा कृषक क्रियाओं को भी अवरुद्ध करती हैं।
(ग) भूमि लगभग समतल होती है किंतु कुछ मामलों में गीली हो सकती है या आस-पास के नदी नालों से जल प्लावित होता है अथवा बाढ़ से प्रभावित रहती है। यह पथरीली हो सकती है या इसमें जलवायवीय कमियाँ हो सकती है अथवा ये सब सामूहिक रूप से भी हो सकती है।
(घ) इस तरह की मिट्टियों के उदाहरण-
(अ) तलहटी क्षेत्र की मृदाएँ जिनमें बार-बार जल प्लावन होता रहता है जिसके कारण सामान्य फसलों को उगाना अवरुद्ध हो जाता है।
(ब) ऐसे बुवाई के मौसम के साथ समतल भूमि जिसमें सामान्य फसलों की खेती संभव नहीं हो सकती/पाती है।
(स) समतल से लगभग समतल पथरीली और चट्टानी भूमि।
(द) निचले कटोरीनुमा क्षेत्र जिनमें कृषि फसलों के लिये जल निकास संभव नहीं है किंतु वे घासों और पादपों के लिये उपयुक्त हैं।
(ङ) इन कमियों के कारण सामान्य फसलों का उत्पादन संभव नहीं हो पाता है किंतु इनमें चारागाहों का विकास किया जा सकता है तथा प्रबन्धकीय कौशल द्वारा अच्छे लाभ की आशा की जा सकती है।
इस वर्ग की मृदाएँ विभिन्न वर्गों के निम्न प्रकार से उपयोगी सिद्ध हो सकती है-

काश्तकारों के लिये
यद्यपि सामान्य फिल्ड क्रॉप्स की दृष्टि से ऐसी मृदाएँ विशेष उपयोगी नहीं हैं फिर भी कुशल प्रबन्धकीय कौशल व वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके इन्हें आर्थिक दृष्टि से उपयोगी बनाया जा सकता है।

ऐसी भूमि में अच्छे चारागाह का विकास किया जा सकता है लेकिन घासों की प्रजातियों का चयन अत्यंत बुद्धिमत्तापूर्वक तथा विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार करना होगा। शुष्क, अर्द्धशुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों के लिये सूखा अवरोधी एवं सूखा सहनशील जीरो फाइटिक प्रजातियों का चयन समीचीन होगा जबकि आर्द्र व दलदली क्षेत्रों के लिये हैलोफाइटिक प्रभेद ज्यादा उपयुक्त रहेंगे। शुष्क क्षेत्रों के लिये काजरी जोधपुर व केन्द्रीय घास अनुसंधान संस्थान, झांसी ने अनेक उन्नत प्रजातियाँ विकसित की हैं जिनका वर्णन पूर्व में दिया जा चुका है। आर्द्र क्षेत्रों में हाथी घास अथवा पूसा जाइन्ट जैसी घास काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती हैं। घास के मैदानों को चराई के रूप में काम में लेने के लिये तो कृषक को योजनाबद्ध तरीके से क्रमिक व नियंत्रित पाराई के तरीकों को अपनाना होगा जिससे चारागाह की घासों का स्वतः स्फूर्त पुनर्जनन सुनिश्चित किया जा सके। इसके लिये काजरी जोधपुर ने कम्पार्टमेन्टल ग्रेजिंग की सिफारिश की है जिसका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

कम्पार्टमेंट ग्रेजिंग
चारागाह के पूरे क्षेत्र को तीन भागों में विभाजित किया जाता है जिनमें से पहले साल प्रथम व द्वितीय भाग में क्रमिक व नियंत्रित रूप से चराई की जाती है जबकि तृतीय भाग को सुरक्षित रखा जाता है जिससे उसमें बीज बने तथा घासों का पुनर्जनन सम्भव हो सके। द्वितीय वर्ष में पहले कम्पार्टमेन्ट को सुरक्षित रखते हैं और दूसरे व तीसरे भाग में क्रमिक नियंत्रित चराई करते हैं। तीसरे साल द्वितीय भाग को सुरक्षित रखा जाता है। बाद में इसी क्रम को दोहराया जा सकता है।

फील्ड की मेड़ों पर आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अनुकूल वृक्षों को लगाया जा सकता है जिससे कृषक की ईंधन लकड़ी व पशुओं के लिये चारे की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। भू-संरक्षण एवं विस्तार कार्यकर्ता तकनीकी अधिकारियों को उप वर्ग (सब क्लास) की समस्याओं को दृष्टिगत रखकर शुष्क और आर्द्र क्षेत्रों के लिये उन्नत प्रजातियों का चयन तथा बीजों व अन्य आदानों की व्यवस्था करनी होगी।

प्रायः देखा गया है कि चारागाह विकास में कृषक विशेषज्ञों की सलाह पर पूरा ध्यान नहीं देता है जिससे उसे वांछित लाभ नहीं हो पाता है अतः प्रभारी अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि कृषक वैज्ञानिक प्रविधि की सिफारिश के अनुरूप ही सारे कार्य करें ताकि वह चारे की फसलों का अधिकतम संभव उत्पादन कर बाजार में अच्छा लाभ प्राप्त कर सके।

प्रायः देखा गया है कि चारे की फसलें उर्वरकों का बहुत अच्छा रिस्पॉन्स (प्रत्युत्तर) देती है। अतः चारे की फसलों में उर्वरक का उपयोग करवाने का प्रयास किया जाना फायदेमंद होगा। विभिन्न चारे की फसलों में पौष्टिकता के तत्व को ध्यान में रखते हुए पशुओं को संतुलित आहार उपलब्ध करवाने हेतु ग्रास-लिग्यूम का मिश्रण सर्वाधिक अच्छा रहता है। कुछ प्रचलित ग्रास लिग्यूम मिश्रण निम्न प्रकार है-

(अ) अंजन घास+मोठ या ग्वार आवा फील्ड बीन्स
(ब) मांस घास+होर्स घास
(स) लाल घास+फील्ड बीन या ग्वार
(द) दीनानाथ घास+खार
(य) सैन घास+ग्वार या मोठ अथवा फील्ड बीन इत्यादि

बाजार की माँग के अनुसार घास उगाने के पैटर्न में भी परिवर्तन किया जाना जरूरी है।

अन्य वर्गों के लिये
वानिकी विभाग ऐसी मृदाओं में जलवायवीय दृष्टि को ध्यान में रखते हुए अच्छे चारागाह वन अथवा चारागाह विकसित कर सकता है। प्रजातियों का चयन उपलब्ध नमी के अनुसार ही किया जाना चाहिए।

आर्द्र जल प्लावित क्षेत्रों में खजूर (डेट पाम), पलासा (ब्यूटिया फोच्छासा अथवा भटिया मोनोस्पर्शा) जैसे पेड़ों को वरियता दी जाए जबकि शुष्क खेतों में खेजड़ी, टोटलिस देशी बबूल, जूली फ्लोरा अधिक उपयुक्त रहेगा ये पेड़ आर्द्र से लेकर अतिशुष्क स्थानों पर भी सुगमतापूर्वक उगाये जाते हैं।

