बीमार कर सकते हैं दूषित नदियों से उठते नुकसानदेह ऐरोसोल
सिंधु घाटी से लेकर मेसोपोटामिया और सुमेरिया तक इतिहास की कई महान सभ्यताएं नदियों के किनारे ही पली-बढ़ी हैं। नदियों के पानी ने हमेशा ही मिट्टी को समृद्ध कर मानवीय सभ्यताओं के साथ-साथ समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को आश्रय दिया है। इसके बावजूद नदियों के प्रति हमारा रवैया आज बेहद संवेदनहीन और लापरवाही भरा हो गया है। भारत सहित दुनिया भर में इंसानी गतिविधियों के चलते बढ़ रहे प्रदूषण ने कई जगहों पर नदियों को ‘मृत' बनाकर इन्हें ऐसे ‘ज़ॉम्बी’ में बदल दिया है जो अब हमारे ही विनाश का कारण बनता जा रहा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया के एक हालिया रिसर्च में वैज्ञानिकों ने पाया कि नदियों द्वारा समुद्र में गिराए जाने वाले प्रदूषक ‘एरोसोल’ के रूप में आसपास के इलाकों की हवा में फैल रहे हैं। ये हानिकारक तत्व सांस के जरिये लोगों के शरीर में पहुंच कर सेहत को नुकसान पहुंचा सकते हैं। रिसर्च में कैलिफ़ोर्निया की तिजुआना नदी पर यह जांच की गई कि कैसे एरोसोल जल से यात्रा करते हुए वायुमंडल में संचारित होते हैं। इसके निष्कर्ष प्रतिष्ठित साइंस जर्नल साइंस एडवांस में प्रकाशित हुए हैं।
कैसे हुआ अध्ययन
वैज्ञानिकों ने अमेरिका-मेक्सिको सीमा के पास प्रशांत महासागर में गिरने वाली तिजुआना नदी के पानी का अध्ययन किया। उन्होंने तट की 35 किलोमीटर लंबाई के साथ लगे पांच स्थानों पर पानी के नमूने लेकर प्रयोगशाला में उसकी गहन जांच की। इसमें पानी में घुले तमाम तरह के प्रदूषकों के साथ, हवा और पानी के मेल से बने एरोसोल भी देखने को मिले।
वैज्ञानिकों ने एरोसोल कणों को पकड़ने के लिए क्वार्ट्ज़-फ़ाइबर फ़िल्टर के माध्यम से हवा खींची। इसके बाद टीम ने हाई-रिज़ॉल्यूशन लिक्विड-क्रोमैटोग्राफ़ी मास-स्पेक्ट्रोमेट्री का उपयोग करके पानी में मौजूद अणुओं की जांच की। नदी के पानी में उन्हें 12 से ज़्यादा मानव-निर्मित कृत्रिम यौगिक देखने को मिले। इनमें ऑक्टिनॉक्सेट नामक एक सनस्क्रीन घटक, डिबेंज़िलामाइन नामक टायर रबर एडिटिव, प्रिस्क्रिप्शन ड्रग्स, कृषि बायोसाइड्स और मेथैम्फेटामाइन, बेंज़ोइलेकगोनिन सहित कई अवैध ड्रग्स शामिल थे।
इनमें से कई यौगिक ऐसे थे जो हवा में मौजूद गैसों के परमाणुओं के साथ मिलकर ऐसे ऐरोसोल बना रहे थे जो आसपास की हवा को भी प्रदूषित कर रहे थे। वैज्ञानिकों ने पाया कि तटीय इलाकों की हवा में मौजूद ये एरोसोल सांस के ज़रिये शरीर में प्रवेश कर मनुष्य व अन्य जीवों में सांस, पाचन तंत्र और त्वचा आदि से जुड़ी कई बीमारियां पैदा करने की क्षमता रखते हैं।
दिखाई दिए चिंताजनक नतीजे
शोधकर्ताओं ने पाया कि नदी के पानी में 10 प्रदूषक यौगिकों की उपस्थिति काफी सघन थी। नदी के नज़दीक दो जगहों पर एरोसोल की मात्रा काफी अधिक देखने को मिली। इसमें ऑक्टिनॉक्सेट (सनस्क्रीन और अन्य कॉस्मेटिक उत्पादों में प्रयुक्त रसायन), मेथामफेटामाइन (एक अवैध मादक पदार्थ) और डिबेंजाइलामाइन (रबर और प्लास्टिक उद्योग में प्रयुक्त जहरीला रसायन) व बेंज़ोइलेक्गोनिन (कोकीन के अपघटन से बनने वाला यौगिक) पाए गए।
