ईरान में इस साल 50 वर्ष में सबसे कम वर्षा होने के बाद पानी का संकट तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।
ईरान में इस साल 50 वर्ष में सबसे कम वर्षा होने के बाद पानी का संकट तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। स्रोत : एहसान मोरादी (अनप्‍लैश)

जल संकट के कारण खाली हो रही ईरान की राजधानी, सूख रहे नल, पलायन कर रहे लोग

तेहरान इस समय पांच दशकों में आए सबसे गंभीर सूखे से जूझ रहा है। जलवायु परिवर्तन, पानी के अनुचित उपयोग और नीतिगत योजना की कमी ने मिलकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिससे लोगों के सामने विस्थापन की एकमात्र रास्ता बचा है। इसे देखते हुए तटीय शहर मकरान को देश की नई राजधानी के रूप में विकसित करने की तैयारी चल रही है।
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नदी, तालाब, कुएं सूखने के कारण गांवों से लोगों के पलायन के समाचार तो अक्सर सुनने को मिलते हैं, लेकिन पानी की किल्‍लत के चलते किसी देश की राजधानी के उजड़ने की खबर आपने पहले कभी नहीं सुनी होगी। ईरान की राजधानी तेहरान में इस वक्‍त ऐसा ही हो रहा है। सदी के सबसे बड़े जल संकट से जूझ रहे तेहरान को वहां के निवासी छोड़ कर जा रहे हैं। 

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक करीब एक करोड़ की आबादी वाले इस शहर को पानी देने वाला अमीर कबीर बांध का जलाशय एक छोटे से दायरे में सिमट गया है। इसमें पिछले साल के मुकाबले सिर्फ छठे हिस्‍से जितना पानी ही बचा है। शहर के ज्‍़यादातर कुएं भी सूख चुके हैं। ऐसे में सरकार ने रात में नलों का पानी बंद करने का कदम उठाते हुए लोगों को दिसंबर तक शहर खाली करने की चेतावनी दे दी है। ईरान सरकार का कहना है कि अगर जल्‍द ही बारिश नहीं हुई तो देश में पानी की कटौती यानी राशनिंग शुरू करनी पड़ेगी, क्‍योंकि दो सप्ताह के भीतर ही शहर में पीने का पानी भी समाप्त हो जाने की । 

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक ईरान सरकार देश की राजधानी को तेहरान से मकरान में ले जाने की योजना बना रही है। हालांकि ईरान की नई राजधानी बनने में अभी समय लगेगा और इसमें भारी-भरकम खर्च भी आएगा। इसलिए राजधानी बदलने के इस विचार से कई लोग संतुष्ट नहीं है और इस फैसले पर सवाल भी उठ रहे हैं। राजधानी के रूप में इस शहर को स्वीकार करने को लेकर होने वाली असहजता के पीछे की एक वजह मकरान के साथ एक ऐतिहासिक बदनामी का जुड़ा होना भी है। मकरान वही इलाका है, जहां सिकंदर (अलेक्जेंडर) की एक तिहाई से ज़्यादा सेना यूनान लौटते समय मारी गई थी। सिकंदर की सेना इस क्षेत्र से गुजरी तब उसके सैनिक यहां की भीषण गर्मी और पानी की कमी को सहन नहीं कर पाए थे। नतीजतन सेना के लगभग एक तिहाई सैनिकों के जीवन का अंत यहीं हो गया था। हालांकि अब मकरान के हालात काफ़ी बदल चुके हैं। पिछले कुछ दशकों में यहां कई ऐसे प्लांट लगाए गए हैं जिसमें समुद्री पानी का खारापन हटाकर उसे पीने लायक़ बनाया जाता है। इस उपाय से शहर में उपयोग लायक़ पानी की कमी को काफ़ी हद तक दूर किया जा चुका है।

ईरान की राजधानी तेहरान में जल संकट इतना गहरा चुका है कि नलों में पानी आना बंद हो गया है।
ईरान की राजधानी तेहरान में जल संकट इतना गहरा चुका है कि नलों में पानी आना बंद हो गया है। स्रोत : जूनी रजाला (अनप्‍लैश)

मकरान को ही राजधानी के लिए क्‍यों चुना?