सार्वजनिक निर्माण विभाग कुछ मृदाओं जैसे पथरीली व चट्टानी भूमि में निर्माण कार्य भली-भांति करवा सकते हैं। ऐसी भूमि सड़क निर्माण के लिये भी ठीक रहती किंतु गीली और जल प्लावित भूमि में निर्माण कार्यों की उपेक्षा की जानी चाहिए।

डेयरी और पशुपालन विभाग अपने पशुओं के लिये चारागाह इस वर्ग की भूमि में ही विकसित करें। यदि पथरीली समतल भूमि है तो डेयरी के निर्माण कार्य भी करवाये जा सकते हैं। अकृष्य श्रेणी की मिट्टियाँ होने के कारण सिंचाई मकहमे के लिये ये मृदाएँ विशेष उपयोगी नहीं है।

ऋणदात्री संस्थाएँ यदि चारागाह विकास के लिये ऋण प्रदान करती है तो इन मृदाओं के चारागाह के लिये उपयुक्त होने के कारण ऋण दिया जा सकता है। फिर भी विशेषज्ञों की राय अवश्य ली जानी चाहिए।

6. षष्टम भू उपयोगिता (क्षमता) वर्ग
(क) इस वर्ग की मिट्टियों में गम्भीर समस्याएँ होती है जो उनके उपयोग को कृषि के लिये अनुपयुक्त बनाती है तथा उन्हें चारागाह घास के मैदान, वुडलैंड (वन) वन्य जीवन भोजन तथा आवरणीय उपयोगों के लिये सीमित करती हैं।
(ख) इस वर्ग की मृदाओं में निम्न गम्भीर समस्याएँ होती है जिनका सुधार नहीं किया जा सकता या आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद नहीं है।
(अ) तीव्र ढाल (स्टीप क्रॉप्स)
(ब) पथरीलापन
(स) गम्भीर भू अपरदन
(द) पुरातन भू-क्षरण के प्रभाव
(य) उथला जड़ क्षेत्र
(र) अत्यधिक गीलापन या जल प्लावन
(ल) अल्प जल व पोषक-तत्व धारण क्षमता
(व) अत्यधिक क्षारीयता लवणीयता
(ग) उपरोक्त एकाधिक समस्याओं के कारण ये मृदाएँ कृषि फसलों के लिये उपयुक्त नहीं हैं।
(घ) इन्हें निम्न में से किसी उपयोग में लिया जा सकता है।

(क) चारागाह
(ख) घास के मैदान
(ग) वानिकी
(द) वन्य जीवन भोजन
(य) आवरण
(ल) इनका कोई न कोई समूहन
(ङ) इस वर्ग की कुछ मिट्टियाँ विशिष्ट फसलों के लिये भी अनुकूल हो सकती है। उदाहरणार्थ

(अ) घास के मैदान
(ब) ब्लूबेरीज इत्यादि

इन्हें सामान्य फसलों की अपेक्षा विशिष्ट परिस्थितियों की आवश्यकता होती हैं।

(च) मृदा गुणों व स्थानीय जलवायु के अनुसार ये मृदाएँ वानिकी के लिये अच्छी या बहुत कम उपयुक्त हो सकती है।
विभिन्न यूजर एजेन्सीज के लिये इन मृदाओं के भिन्न-भिन्न उपयोग हो सकते हैं जिनका संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है-

कृषक वर्ग
इस वर्ग की मृदाओं में गम्भीर किस्म की समस्याएँ होने के कारण कृषक को विशेषज्ञों की राय के अनुसार इनका चारागाह अथवा वानिकी के लिये उपयोग करना चाहिए ताकि उन्हें आर्थिक लाभ हो व मृदा में और कोई गम्भीर समस्या पैदा न हो। इस वर्ग की मृदाओं के लिये काजरी जोधपुर ने सील्वी पाश्चर टेक्नोलॉजी विकसित की है जिसका विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में पूरा उपयोग किया जाए।

सिल्वी पाश्चर टेक्नोलॉजी
सिली पाश्चर तकनीकी की दो स्टेज प्रमुख हैं-

1. चारे की उत्तम किस्मों का विकास
2. चारागाहों में भरपूर घास उत्पादन हेतु रिसेंडिंग करना

इन दोनों स्टेजों का इस प्रकार तालमेल बैठाना चाहिए कि एक चारागाह घास से ढके हुए क्षेत्र में 60-100 वृक्ष प्रति हेक्टेयर औसतन पनपते रहे जो कि स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं के आधार पर हो। इस क्षेत्र में कम से कम 3-4 वर्ष तक चराई नहीं करवाएँ ताकि चारागाह का विकास सही ढंग से हो सके। विकल्प के रूप में घास व वृक्ष अलग-अलग कतारों में भी विकसित किये जा सकते हैं।

खेजड़ी, अरडू जैसे वृक्ष इस तकनीक में उत्कृष्ट उत्पादन दे सकते हैं। घास के लिये ब्रिक रिसेक्टेकल तकनीक काजरी जोधपुर द्वारा विकसित की गई है। मानसून के आने पर 9-12 महिने की पौध को नर्सरी से निकाल कर निर्धारित क्षेत्र में लगा दिया जाता है। विस्तृत जानकारी हेतु काजरी, जोधपुर से सम्पर्क किया जा सकता है।

भू-संरक्षण एवं कृषि विस्तार कार्यकर्ता
गम्भीर समस्याओं के कारण इन मृदाओं का विकास अत्यन्त सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध तरीके से करना होगा। कुछ सुझाव निम्न प्रकार उनके उपयोग के लिये दिये जा रहे हैं-

तीव्र ढालों पर भू-अपरदन रोकना व घास अथवा वृक्ष विकसित करना बहुत मुश्किल होता है अतः विशिष्ट तकनीकें अपनानी नितांत आवश्यक है यथा

(क) भू-अपरदन न्यूनतम करने के लिये शीघ्र बढ़ने वाली तथा फैलने वाली घासों की स्थापना करें।

(ख) सोडिंग की अपेक्षा सीडिंग (बीजों से बुवाई) करें क्योंकि सोडिंग अत्यधिक व्ययशील है। उसके लिये काफी मजदूरों की आवश्यकता होती है तथा परिवर्तनशील परिणाम प्राप्त होते हैं।

(ग) निम्न प्रक्रिया अपनाएँ
(अ) ढालों का समान रूप से ग्रेडिंग करें
(ब) उर्वरकों का प्रयोग करें।
(स) मिट्टी में बीजों को मिलने के लिये दंताली (रेक) का प्रयोग करें,
(द) बीजों को छितरा कर बिखेरें
(य) मिट्टी को दबा दें।
(घ) अपरदित तथा अनुउर्वरक मिट्टियों में एन.पी.के. मिश्रित उर्वरकों का भारी मात्रा में प्रयोग करें।
(ङ) घास के शुरूआती दौर में बीजों को सतह पर जमाने के लिये तीव्र ढलानों पर तार की जाली और फसल अवशेष (डंठल) या 1 मी. x 30 मी. साइज का सामूहिक रूप से उपयोग करें।

