क्या ‘बीजिंग मॉडल’ घटा सकता है वायु प्रदूषण से जूझती दिल्ली की घुटन?
कोहरे का कहर बढ़ते ही देश की राजधानी दिल्ली की हवा एक बार फिर बेहद खराब हो गई है। स्मॉग, पीएम-2.5 कणों, धूल, धुएं और जहरीली गैसों ने दिल्ली की घुटन को और भी बढ़ा दिया है। वायु प्रदूषण को काबू करने के सरकारी प्रयास दिखावटी बनकर रह गए हैं, जिसपर सख्ती दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे 'टोटल फेलियर' क़रार दिया है। बेक़ाबू होते वायु प्रदूषण का हाल यह है कि मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर के दूसरे हफ्ते में दिल्ली के कई इलाक़ों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 400+ ‘गंभीर’ श्रेणी तक पहुंच गया। कुछ इलाक़ों में तो यह आंकड़ा 450 अंक को भी पार कर गया।
इस बेतहाशा वायु प्रदूषण पर दिल्ली के लोगों का गुस्सा हाल ही में उस वक्त देखने को मिला जब अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त अर्जेंटीना फुटबॉलर लियोनेल मेसी से जुड़े एक कार्यक्रम में शिरकत करने अरुण जेटली स्टेडियम (फिरोज शाह कोटला) पहुंची दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के खिलाफ नारे गूंज ऊठे। हालांकि इन निराशाओं के बीच उम्मीद की राह दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने दिखाई है। चीन के दूतावास की प्रवक्ता यू जिंग ने दिल्ली ही की तरह बीजिंग में बेतहाशा बढ़े वायु प्रदूषण से निपटने के लिए चीन सरकार द्वारा किए गए कारगर उपायों की जानकारी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर एक पोस्ट के ज़रिये साझा की है।
यू जिंग ने अपनी X पोस्ट में कहा कि '’चीन और भारत दोनों ही तीव्र शहरीकरण के बीच वायु प्रदूषण की समस्या से अच्छी तरह वाकिफ हैं। यह चुनौती जटिल बनी हुई है, लेकिन पिछले एक दशक में चीन के निरंतर प्रयासों से उल्लेखनीय सुधार देखने को मिले हैं।" उन्होंने दोनों राजधानियों के वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) के आंकड़े भी साझा किए, जिसमें बीजिंग का एक्यूआई 68 और दिल्ली का 447 बताया गया। बीजिंग मॉडल का हवाला देते हुए बताया कि कैसे सख्त कानून, इलेक्ट्रिक वाहन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और लगातार अमल से बीजिंग ने साफ हवा की जंग जीती। साथ ही प्रदूषण से निपटने के ऐसे 6 कारगर तरीके बताए हैं जिनसे सीख लेकर भारत दिल्ली-एनसीआर समेत अन्य महानगरों में तेज़ी से बढ़ते वायु प्रदूषण की समस्या पर काबू पा सकता है।
यू जिंग ने वायु गुणवत्ता में सुधार लाने के दो प्रमुख उपायों का उल्लेख किया वह हैं वाहन उत्सर्जन नियंत्रण और औद्योगिक पुनर्गठन। उन्होंने बताया कि वाहनों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए चीन ने चीन-6 एनआई जैसे कड़े मानकों को सख्ती से लागू किया, जो यूरो 6 के बराबर थे। इसके तहत पुराने और ज़्यादा उत्सर्जन वाले वाहनों को चरणबद्ध तरीके से चलन से बाहर कर दिया गया। इसके अलावा वाहनों के नंबर (लाइसेंस प्लेट) की लॉटरी और ऑड/इवेन फार्मूले को लागू कर सड़कों पर ट्रैफिक को घटाया गया। इसके तहत अलग-अलग दिन सम और विषम नंबर वाली गाड़ियों को चलने की अनुमति दी गई।
