सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी: 'नक्शे से मिट जाएगा' हिमाचल, चार हफ़्ते में ऐक्शन प्लान दे सरकार
अपनी कुदरती खूबसूरती और खुशनुमा मौसम के लिए मशहूर पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश खतरे में है। खतरा इतना गंभीर है कि अगर इससे निपटने के उपाय न किए गए तो भारत का यह खूबसूरत हिमालयी राज्य नक्शे से मिट सकता है। यह किसी नेता या पर्यावरणविद का अतिरंजित बयान नहीं, बल्कि देश के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दी गई चेतावनी है। हिमाचल प्रदेश की सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में अनियोजित विकास और अनियंत्रित निर्माण कार्यों के चलते हो रही तबाहियों को देखते हुए ऐसा कहा है।
कोर्ट ने कहा है कि जिस तरह से हिमाचल प्रदेश में अनियोजित विकास, जंगलों की कटाई और ग्लेशियर पिघलने से बाढ़ और भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है, उस पर अगर अब भी नहीं संभले, तो हिमाचल का नामोनिशां नक्शे से मिट सकता है। कोर्ट ने मनमाने ढंग से सड़कें चौड़ी करने, पावर प्रोजेक्ट्स लगाने और अंधाधुंध निर्माण कार्यों से पहाड़ों को कमजोर किए जाने पर गंभीर चिंता जताई है। साथ ही, इसे लेकर कोर्ट ने राज्य सरकार से चार माह के भीतर एक्शन प्लान तैयार करके देने को भी कहा है।
द लॉ एडवाइज़ की रिपोर्ट के मुताबिक, स्वत: संज्ञान के तहत रिट याचिका (सिविल) संख्या 758/2025 की सुनवाई की प्रक्रिया शुरू करते हुए राज्य सरकार को सख्त निर्देश दिए। इस बार की अभूतपूर्व मानसूनी बारिश के बाद पूरे राज्य में अचानक बाढ़, भूस्खलन और जीवन, आजीविका और बुनियादी ढांचे के बड़े पैमाने पर विनाश की घटनाओं के बाद कोर्ट ने यह कदम उठाया।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने 23 सितंबर, 2025 को कहा कि हिमालय भूकंपीय गतिविधियों और तेज़ ढलानों के कारण प्राकृतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप ने इस जोखिम को और भी बढ़ा दिया है। यहां बार-बार होने वाले भूस्खलन, इमारतों के ढहने और सड़कों के धंसने के लिए प्रकृति नहीं, बल्कि मनुष्य ज़िम्मेदार हैं। जल विद्युत परियोजनाएं, फोर लेन हाईवे का विस्तार, वनों की अंधाधुंध कटाई और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बहुमंजिला निर्माण को बार-बार होने वाली आपदाओं का प्रमुख कारण हैं।
कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह 28 अक्टूबर 2025 को होने वाली अगली सुनवाई से पहले डेटा के साथ वन विभाग के प्रधान सचिव द्वारा विधिवत सत्यापित जवाब दाखिल करे। कोर्ट ने इन बिंदुओं पर जवाब मांगा है-
1. ज़ोनिंग और भूमि उपयोग
• ज़ोनिंग के लिए सरकार की ओर से अपनाए गए मानदंड (भूकंपीय गतिविधि, भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र, पारिस्थितिकी-संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए)।
• संरक्षित क्षेत्रों में पारिस्थितिकी-संवेदनशील क्षेत्रों की अधिसूचना।
2. वन एवं वृक्ष आवरण
• पिछले 20 वर्षों में प्रतिवर्ष कितनी वन भूमि के लैंड यूज़ में गैर-वनीय उद्देश्यों के लिए बदलाव किया गया।
• राज्य का कुल वन क्षेत्र (टोटल फॉरेस्ट कवर) और वनों में मौजूद पेड़ों का प्रजातिवार डेटा।
• पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई के लिए दी गई अनुमतियों की जानकारी।
