दिल्ली के भूजल में घुल रहा यूरेनियम सेहत से लेकर इको सिस्टम तक के लिए ख़तरा
दिल्ली में भूजल में यूरेनियम का स्तर चिंताजनक रूप से बढ़ रहा है। खासकर पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी और उत्तरी दिल्ली के उन इलाक़ों में जहां पाइपलाइन से जलापूर्ति सीमित होने के कारण लोग बोरवेल के भूजल पर ही निर्भर हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड की 2025 रिपोर्ट के अनुसार 2024 में लिए गए नमूनों में दिल्ली देश में यूरेनियम-प्रदूषण के लिहाज़ से तीसरे स्थान पर रही। कई जांचों में तो यूरेनियम का स्तर डब्ल्यूएचओ के 30 माइक्रोग्राम/लीटर मानक से कई गुना अधिक यानी 100-150 माइक्रोग्राम/लीटर तक पाया गया। इसके साथ ही फ्लोराइड, नाइट्रेट, लेड और नमक जैसे प्रदूषक भी सुरक्षित सीमा से ऊपर पाए गए।
भूजल में घुला यूरेनियम सिर्फ इंसानों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे इकोसिस्टम के लिए नुकसानदेह है। यह मिट्टी और पानी में मौजूद सूक्ष्म जीवों, जलीय पौधों और मछलियों की कोशिकीय गतिविधियों को बाधित करता है, जिससे उनकी वृद्धि और प्रजनन क्षमता कम हो सकती है। लंबे समय तक जमा होने पर यूरेनियम जैव-संचयन (बायोएक्युमलेशन) के जरिए खाद्य शृंखला (फूड चेन) में ऊपर तक पहुंच जाता है, जिससे पक्षियों, जानवरों और अंततः मनुष्यों पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है।
भूजल के इस प्रदूषण का प्रमुख कारण भूवैज्ञानिक संरचना, गहरे बोरवेल, भूजल-स्तर का लगातार गिरना और बाइकार्बोनेट युक्त कठोर जल (हार्ड वाटर) है। स्वास्थ्य पर इसके असर की बात करें, तो सबसे ज़्यादा और तत्काल प्रभाव गुर्दे (किडनी) की कार्यक्षमता पर पड़ता है। क्योंकि, किडनी ही शरीर में पानी की सफाई का काम करती है। इसलिए लंबे समय तक यूरेनियम-युक्त पानी पीने से किड़नी पर काफ़ी ज़ोर पड़ता है और उसकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है। यह समस्या खासकर उन समुदायों में ज़्यादा देखने को मिलती है, जो वर्षों से दूषित भूजल का इस्तेमाल कर रहे हैं।
क्या कहती हैं रिपोर्ट?
केंद्रीय भूजल बोर्ड के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय परीक्षणों और मीडिया रिपोर्टिंग पर आधारित सरकारी और मीडिया रिपोर्टों के अनुसार दिल्ली के भूजल में यूरेनियम की मात्रा बढ़ती दिख रही है और इसका स्थान देश में पंजाब व हरियाणा के बाद तीसरे नंबर पर आता है।
दिल्ली जल बोर्ड और कई स्वतंत्र संस्थानों की जांचों में पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी और उत्तरी-पश्चिमी दिल्ली के हिस्सों में यूरेनियम का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सुरक्षित मानक 30 माइक्रोग्राम/लीटर से कई गुना अधिक पाया गया। कुछ नमूनों में यह 100 से 150 माइक्रोग्राम/लीटर तक दर्ज किया गया। यह समस्या विशेष रूप से उन इलाक़ों में दिखाई दे रही है जहां का भूजल स्तर सामान्य से नीचे जा चुका है और पाइपलाइन से होने वाली जलापूर्ति सीमित है। इन इलाक़ों के लोग अपनी रोज की जरूरत के लिए व्यक्तिगत या सामुदायिक बोरवेल पर निर्भर हैं। उदाहरण के लिए रोहिणी, भलस्वा झील क्षेत्र और नांगली राजपुरा, संगम विहार, नजफगढ़, द्वारका, नरेला, भगवती विहार, और हरियाणा सीमा से जुड़े इलाकों में समस्या अधिक गंभीर पाई गई है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन्हीं इलाक़ों की स्थिति सबसे ज़्यादा क्यों बिगड़ रही