पर्यावरण में सन्तुलन जीवन पद्धति में बदलाव के बिना असम्भव


प्रकृति के सभी घटक एक निश्चित मात्रा में अपने कार्य करके प्रकृति को स्वच्छ रखते हैं। इस प्रकार प्रकृति में स्वयं को स्वच्छ रखने की क्षमता विद्यमान है। भौतिक वातावरण व उसमें रहने वाले सभी जीव मिलकर पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं। लेकिन जब मानवीय हस्तक्षेप प्रकृति के इस सन्तुलित तंत्र में विक्षोभ उत्पन्न करता है तो इसके घातक प्रभाव पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों व मनुष्यों पर पड़े बिना नहीं रहते हैं। किन्तु इस सन्तुलन को बिगाड़ने में मनुष्य की भूमिका अहम व महत्त्वपूर्ण है। आजकल पर्यावरण संरक्षण का सवाल सबसे अहम है। इसका मानव जीवन से सीधा सम्बन्ध है। न तो इसका नाम नया है और न ही इसकी अवधारणा नई है। यदि इसके शाब्दिक अर्थ के बारे में विचार करें तो पाते हैं कि एक विशेष आवरण जिसे दूसरे अर्थों में हम प्रकृति का आवरण भी कह सकते हैं। यह कहना गलत भी नहीं होगा।

वास्तविक अर्थों में यह एक रक्षा कवच ही है। तात्पर्य यह कि वह आवरण यानी वह रक्षा कवच जिसमें हमें आनन्द की अनुभूति होती है, पर्यावरण है। इसमें किंचित मात्र भी सन्देह नहीं है कि सभी धर्मों का अवलम्बन भी पर्यावरण ही है। यह भी सच है कि हरेक धर्म का सार पर्यावरण ही तो है। क्योंकि प्रकृति को अलग करके धर्म की कल्पना असम्भव है। कारण प्रकृति से ऊपर कोई नहीं है और इसी में हमारा जीवन है, प्राण है।

लेकिन विडम्बना है कि इसी प्रकृति की हम निरन्तर उपेक्षा कर रहे हैं। अपने स्वार्थ कहें या अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की खातिर हम उसका बेदर्दी से दोहन कर रहे हैं। वह भी बिना यह सोचे कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा।

यह कटु सत्य है कि मानव जगत का पृथ्वी तथा उसके वायुमण्डल से घनिष्ठ सम्बन्ध है। मनुष्य इसी पृथ्वी पर अपना निवास बनाता है, अनाज पैदा करने से लेकर जंगल से वनस्पति व खनिज का उपयोग करने तथा तमाम कार्यकलापों से वह अपना जीवनयापन करता है। पृथ्वी तथा वायुमण्डल से मिलकर बना वातावरण जिसे हम दूसरे शब्दों में ‘पर्यावरण’ कहते हैं; पृथ्वी के भौतिक वातावरण व उसके घटकों से मिलकर बनता है।

प्रकृति के सभी घटक एक निश्चित मात्रा में अपने कार्य करके प्रकृति को स्वच्छ रखते हैं। इस प्रकार प्रकृति में स्वयं को स्वच्छ रखने की क्षमता विद्यमान है। भौतिक वातावरण व उसमें रहने वाले सभी जीव मिलकर पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं। लेकिन जब मानवीय हस्तक्षेप प्रकृति के इस सन्तुलित तंत्र में विक्षोभ उत्पन्न करता है तो इसके घातक प्रभाव पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों व मनुष्यों पर पड़े बिना नहीं रहते हैं। किन्तु इस सन्तुलन को बिगाड़ने में मनुष्य की भूमिका अहम व महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि उसी के स्वार्थ ने उसकी विवेकीय शक्तियों पर विजय पाकर उसे तात्कालिक लाभ व सुख सुविधाओं के लिये प्रेरित किया है। उसके परिणामस्वरूप जल, जंगल, जमीन, वायु, नदी सभी प्राकृतिक संसाधन जो मानव जीवन के आधार हैं, प्रदूषित हो गए हैं।

इस सब के लिये भी हम ही दोषी हैं। पाश्चात्य सभ्यता के मोहपाश में बँध अपने खान-पान, आचार-विचार और स्वास्थ्य के प्रति दिन-प्रतिदिन लापरवाह होते चले जाना और भौतिक संसाधनों की अंधी दौड़ के चलते प्रकृति प्रदत्त संसाधनों के प्रति उदासीनता और उनका अन्धाधुन्ध दोहन इसका प्रमुख कारण है। यह कटु सत्य है कि इसके चलते हमने अपनी भावी पीढ़ी का भविष्य ही अन्धकार में धकेल दिया है।

