जाड़े में धुएं का प्रदूषण कोहरे से मिलकर दिल्‍ली की फिज़ाओं को धुंधला और हवाओं को ज़हरीला बना देता है। इस बार इथियोपिया के ‘हेली गुब्बी’ ज्‍वालामुखी की राख के कण भी इसमें मिलने से स्थिति और खराब होने की आशंका है।
जाड़े में धुएं का प्रदूषण कोहरे से मिलकर दिल्‍ली की फिज़ाओं को धुंधला और हवाओं को ज़हरीला बना देता है। इस बार इथियोपिया के ‘हेली गुब्बी’ ज्‍वालामुखी की राख के कण भी इसमें मिलने से स्थिति और खराब होने की आशंका है। स्रोत : विकीकॉमंस

इथियोपिया में फटा ‘हेली गुब्बी’ ज्‍वालामुखी कर सकता है दिल्‍ली की हवा और भी खराब

ज्‍वालामुखी की राख, पीएम-2.5 और सल्‍फर डाइऑक्साइड पराली जलने के कारण दिल्‍ली में बने स्‍मॉग से ज्‍वालामुखी की राख, पीएम-2.5 और सल्‍फर डाइऑक्साइड पराली जलने के कारण दिल्‍ली में बने स्‍मॉग से मिलकर कर सकती हैं राजधानी वासियों की सांसें दुश्‍वार, दिसंबर में पड़ सकती है मास्‍क पहनने की ज़रूरत
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देश की राजधानी दिल्‍ली हर साल की तरह इस बार भी जाड़े में स्‍मॉग से घिर गई है। 26 नवंबर को दिल्ली के अधिकतर मॉनिटरिंग स्टेशनों पर एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्‍यूआई) 300 से 380 के बीच रिकॉर्ड किया गया, जो हवा की गुणवत्ता बेहद खराब होने की स्थिति दर्शाता है। इस वायु प्रदूषण के चलते कई इलाकों में लोगों ने आंखों में जलन और घुटन महसूस होने की शिकायत की है। लेकिन दिल्‍ली वालों को इस साल इससे भी बुरे हालात झेलने के लिए तैयार रहना होगा। इसकी वजह है अफ्रीकी देश इथियोपिया में 12 हज़ार साल बाद हेली गुब्बी ज्‍वालामुखी का फट पड़ना। इससे उठने वाली ज़हरीली गैसों और पीएम-2.5 जैसे बेहद बारीक कणों का धुआं लंबे सफ़र के बाद यहां तक पहुंचने का अनुमान है। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि हवा में उसके कण मिल जाने से अगले एक-दो हफ़्तों में दिल्ली की हवा और ज्यादा बिगड़ सकती है, और प्रदूषण स्तर खतरनाक सीमा तक पहुंच सकता है।

दैनिक भास्‍कर की रिपोर्ट के मुताबिक इस विस्फोट से उठने वाली राख और सल्फर डाइऑक्साइड करीब 15 किमी ऊंचाई तक पहुंच गई है। यह इतना घना था कि इसके चलते एअर इंडिया को अपनी 11 उड़ानें रद्द करनी पड़ीं। कुछ ही घंटों में यह लाल सागर पार करते हुए यमन और ओमान तक फैल गई। इसके बाद 24 नवंबर की देर रात करीब 11 बजे यह राख इथियोपिया से 4300 किलोमीटर की दूरी तय करके भारत के राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली-एनसीआर और पंजाब तक पहुंच चुकी है। 

इंडियामेटस्‍काई वेदर ने X पर एक अलर्ट जारी करते हुए बताया कि ज्‍वालामुखी से उठने वाले राख के ग़ुबार (ऐश प्लम) फ़िलहाल 15 हज़ार से 25 हज़ार फीट की ऊंचाई पर फैल रहा है। जबकि ज्‍वालामुखी के आसपास के इलाकों में यह 45,000 फीट की ऊंचाई तक पहुंच चुकी है। इस राख में सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) गैस और छोटे कांच के अलावा चट्टानों से टूटने वाले सूक्ष्‍म कण भारी मात्रा में मौज़ूद हैं।
सल्फर डाइऑक्साइड एक हानिकारक गैस है जो पर्यावरण और सेहत दोनों को नुक़सान पहुंचाती है। ज़हरीली गैस का यह ग़ुबार ओमान और अरब सागर क्षेत्र को पार कर उत्तर और मध्य भारत के मैदानी इलाकों तक फैल चुका है। इसके कारण यहां आकाश में सामान्य से अधिक अंधेरा दिख सकता है और इससे दिल्ली की हवा और भी ख़राब हो सकती है।