नदी की सतह पर सभी एरोसोल संभवतः इन्ही रसायनों के कारण बन रहे थे। ये रसायन मानव स्वास्थ्य, जल जीवन और वायु गुणवत्ता के लिए खतरनाक माने जाते हैं, क्योंकि ये हार्मोनल गड़बड़ी, तंत्रिका तंत्र पर प्रभाव और पर्यावरणीय विषाक्तता का कारण बन सकते हैं। शोधकर्ताओं ने जल स्प्रे के एक मानक मॉडल का उपयोग करते हुए अनुमान लगाया कि 1 किलोमीटर लंबी तटरेखा प्रतिदिन लगभग 1 किलोग्राम ऑक्टिनॉक्सेट, 100 ग्राम मेथम्फेटामाइन और कई ग्राम टायर एडिटिव को तटवर्ती हवा में छोड़ सकती है। पूरी दुनिया को लेकर वैज्ञानिकों का अनुमान था कि प्रदूषित तट हर साल लगभग 40,000 टन ऑक्टिनॉक्सेट और 50 टन डिबेंजाइलामाइन को भूमि की हवा में छोड़ सकते हैं।
रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने बताया है कि कभी-कभार नदी के पास जाने वाला व्यक्ति भी नदी के मुहाने के पास होने पर सांस के जरिये एक घंटे में इन हानिकारक पदार्थों की इतनी मात्रा अपने शरीर के अन्दर ले सकता है जो उसकी सेहत के लिए हानिकारक हो सकती है। इसे देखते हुए मछुआरों और तटों के किनारे रहने वाले लोगों पर सनस्क्रीन, उत्तेजक पदार्थों और कीटनाशकों के मिश्रण वाले एरोसोल के शरीर पर दीर्घकालिक प्रभाव काफी अधिक होने की आशंका है।
क्या होते हैं एरोसोल और कैसे फैलते हैं?
एरोसोल हवा या किसी अन्य गैस में निलंबित, बहुत छोटे ठोस कणों या तरल बूंदों के मिश्रण को कहते हैं। स्क्रिप्स इंस्टीट्यूशन ऑफ ओशनोग्राफी की रिपोर्ट के मुताबिक एरोसोल के सूक्ष्म कण हवा में लंबे समय तक बने रहते हैं। ये समुद्री लवण, धूल, परागकण जैसे प्राकृतिक स्रोतों और मानवनिर्मित स्रोतों जैसे धुआं, रसायन, अपशिष्ट से उत्पन्न हो सकते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रिसर्च के अनुसार जब प्रदूषित नदी का पानी बहता है, खासकर ऐसे तटीय क्षेत्रों में जहाँ यह खुले में बहता हुआ समुद्र की ओर जाता है, तो पानी की लहरों की हलचल और वाष्पीकरण के कारण उसमें मौजूद विषैले तत्व, माइक्रोब्स, मल, और माइक्रोप्लास्टिक हवा के संपर्क में आकर एरोसोल में तब्दील हो जाते हैं।
यह प्रक्रिया नदी के समुद्र में मिलने से पहले ही शुरू हो जाती है। समुद्र तटीय इलाकों में इनका खतरा और भी बढ़ जाता है, क्योंकि समुद्री हवा के तेज़ झोंकों के साथ ये कई किलोमीटर दूर तक फैल सकते हैं।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की स्टडी समेत कई शोध अध्ययनों में पाया गया है कि एरोसोल में मौजूद माइक्रोबियल तत्व सांस के ज़रिये मनुष्यों में जाकर कई प्रकार की बीमारियों को जन्म दे सकते हैं। इनमें फेफड़ों का संक्रमण, श्वास रोग, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएं, त्वचा और आंखों में जलन जैसी स्वास्थ्य समस्याएं शामिल हैं।
मल्टीडिसिप्लिनरी डिजिटल पब्लिशिंग इंस्टीट्यूट की वेबसाइट पर प्रकाशित एक अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया कि शहरी वायुमंडलीय एरोसोल (PM₂.₅/PM₁₀) में मौजूद विषैले तत्व और गैसें फेफड़ों, हृदय व तंत्रिका तंत्र को प्रभावित कर सकती हैं। एक अन्य रिसर्च रिपोर्ट में बताया गया है कि बैक्टीरिया और वायरस युक्त एरोसोल फेफड़ों तक पहुंचकर ब्रोंकाइटिस, निमोनिया और अस्थमा जैसे रोग उत्पन्न कर सकते हैं।