3. प्रतिपूरक वनरोपण
• वनों को हुई हानि की क्षतिपूर्ति के लिए पिछले दो दशकों में लगाए गए पेड़ों की संख्या।
• इन वृक्षों के पनपने (उत्तरजीविता) की दर।
• वनरोपण के लिए निर्धारित रकम का इस्तेमाल किस प्रकार किया गया।
4. जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों का सिमटना
• राज्य की मौजूदा जलवायु परिवर्तन नीति।
• ग्लेशियरों के सिमटने पर किए गए अध्ययनों की जानकारी।
• हिमालयी क्षेत्र में भविष्य के प्रभाव पर अनुमान।
5. सड़कों का विस्तार और भूस्खलन
• हिमाचल प्रदेश में बनाए गए चार लेन राजमार्गों की संख्या।
• इन मार्गों पर भूस्खलन से संबंधित आंकड़े।
• भूस्खलन को रोकने के लिए किए गए उपचारात्मक एवं निवारक उपाय ।
6. जलविद्युत परियोजनाएं
• नदियों की संख्या जिन पर नई परियोजनाएं शुरू की गई हैं।
• इन परियोजनाओं के पर्यावरणीय असर के अध्ययन की रिपोर्ट।
7. खनन और भारी मशीनरी
• राज्य में खनन पट्टों की वर्तमान स्थिति।
• पहाड़ी इलाकों में विस्फोटकों और भारी मशीनरी के उपयोग पर लागू प्रोटोकॉल।
8. पर्यटन और निर्माण
• होटल, होमस्टे और किराये के आवास के लिए दी गई अनुमतियों का विवरण।
• पारिस्थितिकी के लिहाज़ से संवेदनशील क्षेत्रों में बहुमंजिला निर्माण पर प्रतिबंध की जानकारी।
• हिमाचल प्रदेश नगर एवं ग्राम नियोजन अधिनियम- 977 के तहत दर्ज़ किए गए मामलों की जानकारी।
ज़मीनी तस्वीर: शिमला, कुल्लू और किन्नौर के अनुभव
हिमाचल प्रदेश की भौगोलिक संवेदनशीलता को नज़रअंदाज़ करके किए गए निर्माण कार्यों और बाकी इंसानी गतिविधियों के प्रतिकूल प्रभावों को अगर प्रत्यक्ष देखना हो, तो इसे राज्य की राजधानी शिमला, कुल्लू और किन्नौर जैसे ज़िलों के मौजूदा हालात से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है-
शिमला
शिमला में बीते दो दशकों में होटलों और बहुमंज़िला इमारतों के बेतरतीब निर्माण ने यहां के हालात गंभीर बना दिए हैं। इसका नतीजा यहां बारिश का पैटर्न बदलने से लेकर आए दिन भूस्खलन और सड़क धंसने की घटनाओं के रूप में देखने को मिलती है। इसकी वजह मनमाने ढंग से किए गए निर्माणों के चलते पहाड़ की ढलानों का कमजोर होना और पेड़ों की कटाई के चलते मिट्टी का ढीला होना है। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने के चलते दो साल पहले, साल 2023 की बारिश में शिमला में कई मकान गिर गए और जगह-जगह सड़कें ध्वस्त हो गईं। इसकी एक वजह यहां शहर की क्षमता से कई गुना अधिक पर्यटकों वाहनों की आवाजाही भी है, जिनका बोझ यहां की ज़मीन को अस्थिर बना रहा है।
ताज़ा उदाहरण सितंबर 2025 में हुए एक बड़े भूस्खलन रूप में देखने को मिला, जिसने रापुर सबडिवीजन के पास राष्ट्रीय राजमार्ग-05 को अवरुद्ध कर दिया था। इस हादसे में किस तरह अचानक से पहाड़ी का एक बड़ा हिस्सा कटकर सड़क पर आ गिरा, जिससे हज़ारों टन मलबे का ढेर लग गया। इसे वीडियो में देखा जा सकता है। नवभारत टाइम्स की एक खबर में 19 सितंबर 2025 को सेंट एडवर्ड्स स्कूल के पास हुए भूस्खलन की घटना की जानकारी दी गई है। इस घटना में एक पिता और उसकी 10 वर्षीया बेटी सहित तीन लोगों की मृत्यु हुई थी और स्कूल का ऐहतियातन कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा था।