अत्यधिक जल भू-क्षरण से अनेक अवनलिकाएँ बन जाती है जो कि शीर्षस्थ (हेडवार्ड) इरोजन व मासवेस्टिंग के जरिये बहुत मात्रा में मिट्टी का कटाव कर अपने साथ ले जाती है अतः इन अवनलिकाओं द्वारा भू-क्षरण तुरंत रोकने के उपाय किये जाने चाहिए। अवनलिका नियंत्रण हेतु निम्न उपाय अपनाएँ-

(अ) जहाँ तक संभव हो अवनलिका (गली) में से बहने वाले पानी की मात्रा में कमी लाएँ।

(ब) अवरोधी नालियाँ (डिचेज) बनाकर अवनलिका शीर्ष को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करे। अवरोधी नालियों पानी को ट्रीटेड एरिया में फैला देगी। गली की दीवार के साथ-साथ कुछ-कुछ अन्तराल पर हैरिंग बोन पैटर्न पर डाइवर्जन डिचेज बनाएँ जो कि गली साइड स्लोप का जल ट्रीटेड एरिया में ले जाकर फैला देगी।

(स) वी आकार की गलीज (अवनलिकाओं) में यह आसानी से किया जा सकता है किंतु सीधी दीवारों वाली यू आकार की अवनलिकाओं में डिचेज-बीधी दीवार के ऊपरी किनारे से जितना संभव हो शुरू होनी चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण है कि पूरे क्षेत्र व अवनलिका को सुरक्षित किया जाना चाहिए।

(द) अवनालिका की सतह पर गली प्लग्स व सिल्ट ट्रैप्स का प्रयोग करें।
(य) गली में ही मिलने ले मैटिरियल का अधिकतम संभव उपयोग करें।
(र) गली प्लग्स, गली की दीवारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये गैबियन्स का प्रयोग करें। वे इस कार्य में सर्वोत्तम सिद्ध हुए हैं।
(ल) यांत्रिकी निर्माण को सुदृढ़ करने के लिये पादप ट्रैप्स का प्रयोग करें।
(व) गली का सीधा शीर्ष और दीवारें शीघ्र ही गिरती है तथा गली वी आकार की हो जाती है गैबियन्स के प्रयोग के पश्चात यह बहुत धीरे-धीरे होगा तथा गली की सतह तथा पास पड़ोस में लगाई गई वनस्पति, क्षरित मिट्टी एवं अन्य पदार्थ का अवस्थापन कर देती हैं।

(ष) लम्बे ढालयुक्त बड़े खेतों में या विशिष्ट मामलों के अलावा जटिल यांत्रिक निर्माण कार्य नहीं करायें क्योंकि ये थोड़े समय बाद नष्ट हो जाते हैं।

(श) बहुवर्षीय पादपों की स्ट्रिप क्रॉपिंग (पट्टीदार खेती) ऐसे एलाने को काट देती है, अपरदन के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती हैं।

भू-अपरदन के प्रयास के साथ ही साथ स्वादिष्ट किस्म की पोषक घास भी लगाएँ जिससे कृषक को आर्थिक लाभ भी होगा। ईंधन व लकड़ी की माँग पूर्ति के लिये अच्छी प्रजातियों का चयन कर पेड़ भी लगाएँ।

अन्य वर्गों के लिये उपयोग
पशुपालन व डेयरी विभाग वाले इस वर्ग की भूमि को पशुओं के लिये चारागाह विकास के काम में ले सकते है किंतु चराई क्रमिक व नियंत्रित होनी चाहिए तथा सारा कार्य वैज्ञानिक विधि से किया जाए।

सिंचाई विभाग के लिये ऐसी मृदाओं का कोई विशिष्ट उपयोग नहीं है किंतु राजस्थान के पहाड़ी इलाकों में यह देखने में आया है कि नहरें पथरीली (षष्टम वर्ग) भूमि में से होकर ही निकलती है तथा वहाँ जो कुछ भी सिंचाई के लिये भूमि उपलब्ध है वह इसी वर्ग की है। अतः लाजिमी तौर पर वहाँ सिंचाई करनी होती है। यदि ऐसी मृदाओं में सिंचाई की जाती है तो समोच्य रेखाबन्दी की सिंचाई तकनीक अवश्य अपनाई जानी चाहिए वरना सिंचाई का जल ही भू-अपरदन का कारण बन सकता है।

ऋणदात्री संस्थाओं द्वारा सीमित रूप में चारागाह विकास हेतु ऋण दिया जा सकता है किंतु यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि इन मृदाओं की रिपेयरिंग क्षमता अत्यंत अल्प है। मृदाएँ वानिकी विकास हेतु उपयुक्त है किंतु भू-अपरदन रोकने के उपाय साथ के साथ किये जाएँ जिससे शुरुआती वर्षों में वानस्पतिक आवरण का जमाव भली-भाँति हो सके। आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त पादपों द्वारा ही वृक्षारोपण कराया जाए।

राजस्व विभाग को भू-क्षमता का ध्यान रखते हुए ही कर निर्धारण वैज्ञानिक आधार पर करना चाहिए। इस विभाग को विभिन्न जनहित के कार्यों हेतु भूमि अवाप्त करनी होती है। अतः अकृष्य होने से इस प्रकार की भूमि अवाप्ती में कोई बाधा नहीं है।


पामारोजा (रोशा घास)पामारोजा (रोशा घास) 7. सप्तम भू उपयोगिता (क्षमता) वर्ग
(क) इस वर्ग की मृदाओं में अति गम्भीर समस्याएँ हैं जिसकी वजह से वे कृषि के लिये अयोग्य है तथा वे उनके प्रयोग को चराई वानिकी तथा वन्य जीवन के लिये सीमित करती हैं।

(ख) मिट्टियों की भौतिक दशा इस प्रकार की है कि इनमें चारागाह व घास के मैदान विकसित करने के निम्न उपायों को उपयोग में नहीं लिया जा सकता है-

(अ) सीडिंग (बुवाई)
(ब) लाइमिंग (चूना उपयोग)
(स) फर्टीलाइजेशन (उर्वरीकरण) और
(द) जल नियंत्रण यथा फरोज नालियाँ (डिचेज), डाइवरजन्स या वाटर-स्प्रेडर्स
(ग) अवरोध षष्ठम वर्ग की अपेक्षा अधिक गम्भीर है जो कि एकल अथवा एकाधिक समूहन में निम्न कमियों के कारण उत्पन्न हो सकते हैं-