तीन-चार साल पहले यह फार्मूला दिल्ली में भी लागू किया गया था, जिसके अच्छे नतीजे देखने को मिले थे। इसके साथ ही जिंग ने सार्वजनिक परिवहन और स्वच्छ परिवहन (क्लीन मोबिलिटी) में निवेश की ओर भी इशारा करते हुए बीजिंग में दुनिया के सबसे बड़े मेट्रो और बस नेटवर्क के निर्माण का उल्लेख किया। साथही "ई-मोबिलिटी की ओर बदलाव को तेज करने" और "बीजिंग-तियानजिन-हेबेई क्षेत्र के साथ समन्वित उत्सर्जन कटौती पर काम करने" के प्रयासों का भी उल्लेख किया। इन उपायों पर लंबे समय तक काम करने की ज़रूरत बताते हुए उन्होंने कहा, "स्वच्छ हवा रातोंरात नहीं मिलती, लेकिन यह संभव है।"
बीजिंग में वायु प्रदूषण का इतिहास
चीन की राजधानी बीजिंग भी कुछ साल पहले “धुएं भरी राजधानी” के नाम से कुख्यात थी। लंबे समय तक यह गंभीर प्रदूषण से पीड़ित रहा। इसकी शुरुआत करीब चार दशक पहले हुई, जब 1978 में चीन द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था खोलने के बाद, कार्बन उत्सर्जन में भारी वृद्धि हुई। 2000 के दशक के उत्तरार्ध तक स्थितियां बदतर होनी शुरू हो गईं, जब बीजिंग की हवा में PM2.5 (2.5 माइक्रोमीटर या उससे भी छोटे आकार के सूक्ष्म कण ) की मात्रा इस क़दर बढ़ गई थी कि अकसर AQI 500+ तक पहुंच जाता था। यह स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सुरक्षित सीमा (25 µg/m³) से 30–40 गुना अधिक था। बीजिंग में यह खतरनाक स्थिति कई हफ्तों और कई बार तो महीनों तक बनी रहती थी। चीन की राजधानी में कोयला जलाने, भारी उद्योगों और वाहनों के धुएं आदि के चलते 'गैस चैंबर' जैसे हालात बन गए थे।
इस भयंकर वायु प्रदूषण के चलते बड़ी संख्या में लोगों के बीमार होने, गर्भपात और मौतें होने की खबरें आने लगी थीं। हालात इतने बेकाबू हो गए थे कि लोगों में बीजिंग छोड़ना शुरू कर दिया था। ऐसे लोगों के लिए 2013 के बाद चीन में “स्मॉग रिफ्यूजी” शब्द प्रचलन में आया। कंपनियों ने भी अपने कॉरपोरेट दफ्तरों को राजधानी से हटाकर अन्य शहरों में शिफ्ट करना शुरू कर दिया। बीजिंग की इस बिगड़ती हालत को देखते हुए अमेरिका सहित कुछ देशों ने तो वहां से अपने दूतावास और अन्य दफ्तरों को बंद करने की चेतावनी तक दे डाली थी। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की छवि खराब होने लगी थी।
क्या था बीजिंग मॉडल?
वायु प्रदूषण के लिए चीन सरकार द्वारा अपनाया गया ‘बीजिंग मॉडल’ व्यापक, केंद्रित और सख्त नीतियों का एक पैकेज था, जिसे 2013 के आसपास शुरू किया गया। इसका लक्ष्य बीजिंग में वायु प्रदूषण को केवल अस्थायी रूप से नहीं, बल्कि दीर्घकालिक रूप से कम करना था। इसका उल्लेख कई विशेषज्ञ ‘बीजिंग एयर पॉल्यूशन कंट्रोल एक्शन प्लान’ के रूप में करते हैं। इस एक्शन प्लान में शामिल बातें मुख्यत: इस प्रकार थीं-
उद्योगों पर कसी नकेल
औद्योगिक प्रदूषण से निपटने के लिए बीजिंग ने 3000 से अधिक भारी उद्योगों को बंद या दूसरी जगहों पर स्थानांतरित कर दिया। इसके तहत चीन की सबसे स्टील उत्पादक कंपनियों में गिनी जाने वाली शौगांग के कारखाने को भी स्थानांतरित कर दिया। इतने बड़े स्टील प्लांट को शिफ्ट करना एक जटिल काम था, पर इसके दमदार नतीजे देखने को मिले, क्योंकि अकेले इस कदम से ही सांस के जरिए अंदर जाने वाले सूक्ष्म कणों में 20% की कमी आई।
गौरलतब बात यह है कि चीन सरकार ने बीजिंग से स्थानांतरित किए गए उद्योगों के कारखानों को यूं ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि खाली पड़ी फैक्ट्रियों को पार्कों, वाणिज्यिक केंद्रों, तकनीकी केंद्रों में परिवर्तित करके उपयोगी बनाए रखा। उदाहरण के लिए, शुगांग का स्टील प्लांट 2022 शीतकालीन ओलंपिक का स्थल बना। इस तरह प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को व्यवस्थित रूप से हटाने या बंद करने उत्सर्जन में भारी कमी आई। बीजिंग के इस कदम से सबक लेते हुए दिल्ली में भी सख्त नियामक कार्रवाई करते हुए प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों पर लगाम लगाई जा सकती है।