है। दरअसल, दिल्ली का भूजल बेसिन उत्तर-पश्चिमी भारतीय एप्लास्टिक या तलछटी पट्टियों से जुड़ा है। यह परत पानी को अपने पार नहीं जाने देती और लंबे समय तक पानी के यहां बने रहने से इस परत में मौज़ूद यूरेनियम पानी में घुल जाता है। इस कारण इस परत से निकाले जाने वाले भूजल में यूरेनियम की मात्रा हानिकारक स्तर तक पहुंच जाती है। उच्च बाइकार्बोनेट/कठोरता वाले पानी में यूरेनियम अधिक घुलनशील बन सकता है। यह भूवैज्ञानिक और केमिस्ट्री-आधारित व्याख्या है जो केंद्रीय भूजल बोर्ड व वैज्ञानिक अध्ययनों में दी जाती है। बोर्ड के हाल के इसी अध्ययन में दिल्ली के भूजल में यूरेनियम की मात्रा 89.4 पीपीबी बताई गई है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड के ही 'यूरेनियम अक्रेंस इन शैलो एक्विफ़र इन इंडिया' नाम की रिपोर्ट के अनुसार शहर के विभिन्न क्षेत्रों में भूजल का स्तर अलग-अलग है। इसी रिपोर्ट में कुछ इलाकों, विशेषकर पश्चिमी/दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में गहराई बढ़ने और कुछ स्थानों में मानसून के पहले बनाम मानसून के बाद की तुलना में गिरावट देखी गई है। या रिपोर्ट इस बात का भी संकेत देती है कि जल-स्तर में निरंतर गिरावट और कुछ क्षेत्रों में भूजल में 2 से 4 मीटर या उससे अधिक की गिरावट दर्ज हुई और इसने पानी में खनिजों की घुलनशीलता के दर की वृद्धि को सहज बना दिया है।
इसके अलावा दिल्ली की कई अनधिकृत कॉलोनियों, जेजे क्लस्टरों और भीड़भाड़ वाली बस्तियों में आज भी पाइप से मिलने वाला पानी नियमित रूप से नहीं पहुंच पाता है। सरकारी और स्वतंत्र रिपोर्टों के अनुसार शहर की लगभग 10 फ़ीसद आबादी के पास किसी तरह का कोई पाइप्ड कनेक्शन नहीं है, वहीं करीब 30 फ़ीसद आबादी को मिलने वाली सप्लाई कमजोर या पर्याप्त से कम है। इन इलाक़ों में खासतौर पर संगम विहार, पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के कुछ हिस्सों और सीमावर्ती अनधिकृत इलाक़ों में पाइप लाइन से पानी की सप्लाई या तो बहुत कम है या होती ही नहीं । इसलिए यहां रहने वाले लोग ज़्यादातर टैंकरों, सामुदायिक बोरवेलों या निजी बोरवेलों पर निर्भर रहते हैं। नतीजतन, इन क्षेत्रों में भूजल पर निर्भरता बनी रहती है। अगर यह भूजल स्थानीय रूप से यूरेनियम-समृद्ध परतों से जुड़ा हो, तो जोखिम बढ़ जाता है।
ये सारे कारक साफ़ तौर पर इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह समस्या स्थानीय नहीं रह गई है, बल्कि क्षेत्रीय पैमाने पर गहरी जड़ें जमा चुकी है।
दिल्ली का भूजल बेसिन उत्तर-पश्चिमी भारतीय एप्लास्टिक या तलछटी पट्टियों से जुड़ा है, जिसके कारण कुछ परतों में प्राकृतिक रूप से यूरेनियम की सांद्रता अधिक होती है।
भूजल में यूरेनियम की मात्रा बढ़ने के कारण
दिल्ली के भूजल में यूरेनियम पाए जाने की कई वजहें हैं। इनमें से कुछ कारण प्राकृतिक हैं, तो कुछ मानव जनित कारण भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। इन्हें इस तरह से समझा जा सकता है:
प्राकृतिक कारण:
चट्टानों में मौजू़द यूरेनियम का पानी में घुलना: दिल्ली के कई हिस्सों में पुरानी ग्रेनाइट और गनीस चट्टानें मौजूद हैं, जिनमें स्वाभाविक रूप से यूरेनियम के सूक्ष्म अंश होते हैं। जब भूजल बहुत नीचे पहुंच जाता है, तो वह इन चट्टानों के साथ ज़्यादा समय तक संपर्क में रहता है, जिससे खनिज आसानी से पानी में घुल जाते हैं। भूजल स्तर गिरने पर भूजल के भंडार जलभृतों यानी एक्विफीयर के रिचार्ज होने की गति धीमी हो जाती है। इससे पानी लम्बे समय तक युरेनियम-युक्त चट्टानों के संपर्क में रहता है और पानी में खनिज घुलने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है।