(अ) अत्यधिक सीधे ढाल
(व) तीव्र अपरदन
(स) उथली मिट्टी
(द) पत्थर
(य) गीली मिट्टी
(र) क्षार और लवण
(ल) अनुपयुक्त जलवायु
(घ) इन्हें चराई, वानिकी, वन्य जीवन खाद्य एवं आवरण के रूप में उपयोग कर सकते हैं अथवा कुशल प्रबंध द्वारा सामूहिक उपयोग हेतु काम में ले सकते हैं।

(ङ) सामान्य परिस्थितियों में यह मिट्टियाँ किसी भी कृष्य फसल के लिये उपयुक्त नहीं है। समाज के विभिन्न वर्गों के लिये मृदाओं के सीमित उपयोग का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार दिया जा सकता है-

कृषक वर्ग
अति गम्भीर समस्याओं के कारण ये मृदाएँ मुख्यतः वृक्षारोपण के ही उपयोग में ली जानी चाहिए। विशेषता की राय के अनुसार पूरे क्षेत्र की सुरक्षा का प्रबंध करें तथा जलवायवीय दृष्टि व मृदा गुणों के अनुरूप आर्थिक दृष्टि से जलवायवीय उपयुक्त प्रजातियों का चयन करना चाहिए जिससे कुशल प्रबंधन से अच्छे लाभ के आसार बन सके।

भू-संरक्षण एवं विस्तार कार्यकर्ता
(क) जहाँ विद्यमान वनस्पति में और पेड़ लगाने की आवश्यकता हो, वहाँ पूरक वृक्षारोपण कराएँ।
(ख) जहाँ इस प्रकार की वनस्पति का अभाव है वहाँ पूरे क्षेत्रों में सघन वृक्षारोपण कराएँ।
(ग) सीधे तीव्र ढलानों तथा अपरदनीय मृदा वाले क्षेत्रों में प्रारम्भिक अवस्था में बेसिन्स और स्टेप्स जैसे भौतिक निर्माणों की आवश्यकता हो सकती है अतः ऐसे निर्माण कराएँ तथा उनका समुचित उपयोग करें।
(घ) कूड़ा करकट, पत्तियों वगैरह को जलाने या कम्पोस्टिंग के लिये ले जाना बन्द करवा दें।
(ड) चराई और कटिंग के विरुद्ध कई वर्षों तक सुरक्षा की पूर्व व्यवस्था करें।
(च) केवल बाहरी क्षेत्रों में फोरेज और फीडिंग के लिये कटाई करने दें।
(छ) वृक्षारोपण के बाद उर्वरकों का प्रयोग करें जिससे वृद्धि में तेजी लाई जा सके।
(ज) अच्छे स्टेण्ड की स्थापना के लिये वीडिंग थिनिंग की प्रक्रिया अपनाएँ।
(झ) फायर ब्रिक्स की तकनीकी अपनाएँ।
(य) सड़कें कम से कम रखें। केवल निरीक्षण कार्य हेतु कुछ सड़कें रखें।
(ट) कई वर्षों की पूर्ण सुरक्षा के पश्चात ईंधन के लिये हार्वेस्टिंग पर विशेष ध्यान दें।
(ठ) डाइवर्जन तथा इन्सेप्शन डिचेज के माध्यम से गलीज को विशेष रूप से ट्रीट करें।
गली प्लग्स और सिल्ट ट्रैप्स का प्रयोग करें।

क्षारीय लवणीय मृदाओं में पौधों का जमना काफी मुश्किल पड़ता है अतः उनके लिये विशेष तकनीक अपनानी होगी। राष्ट्रीय क्षारीय लवणीय मिट्टी अनुसंधान केन्द्र करनाल (ने कुछ विशेष तकनीकें विकसित की हैं जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है)

1. यदि क्षारीय मिट्टियों को सुधारना संभव नहीं हो पाता है तो उनमें बिना किसी सुधारक (एमेंडमेंट) को मिलाएँ कुछ घासें उपयुक्त रूप से पैदा की जा सकती है यथा-

(अ) पारा घास (ब्रेचेरिया व्यूटिका)
(ब) ब्ल्यू पैनिकमग्रास (पैनिकम एन्टीडोटेल)
(स) दूब या बरमूडा घास (पैनिकम एन्टीडोटेल),
(द) करनाल घास (डिप्लाने पुस्का)

2. साधारणतया वे पेड़ जो क्षार सहनशील है जिनकी जड़ें काफी मजबूत अधिक फैली हुई तथा गहरी होती हैं और उन्हें नमी की भी कम आवश्यकता होती है उन्हें क्षारीय भूमि में थोड़ी मात्रा में जिप्सम, गोबर की खाद व उर्वरक प्रयोग कर उगाया जा सकता है।

3. क्षारीय मृदाओं में टोटलिस (इजरायली बबूल), विलायती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफलोरा), देशी बबूल (अकेसिया), अरेबिका (निलोटिका), जाल (ओइलोइडस प्रजाति) एट्रीप्लेक्स फरास व टैमेरिंडस (इमली) इत्यादि सफलतापूर्वक लगाने के लिये निम्न तकनीकी अभिशंसा की जाती है-

(अ) एक क्यूब मीटर गहरा गड्डा खोदें।
(ब) इसमें 5 किलो जिप्सम, 25 किलो गोबर का खाद मिलाएँ।
(स) ये सब गड्डे की मूल मिट्टी में मिलाएँ।
(द) थोड़े बड़े पौधे इस प्रकार के तैयार गड्डों में लगाएँ।
(च) इसमें थोड़ा नत्रजनीय उर्वरक भी मिलाएँ।
(र) बड़े तैयार पौधें ओगर छिद्रों में भी लगाये जा सकते हैं
(ल) इन छिद्रों का आकार 15 से.मी. व्यास का तथा 180 से.मी. गहराई रखें।
(व) छिद्रों में जिप्सम+मिट्टी+गबर की खाद बराबर मात्रा में मिलाकर भरें बाद में पौधों में लगाएँ।
4. जलग्रहण क्षेत्रों में क्षारीय भागों में कुछ क्षार सहनशील फलदार पादप भी लगाये जा सकते हैं यथा-

(अ) बेर
(ब) पोम ग्रेनेट (अनार)
(स) बेलपत्र
(द) इमली (टैमरिंड्स)
(य) आंवला
(र) करोन्दा

अन्य वर्गों के लिये
क्योंकि ऐसी मृदाओं में कृषि संभव नहीं है तथा उनमें केवल वृक्षारोपण का कार्य ही करवाया जा सकता है। आर्थिक हित की प्रजातियों का मिश्रित वृक्षारोपण सबसे अच्छा रहता है। सिंचाई, विभाग के लिये इस वर्ग की भूमिका विशेष उपयोग की नहीं है। इसी प्रकार डेयरी व पशुपालन विभाग वाले भी कुछ सीमित मात्रा में ही इनका प्रयोग अच्छा वन क्षेत्र विकसित होने के लिये कर सकते हैं।

ऋणदात्री संस्थाओं के लिये वृक्षारोपण के लिये लम्बी अवधि के लिये ऋण, विशेषज्ञों से आकलन करवाकर ही जारी करें क्योंकि इन मृदाओं की रिपेयरिंग कैपेसिटी बहुत कम और अत्यंत धीमी होती है।