हालांकि राहत की बात यह है कि इसकी ऊंचाई काफ़ी अधिक होने के कारण यह उत्तर भारत की हवा की गुणवत्‍ता (एक्‍यूआई लेवल) पर असर नहीं डालेगा, लेकिन नेपाल के पहाड़ी इलाकों की हवा इससे ज़रूरी प्रभावित होगी। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने भी कहा है कि राख के बादल एक-दो दिन में भारत को पार करते हुए नेपाल और चीन की ओर बढ़ जाएंगे। इसके बावज़ूद दिल्‍ली सहित उत्तर भारत के कई इलाकों के लिए संकट अभी पूरी तरह से टला नहीं है, क्‍योंकि हेली गुब्बी ज्‍वालामुखी में अभी आगे भी विस्‍फोट होने की संभावना है। अगर ऐसा हुआ तो राख के महीन कणों और सल्फर डाइऑक्साइड के नए झोंके एक बार फिर हवा को प्रभावित कर सकते हैं। एमिरात एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी के चेयरमैन इब्राहिम अल जरवान ने कहा कि अगर ज्वालामुखी अचानक ज्यादा SO₂ छोड़ रहा है। यह बताता है कि अंदर दबाव बढ़ रहा है और मैग्मा हिल रहा है। इससे आगे और विस्फोट हो सकते हैं।

जेट स्‍ट्रीम कही जाने वाली हवाओं के साथ उड़ कर ‘हेली गुब्बी’ ज्‍वालामुखी की राख के बारीक कण और सल्‍फर डाईऑक्‍साइड जैसी हानिकारक गैसों का गु़बार दिल्‍ली तक आ पहुंचा है।
जेट स्‍ट्रीम कही जाने वाली हवाओं के साथ उड़ कर ‘हेली गुब्बी’ ज्‍वालामुखी की राख के बारीक कण और सल्‍फर डाईऑक्‍साइड जैसी हानिकारक गैसों का गु़बार दिल्‍ली तक आ पहुंचा है। स्रोत : विकीकॉमंस

सर्दियां आते ही दिल्‍ली क्‍यों हर साल बन जाती है ‘ज़हर का कटोरा’

दिल्‍ली की हवा पर इथियोपिया के ज्‍वालामुखी विस्‍फोट का बुरा असर पड़ने की एक वजह ज्‍वालामुखी के ग़ुबार को हज़ारों किलोमीटर दूर तक उड़ाकर लाने वाली 'जेट स्‍ट्रीम्‍स' (पवन धाराएं) और दिल्‍ली की अपनी खास भौ‍गोलिक स्थिति भी है, जो hहर साल सर्दियों में इसे ‘प्रदूषण का कटोरा’ बना देती है। दिल्ली-एनसीआर का इलाका दरअसल, हिमालय और अरावली पहाडि़यों के बीच में स्थित है। इसके कारण हवा में मौज़ूद धूलकण, प्रदूषक तत्‍व और हरियाणा, पंजाब में जलाई जाने वाली पराली का धुआं सर्दी के कोहरे में मिलकर इस इलाके में स्‍मॉग के रूप में फंस कर रह जाते हैं। स्‍मॉग हवा से भारी होने के कारण वायुमंडल में काफी नीचे आ जाता है और दोनों ओर पहाड़ होने के कारण पूरी सर्दी दिल्‍ली और उसके आसपास के इलाकों के ऊपर ही मंडराता रहता है। सर्दियों में तापमान घटने की वजह से PM 2.5 की मात्रा 100-300 माइक्रोग्राम/घन मीटर तक पहुंच जाती है। नतीजत्न तीन-चार महीने की सर्दियों के दौरान दिल्‍ली एक ‘गैस चैंबर’ बनकर रह जाती है। इस बार की स्थिति तो पिछले सालों से ज़्यादा बदतर होने वाली है, क्‍योंकि ऊपर बताए गए कारणों के अलावा दिल्‍ली की हवा में ज्‍वालामुखी की राख और हानिकारक सल्फर डाइऑक्साइड गैस भी घुलने वाली है। 

