समर्पित प्रकृति प्रेमी जगत सिंह चौधरी 'जंगली'
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
जगत सिंह चौधरी का जन्म 10 दिसंबर 1950 को उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के कोटमल्ला गाँव में हुआ था। उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय से बी०ए० की शिक्षा प्राप्त की। सन् 1967 में वे भारतीय सीमा सुरक्षा बल (बी०एस०एफ०) में भर्ती हुए और 1980 तक अपनी सेवाएँ दीं। उन्होंने 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी भाग लिया था। उनकी पत्नी का नाम शांति देवी है और उनके चार बेटियाँ तथा एक पुत्र राघवेंद्र हैं।
पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा
1971 में युद्ध समाप्ति के बाद छुट्टी पर गाँव लौटने पर जगत सिंह ने देखा कि गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था। पूछताछ करने पर पता चला कि एक महिला चारा लाने गई थी, जहाँ उसके पैर फिसलने से वह घायल हो गई। इस घटना से उन्हें एहसास हुआ कि गाँव के जलस्रोत सूख चुके हैं और महिलाओं को चारा व ईंधन के लिए दूर-दूर तक जाना पड़ता है, जिससे अक्सर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने अपनी तीन हेक्टेयर बंजर जमीन पर ओक के पेड़ लगाने शुरू किए। धीरे-धीरे यह प्रयास एक बड़े अभियान में बदल गया। 30-40 वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद वह बंजर भूमि एक घने जंगल में परिवर्तित हो गई।
वन संरक्षण का अभियान
1980 में सेवानिवृत्ति के बाद जगत सिंह पूरी तरह से पर्यावरण संरक्षण के कार्य में जुट गए। ऋषिकेश-बद्रीनाथ मार्ग पर घोलतीर से 5 किमी दूर कोटगाँव के पास 80 नाली क्षेत्र में उन्होंने एक मिश्रित वन विकसित किया, जिसमें बाँज, बुरांश, देवदार, तुन, केल, तिलॉज, चमखड़ीक, अंगू, पांखर, मणिपुरी बाँज जैसी अनेक प्रजातियों के वृक्ष लगाए। साथ ही, कुटकी, सिलपाडा, वज्रदंती, नैरकुट, सालम पंजा जैसे औषधीय पौधे भी उगाए।
उनके प्रयासों से कई जलस्रोत पुनर्जीवित हुए और गाँव में चारे व ईंधन की समस्या का समाधान हुआ।
"जंगली" उपनाम की कहानी
एक बार जब उन्हें एक विद्यालय में पर्यावरण पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने "पेड़ बचाओ, मृदा बचाओ, संस्कृति बचाओ" जैसे विषयों पर प्रेरक भाषण दिया। इस कार्यक्रम में उन्हें "जंगली" की उपाधि से सम्मानित किया गया। शुरू में उनकी पत्नी को यह नाम पसंद नहीं आया, लेकिन बाद में उनके समर्पण को देखकर वे गर्वित हो गईं।
सामाजिक योगदान एवं पहचान
जंगली जी ने जंगल के रखरखाव के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया, लेकिन अधिकांश कार्य वे स्वयं करते हैं। उनके प्रयासों से प्रभावित होकर तत्कालीन राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला ने उनके जंगल का दौरा किया और वहाँ की सड़क के डामरीकरण व 40,000 लीटर के वाटर टैंक की स्थापना में सहयोग दिया।
उन्होंने पारंपरिक तकनीकों को पुनर्जीवित करने का भी प्रयास किया। वे लोगों को निःशुल्क रिंगाल (बाँस) वितरित करते थे, ताकि वे उससे उपयोगी वस्तुएँ बना सकें। पर्यावरण संरक्षण का संदेश फैलाने के लिए उन्होंने गढ़वाल से दिल्ली तक 28 दिन की पदयात्रा भी की।
पुरस्कार एवं सम्मान
पर्यावरण संरक्षण में उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें शामिल हैं:
इंदिरा गाँधी वृक्ष मित्र पुरस्कार (2001)
आर्यभट्ट पुरस्कार
वन विभाग, उत्तराखंड द्वारा ब्रांड एंबेसडर नियुक्ति
22 जनवरी 2024 को "पर्यावरण श्री पुरस्कार" से सम्मानित किया जाना
भविष्य की योजनाएँ
जंगली जी का मानना है कि पर्यावरण संरक्षण का प्रचार-प्रसार ही उनका मुख्य लक्ष्य है। उनके जंगल को देखने देश-विदेश से शोधार्थी आते हैं। उनका पुत्र राघवेंद्र भी उनके पदचिन्हों पर चल रहा है और पर्यावरण विज्ञान में एम०एस०सी० करके इसी क्षेत्र में कार्यरत है।
निष्कर्ष
जगत सिंह चौधरी "जंगली" ने अपने अथक परिश्रम से बंजर भूमि को हरा-भरा जंगल बना दिया। उनका जीवन पर्यावरण प्रेमियों के लिए एक प्रेरणा है। हमारी शुभकामनाएँ उनके साथ हैं कि वे दीर्घायु हों और उनका यह पुण्य कार्य निरंतर प्रगति करे।
"हिमालय देश का फेफड़ा है, इसे बचाना हम सभी का कर्तव्य है।"— जगत सिंह चौधरी "जंगली"