सार्वजनिक निर्माण विभाग के लिये भी इन मृदाओं का सीमित उपयोग ही सम्भव हो सकता है। यदि समतल अत्यधिक पथरीली भूमि है तो वहाँ आवासीय निर्माण कराये जा सकते हैं। कुछ आबादी के पास छोटे पहाड़ी स्थलों पर भी निर्माण कार्य संभव है। इनको स्कूल, सड़क, आवास, अस्पताल, खेल के मैदान इत्यादि कार्यों के लिये भी उपयोग में लाया जा सकता है। ऐसी मृदाओं पर भू-राजस्व की दर भी न्यूनतम ही रखी जानी चाहिए क्योंकि इनकी रिपेयरिंग कैपेसिटी अत्यंत अल्प है।

8. अष्टम भू-उपयोगिता (क्षमता) वर्ग

(क) इस वर्ग की भूमियों में इस प्रकार की समस्याएँ मौजूद हैं कि जिनके कारण इनका उपयोग व्यापारिक पादप उत्पादन हेतु नहीं किया जा सकता। इनका उपयोग मनोरंजन, वन्य जीवन, पर्यटन, जल प्रदाय व अन्य सामाजिक कार्यों के लिये सीमित हो जाता है।

(ख) समस्याएँ जिनका कि सुधार सम्भव नहीं है एकल या एकाधिक समूह के रूप में निम्न कारकों के कारण हो सकता है-

(अ) अत्यधिक भू-अपरदन
(ब) अति गम्भीर जलवायु
(स) मृदा रहित पहाड़ियाँ
(द) पत्थर (खनन क्षेत्र)
(य) नमक उत्पादन क्षेत्र

(ग) अष्टम वर्ग में निम्न प्रकार के इलाके शामिल हैं-

(क) बैड लैंड्स
(ख) चट्टानी भूमि
(स) सैंड बीचेज
(द) रीवर वाश
(य) माइन टैलिंग्स
(र) अन्य बंजर भूमि

(घ) दूसरी मूल्यवान मृदाओं को सुरक्षित रखने के लिये इस वर्ग की भूमियों का प्रबंधन और सुरक्षा आवश्यक है। साथ ही जल नियंत्रण, वन्य जीवन सुरक्षा व अन्य मनोरंजन तथा सामाजिक उपयोग की दृष्टि से भी इनकी सुरक्षा जरूरी हो जाती है यद्यपि इन भूमियों के उपयोग अत्यंत सीमित हैं किंतु फिर भी विभिन्न वर्गों को इनके प्रबंधन पर निम्न प्रकार ध्यान देना अपेक्षित हैं-

कृषक वर्ग
यदि कृषक के पास इस प्रकार की भूमि है तो उनकी सुरक्षा का समुचित प्रबंध करें ताकि आस-पड़ोस की अच्छी मृदा को इस वर्ग की गम्भीर समस्याओं से उत्पन्न खतरों से सुरक्षित किया जा सके।


हरी खाद के लिये मिट्टी में पलटी हुई सनई की फसलहरी खाद के लिये मिट्टी में पलटी हुई सनई की फसल भू-संरक्षण एवं कृषि विस्तार कार्यकर्ता
इस वर्ग की भूमि में किसी भी प्रकार के भू-संरक्षण कार्य सामान्यतया अभिशंषित नहीं है फिर भी आवश्यकतानुसार उपयुक्त जगहों पर एनीकट्स वगैरह के निर्माण कराएँ ऐसे स्थानों पर सामाजिक आस्था के केन्द्र विकसित किये जा सकते हैं ताकि ऐसे स्थानों की स्वतः स्फूर्ति सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित की जा सके।

अन्य वर्गों के लिये
राजस्व विभाग द्वारा ऐसी भूमि पर किसी भी प्रकार का कर निर्धारण का कोई औचित्य नहीं है पशु मेले, धार्मिक मेले के लिये भी ऐसी भूमि का चयन किया जा सकता है किंतु पहाड़ी भूमि में उपयुक्त कार्य सम्भव नहीं हैं। पशुपालन व डेयरी के लिये इनका उपयोग उपरोक्तानुसार सीमित रूप से किया जा सकता है। इन क्षेत्रों में जल आपूर्ति साधनों (तालाब टांको) आदि का विकास किया जा सकता है।

जिन क्षेत्रों में खनिज सम्पदा या खाने विकसित की जा सकती हैं उनमें उपयुक्त साधनों द्वारा अधिकतम उपयोग किया जाना संभावित है।

4.4 विभिन्न मृदा, जल एवं जलवायविक परिस्थितियों में उत्पादकता हेतु सामान्य एवं विशिष्ट सुझाव और मार्गदर्शन
सामान्यतया यह माना जाता है कि 25 मि.मी. प्रतिघण्टा की रफ्तार से हुई वर्षा से मृदा अपरदन साफ परिक्षित होने लगता है। 5 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष से अधिक मिट्टी का कटाव हानिकारक है अतः इन्हें रोकने के लिये उपयुक्त मृदा एवं जल संरक्षण तरीके अपनाना आवश्यक है।

भूमि क्षमता वर्गों के अनुसार कृष्य या अकृष्य उत्पादन पद्धति, इसमें सुझायी गयी क्रियाएँ, आदि अपनाएँ जाकर मिट्टी के ह्रास को रोकने का प्रयास मानवीय आवश्यकताओं के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है। पिछले अध्याय में सभी प्रकार की भूमि क्षमता वर्ग का विस्तृत विवरण संकलित किया जा चुका है, तथापि मूल रूप से कुछ ऐसे बिन्दु हैं जिन्हें हम किसी एक क्षमता वर्ग में सीमित नहीं कर सकते अपितु उन्हें मोटे तौर पर कृष्य व अकृष्य मृदाओं के लिये परिभाषित किया जा सकता है। लवणीय क्षारीयता की समस्याओं या अपरदन, ये सभी हर वर्ग में उपस्थित हो सकती है। लेकिन फिर भी ऐसी विभिन्न भूमियों का उपयोग उन पर की जाने वाली शष्य कृष्य व प्रबन्धकीय क्रियाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती है।

4.4.1 कृष्य मृदाओं के लिये प्रक्रियाएँ एवं मूल बिन्दु
1. द्वितीय व तृतीय वर्ग की ‘इ’ वर्गीकृत उपवर्ग में 7 ढलान वाले क्षेत्रों में मृदाओं में वानस्पतिक अवरोध “कन्टूर वेजिटेटिव बैरियर लगाना लाभदायक है। भूमि के ढाल के अनुसार ये 30-60 मीटर पर लगाए जाने चाहिए। समोच्च रेखा पर खेती और बीच-बीच में वानस्पतिक अवरोध नमी संचित करने व अपरदन रोकने के प्रभावी उपाय हैं।

