रामसर स्थलों का संरक्षण आवश्यक
रामसर स्थलों का संरक्षण आवश्यक

भारत भूमि के आभूषण : रामसर स्थल (भाग 2)

रामसर साइटें वेटलैंड्स हैं, जिनका अंतर्राष्ट्रीय महत्व है। वेल्टैंड्स के कन्वेंशन को रामसर कन्वेंशन कहा जाता है। रामसर सम्मेलन 1971 में यूनेस्को द्वारा स्थापित एक अंतर्राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संधि है।
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भारतीय रामसर स्थल 

भारत द्वारा 1 फरवरी, 1982 को रामसर कन्वेंशन का अनुमोदन कर 1981 से 2014 तक कुल 26, 2015 से 2023 तक कुल 49 और जनवरी, 2024 तक कुल 05 आर्द्रभूमियों को रामसर स्थल घोषित किया गया है। वर्तमान में भारतवर्ष में कुल 80 रामसर स्थल उपलब्ध हैं। सर्वाधिक 16 रामसर स्थल तमिलनाडु में हैं। जैविक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भारतीय आद्रभूमियों (रामसर स्थलों सहित) की कुल संख्या 1301 है। अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र अहमदाबाद के नेशनल वेटलैंड्स डेकाडल चेंज एटलस (2021) के अनुसार, भारत में कुल 7,57,060 आर्द्रभूमि क्षेत्र उपलब्ध हैं।

भारत द्वारा 1 फरवरी, 1982 को रामसर कन्वेंशन का अनुमोदन कर 1981 से 2014 तक कुल 26, 2015 से 2023 तक कुल 49 और जनवरी, 2024 तक कुल 5 आर्द्रभूमियों को रामसर स्थल घोषित किया गया है। वर्तमान में भारतवर्ष में कुल 80 रामसर स्थल उपलब्ध हैं। सर्वाधिक 16 रामसर स्थल तमिलनाडु में हैं। जैविक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण भारतीय आर्द्रभूमियों (रामसर स्थलों सहित) की कुल संख्या 1301 है। अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र अहमदाबाद के नेशनल वेटलैंड्स डेकाडल चेंज एटलस (2021) के अनुसार, भारत में कुल 7,57,060 आर्द्रभूमि क्षेत्र उपलब्ध हैं, जिनमें 15.98 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में विस्तृत आर्द्रभूमि क्षेत्र उपलब्ध हैं, जो भारत के भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 5% है। इनमें 2.25 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल वाले कुल 5,55,557 क्षेत्र हैं। पश्चिम बंगाल का सुंदरवन सबसे बड़ा रामसर स्थल है, जिसका क्षेत्रफल 42,3000 हेक्टेयर है। जो कि 23 राज्यों में फैले भारत के कुल रामसर स्थल क्षेत्र का लगभग 32% है। हिमाचल प्रदेश में स्थित रेणुका वेटलैंड भारत की सबसे छोटी (क्षेत्रफल-20 हेक्टेयर) आर्द्रभूमि है। 

भौतिक व पारिस्थितिक संरक्षण की आवश्यकता 

विगत शताब्दियों से आर्द्रभूमियों  को बेनामी या बंजर भूमि को जैव आवासीय भूमि मानकर उनके अमूल्य संसाधनों का अनियंत्रित दोहन होता रहा है। दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में चिन्हित 629 जल निकायों में से 232 को अतिक्रमण के कारण पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। 1973 से 2007 के मध्य, शहरीकरण के कारण बैंगलोर के लगभग 1100 हेक्टेयर जल विस्तार क्षेत्र में स्थित 66 आर्द्रभूमि लुप्त हो गई हैं। 

