नदी की तरफ पीठ करके बैठी एक सभ्यता

नदी की तरफ पीठ करके बैठी एक सभ्यता

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इंसान नदियों के किनारे बसते ही इसलिए थे कि नदियां इंसानों के जीवन में हर तरह से सुविधा का इंतजाम करती थी। नहाने-धोने-खाने-पकाने से लेकर घर के हर काम में आने वाली पानी की जरूरत नदियां पूरी करती थी। फिर खेतों की सिंचाई से लेकर परिवहन तक में नदियां सहायक रही हैं। इसी वजह से नदियां लोगों के लिए बाद में धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का केंद्र बनी। मगर जैसे ही इंसान ने मशीनों की मदद से धरती के अंदर से पानी निकालने का हुनर सीखा नदियां उसके लिए नकारा होने लगी।

यह कहानी अगर किसी और नदी की हो तो फर्क नहीं पड़ता, मगर जब सांस्कृतिक रूप से समृद्ध कोसी-मिथिला के इलाके के लोग नदी की तरफ पीठ करके बैठ जाएं तो सचमुच अजीब लगता है। मगर यह सच है, लगभग पिछले पचास सालों से हम कोसी वासी अपनी सबसे प्रिय नदी कोसी की तरफ पीठ करके बैठे हैं। यह ठीक है कि व्यवस्था ने हमारे और नदी के बीच एक मिट्टी की दीवार खड़ी कर दी है, मगर हमने भी उस दीवार को शाश्वत मानकर नदी से अपना नाता तोड़ लिया। हमने मान लिया है कि कोसी शोक की नदी है और वह हमसे जितनी दूर रहे वही ठीक है। यही वजह है कि साल में एक-आध दिन ही ऐसा होता है कि हमलोग स्नान पूजन के लिए कोसी के किनारे पहुंचते हैं। बांकी दिन कोसी हमलोगों के लिए परायी ही रहती है।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा, सहरसा, सुपौल जिला पूरा का पूरा और मधुबनी, दरभंगा, कटिहार व खगड़िया जिले के कई इलाके ऐसे हैं जिनका निर्माण कोसी नदी द्वारा लाई गई मिट्टी से हुआ है। यह वह मिट्टी है जो वह तटबंध बनने से पहले हर साल हिमालय के पहाड़ों से लाती रही है। इन इलाकों के एक-एक इंच जमीन पर वही मिट्टी बिछी है। हमें इस बात को कतई भूलना नहीं चाहिए कि जिस मिट्टी पर आज हम खड़े हैं और जिस मिट्टी से लिपट-लिपट कर बड़े हुए हैं वह इसी नदी की लाई हुई है, जिसे हम आज शोक की नदी मानने लगे हैं और उससे निगाहें मिलाने में कतराने लगे हैं।

एक वह दौर था जब लोग रोज सुबह नदियों के किनारे नहाने जाते थे, तैराकी सीखना भी जिंदगी की सीख का एक हिस्सा हुआ करता था। मछलियां पकड़ना, नाव चलाना, डुबकी लगाकर नदी पार कर जाना आदि कौशल माने जाते थे। नदियों के किनारे मंदिर हुआ करते थे, ताकि लोग सुबह सवेरे नहाकर उन मंदिरों में पूजा करे। शाम में नदी के तट पर बैठना एक आलौकिक अनुभव हुआ करता था। आज महिषी में तारा स्थान है, मगर कितने लोग कोसी नहाकर मां तारा की पूजा करते हैं। क्यों देश में जो सम्मान आज भी गंगा और नर्मदा जैसी नदियों को है, वह कोसी को नहीं। क्या उन नदियों में बाढ़ नहीं आती। ... और बाढ़ क्या इतना खतरनाक अनुभव है कि उसके खौफ में हम अपनी जीवनदायिनी नदियों से नाता तोड़ लें। मुझे याद है 2008 के बाढ़ के दौरान एक वृद्ध ने मुझे बताया था कि पहले जब बाढ़ आती थी रात के वक्त लड़के-लड़कियां नाव लेकर निकल जाते थे और पूरी रात नदी में झझड़ी खेला जाता था।