कैसे हर साल सर्दी में दिल्ली-एनसीआर बदल जाता है ‘गैस चैंबर’ में

दिल्ली-एनसीआर में धूल, धुएं, ज़हरीली गैसों और कोहरे के ‘कॉकटेल’ से बनने वाला स्‍मॉग अक्सर इतना ज़हरीला हो जाता है कि इसे ‘गैस चैंबर’ कहा जाने लगा है। इसके चलते सर्दियों में सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। सवाल उठता है कि ऐसा होता क्यों है? क्या इसकी मुख्य वजह दिल्‍ली के आसपास के इलाकों में पराली का जलाया जाना है? या दिल्‍ली की सड़कों पर भारी संख्‍या में चलने वाली गाड़ियों का धुआं इसके लिए जि़म्‍मेदार है या फिर फैक्ट्रियों से निकलने वाला वायु प्रदूषण? वास्‍तव में दिल्‍ली को ‘गैस चैंबर’ बनाने में इन चीज़ों के साथ ही प्रकृति की कुछ खास परिस्थितियां भी एक अनदेखा किरदार निभाती हैं, जो प्रदूषण को यहां लॉक कर देती हैं। इसे कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है- 

दिल्ली-एनसीआर का इलाका गंगा के मैदान में बसा है, जो हिमालय की तलहटी का एक सपाट इलाका है। यहां उत्तर में हिमालय की ऊंची चोटियां, दक्षिण में अरावली की पहाड़ियां और पूर्व में यमुना नदी है। यह सब मिलकर दिल्ली को एक कटोरे जैसी शक्ल देते हैं। यह ‘कटोरा’ प्रदूषण को रोके रखने का काम करता है। हवा में उड़ने वाले कण (धूल-धुआं) आसपास के इलाकों से आते हैं, लेकिन पहाड़ियों की वजह से वे बाहर नहीं निकल पाती हैं। उदाहरण के लिए, पंजाब-हरियाणा में जलने वाली पराली का धुआं सीधे दिल्ली पहुंच जाता है, लेकिन हिमालय के कारण यह धुआं उत्तर की तरफ़ नहीं जा पाता है और अरावली पहाड़ी इसे दक्षिण की ओर आगे नहीं बढ़ने देती। नतीजा यह होता है कि सर्दियों में सारा प्रदूषण दिल्ली-एनसीआर में इकट्ठा होता जाता है। दिल्ली की यह भौगोलिक स्थिति प्रदूषण को 30-50 फ़ीसद तक बढ़ा देती है। दिसंबर-जनवरी की घोर सर्दियों में हवा की गति कम होने से स्थिति और भी बदतर हो जाती है।

दिल्‍ली की हवाओं में घुले स्‍मॉग से जहां माहौल धुंधला हो जाता है, वहीं इसके चलते लोगों को सांस की समस्‍या, आंखों में जलन और घबराहट जैसी स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍याएं भी होने लगती हैं।
दिल्‍ली की हवाओं में घुले स्‍मॉग से जहां माहौल धुंधला हो जाता है, वहीं इसके चलते लोगों को सांस की समस्‍या, आंखों में जलन और घबराहट जैसी स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍याएं भी होने लगती हैं। स्रोत : विकीकॉमंस

प्रदूषण पर लग जाता है टेम्परेचर इनवर्शन का ‘ढक्कन’

इसके अलावा दिल्‍ली के प्रदूषण का एक और राज़ है सर्दियों में यहां होने वाला "तापमान उलटाव" यानी टेम्परेचर इनवर्शन। यह एक ढक्‍कन की तरह काम करता है, जो वायु प्रदूषण को दिल्‍ली में कैद करके रखता है। आमतौर पर ऊंचाई बढ़ने पर तापमान कम होता है, लेकिन सर्दियों में स्थिति उल्टी हो जाती है। इस समय ज़मीन के पास की हवा ठंडी होती है, जबकि उसके ऊपर गर्म हवा की एक परत जम जाती है। यह गर्म परत ठंडी हवा पर ढक्कन की तरह बैठकर पूरे प्रदूषण को नीचे ही रोक लेती है। इसे एक सरल उदाहरण से समझा जा सकता है - अगर किसी कमरे में धुआं भर जाए और उसके सभी खिड़की-दरवाज़े बंद हों तो सारा धुआं छत के नीचे रुककर जमा हो जाता है, बाहर नहीं निकल पाता। बिल्कुल यही स्थिति टेम्परेचर इनवर्शन में होती है, जिसमें प्रदूषण ज़मीन से करीब 200-300 मीटर की ऊंचाई के भीतर ही फंसकर रह जाता है। ऐसा केवल सर्दी में ही क्यों होता है? इसका जवाब है कि दिसंबर-फरवरी में तापमान 10-15 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है और नमी 80 फ़ीसद तक पहुंच जाती है। इससे कोहरा बनता है, जो हवा में मौज़ूद प्रदूषण के कणों को अपने साथ चिपका लेता है। यानी जाड़े में कोहरा होने के कारण ही ऐसा होता है। 