यू.एस.ए. के जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर्शासकीय अनुपचारित मंच के वैश्विक मूल्यांकन के अनुसार कई आर्द्रभूमियां अनियंत्रित जल निकासी; पुनर्ग्रहण; क्षरण; प्रदूषण; औद्योगिक अनुपचारित अपशिष्टों, प्रदूषक पदार्थ ठोस अपशिष्ट सीवेज की डंपिंग; अतिक्रमण और मृदा भराव; जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन के कारण अत्यधिक संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्रों में शामिल हुई हैं। जलविज्ञान व जल रसायन विज्ञान में परिवर्तन, आर्द्रभूमियों की जलमग्नता, जलागम क्षेत्र का सिकुड़ना, जल निकासी एवं मार्ग परिवर्तन, भूजल का ह्रास, अत्यधिक चराई, कृषि अपवाह,अनुपचारित सीवेज, रासायनिक प्रदूषण, अतिरिक्त पोषक तत्व और संचयन, खरपतवार संक्रमण आदि आर्द्रभूमियों में क्षरण के मुख्य कारक हैं। 

मृदा संरचना में परिवर्तन, मृदा में संग्रहीत कार्बन की हानि, सूखा या बाढ़ की अत्यधिक आवृत्ति, पौधों और पशुओं के प्रजातियों में परिवर्तन, तटीय आर्द्रभूमियों में खारे जल का अतिक्रमण, हिमनद गलन से प्राप्त जल की मात्रा और समय में परिवर्तन आदि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हैं। आश्रित समुदाय विकल्प,बुनियादी आवश्यकताओं एवं जागरूकता के अभाव में इनके सीमित संसाधनों के दोहन के लिए विवश हैं। 

शहरीकरण के चलते स्थानीय लोगों का आर्द्रभूमियों से अलगाव हो गया है। जिसके परिणामस्वरूप जैव विविधता का पतन हो रहा है और समाज को मिलने वाले पारिस्थितिक तंत्र के लाभों में व्यवधान उत्पन्न हो रहे हैं। 'ग्लोबल वेटलैंड आउटलुक' के अनुसार अनियंत्रित मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन के कारण 1970 के बाद से वैश्विक स्तर पर 35% आर्द्रभूमियां नष्ट हो चुकी हैं। विविधतापूर्ण भारतीय आर्द्रभूमियाँ 'पारिस्थितिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्यों' तथा 'अपार जैव-विविधता और प्राकृतिक अनुकूलन क्षमता' के महत्वपूर्ण भंडार हैं। इसके बावजूद आर्द्रभूमियाँ सबसे तेजी से नष्ट होने वाले पारिस्थितिक तंत्रों में से एक हैं। 

जल की बढ़ती मांग के कारण, संपोषित जैव विविधता की हानि और आर्द्रभूमियों द्वारा प्रदान की जाने वाली पारिस्थितिक सेवाओं की अनिश्चितता में भी वृद्धि हुई है एवं उनकी निरंतरता भंग हुई है, जिससे मानव कल्याण सीधे प्रभावित होता है। पारिस्थितिकी प्रणालियों की अखंडता और स्वास्थ्य का बनाए रखना उनके द्वारा प्रदत्त असंख्य लाभों एवं सेवाओं को निरंतर बहाल रखने की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का अभिन्न अंग है। अतः संतुलित जीवनशैली बहाल रखने में आर्द्रभूमियों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए, हमारे लिए इनका प्रभावी प्रबंधन और संरक्षण करना अनिवार्य है। जिसके माध्यम से अतिरिक्त आजीविका उत्पन्न करना संभव एवं अति आवश्यक है। 

आर्द्रभूमि प्रबंधन में जलवायु जोखिमों को समाहित करना अत्यावश्यक है, जो कि जलवायु परिवर्तन के कारकों के शमन और प्रभावों के अनुकूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। आर्द्रभूमि प्रबंधन में भारत के सामाजिक पर्यावरण परिदृश्य के भीतर पारिस्थितिकी संरक्षण, सामुदायिक भागीदारी और विनियामक अनुपालनों के बीच संतुलन स्थापित करना आवश्यक है।

हिमनद आर्द्रभूमियों के संरक्षण, प्रबंधन एवं पुनर्वास हेतु प्रतिवद्धता, संस्थागत रणनीतियां, कानून, विनियामक व्यवस्थाएं, प्रयास, कार्यक्रम एवं परियोजनाएं

