क्यों बढ़ रही है भारत के तटों पर आकर मरने वाली व्हेलों की संख्या
विशालकाय व्हेलों के समुद्र तट पर आकर फंस जाने की खबरें दुनिया के विभिन्न देशों से अकसर आती रहती हैं। ऐसी घटनाएं अब भारत में भी काफ़ी तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं। केरल के कोच्चि स्थित केन्द्रीय समुद्री मछुआरा अनुसंधान संस्थान (सीएमएफआरआई) के एक हालिया अध्ययन के मुताबिक भारत के दक्षिण-पश्चिमी समुद्र तटों पर व्हेलों के फंसने की घटनाओं में दस गुना वृद्धि हुई है।
इस अध्ययन का नेतृत्व 'भारत में समुद्री स्तनपायी स्टॉक आकलन' (एमएमएसएआई) राष्ट्रीय शोध परियोजना के प्रमुख अन्वेषक डॉ. आर. रथीश कुमार ने किया। इसकी रिपोर्ट रीजनल स्टडीज़ इन मरीन साइंस में प्रकाशित की गई है। इस अध्ययन पर आधारित मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2003 से 2013 के दौरान व्हेलों के फंसने की दर में केवल 0.3% की वृद्धि हुई जबकि साल 2014 से 2023 तक यह वृद्धि 10 गुना बढ़कर 3% तक पहुंच गई।
केवल 2023 में ही 9 व्हेलों के तटों पर फंसे होने की सूचना मिली, जो हाल के वर्षों में सबसे ज़्यादा थी। ये घटनाएं ज़्यादातर अगस्त और नवंबर के बीच हुईं। केरल, कर्नाटक और गोवा के समुद्र तट इस मामले में प्रमुख हॉटस्पॉट के रूप में पहचाने गए हैं। जबकि, ब्रायड व्हेल को तटों पर सबसे ज़्यादा फंसने वाली प्रजाति के रूप में पहचाना गया। एकाध मामलों में ब्लू व्हेलें भी भारतीय तटों पर पाई गई हैं।
शोधकर्ताओं ने भारतीय तटों पर सबसे ज़्यादा पाई गई ब्रायड व्हेल का आनुवंशिक अध्ययन भी किया, जिससे पता चला कि इस प्रजाति के दो अलग-अलग रूप भारत के समीपवर्ती समुद्री जल में मौजूद हैं।
क्या है व्हेलों के तटों पर आने की वजह
अध्ययन में व्हेलों के तटों पर आकर फंसने के मामलों में बढ़ोतरी की कई वजहें बताई गई हैं। प्राकृतिक या पर्यावरणीय कारणों के अलावा, मानव द्वारा उत्पन्न की गई समस्याओं को भी इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार पाया गया है। समुद्र का बढ़ता तापमान और तटीय क्षेत्रों के उथला होता जाना सबसे प्रमुख पर्यावरणीय कारण हैं। समुद्री धाराओं (सी करेंट्स) के मज़बूत होने से भी व्हेलें इनमें फंसकर तटों तक आ रही हैं।
मानव जनित कारणों की बात करें, तो समुद्रों में बड़े-बड़े जहाज़ों का बढ़ता आवागमन, जहाज़ों से बड़े पैमाने पर मछली पकड़ने की गतिविधियों में बढ़ोतरी, व्हेलों का शिकार, ध्वनि प्रदूषण बढ़ना, जहाज़ों की टक्कर, सैन्य पनडुब्बियों की सोनार तरंगें और व्हेलों के आवासों का नष्ट होना या वहां व्यवधान होना प्रमुख हैं।
अध्ययन में व्हेलों के तटों की ओर आने की एक और महत्वपूर्ण पर्यावरणीय वजह सामने आई है। मानसून के दौरान बारिश के पानी के साथ बहकर समुद्र में पहुंचने वाली मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों के कारण समुद्र में प्लवक (एल्गी) और शैवालों की संख्या बढ़ने लगती है और ये समुद्र की सतह पर आकर लहरों के साथ बहते हुए तटवर्ती इलाकों में जमा हो जाते हैं। इन्हें खाने के लिए कई शाकाहारी प्रजातियों की मछलियां इन इलाकों में इकट्ठा होने लगती हैं।
छोटे और मझोले आकार की ये मछलियां व्हेलों का प्रिय भोजन होती हैं। इन्हें खाने के लालच में व्हेलें तैरती हुई तटों की ओर चली आती हैं और यहां का पानी उथला होने के कारण तैरकर वापस नहीं जा पातीं और यहां फंस कर अपनी जान से हाथ धो बैठती हैं।
पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में मामूली स्थानीय गड़बड़ी को भी व्हेलों के भटक कर तट पर आने की एक संभावित वजह माना गया है। महासागरों का बढ़ता तापमान भी ऐसी घटनाओं की एक वजह हो सकता है, जिसके कारण व्हेलों का शिकार बनने वाली मछलियां अपेक्षाकृत ठंडे तटवर्ती इलाकों में आ जाती हैं। किनारों पर पानी उथला होने के कारण थोड़ा ठंडा रहता है। इन मछलियों का पीछा करते हुए व्हेलें भी तट के करीब आ जाती हैं।
व्हेलों के तटों पर फंसने के पीछे कोई एक निश्चित कारण नहीं है। अलग-अलग मामलों में इसकी कई अन्य वजहें भी हो सकती हैं। पर्यावरणीय मामलों पर नज़र रखने वाले पोर्टल स्विस इन्फ़ो की एक रिपोर्ट के मुताबिक कई बार व्हेल अपना रास्ता भटक कर भी तटों पर आ जाती हैं। कई बार ये ज्वार-भाटे में फंस जाती हैं। बहुत करीब शिकार का पीछा करते समय भी व्हेलें भ्रमित होकर किनारे की ओर आ जाती हैं और ऐसे में एक भ्रमित व्हेल अनजाने में पूरे झुंड को उथले पानी में ले जा सकती है।
इसके अलावा, कभी-कभी बीमारी, चोट, तेज़ आवाज़ या पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण भी व्हेलें बड़ी तादाद में तट पर आ जाती हैं और फिर वहां से लौट नहीं पातीं। इसकी वजह व्हेलों के बीच घनिष्ठ सामाजिक संबंध होना है। व्हेलों के समूह के किसी एक सदस्य के तट पर आ जाने पर अन्य व्हेलें भी उसके पीछे तट पर आकर फंस जाती हैं।
व्हेलें किसी परजीवी के संक्रमण के कारण होने वाली बीमारी की वजह से भी तटों पर आ सकती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे ही एक मामले में, तट पर फंसी पायलट व्हेलों की जांच करने पर उनमें से 93% में मॉर्बिली वायरस का परीक्षण पॉज़िटिव आया।
इस परिवार के वायरस मनुष्यों में खसरा, कुत्तों में कैनाइन डिस्टेंपर और मवेशियों में रिंडरपेस्ट बीमारी का कारण बनते हैं। पायलट व्हेल में ये निमोनिया और एन्सेफलाइटिस पैदा करता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचाता है, जिससे व्हेल की पानी में तैरने की क्षमता कम हो सकती है। ऐसे में समुद्री लहरों के साथ बहकर व्हेलें तट पर आ सकती हैं।
इसके अलावा, समुद्री भूकंप भी व्हेलों के तटों पर फंसने की एक वजह बनता है। मिसाल के तौर पर 21 अक्टूबर 2012 की दोपहर 4.7 तीव्रता का भूकंप आने के बाद भारत के उत्तरी अंडमान की उथली एलिजाबेथ खाड़ी में 40 छोटे पंखों वाली पायलट व्हेल का एक समूह फंस गया। भूकंप का केंद्र खाड़ी से 359 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित था।
दुनिया भर में देखी गई हैं व्हेलों के फंसने की घटनाएं
व्हेलों के बड़ी संख्या में तट पर फंसने की घटनाएं दुनिया भर में देखी गई हैं। एक लेख के अनुसार बड़े पैमाने पर व्हेलों के तट पर फंसने का पहला ऐतिहासिक उल्लेख रोमन दार्शनिक अरस्तू के समय में यानी चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में देखने को मिलता है।
अरस्तू ने अपने ग्रंथ 'हिस्टोरिया एनीमलियम' में व्हेल के तट पर फंसने (स्ट्रैंडिंग) का उल्लेख किया है, जिसमें वे लिखते हैं कि यह ज्ञात नहीं है कि ऐसा क्यों होता है और यह बिना किसी स्पष्ट कारण के अकसर घटित होता है। उस समय पेट्रोल, डीज़ल, केरोसिन जैसे जीवाश्म ईंधनों की खोज नहीं हुई थी। इसलिए, रोशनी के लिए मशालें व दीपक आदि जलाने में मछली के तेल का ही इस्तेमाल होता था। ऐसे में, तट पर व्हेलों के आने को तब देवताओं का उपहार माना जाता था।