2. द्वितीय एवं तृतीय वर्ग की सामान्य ढलान एवं मध्यम अपरदन वाली मृदाओं से एले क्रॉपिंग 1-2 मीटर तक होनी चाहिए जिनमें शुष्क फल, धामण घास, कटेली, मूंजा आदि रोपित करना चाहिये।

3. चतुर्थ वर्ग की सिंचित खेती योग्य मृदाओं में मृदाओं एले क्रॉपिंग की प्रक्रिया उपयुक्त है। सीमित या कुछ चुनी हुई फसलों को ही उगाए जाने वाले इन क्षेत्रों में समोच्च रेखा के समानान्तर वानस्पतिक अवरोध के साथ-साथ फल व चारे के पेड़ या शिल्पी और जलाऊ लकड़ी के पेड़ लगाए। साथ ही उन अवरोधकों के बीच ढाल के विपरीत इस जलवायु में होने वाली चयनित फसलें उगाएँ या चारागाह विकास करें।

4. मिश्रित उद्यान भी चतुर्थ वर्ग की मिट्टियों में आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद है। इसके लिये क्षेत्रों के जलवायु में उगने वाले वृक्षों और उनमें भी मृदा परिस्थिति के अनुरूप फल वृक्षों का चयन संभव है।

5. कृषि जंगल की प्रक्रिया भी ऐसे क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण है। इससे कृषक आर्थिक दृष्टि से अधिक लाभदायक फसलों पेड़ों का चयन कर अधिक सुरक्षित हो सकता है।

6. चतुर्थ वर्ग की ज्यादा ढलान वाली कम उत्पादक मृदाओं पर जलाऊ लकड़ी या चराई के काम आने वाले पेड़ जैसे केर आदि अगाने चाहिए। इनका वृक्षारोपण कन्टूर “वी” डिच के मध्य बने गड्डों में करना चाहिए। इनकी संख्या प्रति हेक्टेयर 500 तक हो सकती है।

7. समोच्च वानस्पतिक अवरोध, समोच्च रेखा पर मेड़बन्दी, पट्टीदार खेती, आवरणपरत कणबन्दी और वायु अवरोधक पौध कतारें एवं शुष्क खेती की तकनीक अपनाएँ जिसमें खेती समोच्च रेखा पर की जाएँ।

4.4.2 अकृष्य भूमियों के लिये प्रक्रियाएँ एवं मूल बिंदु
1. चराई व वन व्यवस्था के लिये उपयुक्त वर्ग ‘VI’ एवं ‘VII’ की मृदाओं के लिये बहुखण्डीय वानिकी लाभदायक है। पहाड़ की ढ़लानों या तलहटियों में समुचित दूरी पर एक बार घास का वानस्पतिक अवरोध व दूसरी बार झाड़ियों जैसे पेड़ की बाड़ ‘V’ बनाकर लगाई जानी चाहिए। इस प्रक्रिया में ‘V’ डिच के अतिरिक्त मिट्टी को कम से कम छेड़ना चाहिये, विशेषकर कम गहराई वाले क्षेत्रों में।

2. अकृष्य भूमि में बिगड़े हुए वनों के विकास हेतु जलवायु के उपयुक्त प्रमुख वृक्ष प्रजातियों का चयन कर वृक्षारोपण किया जाना चाहिये। समोच्च रेखा पर समुचित दूरी रखकर घास या झाड़ियाँ भी लगानी चाहिए।

3. ऐसे क्षेत्र जहाँ ढलान ज्यादा हो व अर्से से चारागाह के काम में ली जा रही है या कृषि योग्य बंजर और पड़ती भूमि हो वहाँ घास, शिल्पी, जलाऊ लकड़ी या चराई के काम आने वाले बेर का पेड़ आदि उगाए जाने चाहिये। ये पेड़ समुचित दूरी पर बनी कन्टूर ‘V’ डिच में बने गड्डों में लगाना चाहिए। इसकी संख्या एक हेक्टेयर में 500 तक हो सकती है।

4. अष्टम वर्ग के क्षेत्र वन्य प्राणियों मे लिये उपयुक्त है। अतः ऐसे स्थानों पर जल निकास व नालों के आस-पास वानस्पतिक आवरण विकसित किए जा सकते हैं।

5. अकृष्य भूमियाँ जो क्षारीयता से अत्यधिक प्रभावित हुई हो ऐसे वानस्पतिक रहित क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने के लिये जिप्सम, एसिड उपचार कर पेड़ लगाने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिये। लवणीय मृदाओं के लिये भी माउंट टेकनीक द्वारा वृक्षारोपण सफल हुआ है। इसमें मेड़बन्दी करके घुलनशील लवणों को पानी भरकर नीचे बहाया जाता है और सामान्य से अधिक संख्या में वृक्षारोपण किया जाता है।

6. स्थिरीकृत टीलों को मवेशियों के द्वारा होने वाली क्षति से बचाया जाना, चाहिए।

7. अस्थिर टीलों का स्थरीकरण करने के लिये वायु अवरोधक एवं उपयुक्त घास, जैसे कांस आदि उगाए जाने चाहिये।

8. इस वर्ग में टीलों पर वानस्पतिक आवरण विकसित करना आवश्यक है।

9. VII एवं VIII वर्ग की मृदाओं में ‘V’ डिच का स्थान जल वेग के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिए।

10. वर्ग VI एवं VII की मृदाओं के विकसित चारागाहों में चराई नियंत्रित की जानी चाहिए।

4.5 सामान्य सुझाव
1. ड्रेनेज लाइन में चेक डेम्स (पत्थर, वूडन या गेबियन) आदि भूमि उपयोगिता के अनुरूप सतही मृदा गठन एवं नाले की मिट्टी के गठन, ढलान, जल वेग को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त स्थानों पर सुझाये जाने चाहिये। वानस्पतिक अवरोध की मोटाई कम से कम एक-एक मीटर दोनों साइड होनी चाहिए।

2. मानसूनी नाले में लूज स्टोन चेक डेम्स की प्लिंथ सतह से नीचे की मिट्टी के गठन पर आधारित की जानी चाहिए। हल्की बालू एवं दोमट बालू मिट्टियों में यह 30-45 से.मी बर्क दोमट व दोमट मिट्टियों में 30 से.मी. तथा चिकनी मिट्टियों में 15 से.मी. रखनी चाहिए चेक डेम्स की ऊँचाई 90 सेमी. रखी जा सकती है और फिर मिट्टी भरकर वानस्पतिक अवरोधक लगाए जा सकते हैं।

3. खेतों की सीमाओं पर केस्टर (अरंडी) लगाना लाभदायक है। अतः उपयुक्त जलवायु में इन्हें जरूर लगाना चाहिए।