तेहरान की जगह मकरान को राजधानी बनाने के फैसले के पीछे कई वजहें बताई जा रही हैं। पहली वजह है इसकी विशेष भौगोलिक स्थिति। दरअसल, मकरान ईरान के दक्षिण में स्थित एक तटीय शहर है, जिसकी तटरेखा करीबन 1000 किलोमीटर लंबी है। इसलिए मकरान को राजधानी बनाने से सरकार को समुद्र पर आधारित नई नीली अर्थव्यवस्था (ब्लू इकोनॉमी) विकसित करने में भी आसानी होगी। मध्य एशिया और हिंद महासागर के बीच आसान संपर्क को देखते हुए ईरान मकरान को एक नया वैश्विक समुद्री व्यापारिक कॉरिडोर के रूप में विकसित करना चाहता है। इस तरह मकरान की सामरिक रूप से महत्‍वपूर्ण स्थिति इसे समु्द्री व्‍यापारिक गतिविधियों के लिए आगामी दशकों में दुनिया का बड़ा हब बना सकता है। 

अपने इस कदम के माध्यम से ईरान सरकार दशकों से तेल-गैस के इर्द-गिर्द घूमती अपनी पेट्रोलियम आधारित अर्थव्‍यवस्‍था की धुरी को बदलना चाहती है। इसका एक कारण यह है कि पिछले डेढ़ दशक से जारी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों ने ईरान के लिए तेल व्यापार को और मुश्किल बना दिया है। साथ ही, ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के दबाव में दुनिया अब तेल-गैस और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम कर, स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ रही है। ऐसे माहौल में ईरान को भी अपनी राह बदलनी पड़ रही है।

हमें तीन दिनों तक पानी नहीं मिला। प्रेशर इतना कम था कि नल से पानी बिल्कुल ही नहीं निकल रहा है। बिल्डिंग में हर कोई इससे तंग आ चुका है। यहां तक कि कुछ पड़ोसी तो नहाने के लिए भी दूसरे शहर में रह रहे अपने रिश्तेदारों के घर जाते हैं। ज्‍़यादा बच्चों वाले परिवारों के लिए तो और भी मुश्किल समय है। जलापूर्ति करने वाली कंपनी का कहना है कि हमें समस्या के समाधान के लिए पंप खरीदने चाहिए और पानी रखने के लिए एक स्टोरेज टैंक भी बनवाना चाहिए। ये अतिरिक्त खर्चे हैं, जिन्हें लोग अभी उठा नहीं कर सकते। खासकर अब, जबकि अर्थव्यवस्था खराब है।
इरफान एनसानी (39), तेहरान के निवासी
ईरान के जल संकट के पीछे जलवायु परिवर्तन और पानी को लेकर सरकार की अदूरदर्शिता भरी नीतियों को ज़िम्मेदार माना जा रहा है।
ईरान के जल संकट के पीछे जलवायु परिवर्तन और पानी को लेकर सरकार की अदूरदर्शिता भरी नीतियों को ज़िम्मेदार माना जा रहा है। स्रोत : मारिया क्रे (पिक्‍सल्‍स)

क्‍या है जल संकट की वजह?

