एसी बनाने वाली कंपनियों ने क्यों दी केंद्र के ई-कचरा रीसाइकलिंग नियमों को कोर्ट में कानूनी चुनौती
इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का बढ़ता ई-कचरा सारी दुनिया के लिए एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। इससे निपटने के लिए सरकारें कई तरह के कदम उठा रही हैं। भारत सरकार ने भी हाल के वर्षों ने इन उपकरणों की स्क्रैपिंग पॉलिसी और इनकी रीसाइकलिंग को लेकर नियम-कानून बनाने और लागू करने की कवायद शुरू की है। इसी कोशिश के तहत सरकार ने सितंबर 2024 में ई-वेस्ट नियम लागू करते हुए ई-वेस्ट के निपटारे और रीसाइकलिंग का ज़िम्मा उत्पाद बनाने वाली कंपनियों पर डालते हुए, उन्हें इसका खर्च उठाने को कहा था।
इस नियम को कैरियर, सैमसंग, एलजी, डाइकिन, वोल्टास सहित आठ बड़ी एसी एवं इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों ने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती देते हुए कहा है कि सरकार का यह हस्तक्षेप कंपनियों के निजी अनुबंधों पर अतिक्रमण है। इससे उनकी लागत में बढ़ोतरी होगी, जिससे एसी की कीमतें बढ़ सकती हैं। कंपनियों का कहना है कि यदि लागत 2–8 % बढ़ी, तो एसी की कीमतों में 500 से 2000 रुपये तक की वृद्धि हो सकती है। इसका बोझ ग्राहकों की जेब पर पड़ेगा, जिससे कंपनियों की बिक्री में गिरावट आ सकती है।
क्या है पॉल्यूटर-पेज़ प्रिंसिपल?
पॉल्यूटर-पेज़ प्रिंसिपल (Polluter Pays Principles—PPP) एक ऐसी पर्यावरणीय अवधारणा है, जिसके तहत किसी भी प्रकार का प्रदूषण फैलाने वाले व्यक्ति, संस्था या उद्योग को उसकी सफाई या उससे होने वाली क्षति की भरपाई की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। यह सिद्धांत पहली बार 1972 में ऑर्गनाइजेशन फॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) द्वारा प्रस्तुत किया गया था। इसके बाद 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन (Rio Earth Summit) में इसे अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण नीति के मूलभूत सिद्धांतों में शामिल किया गया। भारत में भी यह सिद्धांत 1996 में सुप्रीम कोर्ट के इंडियन काउंसिल फ़ॉर एन्वायरो-लीगल एक्शंस बनाम भारतीय गणराज्य केस में मान्यता प्राप्त कर चुका है।
इस सिद्धांत के तहत सरकार का नियम है कि यदि कोई कंपनी कोई उत्पाद बाजार में ला रही है, तो उस उसके उपयोग के बाद उससे उत्पन्न होने वाले कचरे (जैसे ई-कचरे) की ज़िम्मेदारी भी उसी कंपनी की है। इसे ही एक्सटेंडेट प्रोड्यूसर रिस्पॉन्सिबिलिटी (EPR) कहा जाता है। ई-कचरा नियमों में न्यूनतम ₹22–34/kg शुल्क इसी सिद्धांत के तहत लागू किया गया है, ताकि कंपनियां गैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से कचरे को बाहर न निकालें और अपने उत्पादों के ‘अंतिम निपटान’ की ज़िम्मेदारी उठाएं। यह नीति सुनिश्चित करती है कि सरकारी या सामाजिक संसाधनों पर कचरे की सफाई का बोझ न पड़े, और प्रदूषण फैलाने वाले ही उसके आर्थिक व पर्यावरणीय प्रभाव की भरपाई करें।
इस सिद्धांत का उपयोग न सिर्फ ई-वेस्ट में बल्कि वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, औद्योगिक अपशिष्ट, और कार्बन क्रेडिट जैसे विषयों में भी किया जाता है। यही कारण है कि सरकार ने ई-कचरे की औपचारिक रीसाइकलिंग को बढ़ावा देने के लिए इस सिद्धांत का सहारा लेकर एक अनिवार्य वित्तीय तंत्र तैयार किया है, जिससे उद्योग जगत को पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी की ओर ले जाया जा सके।
कंपनियों से रीसाइकलिंग की रकम कब और कैसे वसूलती है सरकार ?
