मालवा की जल चौपाल
‘जल चौपाल’ नाम की एक पुस्तक का पांचवां अध्याय है मालवा की जल चौपाल। सप्रे संग्रहालय और राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी परिषद के सामूहिक सहयोग से जल चौपाल पुस्तक तैयार की गई है।
मालवा अंचल के ग्रामीण इलाकों के लोग, अभी भी घर लौटने पर हाथ-पैर धोने के बाद घर के अंदर प्रवेश करते हैं। बरसों से साफ एवं स्वच्छ पानी से हाथ मुंह धोकर भोजन किया जाता है। भोजन के बाद अच्छी तरह हाथ मुंह धोया जाता रहा है। भोजन पात्रों को पानी से धोकर रखा तथा प्रयुक्त किया जाता है। साफ-सुथरे बर्तन ही खाना पकाने में प्रयुक्त होते हैं। यह मालवा की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। कमोबेश यही जानकारी शाजापुर के सोयतखुर्द और शिवपुरी के ग्राम मुढ़ैनी में मिली।
कृषि मालवा अंचल की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने के लिए हम लोग नीमच जिले के मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोडीमाता, मोरवन तथा झांतला गए। झांतला ग्राम, नीमच जिले के ठेठ पश्चिम में अरावली पर्वतमाला के पठार पर स्थित है।
इस ग्राम की बोली तथा संस्कृति पर राजस्थान के भीलांचल का असर है। मालवांचल में हमारे सम्पर्क सूत्र तथा सहयोगी थे मालव लोक संस्कृति अनुष्ठान मनासा के संचालक एवं मालवी के प्रतिष्ठित विद्वान डा. पूरन सहगल। उन्होंने पूरक जानकारियां भेजने का काम जारी रखां शिवपुरी जिले में हमारे सम्पर्क सूत्र एवं सहयोगी थे विवेक पेंढारकर।
मोड़ीमाता के धार्मिक मेले में अनेक वयोवृद्ध एवं अनुभवी किसानों से चर्चा हुई। इस मेले में मोड़ी, निपानिया, अल्हेड, बालागंज, रतनगढ़ जावद, मनासा, नीमच कंजार्डा, मालखेड़ी, सरवानिया, भाटखेडी, मोरवन और जाट ग्राम के लोग मौजूद थे। मोड़ीमाता में कुछ लोगों ने लगभग 400 साल पुरानी स्थानीय बावड़ी का विवरण दिया।
अगली चौपालें मोरवन तथा झांतला ग्रामों में आयोजित की। नीमच जिले की सभी चौपालें डा. पूरन सहगल के संयोजकत्व में सम्पन्न की गईं। मोरवन में संजय शर्मा और झांतला में नेमीचन्द छीपा और मोइनुद्दीन मंसूरी ने चौपाल संयोजन में डा. पूरन सहगल को सहयोग दिया।
सभी लोगों ने अपने क्षेत्र के परंपरागत समाज की जीवनशैली तथा संस्कारों, समाज, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी, आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों, कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं के बारे में सिलसिलेवार जानकारी दी।
हमने निपानिया आयुर्वेदाश्रम के पंडित सुरेश दत्त शास्त्री से गहन चर्चा की। नीमच जिले के अतिरिक्त हम शिवपुरी जिले के मुढ़ैनी ग्राम गए। यह गांव शिवपुरी विकासखंड में स्थित है। इस ग्राम में हमें बुंदेलखंड, मालवा तथा ग्वालियर के निकटवर्ती भदावरी अंचल की संस्कृति का प्रभाव नजर आया किंतु भाषा पर बुंदेलखंड अंचल का प्रभाव कुछ अधिक था।
मुढ़ैनी ग्राम में हमने समाज, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं के बारे में सिलसिलेवार जानकारी प्राप्त की। इसके अतिरिक्त उज्जैन के आर.सी. गुप्ता ने शाजापुर जिले के विकासखंड सुसनेर के ग्राम सोयतखुर्द से जानकारियां उपलब्ध कराईं।