समुद्र के किनारे रहने वाले लोगों में मतली, दस्त, पेट दर्द जैसे लक्षण भी आमतौर पर देखे गए। इसके अलावा हवा में घुली अशुद्धियों से एलर्जी और त्वचा रोग की संभावना भी पाई गई। किसी क्षेत्र में यदि लंबे समय तक एरोसोल प्रदूषण बना रहता है, तो यह श्वसन, तंत्रिका तंत्र और बच्चों के विकास पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। खासकर, निम्न आय वर्ग की रिहाइश वाले ऐसे इलाकों में, जहां लोग पहले से ही दूसरी तरह के प्रदूषण की चपेट में होते हैं।
दुनिया की कई नदियों में एरोसोल की समस्या
लॉस एंजिलिस टाइम्स में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक एरोसोल की समस्या तिजुआना नदी के अलावा अमेरिका व अन्य देशों की नदियों में भी व्यापक स्तर पर मिलने की संभावना है, खासकर उन इलाकों में जहां नदियों में बहता अपशिष्ट युक्त प्रदूषित जल समुद्र में मिलता है।
रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख किया गया कि दुनिया भर में नदियों में मिलाया जाने वाला तकरीबन 80% अपशिष्ट जल अनुपचारित रहता है। चिंता की बात यह भी है कि जहां वेस्ट वाटर को ट्रीटमेंट प्लांट में ट्रीट किया जाता है, वहां प्रक्रिया अकसर पानी में मौजूद बैक्टीरिया को तो हटा देती है, लेकिन वह सभी हानिकारक रसायनों को नहीं हटा पाती। शोधपत्र के प्रमुख लेखक एडम कूपर ने कहा कि यह शोध "इन प्रदूषकों के जल से वायु में स्थानांतरण की जांच करने वाला अब तक का सबसे व्यापक अध्ययन है।"
कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी से पहले अमेरिका की ही यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस द्वारा 2019 में किए गए इसी तरह के एक अध्ययन Microplastics in Texas Bays Are Being Swept Out to Sea में भी एरोसोल के खतरे के व्यापक स्तर के बारे में बताया गया था। इस स्टडी के मुताबिक एरोसोल से प्रदूषित तटीय क्षेत्रों में माइक्रोप्लास्टिक और हेवी मेटल युक्त एरोसोल नदी तट से 5 किलोमीटर से भी अधिक दूरी तक फैल सकते हैं।
यह शोध एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी जर्नल में प्रकाशित हुआ था और इसमें बताया गया है कि एरोसोल के ज़रिये कैसे माइक्रोप्लास्टिक और रासायनिक प्रदूषक तत्व नदियों के मुहाने पर स्थित तटीय खाड़ियों से समुद्र की ओर ले जाए जाते हैं।
इसके अलावा, 2021 में चीन की यांग्त्से नदी के डेल्टा क्षेत्र में माइक्रोबियल एरोसोल का विश्लेषण किया गया था। प्रसिद्ध साइंस जर्नल साइंस डायरेक्ट में प्रकाशित इस अध्ययन में यांग्त्से नदी डेल्टा क्षेत्र की मौसमी एरोसोल प्रोफाइलिंग के दौरान कई हानिकारक जीवाणु और सूक्ष्म जैविक तत्व आसपास के क्षेत्र की हवा में मौजूद पाए गए।
दुनिया भर में झीलों, नदियों और महासागरों में प्रवेश करने वाले अनुपचारित अपशिष्ट जल की वृद्धि एक बढ़ता हुआ स्वास्थ्य खतरा है। हम इस क्षेत्र में अपने अध्ययन जारी रख रहे हैं, ताकि वायुजनित प्रदूषण के इस नए पहचाने गए स्रोत को साँस में लेने के अल्पकालिक और दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों को बेहतर ढंग से समझा जा सके।
किम्बर्ली प्रैथर, यूसी सैन डिएगो में वायुमंडलीय रसायन विज्ञान की प्रोफेसर और एयरबोर्न इंस्टीट्यूट की संस्थापक व निदेशक
भारत के लिए कितनी गंभीर हो सकती है स्थिति?