इसी तरह 2 सितंबर 2025 को प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर बताती है कि किस तरह हाल ही में हुई अति वर्षा और भूस्खलन की घटनाओं के चलते राज्य में 500 से अधिक जगहों पर सड़कों को बंद करना पड़ा। इनमें से कई जगहें शिमला और किन्नौर ज़िलों की थीं, क्योंकि वहां बाढ़ और भूमि धंसने की वजह से रास्तों में रुकावट आ गई।
कुल्लू
कुल्लू घाटी, जिसे देवभूमि और पर्यटन का केंद्र कहा जाता है, अब बाढ़ और भूस्खलन से जूझ रही है। ब्यास नदी पर बने हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट और तटीय निर्माण ने नदी की धारा और प्राकृतिक प्रवाह को प्रभावित किया है। साल 2023 और 2024 की भारी बारिश में कुल्लू और मनाली में पुल बह गए, सड़कें कट गईं और हजारों पर्यटक फंस गए।
बागवानी और खेती करने वाले किसानों ने बताया कि बदलते मौसम और मिट्टी के कटाव से उनके सेब बगीचे भी प्रभावित हुए हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक 20 सितंबर को भारी वर्षा के बाद राज्य के कई इलाकों में हुए भूस्खलन के चलते शिमला से लेकर कुल्लू और किन्नौर तक ज़मीन धसने और फ़्लैश फ़्लड के चलते सड़कें ढह गई थीं।
कुल्लू
कुल्लू घाटी अपने प्राकृतिक सौंदर्य और हाइड्रोपावर परियोजनाओं के लिए जानी जाती है, लेकिन प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने के चलते अब यह भारी वर्षा, फ्लैश फ्लड और बार-बार भूस्खलन की घटनाओं से जूझ रही है। टीओआई की खबर के मुताबिक, सितंबर 2025 में राज्य भर में 500 से ज़्यादा सड़कें बंद हो गई थीं, जिसमें सबसे ज़्यादा प्रभावित रास्ते कुल्लू ज़िले में थे।
एक खबर के अनुसार, पिछले महीने हुई हुई भारी बारिश ने कुल्लू जिले में कम से कम पांच लोगों की जान गई और कई जगह सड़कों को बंद करना पड़ा। टीओआई की 19 सितंबर को प्रकाशित खबर के अनुसार, राज्य में भूस्खलन की बढ़ती घटनाओं के बाद केंद्र सरकार ने कुल्लू में स्थिति को समझने के लिए भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की एक टीम भेजी है, ताकि भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों का अध्ययन कर बचाव एवं स्थिरता उपाय सुझाए किए जा सकें।
किन्नौर
सेब बागानों और खुबसूरत पहाड़ी नज़ारों के लिए मशहूर किन्नौर ज़िला भूस्खलन का गंभीर शिकार बन रहा है। इसके चलते यहां अक्सर चट्टानें गिरने की घटनाएं होती हैं। साल 2021 में निगुलसरी भूस्खलन में कई लोगों की जान गई थी और राष्ट्रीय राजमार्ग घंटों के लिए ठप हो गया था।
किन्नौर की पहाड़ियों में लगातार सुरंग निर्माण, पहाड़ों को काटकर सड़कें चौड़ी किए जाने और हाइड्रोपावर परियोजनाओं के लिए बनाए गए बांधों के बोझ ने यहां के प्राकृतिक संतुलन को हिला कर रख दिया है। इसके चलते यहां के प्राकृतिक जलस्रोत भी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। पहले यहां के छोटे झरनों में सालभर पानी बहता था, पर अब साल के कई महीनों में ये सूखे रहते हैं। साल दर साल इनमें पानी का प्रवाह भी कम होता जा रहा है।
किन्नौर में ज़्यादातर जगहों पर तेज़ चढ़ाइयां और ढलानें देखने को मिलती हैं। ऐसे में, पेड़ों की कटाई और जलवायु परिवर्तन से होने वाली अत्यधिक वर्षा के कारण यहां अकसर बादल फटने और फ़्लैश फ़्लड की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं। डीडी न्यूज की खबर के अनुसार, सितंबर 2025 में बादल फटने की एक घटना ने किन्नौर में फसलों और बागों को नुकसान पहुंचाया। इससे पहले साल 2021 में किन्नौर में हुए एक बड़े भूस्खलन में दर्ज़नों लोग मारे गए थे।