आधुनिक काल की बात करें, तो बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक व्हेलों के तट पर फंस कर मरने की घटनाओं का पहला आधिकारिक उल्लेख 1920 के दशक में मिलता है। ब्रिटेन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम के अनुसार, ब्रिटेन में व्हेलों के फंसने की बड़ी घटना 1927 में हुई थी, जब हाइलैंड्स के डोर्नोच फर्थ में 130 से अधिक फ़ॉल्स किलर व्हेलों में से 126 की मौत हो गई थी।
एक बड़ी घटना स्कॉटलैंड में 1995 में भी दर्ज़ की गई थी। इसके बाद 2011 में 60-70 व्हेलें सदरलैंड के उथले पानी में आकर फंस गई थीं। हालिया घटनाओं की बात करें तो, मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक ऐसी ही एक घटना करीब साल भर पहले जुलाई 2024 में स्कॉटिश द्वीप लुईस के तट पर देखने को मिली। इसमें 65 पायलट व्हेलें तट पर फंस कर मर गई थीं।
इस साल की शुरुआत में फरवरी में ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया के उत्तर-पश्चिमी तट पर आर्थर नदी के पास 157 फ़ॉल्स किलर व्हेलों का एक समूह फंस गया था। इनमें से ज़्यादातर की मौत हो गई। हाल ही में, श्रीलंका के पश्चिमी तट पर स्थित कल्पितिया नामक कस्बे के तट के पास कई पायलट व्हेलें फंस गई थीं।
इससे पहले 2022 में भी ऐसी ही एक घटना हुई, जिसमें 230 पायलट व्हेलें मैक्वेरी हार्बर के किनारे फंस गई थीं। ऑस्ट्रेलिया में अब तक की सबसे बुरी घटना इसी तट पर 2020 में हुई थी, जिसमें 470 पायलट व्हेलें फंस गई थीं।
व्हेलों की मौत की तरह ही हाल ही में प्रशांत महासागर में 5 अरब से ज़्यादा स्टार फिशों की मौतों की खबर ने भी पर्यावरणविदों को चिंतित किया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इन स्टार फिशों की मौत विब्रियो पेक्टेनिसिडा नामक समुद्री जीवाणु के संक्रमण से फैली वेस्टिंग डिज़ीज़ नामक एक भयानक संक्रामक बीमारी के कारण हुई।
क्या हो सकते हैं उपाय
रिसर्च में शामिल सीएमएफआरआई के शोधकर्ताओं ने ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए तटवर्ती इलाकों के समुद्री जल में क्लोरोफ़िल स्तर की मॉनिटरिंग, हवाओं के पैटर्न और एसएसटी जैसे उपग्रह डेटा का उपयोग करके पूर्वानुमान मॉडल विकसित करने की आवश्यकता जताई है।
ऐसा करके, व्हेलों के भटक कर तट पर आने (स्ट्रैंडिंग) का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और समय रहते उनके संरक्षण की कार्रवाई शुरू की जा सकती है, ताकि तटों पर फंसकर व्हेलों की जान न जाए। इसके अलावा, रीयल टाइम अलर्ट सिस्टम, समुद्री ईको सिस्टम का संरक्षण, मछुआरों और अधिकारियों को ऐसी स्थितियों से निपटने का प्रशिक्षण देने जैसे उपाय भी किए जा सकते हैं।
इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और भारत में समुद्री स्तनपायी स्टॉक आकलन पर राष्ट्रीय परियोजना के प्रमुख अन्वेषक डॉ. आर. रथीश कुमार का कहना है कि देश के सबसे समृद्ध महासागरीय क्षेत्रों में समुद्री जैव विविधता के लिए उभरते इस खतरे से निपटने के लिए क्षेत्र-विशिष्ट (एरिया स्पेसिफिक) संरक्षण रणनीतियां बनाकर उनपर काम करने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि यह घटनाएं भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट के पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिति नाज़ुक होने की चेतावनी हैं। इसे समझते हुए धरती के सबसे बड़े स्तनपायी जीव व्हेल के संरक्षण के लिए बुनियादी ढांचा तत्काल तैयार किया जाना चाहिए।