साइंस जर्नल रिसर्च गेट में प्रकाशित एक रिसर्च 'इंपैक्‍ट ऑफ मिक्सिंग लेयर हाइट ऑन एयर क्‍वालिटी इन विंटर' यानी सर्दियों में हवा की गुणवत्‍ता पर मिक्सिंग लेयर की ऊंचाई का असर, में पाया गया कि टेम्परेचर इनवर्शन के दौरान पीएम-2.5 (बारीक कण) की मात्रा 45 फ़ीसद तक बढ़ जाती है। दिल्ली में सर्दियों में मिक्सिंग हाइट यानी हवा में प्रदूषण फैलने की ऊंचाई (एचएमएल) सिर्फ 200-300 मीटर रह जाती है, जबकि गर्मियों में यही ऊंचाई 1 किलोमीटर बराबर होती है। इस अध्ययन के तहत दिसंबर 2017 से जनवरी-फरवरी 2018 के दौरान दिल्ली (लोदी रोड) में सीलॉमीटर की मदद से हवा में प्रदूषण फैलने की ऊंचाई और जमीन पर पीएम-2.5, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (NO+NO₂) और ओज़ोन (O₃) के स्‍तर की माप की गई। परिणामों से पता चला कि जब एमएलएच बहुत कम होती है यानि जब हवा का फैलाव ठीक से नहीं हो पाता है, तो PM-2.5 की सतही सांद्रता बहुत ज़्यादा हो जाती है। अध्ययन में यह भी दिखाया गया कि हर 100 मीटर एमएलएच में वृद्धि पर दिसंबर में लगभग 14 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर (~14 µg/m³), जनवरी में लगभग 17 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर (~13 µg/m³) और फरवरी में लगभग सात माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर (~7 µg/m³) तक पीएम-2.5 की सांद्रता घटती थी। इससे पता चलता है कि प्रदूषण फैलने की ऊंचाई (एचएमएल) और पीएम-2.5 सांद्रता के बीच का संबंध “विपरीत” है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो एचएमएल जितना कम होगा, पीएम-2.5 उतना ही अधिक होगा।

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन यानी डब्‍लूएचओ का मानक PM 2.5 के लिए सालाना 5 माइक्रोग्राम/घन मीटर है, लेकिन दिल्ली में सर्दियों में यह 100-300 माइक्रोग्राम/घन मीटर तक पहुंच जाता है।
रिसर्च गेट में प्रकाशित में प्रकाशित रिपोर्ट

एटमॉस्फेरिक स्टैग्नेशन और एयर ट्रैपिंग से ‘कैद’ हो जाती है हवा

जाड़े में कोहरा और कम तापमान तो होते ही हैं, लेकिन इनके अलावा भी कई मौसमीय स्थितियां मिलकर दिल्ली-एनसीआर की हवा को क़ैद कर देती हैं। ये सभी कारक मिलकर प्रदूषण को ऊपर उठने नहीं देते और उसे लंबे समय तक जमीन के पास ही फंसा कर रखते हैं। अक्टूबर-नवंबर में सर्दियों के आने के साथ ही पोस्ट-मॉनसून सीजन में हवा की रफ्तार 1 मीटर/सेकंड से कम हो जाती है। इससे हवा में मौजूद प्रदूषक तत्‍वों और कणों की सघनता बढ़ने लगती है। हवा में खुश्‍की (ड्राइनेस) और बारिश न होने से यह प्रदूषण बैठता (सेटल) भी नहीं है। मौसम विज्ञान की भाषा में इसे 'एटमॉस्फेरिक स्टैग्नेशन’ यानी वायुमंडलीय स्थिरता कहा जाता है। गंगा के मैदान में साल में 101 दिन ऐसे होते हैं, जब हवा स्थिर रहती है। इन दिनों पीएम-2.5 की मात्रा 45 माइक्रोग्राम/घन मीटर तक बढ़ जाती है। वातावरण की इस स्थिरता को आसान भाषा में समझें, तो यह वैसा ही है जैसे किसी कमरे में पंखा बंद कर देने पर धुआं बाहर नहीं निकलता और भीतर ही जमा होता जाता है। जाड़े में यही हाल दिल्ली-एनसीआर में भी होता है। जब हवा का वर्टिकल और हॉरिजॉन्टल दोनों तरह का मूवमेंट कम हो जाता है, तो प्रदूषक ऊपर उठकर फैलते नहीं, बल्कि जमीन के पास ही फंसे रहते हैं। इसे ‘एयर ट्रैपिंग’ भी कहा जाता है। स्टैग्नेशन के दिनों में तापमान का उलटाव (इनवर्शन), कम मिश्रण-ऊंचाई (मिक्सिंग हाइट) और सूखी हवाएं मिलकर हवा में मौज़ूद प्रदूषण को आपस में और ज्यादा चिपका देती हैं। नतीजा यह कि पीएम-2.5, नाइट्रोजन ऑक्साइड्स और ओज़ोन जैसे प्रदूषक लगातार सघन होते जाते हैं और सांस लेना और भी मुश्किल हो जाता है।