इस तरह हिमाचल के इन तीन प्रमुख ज़िलों के हालात बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी कोई दूर की संभावना नहीं, बल्कि आज की एक ज़मीनी हकीकत है। अगर शिमला, कुल्लू और किन्नौर जैसे प्रमुख पर्यटन क्षेत्र लगातार आपदाओं की चपेट में आ रहे हैं, तो दूर-दराज़ के बाकी इलाकों में क्या स्थिति होगी इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है।
इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी दी है कि अगर अनियोजित विकास, जंगलों की कटाई और ग्लेशियरों के पिघलने जैसी चीज़ों पर तुरंत रोक न लगाई गई, तो यह राज्य नक्शे से मिट सकता है। साथ ही न्यायालय ने राज्य सरकार को चार माह के भीतर इस पर एक ठोस एक्शन प्लान प्रस्तुत करने का आदेश दिया है।
सुधार की राह में हैं कई बड़ी बाधाएं
सुप्रीम कोर्ट के इस सख्त आदेश से राज्य सरकार में हड़कंप मच गया है। सरकार के लिए कोर्ट को जवाब देना मुश्किल हो रहा है। इस सख्ती से एक उम्मीद जगी है कि आने वाले दिनों में राज्य में प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ पर लगाम लगने से हालात में सुधार देखने को मिल सकता है। हालांकि, यह आसान काम नहीं है, क्योंकि इसमें कई तरह की बड़ी चुनौतियां सामने खड़ी नज़र आती हैं, जिन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है-
राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी : यह सबसे पहली चुनौती है। विकास योजनाओं से होने वाले लाभ, बिजली उत्पादन से मिलने वाली आय, पर्यटन आय में बढ़ोतरी जैसी चीज़ों का अपने आप में एक बड़ा आकर्षण होता है, जिसके चलते पर्यावरण की चिंता अकसर पीछे छूट जाती है। ऐसे में, मौजूदा रवैये को बदलते हुए पर्यावरण हितैषी नीतियों की ओर रुख कर पाना मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना संभव नहीं दिखता।
भ्रष्टाचार और नियमों का उल्लंघन : भ्रष्टाचार और नियमों का उल्लंघन करते हुए बहुत सी परियोजनाएं पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार करते हुए शुरू हो जाती हैं। नियमन और निरीक्षण की प्रक्रिया में ढिलाई बरती जाती है। वन संरक्षण के नियमों को भी अनदेखा कर दिया जाता है। जब तक इस तरह का भ्रष्टाचार और नियमों का उल्लंघन जारी रहेगा और निगरानी तंत्र सुदृढ़ नहीं होगा, इन गलतियों का सिलसिला चलता रहेगा।
जनभागीदारी और जागरूकता की कमी : यह तीसरी चुनौती है, जिससे निपटने के लिए ग्रामसभा स्तर पर आम लोगों को जागरूक करना होगा। साथ ही, स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पर्यावरण संरक्षण को एक विषय के रूप में की पढ़ाई में शामिल करना आवश्यक है। पर्यावरणीय शिक्षा के ज़रिये ही स्थायी बदलाव लाया जा सकता है। हालांकि, इसमें लंबा वक्त लग सकता है।
आर्थिक व संसाधनों की कमी : राज्य में वनों की बहाली, भू-संरक्षण, जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना और प्राकृतिक रूप से संवेदनशील इलाकों की ठोस निगरानी जैसे कामों के लिए काफ़ी पैसे और संसाधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए राज्य को केंद्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहायता, सार्वजनिक-निजी भागीदारी जैसे मॉडलों को अपनाने की ज़रूरत पड़ सकती है।