मालवा के विभिन्न क्षेत्रों से ऊपर उल्लिखित साथियों द्वारा भेजी जानकारियों और नीमच, शाजापुर एवं शिवपुरी जिले की चौपालों का अनुभव, अनुभवों की समीक्षा और ज्ञान के सम्प्रेषण की विधियों का वर्णन, पूर्व में उल्लिखित निम्नलिखित उप-शिर्षों के अंतर्गत किया जा रहा है।
1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
2. जलस्रोत- विज्ञान की झलक
3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्कारों का विज्ञान
4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता
5. लोक संस्कृति का प्रकृति से नाता और अंचल की वाचिक परंपरा में लोक-विज्ञान की उपस्थिति
1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
1.1 दैनिक जीवन में पानी
1.2 धार्मिक संस्कारों में विज्ञान
1.3 सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
2. जलस्रोत-विज्ञान की झलक
2.1 मालवा की परपंरागत संरचनाएं
झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में हुई चर्चा से पता चलता है कि प्राचीन काल में झांतला में 50 से 60 फुट की गहराई पर पानी मिलता था। झांतला में पानी निकालने का मुख्य साधन चमड़े की चरस था। भीलांचल के नयापुरा ग्राम के हरीराम के अनुसार उनके पूरे पठार में केवल कुएं बनाए जाते थे। संवत 56 के अकाल वर्ष में ग्वालियर के महाराजा ने 500 बीघा का तालाब बनवाया था।
उन्होंने जानकारी दी कि भीलांचल में बावड़ियों के निर्माण का प्रचलन नहीं था। मोइनुद्दीन मंसूरी ने बताया कि मंदसौर, उज्जैन, जावद, केजाड़ी और रामपुरा इत्यादि बस्तियों में तालाब भी बनावाए गए हैं पर हर गांव में बावड़ियां नहीं हैं। शिवपुरी के मुढ़ैनी ग्राम में कुओं की अधिकतम गहराई 50 फुट तक होती थी।
इस ग्राम में पानी निकालने के लिए ढेबरी का उपयोग होता था। इसका निर्माण चमड़े से किया जाता था तथा उससे पानी बाहर निकालने के लिए सूंड जैसी व्यवस्था होती थी। सोयतखुर्द के बलदेव जायसवाल के अनुसार हर मोहल्ले या बसाहट में प्रत्येक जाति के लिए कम-से-कम एक कुण्डी अवश्य थी। सोयतखुर्द में पुराना तालाब या बावड़ी नहीं थी।
मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता और मोरवन की चौपालों में हुई चर्चा से पता चलता है कि इन क्षेत्रों में कम गहराई पर पानी मिलता था। चट्टानी संरचना और पानी के कम गहराई पर मिलने के कारण, यहां की उपयुक्त संरचना कुआं तथा बावड़ी थीं लगभग समान परिस्थितियों के मिलने के कारण मालवा में कुओं तथा बावड़ियों का सबसे अधिक निर्माण हुआ।
महिदपुर के आसपास चौपड़ा मिलते हैं। चौपड़ा जल संरचना है। उसकी आकृति चौपड़ की चार भुजाओं की तरह होती है। जिसमें तीन ओर से भीतर जाने के लिए सीढ़ीदार रास्ते होते हैं। चौथी ओर से चरस द्वारा पानी निकालने की व्यवस्था होती है।
मनासा की चौपाल में डा. सहगल ने एक गीत- कथा सुनाई।
नी तो बंधवाई कुंआ बावड़ी म्हारा सायबजी।
न तो बंधवाया सरवर घाट जी।