अनुमान है कि इस सर्दी दिल्‍ली में हवा की गुणवत्‍ता ज्‍़यादा खराब होने के कारण आने वाले दिनों में लोगों को मास्‍क लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है।
अनुमान है कि इस सर्दी दिल्‍ली में हवा की गुणवत्‍ता ज्‍़यादा खराब होने के कारण आने वाले दिनों में लोगों को मास्‍क लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है। स्रोत : विकीकॉमंस

रेगिस्तानी धूल और पश्चिमी विक्षोभ से भी बिगड़ते हैं हालात

कई बार गर्मियों में भी दिल्‍ली में पश्चिमी या उत्तर-पश्चिमी हवाओं के साथ आने वाली रेगिस्तानी धूल के कारण वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए 15 मई 2025 को दिल्ली-एनसीआर में अचानक वायु गुणवत्ता बिगड़ गई थी। उस रात दिल्‍ली के पश्चिमी/उत्तर-पश्चिम में स्थित राजस्‍थान और पंजाब–हरियाणा से आई तेज  हवाओं ने  रेगिस्तानी/आर्द्र क्षेत्रों से धूल-कणों को उठाकर दिल्ली-एनसीआर तक पहुंचा दिया। इसके चलते यहां दृश्यता (विजिबिलिटी) काफी कम हो गई और वायु गुणवत्ता सूचकांक “खराब” श्रेणी में पहुंच गया था। इस तरह अक्सर प्री-मानसून या गर्मी के मौसम में आने वाली धूल-भरी आंधियां भी दिल्ली-एनसीआर के लिए अस्थायी तौर पर वायु प्रदूषण को बढ़ाने का काम करती हैं। इस दौरान धूल भरी हवा में पीएम-2.5 के कण बढ़ जाते हैं, जिससे हवा की गुणवत्ता तेज़ी से बिगड़ती है। 

इसके अलावा पश्चिमी विक्षोभ के कारण भी कई बार दिल्ली-एनसीआर में वायु गुणवत्ता बिगड़ जाती है। पश्चिमी विक्षोभ वह मौसम प्रणाली है जो भूमध्यसागर क्षेत्र से उठकर पश्चिमी और उत्तर भारत में बादल, हवा और बारिश लाती है। सामान्यतः पश्चिमी विक्षोभ बारिश, बादल और ठंडी हवाएं लाकर प्रदूषण को कुछ हद तक कम करने में मदद करता है, पर कई बार मौसमी स्थितियां अलग होने पर इसका उलटा प्रभाव होता है। जब कोई कमजोर पश्चिमी विक्षोभ क्षेत्र से गुज़रता है, तो वह सतह के पास नमी बढ़ा देता है और हवाओं की रफ़्तार अचानक धीमी पड़ जाती है। इसके चलते धूल और प्रदूषक कण जमीन के पास ही अटक जाते हैं। कई बार इन सिस्टमों के बाद हवा ‘शांत’ हो जाती है यानी न तो तेज़ उत्तर-पश्चिमी हवा चलती है और न ही वायुमंडलीय मिश्रण (एटमॉस्‍फेरिक मिक्सिंग) की स्थिति ही बन पाती है। इसका नतीजा होता है कि हवा में प्रदूषक तत्‍वों का जमाव बढ़ने के साथ ही पीएम-2.5 व नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (NOx) जैसे कणों की सांद्रता भी तेजी से बढ़ जाती है। सर्दियों में जब इनवर्शन लेयर पहले ही बनी होती है, तब पश्चिमी विक्षोभ के बाद हवा का यह ठहराव दिल्ली की हवा में प्रदूषण की मात्रा बढ़ा देता है। इस कारकों के विश्लेषण से पता चलता है कि दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण की वजहें केवल “स्‍थानीय स्रोतों” (वाहन, स्थानीय उद्योग, पराली जलाने) तक सीमित नहीं है, बल्कि बाहरी क्षेत्रों की मौसमी घटनाओं का भी इस पर व्‍यापक असर पड़ता है।

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