असल में, यह वसूली ‘रियल-टाइम वेस्ट जनरेशन’ के हिसाब से नहीं, बल्कि कंपनियों की सालाना बिक्री और ‘अनुमानित वेस्ट रिटर्न रेट’ के आधार पर होती है। उदाहरण के लिए, अगर किसी कंपनी ने एक वित्त वर्ष में 1 लाख एसी बेचे हैं, तो सरकार मानकर चलती है कि पुराने बेचे गए मॉडल्स में से एक अनुमानित प्रतिशत अब रीसाइकल होने योग्य हो चुका होगा। इसी आधार पर कंपनी से फ्लोर प्राइस के तहत फंड या रीसाइकलिंग सर्टिफिकेट की मांग की जाती है।
कंपनी को प्रोड्यूसर रिस्पॉन्सबिलिटी ऑर्गेनाइजेशन (PRO) से रीसाइकलिंग सर्टिफिकेट खरीदने होते हैं। PRO वह एजेंसी या संगठन है जो कंपनियों की EPR को पूरा करने में मदद करता है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 2022 में जारी गाइडलाइन के तहत यह सिस्टम कुछ इस तरह काम करता है -
कंपनियों को अतीत की बिक्री (एसी यूनिटों की संख्या) पर आधारित ई-रीसाइकलिंग टारगेट दिया जाता है। सरकार ने साल 2023–25 के लिए बिक्री का 60%, 2025–27 के लिए 70% और 2027–28 से आगे के लिए 80% का टार्गेट तय किया है।
इसके लिए उन्हें PRO से रीसाइकलिंग सर्टिफिकेट खरीदने होते हैं या खुद से रीसाइकलिंग करवा कर रीसाकलर से सर्टिफिकेट जारी करवाना होता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की अप्रैल 2024 में जारी अधिसूचना के तहत सरकार ने विभिन्न उत्पादों के लिए फ्लोर प्राइस तय कर दिए हैं। AC के लिए यह दर ₹22 प्रति किलोग्राम है।
कंपनियों को हर वर्ष सरकार को ई-रीसाइकलिंग की सालाना रिपोर्ट देनी होती है और टारगेट पूरा न होने पर ज़ुर्माना देना होता है।
इस प्रकार यह ज़िम्मेदारी उनके उत्पादों के लंबे जीवन-चक्र के बावजूद एसी के उत्पादन के समय पर ही कंपनियों पर आती है, ताकि भविष्य में पैदा होने वाले कचरे की रीसाइकलिंग सुनिश्चित की जा सके।
नए नियमों के पीछे सरकार की यह है सोच
सरकार ई-कचरे के निपटान और रीसाइकलिंग के लिए एक व्यापक फ्रेमवर्क और दीर्घ कालीन रणनीति तैयार करना चाहती है। हालिया नियमों को उसी दिशा में दिशा में उठाए गए एक कदम के तौर पर देखा जा सकता है। इसे कुछ प्रमुख बिंदुओं के ज़रिये इस प्रकार समझा जा सकता है:
रिसाइकलिंग को औपचारिक क्षेत्र में लाकर बेहतर बनाना
रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ई-वेस्ट उत्पादक देश है। लेकिन, यहां ई-वेस्ट की अनुपालन दर केवल 43% है। इसमें भी अधिकांश कचरे का अकार्बनिक और अवैज्ञानिक निपटान होता है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनीटर की 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल लगभग 16 लाख टन ई-कचरा पैदा होता है, लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा बिना रीसाइकलिंग के नष्ट होता है। ज़्यादातर निस्तारण असंगठित क्षेत्र के तहत अनौपचारिक तरीकों से हो रहा है।
सही प्रक्रियाएं न अपनाने और संसाधनों व जानकारी के अभाव के कारण हानिकारक कचरे का सही ढंग से निपटान नहीं हो पाता। बल्कि, कई बार तो कचरे के निपटान के लिए ऐसी प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं, जो पर्यावरण के लिए नुकसानदायक होती हैं। जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक्स के सर्किट बोर्ड से कीमती धातुओं को निकालने के लिए एसिड का इस्तेमाल किया जाता है, प्लास्टिक को खुली हवा में जला दिया जाता है और सीसा (लेड), कैडमियम, पारा (मर्करी) जैसी ज़हरीली धातुओं को खुले कचरे में फेंक दिया जाता है। इससे पर्यावरण को नुकसान होता है। साथ ही, इलेक्ट्रॉनिक्स में इस्तेमाल होने वाली सोने, चांदी जैसी कीमती धातुओं की सही रिकवरी नहीं हो पाती।