बाग तो बगीचा नी लगवाया म्हारा धणियल वो।
धरम तो कमयो नी जीवतां।
मनख तो जमारो दूपट नी मले जी म्हारा सायब जी।
पुण्य तो कमाओ जीतां जीवतां।
मैहल तो अटारी कई काम की म्हारा सायब जी।
सरगां की पंगतियां तो नी बणी।।
इस गीत-कथा में महिला अपने पति से कहती है कि हे पतिदेव! हमने न तो कुएं बावड़ियां खुदवाईं, न ताल सरोवर बंधवाए और बाग-बगीचे भी नहीं लगवाए। हमने जीवित रहते कुछ भी पुण्य धर्म नहीं कमाया। महल अटारियां किस काम की? हमने स्वर्ग जाने के लिए सीढ़ियां तो नहीं बनवाईं। यह लोक-कथा जल स्रोतों के प्रति आमजन की श्रद्धा भावना प्रकट करती है।
अध्ययन यात्रा के दौरान हम नीमच के ग्राम मोड़ीमाता गए। यहां रियासतकालीन पुरानी बावड़ी है। मोड़ीमाता में लोगों ने बताया कि इस बावड़ी की गहराई 100 फुट से अधिक, चौड़ाई लगभग 90 फुट तथा लम्बाई लगभग 110 फुट है। इसकी निर्माण शैली राजस्थानी है। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां हैं। जैसे-जैसे नीचे उतरते हैं बावड़ी की लंबाई और चौड़ाई कम होती जाती है। कुछ साल पहले इस बावड़ी का जीर्णोंद्धार किया गया है।
पानी की आवक बढ़ाने के लिए उसमें चारों दिशाओं में आड़ा वेधन किया गया है। बावड़ी की गहराई ने हमारे मन में कुछ प्रश्न खड़े किए। पहला प्रश्न था कि जब मालवा में बहुत कम गहराई पर भूजल उपलब्ध है तो बावड़ी की गहराई 100 फुट क्यों? क्या मालवा में कभी 100 फुट तक जल स्तर घटने के अवसर आए हैं? क्या इसके पीछे अकाल का कारण था या बरसात की चारित्रिक विशेषता जैसे कारण थे?
दूसरा प्रश्न आधुनिक विशेषज्ञों के उस निर्णय पर है जिसके अंतर्गत उन्होंने भूमिगत जल के प्रवाह की दिशा जाने बिना, पुरानी बावड़ी की तली के निकट चारों दिशाओं में आड़ा वेधन किया है। तकनीकी आधार पर आड़ा वेधन हमेशा भूमिगत जल प्रवाह की दिशा के लंबवत किया जाता है। भूजल वैज्ञानिकों के अनुसार भूमिगत जल प्रवाह के लंबवत एवं अपक्षीण परत में किया वेधन या गैलरी का निर्माण ही अधिकतम जलप्रवाह को सुनिश्चित करता है।
रामपुर के डा. प्रभुलाल एवं भटेरा के देवीसिंह परमार के अनुसार माण्डू में तालाबों, कुओं तथा बावड़ियों का तानाबाना, मालवा की परंपरागत पानी संरचनाओं का प्रमाण है। मनासा के पूरन सहगल, मंदसौर के मनोज मकवाना एवं पीपल्याराव के बी. एम. दमानी का कहना था कि मालवा अंचल के पश्चिमी हिस्से में छत के पानी को भूमिगत कुण्डों में सहेजने की परंपरा थी। इस परंपरा के प्रमाण आज भी देखे जा सकते है। मालवा में तालाबों का भी निर्माण हुआ है पर उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है।
पूरन सहगल ने जानकारी दी कि उज्जैन से लगभग 20 किलोमीटर दूर लेकुडा में रियासत कालीन सात तालाबों की श्रृंखला है। यहां मोरी या नालचा (पानी निकालने वाली नाली) वाले तालाब हैं। तालाब का पानी, मोरी से सफर कर खेतों को सींचता था।
बालमुकुन्द सावंतराव पटेल के अनुसार इन तालाबों की उम्र आठ सौ से एक हजार साल है। मंदसौर के मनोज मकवाना के अनुसार धार नगर में पुराने साढ़े ग्यारह तालाब हैं। चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि इन संरचनाओं के निर्माण में क्षेत्र के स्थानीय भूगोल तथा धरती के गुणों का ध्यान रखा जाता था।
