पिथिया डिब्रूगढ़ेन्सिस: ब्रह्मपुत्र में खोजी गई मछली की नई प्रजाति
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (CIFRI) की गुवाहाटी और बैरकपुर स्थित टीम तथा मणिपुर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने मिलकर ब्रह्मपुत्र नदी में साइप्रिनिड परिवार की नई मछली की प्रजाति खोजी है। डिब्रूगढ़ के पास मिलने के कारण इस नई मछली को 'पिथिया डिब्रूगढ़ेंसिस' (Pethia dibrugarhensis) का नाम दिया गया है। यह मछली काले धब्बे वाली है। इसका रंग-रूप और चाल-ढाल अपने परिवार की अन्य मछलियों से अलग होने के कारण इसे एक नई प्रजाति के रूप में मान्यता दी गई है।
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को जलीय जैव विविधता की दृष्टि से 'हॉटस्पॉट' माना जाता है। यहां हिमालय की तलहटी में बहने वाली नदियां, खासकर ब्रह्मपुत्र कई अनूठी प्रजातियों का निवास स्थल है। हाल के वर्षों में इस क्षेत्र की जैव विविधता को बेहतर समझने की दिशा में कई प्रयास हुए हैं। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक CIFRI और मणिपुर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने यह सर्वे ब्रह्मपुत्र नदी में मीठे पानी के जीवों की खोज के मिशन के तहत किया था।
नई मछली ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली की पारिस्थितिक समृद्धि को उजागर करती है। मछली की इस नई प्रजाति पर आधारित रिपोर्ट हाल ही में स्प्रिंगर नेचर के अंतरराष्ट्रीय जर्नल नेशनल एकेडमी साइंस लेटर्स में प्रकाशित हुई है। इस लेख में न केवल मछली की पहचान और डीएनए विश्लेषण दिया गया है, बल्कि इसके व्यवहारिक और पर्यावरणीय पैटर्न पर भी प्रकाश डाला गया है।
कैसी दिखती है यह मछली?
पिथिया डिब्रूगढ़ेंसिस, साइप्रिनिडे परिवार (Cyprinid Family) से संबंध रखती है, जो छोटी से मध्यम आकार की मछलियों का एक बड़ा समूह है। इसमें कार्प और मिनो मछलियां शामिल हैं। पिथिया डिब्रूगढ़ेंसिस का शरीर सामान्यतः सुनहरा होता है, लेकिन इसकी सबसे खास पहचान इसके शरीर पर बने स्पष्ट काले धब्बे हैं, जिनमें तराजू का पैटर्न दिखता है।
यह मछली आकार में छोटी होती है, और इसके तैरने का ढंग व व्यवहार भी अन्य पेथिया प्रजातियों से भिन्न पाया गया है। इसकी आंखें अपेक्षाकृत बड़ी और चमकीली होती हैं, जो इसे उथले व प्रकाशयुक्त जल में बेहतर ढंग से देखने में मदद करती हैं। इसके पृष्ठीय (dorsal) और पेल्विक (pelvic) पंख संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं, जबकि पूंछ का विशेष आकार तेज और नियंत्रित तैराकी को संभव बनाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी शारीरिक बनावट दर्शाती है कि यह मुख्यतः नदी की सतह के आसपास सक्रिय रहती है और नदी के निचले तल से भोजन प्राप्त करती है।
वैज्ञानिक दृष्टि से इस खोज का महत्व
वैज्ञानिकों के अनुसार यह खोज दर्शाती है कि ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में अब भी अनेक अज्ञात जीव मौजूद हो सकते हैं, जिनका पता लगना बाकी है। इस नई प्रजाति का दस्तावेजीकरण भारत की इक्थियोलॉजिकल इन्वेंटरी यानी मत्स्यविज्ञान सूची को समृद्ध करता है, जिसके तहत मछलियों की वैज्ञानिक गिनती होती है और वर्गीकरण की सूची तैयार की जाती है। किसी नदी या क्षेत्र की मछली प्रजातियों के दस्तावेजी सर्वेक्षण का यह काम जैव विविधता के रिकॉर्ड की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होता है, जिसे लगातार अपडेट करते रहने की जरूरत होती है।