4.6 पुनरावलोकन
पृथ्वी का धरातल इतना विस्तृत है कि हर भू-भाग का अपना विशेष महत्त्व है। भूमि का उपयोग उसकी क्षमता के अनुरूप इस प्रकार किया जाना चाहिए कि भूमि को कम से कम हानि हो एवं उससे अधिकतम लाभ उठाया जा सके। भूमि उपयोग क्षमता का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार की भूमियों का उन लक्षणों के अनुरूप जो कि सामान्य फसलों, घासों एवं अन्य पौधों की स्थिरता के आधार पर उत्पादन की योग्यता का एक पद्धतिबद्ध वर्गीकरण है। भूमि उपयोग क्षमता का वर्गीकरण निर्धारित करने के लिये मृदा लक्षणों में मुख्यतः मृदा के मूल द्रव्यों, प्राकृतिक गुणों, रंग, संरचना, गहराई, गठन, पारगम्यता, स्थलाकृति और क्षेत्र की अन्य विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। एक विस्तृत रूप से उपयोग में आने वाली पद्धति के अनुसार, भूमि को आठ वर्गों में बाँटा गया है, जिन्हें रोमन अंकों में I से VIII अंक दिये गये हैं। ये आठ वर्ग भूमि उपयोग योग्यता के अनुसार, दो समुदायों में विभक्त किये गये हैं, जो निम्नांकित है-

1. खेती एवं अन्य उपयोग हेतु भूमि (वर्ग I से IV और

2. खेती के लिये अनुपयुक्त किंतु अन्य उपयोगों हेतु उपयुक्त भूमि (वर्ग V से VIII)। वर्ग I भूमि सबसे अच्छी और जिस पर बहुत सुगमता से खेती की जा सकती है। इस वर्ग की भूमियों के उपयोग में साधारणतया कोई भी समस्या बाधक नहीं होती है। इन भूमियों की उत्पादकता बनाए रखने हेतु उत्तम कृषि विधियाँ, जैसे खाद उर्वरक एवं उचित शस्य क्रम के उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी विशेष मृदा एवं जल संरक्षण उपाय को अपनाने की आवश्यकता नहीं होती। इस वर्ग में समतल, गहरी और उपजाऊ भूमियाँ सम्मिलित है। वर्ग II भूमि में कुछ साधारण समस्याएँ होती है, जैसे मामूली ढाल या मृदा की कम गहराई आदि जो फसलों के चयन को थोड़ा सीमित करती हैं।

इन भूमियों पर साधारण मृदा एवं जल संरक्षण विधियों जैसे समोच्च खेती, समोच्च पट्टीदार खेती, समोच्च बंध आदि की आवश्यकता होती है। वर्ग III भूमि के उपयोग में अनेक प्रकार की परिमितताएँ (लिमिटेशन) है, उदाहरणार्थ अधिक ढाल और कम उपजाऊ या मृदा की कम गहराई या कम वर्षा। ऐसी भूमियों के उचित उपयोग हेतु मृदा एवं जल संरक्षरण के गंभीर उपचारों की आवश्यकता होती है तथा सचेत मृदा-प्रबंधन की माँग रहती है।

वर्ग IV भूमि उपयोग में कई तीक्ष्ण परिमितताएँ है और मृदा एवं जल संरक्षण उपायों को अपनाना तथा संभालना बहुत कठिन है। नम तथा अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में अधिक ढालू भूमियों में जल द्वारा भूमि कटाव का संकट रहता है। अधिक गहरी मृदा-और समतल भूमियाँ उपलब्ध होने के पश्चात भी अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में वर्षा की अनिशचितता और हवा द्वारा भूमि कटाव के संकटों के कारण भूमि की उत्पादकता सीमित रहती है।

वर्ग V भूमि फसल उत्पादन हेतु अनुपयुक्त होती है, किंतु चिरस्थायी वनस्पति के लिये उपयुक्त है। नमी नमी या दलदलापन या पथरीली या विपरीत जलवायु की अवस्था आदि परिमितताओं के कारण भूमि पर खेती करना संभव नहीं होता। उपयुक्त मृदा एवं जल संरक्षण उपाय अपनाने से इन भूमियों की उत्पादकता में वृद्धि संभव है।

वर्ग VI भूमियों में चनाई अथवा वनीय उपयोग हेतु कुछ परिमितताएँ होती है। ये भूमियाँ अधिक कटावग्रस्त होती हैं। बहुत अधिक ढाल, कम गहरी मृदा, दलदलापन या शुष्कता आदि परिमितताएँ है। अतः इन भूमियों को उपयोग में लाने हेतु गहन मृदा एवं जल संरक्षण उपायों की आवश्यकता होती है।

वर्ग VII भूमि में चराई अथवा वनीकरण हेतु अनेक तीक्ष्ण परिमितताएँ होती है। इस प्रकार की भूमियाँ बहुत अधिक ढालू बहुत अधिक कटावग्रस्त और अवनलिकाओं द्वारा कटी हुई होती हैं। चारागाह सुधार एवं जल नियंत्रण उपाय में काम लेना संभव नहीं होता है। इन भूमियों का सर्वोत्तम उपयोग स्थायी वन और अन्य वनस्पतियों और सीमित चराई के अन्तर्गत ही होता है।

वर्ग VIII भूमि में बहुत अधिक ढाल उबड़-खाबड़, पथरीली, पूर्णरूपेण वनस्पति विहीन, रेगिस्तानी और बहुत ऊँचे पहाड़ी वाली भूमियाँ सम्मिलित हैं। ये परिमितताएँ इन भूमियों को खेती, चराई या वनीय उपयोग हेतु पूर्ण रूप से अयोग्य बना देती है। ये भूमियाँ केवल जंगली जानवरों के आश्रय, मनोरंजन या जलग्रहण क्षेत्र रक्षा के लिये ही उपयुक्त है। भूमि वर्गीकरण सिद्धान्त और परिमितताओं की तुल्यता का विवरण परिशिष्ट1 में उल्लेखित है। मृदा एवं जल संरक्षण उपयों का भूमि उपयोग क्षमता वर्ग के अनुसार चुनाव परिशिष्ट-2 में दिया गया है। भूमि क्षमता मानचित्र पर उपयोग में आने वाले संकेतों और उन्हें समझने की विधि का विवरण परिशिष्ट-3 में उपलब्ध है।

भूमि क्षमता वर्ग स्थिर करने की सारिणी

वर्ग

गठन  

मृदा गहराई (से.मी.) और संकेत

       भूमि का प्रतिशत ढाल और संकेत

जलोढ़ मृदाएँ

काली मृदाएँ

लाल मृदाएँ

गहरी लाल नीलगिरी के पूर्वीघाट की मृदाएँ

अपरदन वर्ग एवं संकेत

I

sicl,cl,sL,sil,scl

90 (A)

0-1 (A)

0-1(A)

0-1 (A)

     0-3 (A)   

ऊपरी मृदा का ¼ भाग तक परत अपरदन में ह्रास (e1)

II

sic,cl,sL,sil,scl

45-90 (d4)

1-3 (B)

1-3 (B)

1-3 (B) 3-5 (C)

              

ऊपरी मृदा का ¼ भाग तक परत अपरदन में ह्रास (e1)