किसी भी देश की राजधानी का बदला जाना एक बड़ा और महत्‍वपूर्ण फैसला होता है। इसके पीछे के हालात और वजहें दोनों गंभीर होती हैं। तेहरान से मकरान की ओर बढ़ता यह कदम भी कुछ ऐसा ही है। इसमें प्राकृतिक से लेकर मानवीय, दोनों तरह के कारक जिम्मेदार माने जा रहे हैं। इसकी प्रमुख वजहें इस तरह समझी जा सकती हैं।

जलवायु परिवर्तन : ईरान सरकार इस गंभीर जल संकट के लिए जलवायु परिवर्तन को दोष दे रही है। यह बात काफ़ी हद तक सही भी है, क्‍योंकि मौसमी बदलावों और बढ़ते ग्‍लोबल वॉर्मिंग के चलते तेहरान सहित ईरान के कई शहरों में तापमान अब 50 डिग्री से ऊपर पहुंच जाना एक आम बात हो गई है। इस साल देश में सामान्य से 89 फ़ीसद कम बारिश हुई, जिसकी वजह से यह पिछले 50 सालों में सबसे सूखा वर्ष साबित हुआ। पिछले दो दशकों से तापमान लगातार औसत से ज़्यादा बना हुआ है, जिससे वाष्पीकरण बढ़ा और ज़मीन की नमी लगातार घटती गई।पश्चिम एशिया दुनिया के सबसे तेज़ी से गर्म हो रहे क्षेत्रों में है और ईरान इस बदले हुए मौसम का एक प्रमुख केंद्र बन गया है। इस इलाके में मानसून जैसी कोई तय बारिश नहीं होती, बल्कि इसकी मात्रा और समय दोनों ही अनिश्चित हैं। वर्षा का यह असमान वितरण भी ईरान के लिए घातक साबित हुआ। हाल के वर्षों में यहां सामान्य से 40 से 60 फ़ीसद तक कम बारिश हुई। इससे हुई तापमान वृद्धि ने आसपास के पहाड़ों पर बर्फ़ पिघलने के पैटर्न को बदल दिया, जिससे ज़ाग्रोस और अलबोर्ज़ पर्वत श्रृंखलाओं से मिलने वाली मौसमी जलधाराएं भी सिकुड़ती गईं। नतीजा यह हुआ कि अपनी जल–आपूर्ति के एक बड़े हिस्से के लिए इन पहाड़ी स्रोतों पर निर्भर तेहरान जैसे शहर अचानक ही गहरे जल संकट में फंस गए।

खेती में पानी की ज्‍़यादा खपत: हालांकि यह प्राकृतिक पहलू इस समस्या का एक ही हिस्सा दिखाता है। वास्‍तव में ईरान के इस भयंकर सूखे की समस्या की असली वजहें वे इंसानी भूल हैं जो वहां दशकों से दोहराई जा रही हैं, और जिनका खामियाज़ा लोगों को अब भुगतना पड़ रहा है। ईरान के जल संकट की एक बड़ी वजह यह है कि यहां पानी की कमी होने के बावजूद बड़े पैमाने पर गेहूँ और अल्फाल्फा जैसी फसलों की खेती की जाती है जिसमें पानी की बहुत अधिक खपत है। इसके अलावा, पिस्ते की खेती भी पूरे देश में बड़े पैमाने पर होती है। पिस्ता महंगा और दुनिया भर में लोकप्रिय है और इसकी सिंचाई में बहुत अधिक पानी लगता है। ईरान इसके प्रमुख उत्पादकों में से एक है। वहीं, अल्फाल्फा एक चारा फसल है, जिसे पशुओं को खिलाया जाता है। इसे आमतौर पर लूसर्न घास और हिंदी में रिज़का कहा जाता है। इसमें भी पानी की बहुत खपत होती है। ईरान के उत्तरी प्रांतों माज़ंदरान और गुलिस्तान में धान भी बड़े पैमाने पर उगाया जाता है क्योंकि कैस्पियन सागर की नमी और अपेक्षाकृत अधिक वर्षा वाली स्थिति के कारण वहां का जलवायु धान के लिए अनुकूल हो जाता है। इस तरह खेती के लिए गलत फसलों का चुनाव और सिंचाई के लिए बड़ी संख्‍या में कुओं की खुदाई और बोरिंग किए जाने के चलते ईरान का भूजल स्‍तर काफ़ी नीचे चला गया है। इसका असर इसलिए और गंभीर हो गया है, क्‍योंकि ईरान में पानी की कुल खपत का 90 फ़ीसद से अधिक हिस्सा खेती यानी सिंचाई आदि पर खर्च होता है। इसके बावज़ूद सिंचाई के लिए अब भी यहां पुरानी तकनीकें ही अपनाई जाती हैं, जिनमें भारी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। 1970 के दशक के बाद ईरान ने कृषि विस्तार को तो प्राथमिकता दी, लेकिन सिंचाई व्यवस्था को उसी गति से विकसित नहीं किया। भूजल और नदियों के पानी के इस अंधाधुंध दोहन से जायदेंह रुद जैसी नदियां अब मौसमी धारा बन कर रह गई हैं। जल संचय के लिए बड़े-बड़े बांध बनाए जाने से नदियों का बहाव बिगड़ गया और जलभृदों (एक्‍वीफर) को रिचार्ज करने वाले दलदल व आर्द्रभूमियां (वेट लैंड्स) नष्ट हो गए। 