फॉसिल फ्यूल के इस्तेमाल में कमी
बीजिंग की हवा को साफ-सुथरा बनाए रखने के लिए डीजल, पेट्रोल, प्राकृतिक गैस (सीएनजी) और कोयले जैसे प्रदूषणकारी जीवाश्म ईंधनों (फॉसिल फ्यूल) के इस्तेमाल में कमी लाने के उपाय किए गए। सबसे पहले कारखानों में चलने वाले कोयला आधारित बॉयलरों पर प्रतिबंध लगाया गया। इसके बाद डीजल के धुएं पर लगाम कसते हुए पहले डीजल जेनरेटरों पर रोक लगाई गई फिर पुराने डीजल वाहनों को चरणबद्ध ढंग से चलन से बाहर किया गया। बिजली के लिए सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा के विकल्पों को बढ़ावा दिया गया, जबकि परिवहन के लिए लोगों को इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर रुख करने को प्रेरित व प्रोत्साहित किया गया। जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ाए गए इन कदमों का बीजिंग जो व्यापक असर देखने को मिला उसका अनुकरण दिल्ली में किया जा सकता है। संगठित प्रोत्साहन उपायों और नीतियों को लागू करके इसे अपनाया जाना चाहिए।
परिवहन व्यवस्था में सुधार
वायु प्रदूषण कम करने की रणनीति में परिवहन में सुधार बीजिंग मॉडल का एक बिंदु रहा। इसके लिए 2013 के बाद चीन ने राजधानी में China V और China VI जैसे सख्त वाहन उत्सर्जन मानक लागू किए, जो यूरोप के Euro-5 और Euro-6 मानकों के समकक्ष थे। इसके तहत पुराने और ज़्यादा प्रदूषण करने वाले वाहनों को चरणबद्ध तरीके से सड़कों से हटाया गया। 2017 तक बीजिंग में 20 लाख से अधिक पुराने वाहनो को या तो शहर से बाहर कर दिया गया या उनका लाइसेंस खत्म कर कर चलन से बाहर कर दिया गया। सड़कों पर वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने के लिए बीजिंग ने विषम-सम मॉडल के साथ ही लाइसेंस प्लेट लॉटरी और रोड-स्पेस राशनिंग जैसे कदमों को एक दीर्घकालिक नीति के रूप में लागू किया। इसके तहत 2011 से नए निजी वाहनों के पंजीकरण के लिए वार्षिक कोटा तय कर दिया गया। इससे वाहन की संख्या में बढ़ोतरी की दर 10–12% से घटकर 2–3% पर आ गई।
इसके अलावा निजी वाहनों की संख्या घटाने के लिए सार्वजनिक परिवहन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) की व्यवस्था को मज़बूत किया गया। बीजिंग का मेट्रो नेटवर्क 2000 में केवल 54 किलोमीटर लंबा था, जो 2023 तक बढ़कर 830 किलोमीटर से अधिक का हो कर दुनिया के सबसे बड़े शहरी रेल नेटवर्क में से शुमार हो गया है। इसी का नतीज़ा है कि बीजिंग में आज करीब 70% दैनिक यात्राएं पब्लिक ट्रांसपोर्ट से होती हैं, जिससे निजी वाहनों पर निर्भरता काफ़ी हद तक घट गई है। इधर, दिल्ली में BS-VI मानक लागू होने के बावजूद, वाहन संख्या पर वास्तविक नियंत्रण नहीं हो सका है, बल्कि इसमें बढ़ोतरी जारी है। पूरे एनसीआर में वाहनों की संख्या 2010 में लगभग 70 लाख से बढ़कर 2023 में 1.3 करोड़ से अधिक हो चुकी।
नए सिरे से किया शहरी नियोजन