भारत में यमुना, गंगा, साबरमती, गोमती, हुगली और बुंदेलखंड की बेतवा जैसी दर्जनों नदियां दशकों से गंभीर प्रदूषण की चपेट में हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की 2022–2023 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल 351 नदियों में से 279 नदियां प्रदूषित पाई गईं, जिनमें बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (BOD) और फ़ीकल कोलीफ़ॉर्म जैसे प्रदूषण संकेतक मानकों से कई गुना अधिक पाए गए।
भारत में BOD का सुरक्षित मानक 3 mg/L से कम और फ़ीकल कोलीफ़ॉर्म का मानक 500 MPN/100 ml से कम निर्धारित किया गया है। इससे अधिक स्तर पर जल को नहाने या घरेलू उपयोग के लिए असुरक्षित माना जाता है। इन मानकों के मद्देनज़र देश की उपरोक्त नदियों के जल में प्रदूषण स्तर इतना अधिक है कि उन्हें सीवरेज चैनल की श्रेणी में रखा जा सकता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के एनवायरनमेंट वाटर क्वालिटी डेटा एंट्री सिस्टम से लिए गए जुलाई 2023 तक के डेटा पर आधारित रिपोर्ट में देश के विभिन्न राज्यों में बहने वाली कुछ प्रमुख नदियों में प्रदूषण के स्तर की जानकारी दी गई है।
नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (NMCG) की रिपोर्ट के अनुसार केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में ही गंगा नदी में हर दिन 2000+ MLD (मिलियन लीटर प्रतिदिन) से अधिक गंदा पानी बहाया जाता है, जिसमें भारी मात्रा में एरोसोल उत्पन्न करने वाले रसायन, मल-जनित पदार्थ, माइक्रो प्लास्टिक और भारी धातुएं होती हैं।
हालांकि भारत में नदियों में एरोसोल प्रदूषण पर अभी तक कोई केंद्रित वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया और चीन की यांग्त्से डेल्टा जैसी अंतरराष्ट्रीय स्टडीज को देखते हुए, इस बात की प्रबल आशंका है कि भारत की प्रमुख नदियों में भी एरोसोल उत्पन्न हो सकते हैं। इसकी आशंका खासकर उन क्षेत्रों में है, जहां :
नदी समुद्र, झील या बैकवाटर से मिलती है। जैसे- हुगली का बंगाल की खाड़ी से मिलन या यमुना का ओखला बैराज के आसपास का क्षेत्र।
हवा में नमी अधिक होती है। जैसे- मुंबई, कोच्चि, विशाखापत्तनम, सूरत आदि।
जहां लहरें, हवाएं और उच्च तापमान मिलकर एरोसोल बनने की स्थितियों को बढ़ावा देते हैं। जैसे- मुंबई और कोच्चि के समुद्रतटीय क्षेत्र, सूरत और चेन्नई के बंदरगाह वाले इलाके तथा गोवा और पुरी जैसे तटीय पर्यटन केंद्र, जहां जल और वायुमंडलीय क्रियाएं तेज होती हैं।
इसके अलावा, झीलों और नहरों से घिरे शहरी क्षेत्र—जैसे हुसैन सागर (हैदराबाद), उल्लूर झील (बैंगलोर) और बांसेल झील (भोपाल)— में भी यह जोखिम मौजूद है, जहां वाष्पीकरण और सतही गतिशीलता हवा में सूक्ष्म प्रदूषक मिला सकती है।
ऐरोसोल के इस संभावित खतरे को देखते हुए इस बात की आवश्यकता महसूस होती है कि भारत में भी वैज्ञानिक संस्थान नदी प्रदूषण के वायवीय प्रभावों, खासकर ऐरोसोल पर गहन रिसर्च करें। इससे नीति-निर्माताओं को नदी और वायु की स्वच्छता को एक-दूसरे से जोड़कर देखने की दृष्टि मिल सकेगी, जिसका फिलहाल अभाव नज़र आ रहा है।
देश में नीतिगत स्तर पर अब नदियों के प्रदूषण को केवल जल तक सीमित मानना बड़ी भूल होगी। हमें "वॉटर-टू-एयर" ट्रांसमिशन को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
समाधान और सुझाव
तिजुआना नदी पर की गई यह स्टडी इस बात का एक बड़ा संकेत है कि जल प्रदूषण अब हमारे वायुमंडल में भी फैल रहा है। पर्यावरण के क्षेत्र में यह एक नया आयाम है। इसके निवारण के लिए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने Common Approach Towards a Pollution‑Free Planet (Dec 2023) शीर्षक से प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में विभिन्न स्तरों पर कदम उठाने की आवश्यकता जताई है-
नदियों की सफाई को प्राथमिकता: ‘नमामि गंगे’ जैसे मिशन में अब गंगा की सफाई तक सीमित न रहें, बल्कि वायु स्वच्छता के पहलू को भी उसमें जोड़ने की ज़रूरत है।
एरोसोल ट्रैकिंग स्टेशनों की स्थापना: नदियों के मुहानों पर मौजूद संवेदनशील क्षेत्रों में ऐसे सेंसर लगाए जाने चाहिए जो एरोसोल की रचना और मात्रा को ट्रैक कर सकें।
समुद्र तटों पर चेतावनी प्रणाली: जिन क्षेत्रों में नदी और समुद्र मिलते हैं, वहां समय-समय पर वायु गुणवत्ता अलर्ट जारी किए जाएं।
विज्ञान संचार और जनजागरूकता: देशभर में जागरूकता अभियान चलाकर आम लोगों को यह बताया जाए कि प्रदूषित नदी के आसपास के इलाकों में अब केवल पेयजल ही नहीं, बल्कि हवा को लेकर भी सतर्कता बरतना जरूरी हो गया है।