तेल कुओं के लिए एक्विफर को नष्‍ट करना : ईरान में तेल के कुएं खोदने के लिए ऊपरी परतों के भूजल का दोहन इस स्तर तक किया गया कि अब वह पहले की तरह रिचार्ज नहीं हो पा रहा। इस प्रक्रिया में बड़ी संख्‍या में भूमिगत जलभृत (एक्विफर) क्षतिग्रस्त हो गए हैं। नतीजतन, भूजल पर इतना दबाव बढ़ा कि कई क्षेत्रों में पूरी भूजल प्रणाली ही टूटने लगी। सरकार ने 1990 के दशक में “डीप वेल ड्रिलिंग” को अनुमति दी, जिससे कई जगहों का भूजल स्तर 10 से 30 मीटर तक नीचे चला गया। इसके अलावा शहरों में इमारतों के निर्माण आई तेज़ी और आबादी में हुई वृद्धि को ध्यान में रखते पानी की आपूर्ति के लिए कोई ठोस योजना नहीं बनाई गई। इसकी मिसाल देश की राजधानी तेहरान में ही देखी जा सकती है, जहां पिछले दो दशक में पानी की मांग तो दोगुनी हो गई, लेकिन आपूर्ति का दर वही बना रहा। जलापूर्ति को बढ़ाने के लिए पानी के नए स्रोत विकसित नहीं किए गए। नतीजतन गंभीर जल संकट के कारण अब तेहरान को खाली करवाने की नौबत आ गई है।

सरकार का लापरवाही भरा रवैया : ईरान में सालों से लगातार बढ़ रही पानी की किल्‍लत को सरकार नज़रअंदाज़ करती रही। तेहरान में देश की लगभग 20 फ़ीसद आबादी रहती है, लेकिन इसके बावजूद पानी की उपलब्धता कभी नहीं बढ़ाई गई। शहर के अनियोजित विस्तार और पानी की खपत में बेतहाशा बढ़ोतरी के बाद भी जलापूर्ति की व्‍यवस्‍था को सुधारने के लिए सरकार ने किसी तरह के कोई ठोस और स्‍थायी इंतज़ाम नहीं किए। उपाय के नाम पर कई मौकों पर केवल पानी की “सख्त राशनिंग” का कदम उठाया गया, लेकिन पानी की उपलब्‍धता बढ़ाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं हुई। लिहाज़ा यह केवल अस्थायी समाधान बन कर रह गया। इस सबके चलते शहर में पानी की मांग और उपलब्धता के बीच अंतर इतना बढ़ गया कि लंबे समय तक एक राजधानी एक रूप में इस शहर की व्यवस्था को बनाए  मुश्किल हो गया। नदियों, झीलों जैसे सतह पर मौज़ूद जलस्रोतों के संरक्षण को ईरान सरकार ने नज़रअंदाज़ किया। पानी के लिए बांधों पर अत्यधिक निर्भरता और जल पुनर्चक्रण (रीयूज़) के लिए उचित इंतज़ाम न किए जाने से हालात बिगड़ते गए। कुल मिलाकर तेहरान के लिए बांध आधारित जलापूर्ति की व्‍यवस्‍था नकारात्‍मक साबित हुई और यह जलवायु परिवर्तन जैसे झटकों को झेल पाने में भी नाकाम रही। ऐसे में जैसे ही वर्षा कम हुई, तेहरान का जलापूर्ति नेटवर्क पूरी तरह से ढह गया।