बीजिंग में वायु प्रदूषण को काबू में लाने का श्रेय समझदारी से किए गए नगर नियोजन को भी जाता है। हालांकि इसकी चर्चा कम ही होती है, पर बीजिंग मॉडल को कामयाब बनाने में नए नगर नियोजन की अहम भूमिका रही। इसमें शहर की नए सिरे से प्लानिंग करते हुए शहर का नया मास्टर प्लान तैयार करके ज़ोनिंग की व्यवस्था को लागू किया गया। शहर को विस्तार देने के लिए विकसित किए गए नए इलाकों को में जहां हरियाली का खास ध्यान रखा गया, वहीं सघन बसावट वाले पुराने इलाकों के आसपास भी पर्याप्त ग्रीन एरिया को विकसित किया गया। इस तरह बीजिंग में ‘कॉम्पैक्ट सिटी’ और 'पॉलीसेंट्रिक डेवलपमेंट' की अवधारणाओं को साथ-साथ अपनाया गया। इसमें किसी एक इलाक़े को शहर का केंद्र बनाने के बजाय शहर को कई उप-केंद्रों (Sub-Centers) में बांटा गया।
बाज़ार, कारोबार, कार्यालय, मनोरंजन, खेलकूद, और सांस्कृतिक गतिविधियों जैसी चीज़ों के लिएअलग-अलग केंद्र विकसित किए गए। इसमें भी आवास, रोजगार, और सेवाओं वाले ज़ोन को आस-पास विकसित किया गया, ताकि लोगों को अपने दैनिक जीवन में कम से कम यात्रा करनी पड़े। सरकार की इन नीतियों के कारण 2010–2020 के बीच बीजिंग में औसत दैनिक यात्रा दूरी में लगभग 15–18% की कमी आई और यह 10 से 15 किलोमीटर के दायरे में सिमट गई। इससे यातायात से होने वाले प्रदूषण में भी भारी कमी आई।
इसी तर्ज़ पर दिल्ली-एनसीआर में भी हरित क्षेत्रों को विकसित कर, मिश्रित भूमि उपयोग (मिक्स्ड लैंड यूज़) और ज़ोनिंग की व्यवस्था को सख्ती से लागू करके वायु प्रदूषण में अच्छी खासी कमी लाई जा सकती है। फिलहाल तो दिल्ली-एनसीआर में इसके उलट ही शहरी नियोजन दिखता है। कारोबारी केंद्र दिल्ली में हैं, जबकि सेवा क्षेत्र नोएडा और गुरुग्राम में दो विपरीत सिरों पर स्थापित है। आवासीय विस्तार गाजियाबाद में, तो औद्योगिक इलाक्रे ओखला और फरीदाबाद में हैं।
आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन के अनुसार इस बेतरतीब नगर नियोजन के चलते दिल्ली-एनसीआर में कामकाजी लोगों की दैनिक यात्रा दूरी की औसत 22–25 किलोमीटर है, जो ईंधन खपत और प्रदूषण दोनों को बढ़ाती है। साथ ही इससे लोगों के खर्चे भी बढ़ते हैं और समय भी बर्बाद होता है। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली-एनसीआर लोग अपनी जिंदगी का 5% हिस्सा दैनिक यात्राओं में ही बिता देते हैं।
जनभागीदारी से मिली नीति को सामाजिक स्वीकार्यता
बीजिंग में भयंकर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का करिश्मा केवल सरकारी नीति, नियमों आदेशों से नहीं हुआ। इसमें जनता को भागीदार बनाकर योजना की सफलता सुनिश्चित की गई। इससे बदलावों को अमली जामा पहनाने में सहूलियत हुई, वहीं सरकार की नई नीति को सहज ही सामाजिक स्वीकार्यता भी मिली। इसके तहत सबसे पहले चीन सरकार ने 2013 के बाद एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) को सार्वजनिक करते हुए मोबाइल ऐप्स और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के जरिए वायु प्रदूषण और हवा की क्वालिटी के रियल-टाइम डेटा को लोगों तक पहुंचाना शुरू किया। इससे लोगों को अहसास हुआ कि स्थिति कितनी ख़तरनाक हो चली है और वायु प्रदूषण के बचाव के उपाय पहली बार लोगों के रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बने।
एक्यूआई के ख़तरनाक स्तर को देखकर लोगों ने स्वत: ही मास्क लगाना, यात्रा में कमी और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर सावधानियां बरतनी शुरू कर दीं। इसके साथ-साथ “Blue Sky Campaign” जैसे अभियानों के जरिए नागरिकों को कोयले का इस्तेमाल छोड़ने, दैनिक यात्राओं के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट को अपनाने और बिजली व ईंधन की बचत के लिए प्रोत्साहित किया गया। CSE द्वारा प्रकाशित OECD की रिपोर्ट के अनुसार जनभागीदारी के प्रयासों से वाहन प्रतिबंध और ईंधन में बदलाव लाना और बिजली की खपत में कमी लाने जैसी नीतियों के पालन में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला।