आर्द्रभूमियाँ सामाजिक संपत्ति हैं। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय आर्द्रभूमि संरक्षण के नीति और कार्यक्रमीय पहलुओं के समन्वय के लिए नोडल संस्था है। आर्द्रभूमि संरक्षण, भारतीय नीतियों, कानूनों और विनियामक व्यवस्थाओं में निहित पर्यावरण संरक्षण की समृद्ध विरासत से शक्ति प्राप्त करता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51-ए (ग) में इस भावना को समाहित किया गया है कि 'हर भारतीय नागरिक का यह दायित्व है  कि वह वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसमें सुधार करे और जीवित प्राणियों के प्रति करुणा का भाव रखे।' सक्रिय पहलों के माध्यम से भारत सरकार ने आर्द्रभूमियों के संरक्षण और स्थायी प्रबंधन के लिए दृढ नीतियों को लागू किया है, स्थानीय समुदायों को शामिल किया है और वैज्ञानिक एवं भागीदारी पूर्ण दृष्टिकोण अपनाए हैं। सन् 2006 की 'राष्ट्रीय पर्यावरण नीति' ने पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान करने में आर्द्रभूमि के महत्व को मान्यता दी एवं विशेष नीति कारक स्थापित किए। जल संसाधनों के घटक के रूप में आर्द्रभूमियों को चिन्हित कर उनके संरक्षण हेतु सिफारिश की गई जिसके अन्तर्गत 'नीति कार्रवाई' में विकासात्मक योजनाओं का एकीकरण, विवेकपूर्ण उपयोग रणनीतियों पर आधारित प्रबंधन, इको-पर्यटन को बढ़ावा देना, और नियामक ढाँचे का कार्यान्वयन तथा इनकी राष्ट्रीय सूची विकसित करना आदि शामिल थे। 

राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम (NWCP) 

आर्द्रभूमियों का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित कर उनकी संभावित दुर्दशा रोकने एवं स्थानीय समुदायों के लाभ और जैव विविधता के समग्र संरक्षण के लिए राष्ट्रीय वेटलैंड्स संरक्षण कार्यक्रम को वर्ष 1985-1986 में लागू किया गया था। जिसके मुख्य उद्देश्य 

  1. (क) आर्द्रभूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए नीति बनाना, 

  2. (ख) संरक्षण कार्यक्रम के वृहत्त कार्यान्वयन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करना एवं कार्यक्रम की निगरानी करना, और 

  3. (ग) आर्द्रभूमियों की सूची तैयार करना आदि थे। जिसमें तत्काल संरक्षण और प्रबंधन निर्धारित किए गए हैं। इसी क्रम में 1993 में, विशेष रूप से शहरी और उप-शहरी झीलों के लिए NWCP से अद्यतन राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना (NLCP) बनाई गई। 

1995 की राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (NRCP) का उद्देश्य प्रदूषण निवारण कर प्रमुख भारतीय नदियों के जल की गुणवत्ता को निर्दिष्ट सर्वोत्तम उपयोग के स्तर तक सुधारना था। भारत में आर्द्रभूमि संरक्षण पर कार्रवाई मुख्य रूप से रामसर कन्वेंशन तहत की गई। 

अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं और अप्रत्यक्ष रूप से अन्य नीतिगत उपायों, जैसे तटीय क्षेत्र विनियमन अधिसूचना, 1991; पर्यावरण और विकास पर राष्ट्रीय संरक्षण रणनीति और नीति वक्तव्य, 1992; जैव विविधता पर राष्ट्रीय नीति और वृहत्त स्तर की कार्रवाई रणनीति, 1999; और राष्ट्रीय जल नीति, 2002 आदि के माध्यम से प्रभावित होकर की गई। 

जैव विविधता और जलवायु संरक्षण के लिए आर्द्रभूमि प्रबंधन 

जैव विविधता के संपोषण और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय द्वारा "जैव विविधता और जलवायु संरक्षण के लिए आर्द्रभूमि प्रबंधन" नामक अंतरराष्ट्रीय जलवायु पहल के कार्यान्वयन के लिए चयनित, 04 पायलट रामसर स्थलों में, पोंग बाँध और रेणुका झील (हिमाचल प्रदेश); भितरकनिका मैंग्रोव (ओडिशा), और प्वाइंट कैलिमेरे वन्यजीव और पक्षी अभयारण्य (तमिलनाडु) शामिल हैं। चिल्का विकास प्राधिकरण एक संसाधन केंद्र के रूप में कार्यरत है। जर्मन संघीय मंत्रालय के अधीन पर्यावरण, प्रकृति संरक्षण, परमाणु सुरक्षा (बी.एम.यू.) के सहयोग से यह परियोजना पर्यावरण मंत्रालय की योजना एन.पी.सी.ए. के साथ निकट सहयोग से क्रियान्वित की जा रही है। 

राष्ट्रीय जलीय पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण योजना (एन.पी.सी.ए.) 