नई मछली की यह खोज देश में ताजे पानी के पारिस्थितिक तंत्र की संरचना के बारे में यह भी बताती है कि नदियों में लगातार बढ़ते जल प्रदूषण और तमाम पर्यावरणीय प्रतिकूलताओं के बावजूद जलीय जीवन में नई प्रजातियों के उद्विकास का क्रम अब भी जारी है। यह सकारात्मक संकेत बताता है कि अगर नदियों को प्रदूषण से बचाने के कारगर उपाय किए जाएं तो जलीय जीवन की जैव विविधता को और भी समृद्ध किया जा सकता है।
जैव विविधता की रक्षा के लिए वैज्ञानिक प्रयास ज़रूरी
भारत के पास वैश्विक क्षेत्रफल का करीब 2.4% भूमि क्षेत्र ही है। इसके बावजूद विश्व की ज्ञात मछली प्रजातियों का लगभग 11% हिस्सा यहां पाया जाता है। यह स्थिति भी तब है, जब वैज्ञानिक समुदाय का मानना है कि कई प्रजातियां अब भी रिकॉर्ड में दर्ज़ नहीं हैं। पर्वतीय और नदी-बेसिन क्षेत्रों में ऐसी अज्ञात प्रजातियों के होने की संभावना ज़्यादा है, 'पिथिया डिब्रूगढ़ेंसिस' की खोज ने एक बार फिर इस बात की पुष्टि कर दी है।
वैज्ञानिक शोध दर्शाते हैं कि मछलियों की विविधता केवल भोजन का स्रोत नहीं है, बल्कि यह जलीय पारिस्थितिकी और भोजन तंत्र (aquatic food web) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यदि मछली की एक प्रजाति विलुप्त होती है, तो उस पर निर्भर परजीवियों, शिकारियों और उसके भोजन (जैसे शैवाल) आदि पर भी इसका असर पड़ता है, जिससे पूरा पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो सकता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे “ट्रॉफिक कैस्केड इफेक्ट” (Trophic Cascade Effect) कहते हैं, जो यह बताता है कि एक प्रजाति के लुप्त होने से अन्य प्रजातियों और ईकोसिस्टम पर कितनी तेज़ी से असर हो सकता है।
चिंता की बात यह है कि हालिया जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और नदी परियोजनाओं के चलते प्राकृतिक आवास (habitats) में बाधाएं उत्पन्न होने के कारण मछलियों और जलीय जीवों की कई प्रजातियां संकट में हैं। ऐसे में, ICAR-CIFRI और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जैसे संस्थानों को देशभर में, विशेष रूप से ब्रह्मपुत्र, महानदी, सतलुज और गोदावरी जैसी नदियों में DNA बारकोडिंग, eDNA सर्वेक्षण, और GIS आधारित मछली वितरण मैपिंग जैसी आधुनिक तकनीकों के ज़रिये एक बार फिर से जैव विविधता का अध्ययन शुरू करना चाहिए।
इस तरह नदियों में मौजूद अदृश्य पारिस्थितिक घटकों को पहचाना और संरक्षित किया जा सकेगा। साथ ही, संकटग्रस्त प्रजातियों के संरक्षण और नई प्रजातियों की पहचान और निगरानी के लिए योजनाएं बनाना आसान होगा। इन अभियानों में स्थानीय मछुआरा समुदायों की सहभागिता भी बेहद जरूरी है, क्योंकि वे नदियों की पारिस्थितिकी और मौसमी परिवर्तनों का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। जलीय जैव विविधता की रक्षा केवल एक पर्यावरणीय प्राथमिकता नहीं, बल्कि यह हमारी खाद्य सुरक्षा, पारंपरिक आजीविका और स्थानीय सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा हुआ मुद्दा है।