हालांकि हाल ही में दिल्ली में भी AQI डेटा को सार्वजनिक प्लेटफॉर्मों पर उपलब्ध कराना शुरू कर दिया गया है, पर जनभागीदारी के कदमों के अभाव के चलते फिलहाल नागरिक सहभागिता नज़र नहीं आ रही है, बल्कि मोटे तौर पर लोगों का रवैया प्रतिक्रियात्मक ही बना हुआ है। यानी वायु प्रदूषण के संकट पर बहस और विरोध तो हो रहा है, पर हालात में बदलाव लाने के लिए लोग अपने व्यवहार में परिवर्तन लाते नज़र नहीं आ रहे हैं। ऐसे में अगर बीजिंग मॉडल की तरह ही वायु प्रदूषण के मुद्दे को यदि स्कूल पाठ्यक्रम, मोहल्ला-स्तरीय कार्यक्रमों में शामिल किया जाए और स्थानीय निकायों को निचले स्तर तक प्रक्रिया से जोड़ा जाए, तो नीतियों को एक जन स्वीकृति के साथ लागू करने में मदद मिल सकती है। क्रियान्वयन को मजबूती दे सकता है।
सरकार को नियम बनाने व लागू करने के साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय निकायों की चिंताजनक रिपोर्टों के ज़रिये वायु प्रदूषण की भयावहता लोगों को अवगत कराना चाहिए। रिपोर्ट बताती है कि भारत में वायु प्रदूषण और हवा में मौजूद महीन कणों के संपर्क में आने से हर साल लगभग 70 लाख लोगों की मौत हो रही है। ये कण दौरे (स्ट्रोक), हृदय रोग, फेफड़ों का कैंसर, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज और निमोनिया सहित श्वसन संक्रमण जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बनते हैं। पार्टिकुलेट मैटर के साथ ही हवा में मौज़ूद कार्बन मोनोऑक्साइड, ओजोन, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड जैसी ज़हरीली गैसें भी लोगों की सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचा रही हैं। दिल्ली सरकार को ऐसी जानकारियों के साथ जन;जागरूकता लाकर नीति प्रक्रिया में नागरिक शिक्षा को शामिल करना होगा। इसके लिए व्यापक स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन करने के साथ ही ऑनलाइन अभियान चलाए जा सकते हैं, ताकि प्रदूषण के ख़तरे की गंभीरता को समझ कर लोग स्वयं ही सरकार के प्रयासों के साथ जुड़ें और तत्परता से नियमों का पालन करें।
इस तरह हम देखते हैं कि बीजिंग ने जिस दौर में “एयरपोकैलिप्स” (वायु प्रदूषण के जानलेवा स्तर तक पहुंचने की स्थिति) झेली। पर, यह संकट उसके लिए नीतिगत बदलाव की वजह बना। सरकार के कारगर फैसलों और उसमें जनता की बढ़चढ़ कर भागीदारी ने समय के साथ हवा को फिर से सांस लेने लायक बना दिया। आज दिल्ली भी लगभग उसी मोड़ पर खड़ी है। समस्या के कारण और समाधान दोनों साफ दिखाई दे रहे हैं, ज़रूरत है केवल सही दिशा में कदम बढ़ाने की।
बीजिंग की तरह ही अगर दिल्ली में भी परिवहन, नगर नियोजन, ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक बदलावों को अमल में लाया जाए और एक साझा रणनीति बनाकर इसमें जनभागीदारी सुनिश्चित की जाए, तो यहां भी वायु प्रदूषण का ग्राफ नीचे आ सकता है। पड़ोसी देश चीन के ‘बीजिंग मॉडल’ की कामयाबी की मिसाल के बाद अब सवाल यह नहीं रह गया है कि कौन सा मॉडल अपनाया जाए, सवाल यह है कि हम इसे लागू करने के लिए कितने तैयार हैं। सरकार और दिल्ली के लोगों को समझना होगा कि अब भी देरी हुई, तो इसकी कीमत स्वास्थ्य और हो सकता है जान से भी चुकानी पड़े।