इसे देखते हुए सरकार चाहती है कि रीसाइकलिंग का कार्य लाइसेंस प्राप्त और साधन संपन्न प्रोसेसरों द्वारा किया जाए, ताकि कचरे का वैज्ञानिक और पर्यावरण-अनुकूल निपटान हो सके। अनौपचारिक क्षेत्र में हो रही रीसाइकलिंग को औपचारिक क्षेत्र में लाकर, न केवल रीसाइकलिंग की दर बढ़ाई जा सकेगी, बल्कि ई-वेस्ट से हो रही पर्यावरणीय क्षति को भी न्यूनतम स्तर पर लाया जा सकेगा।
न्यूनतम दर तय करके रीसाइकलिंग की गुणवत्ता सुनिश्चित करना
कम से कम खर्च के चक्कर में ज़्यादातर कंपनियां ई-कचरे के निपटान व रीसाइकलिंग का काम अब तक सबसे सस्ती दरों पर काम करने वाले वेंडर से करवा रही थीं। इससे खानापूर्ति तो हो रही थी, पर कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो रहा था। साइंस जर्नल रिसर्चगेट में ‘ई-वेस्ट मैनेजमेंट इन इंडिया - एन ओवरव्यू' शीर्षक से प्रकाशित रिसर्च के मुताबिक लगभग 90–95% ई‑कचरा असंगठित क्षेत्र द्वारा प्रोसेस किया जाता है। ये वेंडर इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निस्तारण के लिए अकसर खतरनाक और अनुचित तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।
ये रीसाइकलर लागत घटाने के लिए पर्यावरणीय और सुरक्षा मानकों की अनदेखी करते हैं और कंपनियों को भी इसकी कोई फिक्र नहीं होती, क्योंकि उनका काम सस्ते में हो जाता है। भारत में कोई न्यूनतम शुल्क (floor price) लागू होने से पहले ई-कचरे के निपटान व रीसाइकलिंग के लिए मैन्यूफैक्चरर और रीसाइकलर आपस में बाज़ार आधारित दरें तय करते थे।
रायटर्स की एक रिपोर्ट के मुातबिक ये दरें आमतौर पर 6 से 7 रुपये प्रति किलोग्राम होती थीं। उदाहरण के लिए ऐसी बनाने वाली कंपनी हिताची ने कोर्ट में बताया कि वे पहले सिर्फ ₹ 6/किलो ही देते थे। सरकार ₹22/किलो के न्यूनतम भुगतान को लागू करके इस प्रवृत्ति को रोकना चाहती है, ताकि कम खर्च में काम करने के चक्कर में मानक प्रक्रियाओं और मानदंडों से समझौता न किया जा सके।
ई-कचरा प्रबंधन में उत्पादकों की ज़िम्मेदारी को सख्ती से लागू करना
ई-कचरा नीति के तहत सरकार EPR को सख्ती से लागू करना चाहती है। इसके तहत उत्पादकों की भूमिका केवल सामान बनाकर बेचने तक की नहीं रहती, बल्कि उन्हें उत्पाद के निपटान व रीसाकलिंग तक की पूरी लाइफ साइकल में भागीदारी करनी होती है।
सितंबर 2024 में लागू नया ई-कचरा नियम और उसके तहत लाया गया फ्लोर प्राइस EPR की प्रक्रिया को मज़बूती देने का एक ज़रिया है। EPR के तहत भारत सरकार ने 2023 में ई-कचरा प्रबंधन नियमों को संशोधित किया, जिसमें उत्पादकों के लिए ई-कचरा इकट्ठा करने के लक्ष्य निर्धारित किए गए। इन्हें चरणबद्ध तरीके से बढ़ाया गया, जैसे कि 2024-25 में कुल बिक्री का 60% और 2025-26 में 70% तक ई-कचरा संग्रह अनिवार्य किया गया।
इससे पहले सीपीईबी नियम 2022 के तहत प्रावधान किया गया कि यदि कोई उत्पादक ये लक्ष्य पूरा नहीं करता है, तो उस पर पर्यावरणीय मुआवज़ा (Environmental Compensation) लगाया जाएगा।
रीसाइकलिंग उद्योग में निवेश और नवाचार को बढ़ावा देना