कुओं और बोरिंग के माध्यम से भारी मात्रा में भूजल का दोहनहोता रहा लेकिन उसके रिचार्ज के उपाय नहीं किए गए। तेहरान बेसिन भी इसी गलती का शिकार हुआ, जहां भूजल के अतिशय दोहन (ओवर-एक्सट्रैक्शन) ने जलभृतों को लगभग खाली कर दिया। इससे जगह-जगह भूमि धंसाव की समस्‍या भी पैदा हो गई। कुछ जगहों पर तो भूमि धंसाव की दर 25 से 30 सेंटीमीटर प्रति वर्ष दर्ज की गई, जो दुनिया में सबसे अधिक है। ज़मीनों का यह धंसाव तेहरान की जलापूर्ति पाइपलाइन, सीवेज सिस्टम और इमारतों के लिए एक बड़ा खतरा बन चुका है। साथ ही इससे पानी का रिसाव (लीकेज) और पाइपलाइन लॉस का स्तर कई शहरों में 25-30 फ़ीसद तक पहुंच गया, जो अन्‍य देशों की तुलना में काफ़ी अधिक है। कृषि और बुनियादी ढांचे (इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर) के विकास की गलत नीतियां बनीं और इनमें पानी को उचित महत्‍व नहीं दिया गया। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन जैसी सामायिक चुनौतियों को भी गंभीरता से नहीं लिया गया। इन सारी चीज़ों ने मिलकर इतना बड़ा जल संकट खड़ा कर दिया कि हताश ईरान को अपने पड़ोसी देशों अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान से पानी मांगना पड़ रहा है। साथ ही राजधानी तेहरान को खाली करने की ओर कदम बढ़ाना पड़ रहा है। 

इजरायल से युद्ध में हुआ नुकसान : सीएनबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार ऊर्जा मंत्री अब्बास अलीबादी का कहना है कि गर्मियों में 12 दिन तक चलने वाले ईरान-इजरायल युद्ध ने देश की जल अवसंरचना को गंभीर नुकसान पहुंचाया, जिससे समस्या और बढ़ गई है। उन्होंने बताया कि राजधानी जिन जलाशयों पर पानी के लिए निर्भर है, वे अब अपनी आरक्षित क्षमता के केवल 5 फ़ीसद पर हैं। इसे देखते हुए सरकार ने दो सप्ताह पहले चेतावनी दी थी कि संकट से निपटने के लिए सरकार को अब रात के वक्त पानी की आपूर्ति पूरी तरह से बंद करनी पड़ सकती है।

बीते दशकों में तेहरान की आबादी तेज़ी से बढ़कर एक करोड़ के करीब पहुंच गई है। इसके बावज़ूद यहां पानी के इंतज़ामों को बेहतर बनाने की ओर कोई ख़ास ध्‍यान नहीं दिया गया।
बीते दशकों में तेहरान की आबादी तेज़ी से बढ़कर एक करोड़ के करीब पहुंच गई है। इसके बावज़ूद यहां पानी के इंतज़ामों को बेहतर बनाने की ओर कोई ख़ास ध्‍यान नहीं दिया गया। स्रोत : विकी कॉमंस