मिज़ोरम से लेकर एमपी, उत्तराखंड तक मिली कई नई प्रजातियां
हाल के वर्षों में पूर्वोत्तर की ब्रह्मपुत्र से लेकर उत्तर भारत के मैदानों में बहने वाली गंग-यमुना तक में जलीय जीवों की कई नई प्रजातियों की खोज की गई है और लुप्तप्राय समझी जाने वाली प्रजातियों की संख्या में भी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इंडियन जर्नल ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलजी में प्रकाशित रिपोर्ट और साइंस जर्नल रिसर्च गेट की एक अन्य रिपोर्ट के हवाले से इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
मिजोरम से खोजी गई गारेरा प्रजाति (2020)
साल 2020 में मिज़ोरम की छोटी नदियों और नालों में Garra mizoramensis नामक एक नई प्रजाति खोजी गई थी। Garra प्रजातियां आमतौर पर जलधारा वाले क्षेत्रों की तलहटी में पाई जाती हैं और उनकी विशेष शारीरिक बनावट उन्हें चट्टानों से चिपके रहने में मदद करती है।
मध्य भारत में स्नेकहेड प्रजाति बघेल चन्ना की खोज (2021)
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाके में स्थित बघेलखंड क्षेत्र में साल 2021 में वैज्ञानिकों ने सोन नदी में स्नेकहेड वर्ग की एक शिकारी मछली प्रजाति चन्ना भघेलेंसिस (Channa bhagelensis) या बघेल चन्ना की खोज की थी। यह एक आक्रामक शिकारी मछली है। मध्य भारत में हुई इस खोज ने वैज्ञानिकों को संकेत दिया था कि इस क्षेत्र में ताज़े पानी की पारिस्थितिकी में अब भी कई अज्ञात प्रजातियां मौजूद हैं।
ब्रह्मपुत्र में ग्लाइसिप्रिस्टिस तेजपुरेन्सिस की खोज (2022)
सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट और अन्य संस्थानों के वैज्ञानिकों ने 2022 में असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी में एक नई मछली की प्रजाति की खोज की थी, जिसका नाम Glyptothorax tezuensis या Glyptothorax telchite रखा गया था। यह कैटफिश की एक नई किस्म थी, जो तेज़ धाराओं वाले इलाकों में पाई गई।
गंगा-यमुना की हिमालयी धाराओं में दो नई कैटफ़िश प्रजातियां (2025)
मार्च 2025 में उत्तराखंड की भागीरथी (ऊपरी हिमालय में गंगा नदी की धारा) में Glyptothorax कैटफ़िश वर्ग की नई उप-प्रजाति G. bhurainu को पहचाना गया। इसी तरह, यमुना नदी के हिमालयी भाग में G. himalaicus देखी गई। ये दोनों प्रजातियां ऊंचाई वाले स्थानों पर तेज़ धारा वाली नदियों में पाई जाती हैं।
इनके शरीर में मौजूद चूषक और धारदार स्क्यूट्स जैसी संरचनाएं इन्हें ऐसे प्रवाह वाले क्षेत्रों में टिकने में मदद करती हैं। यह खोज दर्शाती है कि हिमालयी गंगा बेसिन अब भी कम खोजा गया जैव विविधता का क्षेत्र है, जहां कई नई प्रजातियों के पाए जाने की संभावना बरकरार है।
यमुना में Glyptothorax dakpathari की वापसी (2025)
एक रिपोर्ट के मुताबिक G. dakpathari प्रजाति की मछली की गिनी-चुनी संख्या के चलते इसे लुप्त प्राय मान लिया गया था, पर मार्च 2025 में इसे डाकपत्थर बैराज इलाके में यमुना नदी में अच्छी तादाद में देखा गया। इससे यह भी पता चलता है कि वैज्ञानिकों को नई प्रजातियों की खोज के साथ ही पुरानी प्रजातियों की पड़ताल भी समय-समय पर करते रहना चाहिए।