बाइकार्बोनेट अधिकता: कई वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि जहां पानी में बाइकार्बोनेट अधिक होता है, वहां यूरेनियम अधिक आसानी से पानी में घुलता है। दिल्ली के कई पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी हिस्सों में यही पैटर्न देखने को मिलता है।
मानव-जनित कारण:
अत्यधिक बोरवेल पंपिंग, खेती में रसायनों का अत्यधिक उपयोग और शहरी कचरे से फैलने वाले प्रदूषण जैसी इंसानी गतिविधियों ने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ने में अहम भूमिका निभाई है। इनके कारण भूजल में यूरेनियम घुलने की रफ़्तार बढ़ जाती है। कई मामलों में यह मानव-निर्मित कारण समस्या को दोगुना कर देते हैं।
गहराई तक बोरिंग और नए जलस्तरों का दोहन: जब किसी इलाक़े में बार-बार और बहुत अधिक गहराई वाले बोरवेल खोदे जाते हैं, तो पानी उन परतों से गुजरने लगता है जहां यूरेनियम की सांद्रता अधिक होती है। ऐसे में पानी में यूरेनियम घुलने का ख़तरा बढ़ने लगता है।
शहरी प्रदूषण और कचरा: लैंडफिल और अवैध डंपिंग साइट्स से बनता लीचेट यानी कचरे से रिसकर नीचे जाने वाला दूषित तरल भी पानी की रासायनिक संरचना बदल देता है। इससे खनिज और अन्य धातुएं पानी में अधिक आसानी से घुलने लगती हैं।
कृषि-रसायन और उर्वरक: फॉस्फेट आधारित कुछ रासायनिक उर्वरकों में यूरेनियम का कुछ अंश मौजूद होता है। ऐसे में इनके लगातार और अत्यधिक उपयोग से मिट्टी में यूरेनियम जमा होता जाता है, जो बारिश होने पर पानी के साथ रिस कर या सिंचाई के पानी के साथ भूजल में मिल जाता है।
नाइट्रेट का बढ़ना: शहरों में सीवर लीकेज और कचरे की वजह से नाइट्रेट बढ़ता है, और नाइट्रेट पानी की अम्लता बढ़ाकर यूरेनियम जैसे कई खनिजों को ज़्यादा घुलनशील बना देता है।
मानवीय दबाव, गहरे बोरवेल, कचरा, नाइट्रेट और उर्वरक जैसे कारण इस खतरे को और बढ़ा देते हैं। जहां पहले से ही भूगर्भीय कारण मौजूद हैं, वहां इंसानी गतिविधियां समस्या को सीधा और तेज़ बना रही हैं।
शरीर में किस तरह असर दिखाता है यूरेनियम?
अक्सर लोग सोचते हैं कि पीने के पानी में मिला यूरेनियम केवल अपनी रेडियोधर्मिता की वजह से नुकसान पहुंचाता है, जबकि सच यह है कि इसके और भी कई खतरे हैं जो सीधे हमारी सेहत को प्रभावित करते हैं। इसका सबसे बड़ा और तुरंत असर रासायनिक विषाक्तता यानी कैमिकल टॉक्सीसिटी के रूप में होता है। वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि शरीर पर रेडियोधर्मिता के असर से पहले यूरेनियम किडनी को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है। यह मूत्राशय और किडनी के नेफ्रॉन में जमा होकर उनकी कार्यक्षमता को कम कर देता है। लंबे समय तक यूरेनियम युक्त पानी पीने से किडनी फंक्शन (ग्लोमेर्यूलर फ़िल्ट्रेशन रेट) में कमी ला देता है। यह किडनी द्वारा हर मिनट खून को छानकर अपशिष्ट पदार्थ बाहर निकालने की दर होती है, जोकि गुर्दे का सबसे प्रमुख काम होता है। इसके अलावा यूरेनियम के कारण किडनी में प्रोटीन लीकेज, और ट्यूब्युलर डैमेज जैसे प्रभाव भी देखने को मिलते हैं। प्रोटीन लीकेज ऐसी स्थिति होती है, जब किडनी की छानने वाली झिल्लियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। इससे