क्लाउड-सीडिंग का सहारा

बीबीसी ने अपनी एक रिपोर्ट में ईरान की सरकारी समाचार एजेंसी इरना के हवाले से बताया है कि ईरान सरकार सूखे से निपटने के लिए कृत्रिम वर्षा करवाने की तैयारी कर रही है। अधिकारियों ने इसके लिए क्लाउड-सीडिंग के एक व्‍यापक अभियान की तैयारी शुरू कर दी है। इसके लिए देश के उत्तर-पश्चिम इलाके में स्थिति ईरान की सबसे बड़ी झील उर्मिया लेक के बेसिन में क्लाउड सीडिंग उपकरणों से लैस विमानों को उड़ा कर बादलों से बारिश कराने वाले रसायनों का छिड़काव किया जाएगा। यह प्रक्रिया ईरान में वर्षों से इस्तेमाल की जा रही है। इस बार इसे काफ़ी बड़े पैमाने पर करने की योजना है। सीएनबीसी की रिपोर्ट के अनुसार ऊर्जा मंत्री अब्बास अलीबादी ने कहा है कि बारिश करवाने के लिए ईरान इस सप्ताह क्लाउड-सीडिंग तकनीक का उपयोग करने जा रहा है। हालांकि इसके लिए आसमान में नमी वाले बादलों का होना ज़रूरी है। 

क्या होती है क्लाउड सीडिंग?

क्लाउड सीडिंग कृत्रिम रूप से बारिश कराने का एक वैज्ञानिक तरीका है। इसमें बादलों के ऊपर रसायनों का छिड़काव करके किसी लक्षित (टार्गेटेड) स्‍थान पर वर्षा कराई जाती है। बादलों से बारिश कराने के लिए उसमें वाष्‍प के रूप में मौजूद नमी को पानी में बदलने के लिए बर्फ की छोटी बूंदों या ऐसे कणों की जरूरत होती है, जिनपर पानी जमा हो सके। इन कणों को ‘न्यूक्लियाई’ कहते हैं। इसके लिए क्लाउड सीडिंग में विमानों का इस्तेमाल करके बादलों में कण छोड़े जाते हैं। इससे न्यूक्लियाई बनते हैं, जिनपर वाष्‍प रूपी नमी संघनित हो जाती है। बूंदों के भारी होने पर वह बारिश के रूप में धरती पर गिरती हैं। इस तरह कृत्रिम वर्षा होती है। क्लाउड सीडिंग में न्यूक्लियाई के रूप में आमतौर पर सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल किया जाता है। यह विधि बारिश कराने में कारगर तो है, पर इसकी अपनी सीमाएं हैं। यह साफ आसमान से पानी नहीं बना सकती, न ही इसके ज़रिये सूखे बादलों से बारिश करवाई जा सकती है। इससे केवल नमी वाले बादलों से ही वर्षा कराई जा सकती है। रसायनों के ज़रिये कृत्रिम बारिश कराने की इस विधि की खोज 1940 के दशक में हुई। सन् 1946 में अमेरिका के जनरल इलेक्ट्रिक (GE) रिसर्च लैब में वैज्ञानिक विन्सेंट शेफ़र और इरविंग लैंगम्यूर ने की। उन्होंने कृत्रिम हिमकण बनाने के लिए सिल्वर आयोडाइड और सूखी बर्फ़ का इस्तेमाल किया। इसका पहला सफल प्रयोग उसी वर्ष न्यूयॉर्क राज्य के माउंट ग्रेलॉक के ऊपर किया गया, जहां बादलों में सूखी बर्फ़ डालकर कृत्रिम बर्फ़बारी कराई गई थी। इसके बाद 1960 के दशक तक तो क्‍लाउड सीडिंग दुनिया के कई देशों में की जाने लगी।  हालांकि, यह हर बार पूरी तरह से प्रभावी हो, ऐसा ज़रूरी नहीं है। हाल ही में दिल्‍ली में वायु प्रदूषण के स्‍तर को कम करने के लिए क्लाउड सीडिंग का प्रयास असफल हो गया था।

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