असलियत है कि प्राकृतिक संसाधन और उनका उचित उपयोग ही एक राष्ट्र को विकसित तथा अनुचित उपयोग एक राष्ट्र को गरीब बनाता है। गरीब राष्ट्र के गरीबीग्रस्त भाग में पर्यावरण की स्थिति अपेक्षाकृत अधिक खराब पाई जाती है। पर्यावरण का चहुँमुखी विकास या संरक्षण तभी सम्भव है, जब ऐसे राष्ट्र या राष्ट्र के ऐसे भाग में जहाँ गरीबी का बोलबाला हो, वहाँ के लोगों को गरीबी के दलदल से निकाला जाये तथा उनके जीवनस्तर को सुधारा जाये अन्यथा प्रदूषण और गरीबी के दलदल का मिला-जुला रूप एक मीठे जहर के रूप में उभरकर समूचे राष्ट्र में फैलकर अपना असर भयंकर नासूर की तरह दिखाने लगेगा।

बिल्कुल यही स्थिति हमारे देश की है जहाँ विकास के मौजूदा ढाँचे जिसमें औद्योगिक विकास को प्रमुखता दी गई है, ने समूचे पर्यावरण को प्रदूषित करके रख दिया है और निहित स्वार्थ के चलते हम उसको दिन-ब-दिन और बढ़ाने में अहम व महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। हकीकत यह है कि पर्यावरण प्रदूषण व्यापक समस्या का रूप ले चुका है और आज यह समस्या हमारे देश की ही नहीं, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी है। यही कारण है कि विश्व के तमाम देश इसके निवारण के लिये गम्भीरता से इसका समाधान निकालने में जुटे हैं।

गौरतलब है कि पृथ्वी को उजड़ने के कगार पर पहुँचाने में जो कारक उत्तरदायी हैं, उन पर कभी सोचने का प्रयास ही नहीं किया गया। वर्तमान में पड़ रही भीषण गर्मी और मौसम में आ रहे बदलाव इस बात का पर्याप्त संकेत दे रहे हैं कि यदि हमने पर्यावरण रक्षा की गम्भीर कोशिशें नहीं कीं तो आने वाले दिनों में स्थिति इतनी भयावह हो जाएगी जिसे सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा। औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया में घने वन-उपवन तो उजाड़े ही गए, इससे पर्यावरण सन्तुलन भी काफी हद तक बिगड़ा।

औद्योगीकरण के चलते रोजगार के नए अवसर तो खुले और देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत हुई, लेकिन यदि इसके नकारात्मक पहलू पर गौर करें तो पाते हैं कि औद्योगिक विकास ने हमारे पर्यावरण को भीषण नुकसान पहुँचाया जिसकी भरपाई हो पाना असम्भव है। उस नुकसान के परिणामस्वरूप आज स्थिति यह है कि हमारी नदियाँ, समुद्र, जल, भूजल, वायु सभी-के-सभी भयावह स्तर तक प्रदूषित हैं। असलियत में कई नदियों का तो अस्तित्व ही मिट गया है।

रासायनिक तत्वों के अत्यधिक उपयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति निरन्तर घटती जा रही है। कार्बन डाइऑक्साइड से वायुमण्डल का तापमान बढ़ने से पहाड़ों पर जमी बर्फ इतनी तेजी से पिघलेगी जिसके कारण भीषण तबाही मच सकती है। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि 2030 तक तापमान में दो डिग्री से ज्यादा की बढ़ोत्तरी होगी। नतीजन समुद्र और वातावरण में मौजूद नमी के कारण जहाँ जल का वाष्पन होगा, वहीं ग्लेशियरों के पिघलने के परिणामस्वरूप समुद्री जलस्तर में बेतहाशा बढ़ोत्तरी होगी। इसके चलते जलवायु और मौसम में भी भारी परिवर्तन हो सकता है जो भीषण तबाही के कारण बनेंगे।

आमतौर पर हमारे यहाँ लोग सबसे पहले जीवन के लिये जरूरी मुद्दों पर सोचते हैं। इसके लिये सबसे पहले वे उपलब्ध संसाधनों भले वह वन हों, वन्य प्राणी हों, खनिज पदार्थ हों या कोई अन्य संसाधन, उसे प्राप्त करने के लिये मारामारी करने लगते हैं। ऐसे हालातों में पर्यावरण संरक्षण अपना महत्त्व खो देते हैं। असलियत में पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के मामले में आम जनता की कोई हिस्सेदारी नहीं है। इसलिये आमजन को जागरूक करने की जरूरत है। इसके बिना इस समस्या पर पार पाना सम्भव नहीं है।

आज हमारे वक्त की महती आवश्यकता है कि हम सभी पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के प्रति न केवल चिन्तित हों बल्कि उसकी रक्षा के लिये कमर कस कर तैयार हों ऐसी जीवन पद्धति विकसित करें जो हमारे पर्यावरणीय सन्तुलन को बनाए रखने में सहायक हो। उस दशा में ही कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है।

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