खून में मौजूद प्रोटीन भी पेशाब में निकलने लगता है। इसे किडनी फेल होने का शुरुआती संकेत माना जाता है। इसी तरह ट्यूब्युलर डैमेज किडनी की नलिकाओं के क्षतिग्रस्त होने की स्थिति को कहते हैं। ऐसा होने पर किडनी शरीर से अपशिष्ट निकालने और पानी-इलेक्ट्रोलाइट संतुलन बनाए रखने का काम ठीक से नहीं कर पाती। ऐसा होने पर विषैले तत्व शरीर में जमा होने लगते हैं। कई अध्ययन बताते हैं कि यूरेनियम के प्रभाव से बच्चों और बुजुर्गों में इसकी समस्या अधिक होती है।
इसके अलावा यूरेनियम शरीर में हड्डियों में जाकर जमा हो सकता है, जिससे हड्डियां कमजोर होना, जोड़ों में दर्द, और हड्डी घनत्व (बोन डेन्सिटी) में कमी आने जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। गर्भवती महिलाओं में यूरेनियम मां को बच्चे से जोड़ने वाले प्लेसेंटा को पार कर सकता है, जिससे भ्रूण के विकास पर बुरा पड़ने की आशंका रहती है। शरीर में पहुंचने वाली यूरेनियम की छोटी सी मात्रा भी लंबी अवधि में रक्तचाप बढ़ाने, थायरॉयड फंक्शन में बदलाव और प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करता है। इसके अलावा यूरेनियम के रेडियोधर्मी प्रभाव तो होते ही हैं, जो डीएनए तक को प्रभावित करके अनुवांशि रूप से भी असर दिखाते हैं। इससे संतानों में कई तरह की विकृतियां आ सकती हैं। इसके अलावा यूरेनियम शरीर की हार्मोनल कार्यप्रणाली को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। कुल मिलाकर, पीने के पानी में यूरेनियम घुलने का खतरा केवल “रेडियोधर्मी” नहीं है, बल्कि इससे भी कहीं अधिक और तात्कालिक असर वाला हो सकता है।
गर्भवती महिलाओं में यूरेनियम मां को बच्चे से जोड़ने वाले प्लेसेंटा को पार कर सकता है, जिससे भ्रूण के विकास पर बुरा पड़ने की आशंका रहती है।
भविष्य के ख़तरे
अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो अगले 5 से 10 वर्षों में दिल्ली के भूजल में यूरेनियम घुलने का संकट और गहरा हो सकता है। खासकर, अगले एक दशक में दिल्ली के पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी इलाकों में जलस्तर और नीचे जाने पर यूरेनियम की समस्या और भी बढ़ सकती है। इसकी सांद्रता 30-100 माइक्रोग्राम/लीटर से भी ऊपर यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानक सीमा से भी कई गुना ऊपर जा सकती है।
पाइप से की जाने वाली जलापूर्ति पर दबाव बढ़ेगा: यूरेनियम के कारण जैसे-जैसे बोरवेल से निकलने वाला पानी अनुपयोगी होता जाएगा, वैसे-वैसे लाखों लोग पाइप्ड जल पर निर्भर होते जाएंगे। इससे जलापूर्ति नेटवर्क पर बोझ बढ़ जाएगा। जल वितरण नेटवर्क को बढ़ाने पर भारी भरकम खर्च भी सरकार को करना पड़ सकता है। क्योंकि ऐसा न करन पर जल आपूर्ति व्यवस्था पर ओवरलोड, और पानी की असमान उपलब्धता जैसे संकट बढ़ जाएंगे।
स्वास्थ्य-व्यय में वृद्धि: पानी में मौजूद यूरेनियम के कारण अगले 10 वर्षों में बोरवेल-निर्भर आबादी में, विशेष रूप से बुज़ुर्ग, गर्भवती महिलाएं और बच्चे, किडनी-सम्बंधित रोगों से अधिक प्रभावित हो सकते हैं। इससे स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी होगी और परिवारों पर आर्थिक बोझ पड़ेगा।
क्या हो सकते हैं समाधान
पानी में यूरेनियम प्रदूषण की समस्या का फ़ौरी समाधान संभव नहीं है। इसके लिए एक लंबी अवधि वाली, बहु-स्तरीय जल-प्रबंधन रणनीति की ज़रूरत है। कुछ कदम उठा कर इससे निपटा जा सकता है:
भूजल की नियमित मॉनिटरिंग और आंकड़ों जारी करना : वर्तमान में दिल्ली में भूजल की गुणवत्ता और उसके स्तर से जुड़े तमाम परीक्षण और निगरानी की व्यवस्थाएं असंगठित और सीमित हैं। किसी भी परीक्षण के लिए सीमित जगहों से ही सैंपल एकत्रित किए जाते हैं और उनके ही आधार पर परिणाम तय कर लिए जाते हैं। ये परीक्षण भी नियमित न हो कर वार्षिक या कई बार तो कई सालों में एक बार किए जाते हैं। ऐसे में पानी की गुणवत्ता की नियमित जांच और उसे बनाए रखना संभव नहीं हो पाता है। इन परीक्षणों से निकले परिणाम और आंकड़ों की जानकारी भी आम लोगों तक नहीं पहुंच पाती है। इस कारण लोग इस समस्या की गंभीरता को समझ नहीं पाते हैं। नतीजतन, वे इससे बचने के उपाय नहीं कर पाते।
रेनवॉटर हार्वेस्टिंग को सख्ती से लागू करना: दिल्ली में मानसून के दौरान ठीक-ठाक बारिश होती है, लेकिन बारिश का ज़्यादातर पानी यूं ही बह जाता है। वर्षा जल संचयन के समुचित उपायों को अपनाकर और मौजूदा ढांचों के नियमित रखरखाव, जवाबदेही तय करके, नए निर्माणों के लिए रिचार्ज व्यवस्था को अनिवार्य बनाकर और स्कूलों, कॉलोनियों, बाजारों और दफ्तरों में सामुदायिक रिचार्ज इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित करके भूजल स्तर को सुधारा जा सकता है। कम गहराई पर पानी उपलब्ध होने पर लोगों को गहराई में मौज़ूद यूरेनियम युक्त पानी के इस्तेमाल से निजात मिल सकती है।
जलापूर्ति नेटवर्क का विस्तार और सुधार: शहर के ऐसे इलाके जहां भूजल ही पेयजल का एकमात्र स्रोत है, वहां तत्काल प्रभाव से वैकल्पिक जल-सप्लाई नेटवर्क को स्थापित किए जाने की जरूरत है। इसके विस्तार से लोगों की बोरवेल पर निर्भरता कम हो सकेगी।
बोरवेल की लाइसेंसिंग और कड़ा नियंत्रण: दिल्ली में बोरवेल को रजिस्टर करने की प्रक्रिया मौजूद है, लेकिन इसका अनुपालन बेहद कमजोर है। सभी मौजूदा बोरवेल का सर्वे, नए बोरवेल पर अंकुश लगाकर और भूजल के अत्यधिक दोहन को रोका जा सकता है। इससे भूजल पर दबाव घटेगा।
समुदाय आधारित जल-गुणवत्ता निगरानी: रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन, स्कूल, और स्थानीय समितियां मिलकर जल-गुणवत्ता परीक्षण उपकरणों का उपयोग कर सकती हैं। ऐसी पहलें पहले भी कई शहरों में सफल रही हैं और दिल्ली में भी उपयोगी साबित हो सकती हैं।
घरेलू उपाय : पानी में घुले यूरेनियम को अलग करने के लिए साधारण वाटर फ़िल्टर काफी नहीं होते, लेकिन रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) आधारित फ़िल्टर से इसे काफी हद तक कम किया जा सकता है। हालांकि इसकी क़ीमत ज़्यादा होने के कारण आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के इसका इस्तेमाल करना मुश्किल हो सकता है।
नीतिगत स्तर पर दीर्घकालिक और स्थायी सुधार: मौजूदा हालात को देखते हुए सरकार को एक ऐसी जल-नीति बनानी चाहिए, जिसमें पाइपलाइनों के ज़रिये वाटर सप्लाई का दायरा बढ़ाने के साथ ही भूजल रिचार्ज को बेहतर बनाने के इंतज़मा किए जाएं। इसके साथ ही दिल्ली में मौज़ूद यमुना और साहिबी नदी को प्रदूषण मुक्त करने और जल का पुनर्चक्रण (रीसाइक्लिंग) के ज़रिये पानी का कुशल प्रबंधन किया जाए। इस पूरी व्यवस्था अच्छी तरह से चलाने के लिए और उसकी निगरानी और रखरखाव (मेंटेनेंस) के लिए सरकार को इंटर-एजेंसी कोऑर्डिनेशन की जरूरत होगी। इस ओर तत्परता से कदम उठाने की ज़रूरत है, क्योंकि दिल्ली जैसे भारी आबादी वाले महानगर में इतनी बड़ी समस्या की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