वर्तमान में केंद्र सरकार और संबंधित राज्य/केंद्र शासित प्रदेश सरकारों के बीच लागत साझाकरण के आधार पर आर्द्रभूमियों (रामसर स्थलों सहित) के लिए एक केंद्र प्रायोजित योजना, अर्थात राष्ट्रीय जलीय पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण योजना प्रशासित की जा रही है। यह 'राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना' और 'राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण कार्यक्रम' के सम्मेलन के परिणामस्वरूप, आर्द्रभूमि और झीलों के लिए समर्पित एक व्यापक संरक्षण और पुनर्वास पहल है। इसके अन्तर्गत अपशिष्ट जल का अवरोधन, एवं उपचारः सीमांकन; तटरेखा संरक्षण; जैव-बाड़ गाद निकालना और खरपतवार नियंत्रण; बरसाती जल प्रबंधन; बायोरेमेडिएशन, मत्स्य पालन; जलग्रहण क्षेत्र उपचारः आर्द्रभूमि सौंदर्याकरण; शिक्षार्थी और जागरूकता; सर्वेक्षण और सामुदायिक भागीदारी; आदि गतिविधियों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। यह योजना राज्यों के साथ एकीकृत प्रबंधन योजनाओं के गठन एवं कार्यान्वयन, क्षमता विकास और अनुसंधान को बढ़ावा देकर, आर्द्रभूमियों को मुख्य धारा में समेकित करने का लक्ष्य रखती है।

एन.पी.सी.ए. द्वारा आर्द्रभूमियों की एकीकृत प्रबंधन योजना (आई.एम. पी.) के दिशानिर्देश तैयार किए गए हैं,जो कि आर्द्रभूमियों का स्वास्थ्य निदान एवं सहभागी मूल्यांकन निर्धारित करते हैं। इस परियोजना के तहत स्थल स्तरीय जलवायु जोखिम मूल्यांकन मार्गदर्शिका विकसित की गई है। जिससे विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करते हुए पारिस्थितिक सह-लाभ प्राप्त करने की दिशा में रामसर कन्वेंशन का अनुपालन किया जा सके।एन.पी.सी.ए. के मुख्य उद्देश्यः एन.पी.सी.ए. के प्रमुख उद्देश्यों में आर्द्रभूमियों के स्वास्थ्य और स्थिरता को संबोधित करने वाले उपायों को अपनाना, लक्षित जलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों की जल गुणवत्ता में टिकाऊ सुधार लाना, आर्द्रभूमियों के भीतर प्रजातियों की विविधता और प्रचुरता हेतु पहल व प्रयास करना, बहु-विषयक रणनीति को अपनाना, संरक्षण प्रयासों को सुव्यवस्थित और उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए नियमों और दिशानिर्देशों का एकीकृत संग्रह एवं अनुपालन सुनिश्चित करना, आर्द्रभूमियों के प्रदूषण भार को कम करना, हितधारकों का लाभ तथा जलीय पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण हेतु स्वामित्व और जिम्मेदारी की भावना पैदा करने के लिए स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी और सहयोग को प्रोत्साहित करना सम्मिलित है। 

एन.पी.सी.ए. का व्यापक दृष्टिकोण आर्द्रभूमियों के लिए एक स्थायी और समृद्ध वातावरण बनाना है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र और इस पर निर्भर समुदाय दोनों को लाभ हो।

प्रस्तुत आलेख तीन भागों में है -

लेखकों से संपर्क करेंः डॉ. प्रविण रंगराव पाटील, डॉ. मनीष कुमार नेमा, डॉ. पी.के. मिश्रा एवं डॉ. ए.आर. सेन्थिल कुमार, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की (उत्तराखंड)

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