सरकार का मानना है कि जब तक रीसाइकलिंग उद्योग को स्थिर आय नहीं मिलेगी, तब तक वहां तकनीकी नवाचार (इनोवेशन), स्वचालन (ऑटोमेशन), या क्षमता विस्तार के लिए निवेश नहीं होगा। न्यूनतम फ्लोर प्राइस से रीसाइकलिंग उद्योग की आर्थिक स्थिति सुधरेगी, जिससे इन चीज़ों पर निवेश किया जा सकेगा। इससे ई-कचरा प्रबंधन सेक्टर में आर्थिक स्थिरता आएगी। साथ ही, नई कंपनियों के आने से प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जिससे टेक्नोलॉजी में सुधार और स्केलेबिलिटी के लिए बेहतर माहौल बनेगा।
ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की रिपोर्ट के अनुसार, ई-वेस्ट रीसाइकलिंग क्षेत्र में निवेश तभी आकर्षित होता है जब बाज़ार में मूल्य स्थिरता हो, क्योंकि मेटल रिवकरी की लागत और रिटर्न अनिश्चित होते हैं। न्यूनतम फ्लोर प्राइस सुनिश्चित करता है कि रीसाइकलर को कलेक्शन और प्रोसेसिंग लागत की भरपाई अवश्य हो, जिससे टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन और रिसर्च में निवेश संभव होता है।
इसके अलावा, सरकार को विभिन्न मुद्दों पर सलाह देने के लिए गठित नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में औपचारिक ई-कचरा प्रोसेसिंग इकाइयों की क्षमता का केवल 40% ही इस्तेमाल हो पा रहा है, क्योंकि कचरे की बड़ी मात्रा अनौपचारिक क्षेत्र में चली जाती है। यदि उद्योग को वित्तीय रूप से टिकाऊ बनाया जाए, तो वह अधिक कचरा प्रोसेस कर पाएगा और नवाचार व रोजगार का एक स्रोत बन सकेगा।
श्रमिकों की सुरक्षा बढ़ाना
कचरा प्रबंधन और रीसाइकलिंग का काम असंगठित क्षेत्र में होने के कारण श्रमिकों को अकसर काफी असुरक्षित माहौल में काम करना पड़ता है। जोखिम भरा काम करने के बावज़ूद ज़्यादातर मज़दूरों के पास काम करने के लिए ज़रूरी उपकरण, दस्ताने, चश्मा, टोपी/हेल्मेट और सिक्योरिटी शूज़ जैसी ज़रूरी चीजें तक नहीं होतीं। इसके चलते, इन्हें अकसर चोट, दुर्घटना व गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार होना पड़ता है।
भारत में ई-कचरे के अनौपचारिक रीसाइकलिंग से जुड़े जोखिमों पर ‘ऑक्यूपेशनल हेल्थ हैज़र्ड्स रिलेटेड टू इनफॉर्मल रीसाइकलिंग ऑफ ई-वेस्ट इन इंडिया: एन ओवरव्यू' शीर्षक से प्रकाशित पीएमसी की एक रिपोर्ट के अनुसार अनौपचारिक ई-वेस्ट श्रमिकों में चोट लगने की घटनाएं 80–89% तक होती हैं और 87.5–100% श्रमिकों में त्वचा संबंधी विकार देखने को मिलते हैं। यह एक गंभीर और खतरनाक स्थिति है, जिसमें त्वरित सुधार की जरूरत है।
ऐसे में, अगर इसे अगर औपचारिक सेक्टर के तहत लाया जाता है, तो कंपनियों को सुरक्षा मानकों और नियमों का पालन करते हुए श्रमिकों को पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट्स (PPE) उपलब्ध कराने होंगे। साथ ही, काम की सुरक्षा से जुड़ी सभी बुनियादी सुविधाएं भी देनी होंगी। इनमें कार्यस्थल पर नेटिव वेंटिलेशन यानी हवादार माहौल और सिंक्रोनाइज्ड कार्यलय प्रणाली (समन्वयित ढंग से काम की व्यवस्था), काम के घंटे सीमित करने, स्वास्थ्य जांच और चोट या बीमारियों से सुरक्षा के लिए स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने जैसे मानक शामिल हैं।
ई-कचरा प्रबंधन सेक्टर में ग्रीन जॉब्स
ई-कचरा प्रबंधन और रीसाइकलिंग के काम को औपचारिक सेक्टर में लाने का एक फायदा यह भी होगा कि इससे इस क्षेत्र में रोज़गार यानी ग्रीन जॉब में भी बढ़ोतरी होगी। बिज़नेस वायर में प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (ILO) और पार्टनरशिप फ़ॉर एक्शन ऑन ग्रीन इकॉनमी (PAGE) की साझा रिपोर्ट के अनुसार भारत में ई-कचरा रीसाइकलिंग को औपचारिक सेक्टर में लाने से साल 2025 तक इसमें लगभग 5 लाख नई नौकरियां सृजित हो सकती हैं।