III

sc,sic,c,Is

22.5-45(d3)

3-5(C)

5-10 (D)

3-5 (C)

5-1 (D)

5-10 (D)

10-15 (E)

रील अपरदन में ऊपरी मृदा का ¼ से ¾ भाग ह्रास (e2)

IV

c,s

7.5-22(d2)

10-15(E)

5-10(D)

10-15(E)

15-25(F)

15-25(F)

25-33 (G)

¾ ऊपरी मृदा, ¼ भाग तक उप-मृदा का ह्रास, छोटी अवनलिकाएँ (e3)

V

वहीं अभिलक्षण जो वर्ग I भूमि के है अलावा एक या अधिक जैसे गीलापन, पथरीली या चट्टानी या प्रतिकूल जलवायु अवस्था I वर्ग I  भूमि की तरह अपरदन का काई संकट नहीं होता। 

अवनलिका ग्रस्त भूमि (e4) या रेत के टीले

VI

 

7.5 or less(d1)

15-25(F)

10-15(E)

25-33(G)

33-50(H)

अवनालिका ग्रस्त भूमि (e4) या रेत के टीले

VII

 

7.5 or less(d1)

25-33(G)

15-22(F)

33-50(F)

50-100(I)

खराब भूमियाँ

VIII

 

ROCK

>33

>25

>50

>100

 

भूमि उपयोग क्षमता वर्ग के अनुसार भू एवं जल संरक्षण विधियों का चयन

विधियाँ

भूमि उपयोग क्षमता वर्ग

समोच्च खेती

I

II

III

IV

V

VI

VII

समुच्च पट्टीदार खेती

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

नहीं

नहीं

नहीं

पलवार खेती और फसल अवशेष प्रबंधन

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

नहीं

नहीं

नहीं

समुच्च बंध

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

नहीं

नहीं

नहीं

प्रवणित बंध

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

नहीं

नहीं

नहीं

पत्थर की दीवार वाली वेदिका/प्यूरटोरिको टेरेस

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

नहीं

नहीं

नहीं

सीढ़ीदार खेत

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

नहीं

नहीं

वैकल्पिक भूमि उपयोग

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

नहीं

नहीं

चारागाह/रेंज प्रबंधन

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

नहीं

वनीकरण

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

समस्याग्रस्त मृदा का सुधार

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

समोच्च कूड़े/समोच्च नालियाँ

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

ग्रेड़ोनीज

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

स्टेगर्ड नालियाँ

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

बाक्स  नालियाँ

नहीं

नहीं

नहीं

नहीं

हाँ

हाँ

हाँ

भूमि उपयोग क्षमता वर्ग केवल जंगली जानवरों के लिये आवास एवं भोजन, जलग्रहण क्षेत्र सुरक्षा और मनोरंजन हेतु ही उपयुक्त होती है।

फील्ड में भूमि उपयोगिता का वर्गीकरण करना
फील्ड में भूमि उपयोगिता का वर्गीकरण करने के लिये परिशिष्ट-1 में वर्णित विशिष्टियों की मदद से क्षेत्र के नक्शे पर अंकित प्रत्येक संयुक्त संकेतों (नोटेशन) के मूल्यांकन। का उपयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, अंक संकेत 1-d5/B-e2 का जलोढ़ मृदाओं में निम्नलिखित रूप में मूल्यांकित करेंगे।

परिशिष्ट- 1 से भूमि उपयोगिता वर्ग
1 - दोमट मृदा I
d5 - मृदा गहराई
90 से.मी. I
B - 1.3: ढाल II
e2 - अपरदन वर्ग हल्का अपरदन III

यह भूमि या तो पूर्व काल में हल्की अपरदित हुई है अथवा यह अपरदन संकट के प्रति हल्के रूप में असहिष्णु है। अतः इसका भूमि उपयोगिता वर्ग है।

4.7 सारांश
भूमि उपयोग क्षमता वर्गों में कृष्य मृदाएँ प्रथम भू-उपयोगिता वर्ग से चतुर्थ भू-उपयोगिता वर्ग तक है तथा अकृष्य मृदाएँ वर्ग पंचम से अष्टम वर्ग तक है। क्षारीय मृदाओं व लवणीय मृदाओं विभिन्न तकनीक अपना कर सुधार किया जा सकता है।

4.9 संदर्भ सामग्री
1. जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग के वार्षिक प्रतिवेदन
2. भू एवं जल संरक्षण-प्रायौगिक मार्गदर्शिका शृंखला-3 श्री एस.सी.महनोत एवं श्री पीके. सिंह
3. प्रशिक्षण पुस्तिका-जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग द्वारा जारी
4. जलग्रहण मार्गदर्शिका-संरक्षण एवं उत्पादन विधियों हेतु दिशा निर्देश-जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग द्वारा जारी
5. जलग्रहण विकास हेतु तकनीकी मैनुअल-जलग्रहण विकास एवं भू संरक्षण विभाग द्वारा जारी
6. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय जलग्रहण विकास परियोजना के लिये जलग्रहण विकास पर तकनीकी मैनुअल
7. Compendium of Circulars जलग्रहण विकास एवं भू- संरक्षण विभाग द्वारा जारी
8. विभिन्न परिपत्र-राज्य सरकार/ जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग
9. जलग्रहण विकास एवं भू-संरक्षण विभाग द्वारा जारी भूमि क्षमता आधारित भूमि उपयोग आज की आवश्यकता
10. इन्दिरा गांधी पंचायती राज एवं ग्रामीण विकास संस्थान द्वारा विकसित संदर्भ सामग्री जलग्रहण प्रकोष्ठ
11. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी वरसा जन सहभागिता मार्गदर्शिका

जलग्रहण विकास - सिद्धांत एवं रणनीति, अप्रैल 2010

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

जलग्रहण विकास-सिद्धांत एवं रणनीति

2

मिट्टी एवं जल संरक्षणः परिभाषा, महत्त्व एवं समस्याएँ उपचार के विकल्प

3

प्राकृतिक संसाधन विकासः वर्तमान स्थिति, बढ़ती जनसंख्या एवं सम्बद्ध समस्याएँ

4

जलग्रहण प्रबंधन हेतु भूमि उपयोग वर्गीकरण

5

जलग्रहण विकासः क्या, क्यों, कैसे, पद्धति एवं परिणाम

6

जलग्रहण विकास में जनभागीदारीःसमूहगत विकास

7

जलग्रहण विकास में संस्थागत व्यवस्थाएँःसमूहों, संस्थाओं का गठन एवं स्थानीय नेतृत्व की पहचान

8

जलग्रहण विकासः दक्षता, वृद्धि, प्रशिक्षण एवं सामुदायिक संगठन

9

जलग्रण प्रबंधनः सतत विकास एवं समग्र विकास, अवधारणा, महत्त्व एवं सिद्धांत

10

पर्यावरणःसामाजिक मुद्दे, समस्याएँ, संघृत विकास

11

राजस्थान में जलग्रहण विकासः चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ

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