अगर हमें अपनी सभ्यता संस्कृति को बचाना है, उसे बेहतर बनाना है तो हमें कोसी से प्रेम करना सीखना होगा। हम जैसे मंडन मिश्र के नाम पर बने संस्थानों को संवारना चाहते हैं। मां तारा का मंदिर और राजकमल चौधरी-मायानंद मिक्ष-नागार्जुन की स्मृतियों को जीवित रखना चाहते हैं। उसी तरह हमें कोसी को भी संवारना होगा। तटबंध के भीतर बसने वाले लोग आज भी बाढ़ का इंतजार करते हैं। जिस साल बाढ़ नहीं आती वे दुखी रहते हैं। पिछले दो-तीन साल से पानी नहीं आया था, वे उदास थे। इस बार बाढ़ आई तो लोग कुछ दिनों के लिए तटबंध पर आकर बस गए, फिर लौट गए होंगे। बाढ़ से उनकी एक अपेक्षा बखूबी पूरी होती है कि खेतों की मिट्टी उपजाऊ हो जाती है। रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता है। आज के दौर में जब उर्वरकों की निर्भरता बढ़ रही है और इसके अधिक इस्तेमाल से खेतों की उर्वरकता का लोप हो रहा है। ऐसे में बाढ़ तटबंध के अंदर वाले खेतों के लिए वरदान साबित होती है।

मगर जो लोग तटबंधों के बाहर बसते हैं उनके लिए तटबंध के अंदर पिछड़ेपन की दुनिया है, इसलिए वे उधर झांकने भी नहीं जाते। तटबंध के किनारे बसे गांव के लोग अंदर तभी जाते हैं, जब सस्ते और शुद्ध दूध-दही की जरूरत हो, मछली की दरकार हो या खरह-पुआव चाहिए हों। इसके अलावा हमलोग कभी नदी के पास नहीं जाते। शायद ही दुनिया की किसी नदी के साथ ऐसा बर्ताव उसके किनारे बसे लोगों ने किया हो जैसा कोसी के किनारे बसे लोग करते हैं।

गंगा तो खैर गंगा है, मगर नर्मदा के किनारे बसे लोग भी अपनी नदी को इतना ही प्यार करते हैं। स्नान-पूजा पाठ तो खैर एक अलग संस्कार है, इसके अलावा वहां नर्मदा परिक्रमा की भी समृद्ध परंपरा है। लोग नर्मदा के उद्गम अमरकंटक से लेकर जहां नर्मदा सागर में गिरती है वहां तक की पदयात्रा करते हैं। नदी के किनारे-किनारे। जबकि नर्मदा की लंबाई भारत में कोसी के मुकाबले काफी अधिक है। क्या किसी व्यक्ति ने कभी सोचा है कि वह वराह क्षेत्र से कुरसैला तक कोसी के किनारे-किनारे पदयात्रा करे।

हमने कोसी नदी को केवल इसलिए उपेक्षित रख छोड़ा है कि उसमें भीषण बाढ़ आती है। मगर क्या यह बाढ़ सालों भर मौजूद रहती है। इसकी भी तो समयावधि है। साल में बमुश्किल चार महीने बाढ़ का प्रकोप रहता होगा, शेष आठ महीने यह नदी दूसरी नदियों की तरह ही रहती है। मगर हमने ही अपनी नदी से प्रेम करना छोड़ दिया है। यह नदी आज पूरी तरह घटवारों और मछुआरों के हवाले है। शेष आबादी को इस नदी से कोई लेना देना नहीं है। कितने लोग ऐसी मनोकामना रखते हैं कि उनका अंतिम संस्कार कोसी के किनारे हो। लोग सिमरिया घाट चले जाते हैं या अपने गांव के धार के किनारे। कोई कोसी जाता भी है तो लाचारी में। दिल में ख्वाहिश नहीं होती कि कोसी के किनारे अंतिम संस्कार हो।

अगर हमें अपनी सभ्यता संस्कृति को बचाना है, उसे बेहतर बनाना है तो हमें कोसी से प्रेम करना सीखना होगा। हम जैसे मंडन मिश्र के नाम पर बने संस्थानों को संवारना चाहते हैं। मां तारा का मंदिर और राजकमल चौधरी-मायानंद मिक्ष-नागार्जुन की स्मृतियों को जीवित रखना चाहते हैं। उसी तरह हमें कोसी को भी संवारना होगा। हमें इस नदी से नाता जोड़ना होगा। आने वाली पीढियों से कोसी का रिश्ता बनाना होगा। इसके घाट संवारने होंगे। आवाजाही शुरू करनी पड़ेगी और पूजा-पाठ से लेकर पर्यटन तक के रिश्ते कायम करने होंगे। अगर हम ऐसा नहीं करते तो हमारे सांस्कृतिक होने का कोई मतलब नहीं। जब तक कोसी नदी उपेक्षित रहेगी, इस इलाके की तस्वीर शायद ही बदले।

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