इनमें अकुशल श्रमिकों और सहायकों से लेकर दक्ष श्रमिक, क्लीनर, तकनीशियन, सुपरवाइज़र और मैनेजर तक शामिल होंगे। रिसाइकिल इंडिया फाउंडेशन ने भी एक रिपोर्ट में अनुमान जताया है कि औपचारिक रीसाइकलिंग को बढ़ावा देने से साल 2030 तक भारत में 15 लाख ग्रीन जॉब पैदा हो सकती हैं। इनमें से ज़्यादातर नौकरियां स्थायी, सुरक्षित और सामाजिक प्रतिष्ठा के मामले में बेहतर होंगी।
देश में सर्कुलर इकोनॉमी को मजबूत करना
सरकार का मानना है कि ई-कचरा प्रबंधन और रीसाइकलिंग उद्योग को आर्थिक प्रोत्साहन देकर देश में सर्कुलर इकोनॉमी को भी मज़बूती दी जा सकती है। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (CEEW) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि फॉर्मल सेक्टर में लाकर रीसाइकलिंग इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर किया जाए, तो भारत की इलेक्ट्रॉनिक सर्कुलर इकोनॉमी को महज 2023–2030 के बीच सालाना 14.3% की तेज गति से बढ़ाया जा सकता है।
ऐसे में, यह सेक्टर केवल ई-कचरे से कीमती धातुओं की रिकवरी से ही सालाना लगभग 6 अरब डॉलर की कमाई कर सकता है। यह मॉडल लैंडफिल में फेंक दिए जाने वाले इलेक्ट्रॉनिक कचरे को संसाधनों में बदलने और सोने, चांदी व तांबे जैसी कीमती धातुओं के आयात पर निर्भरता को कम करने में भी मददगार साबित होगा।
कंपनियों की आपत्तियां और तर्क
कंपनियां सरकार के इस आदेश को अनुचित दखलंदाज़ी बता रही हैं। उन्होंने कोर्ट में फ्लोर प्राइस के नियम के खिलाफ कई तरह के तर्क दिए हैं, जो इस प्रकार हैं:
गैरकानूनी हस्तक्षेप : कैरियर ने अपनी याचिका में कहा है कि सरकार का हस्तक्षेप उत्पादकों और रीसाइकलर के बीच होने वाले निजी अनुबंधों में अतिक्रमण है। यह कानूनी रूप से ठीक नहीं है, क्योंकि सरकार निजी अनुबंधों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसलिए यह नियम “असंवैधानिक” है और पर्यावरण कानून के तहत सरकार को मिली शक्तियों का उल्लंघन करता है।
लागत में बढ़ोतरी : ऐसी कंपनियों के मुताबिक फ्लोर प्राइस के कारण कंपनियों की रीसाइकलिंग लागत तीन–चार गुना हो गई है। एसी जैसे भारी-भरकम उपकरणों के मामले में वजन के हिसाब से फ्लोर प्राइस रखे जाने से यह दबाव और भी बढ़ गया है। इससे उनके उत्पादन लागत में 2–8% का इज़ाफा हो गया है, जो उनकी बिक्री को प्रभावित कर रहा है। हालांकि रिसर्च फर्म रेडसीर की रिपोर्ट के अनुसार ये दरें अमेरिका के मुकाबले काफी कम हैं, जहां यह पांच गुना तक ज़्यादा हैं। चीन में भी यह भारत के मुकाबले डेढ़ गुनी हैं।
अतिरिक्त वसूली की नीयत : कंपनियों ने फ्लोर प्राइस लागू करने के पीछे सरकार की नीयत पर भी कोर्ट में सवाल उठाया है। इनका कहना है कि सरकार ने एसी निर्माता कंपनियों से 'अतिरिक्त वसूली' (fleecing) करने के लिए ही यह नियम लागू किया है।
गलत दिशा में उठाया गया कदम : कंपनियों ने इसे सरकार की ओर से गलत दिशा में उठाया गया कदम करार दिया है। उनका कहना है कि ई-वेस्ट मैनेजमेंट और रीसाकलिंग को व्यवस्थित करने का काम इस कार्य को कर रहे असंगठित क्षेत्र में सुधार करके किया जा सकता है। लेकिन, ऐसा करने के बजाय सरकार ने संगठित क्षेत्र के तहत चल रही एसी निर्माता कंपनियों पर ही इसका आर्थिक बोझ डाल दिया है, जो कि अनुचित है।