तालाब निर्माण में पाल की मजबूती, तालाब की तली से पानी का संभावित रिसाव तथा आगौर से पानी की आवक तथा अतिरिक्त जल की सुरक्षित निकासी जैसे बिंदु महत्वपूर्ण माने जाते थे और निर्माणकर्ता उनका पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। मालवा में तालाबों के निर्माण की परंपरागत विधियों के बारे में डा. सहगल ने बताया कि-
जब कभी मालवा में तालाब निर्माण का फैसला किया जाता था तब सबसे पहले मुहूर्त निकलवाया जाता था। वास्तुकार से दिशा निर्धारण कराया जाता था। तालाब योग्य भूमि का चुनाव कराया जाता था और यथासंभव ऐसी जमीन का चुनाव किया जाता था, जो पानी सोखने वाली नहीं हो।
जल को रोक कर रख सके अर्थात मोरमी मिट्टी वाले स्थान का चुनाव किया जाता था। जिस दिशा से तालाब में पानी आए उस दिशा में गंदगी का फेंकना या भंडारण नहीं हो। उस दिशा में मृत जानवरों का निष्पादन या चीर-फाड़ या अस्थि-विसर्जन नहीं हो तथा उस दिशा में मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं होना चाहिए।
उपर्युक्त गतिविधियों को हाकड़ा में सम्पन्न किया जाना चाहिए। डा. सहगल के अनुसार हाकड़ा उन दिशाओं में स्थित क्षेत्र को कहते हैं जिन दिशाओं से पानी का आना या जाना नहीं होता। आगौर को भूमि कटाव से यथासंभव मुक्त होना चाहिए तथा अपरा से अतिरिक्त जल की निकासी सुरक्षित होनी चाहिए। उनके अनुसार रामपुरा का पुराना तालाब उपर्युक्त गुणों की कसौटी पर खरा उतरता था।
डा. पूरन सहगल के अनुसार बुलवाई (हरकारा या बलाई) गांव की और आसपास के गांवों के बीच की जमीन का चप्पा-चप्पा पहचानता था। वह, मिट्टी सूंधकर (अर्थात नमी का अनुमान लगाकर) तय करता था कि सरोवर के निर्माण के लिए कौन-सी जमीन सही होगी। जामुन की लकड़ी और चिड़ियों के घोंसले देखकर वह जलस्रोत का अनुमान लगाता था।
इन संकेतों के अलावा वह और भी अनेक प्राकृतिक संकेतों से परिचित होता था। पुराने समय में मिर्धा (मालवा की एक जाति) गांव की जमीन का हिसाब रखता था और गजधर जाति के लोग तालाब निर्माण के काम में पारंगत होते थे।
वे ही जल स्रोतों का निर्धारण करते थे। सांसी जाति के लोग अच्छे वास्तुकार होते थे। दुसाध, कोल, कीर, कोरी, ढीमर, भोई, काछी, खारोल, ओड़ इत्यादि जातियों के लोग तालाब निर्माण की किसी-न-किसी विधा के पारंगत होते थे। मालवा अंचल में दसवीं सदी के पहले से लोग तालाब निर्माण कला में दक्षता प्राप्त कर चुके थे।
ग्राम मुढ़ैनी की चौपाल में मुंशीलाल रावत ने बताया कि पहले उनका गांव नरवर रियासत में आता था। रियासत काल में उनके गांव में लगभग 10 कुएं और लगभग चार सौ साल पुरानी तथा 50 फुट गहरी बावड़ी थी। कुओं और बावड़ी में बारहों माह पानी रहता था। उनके गांव के पास से चोरोघाट नदी बहती है।
पुराने समय में इस नदी में बारहों माह पानी बहता था। अब यह नदी सूख गई है। उनके गांव के आसपास लगभग 10 बीघा का तालाब है। इसमें पहले चैत्र माह तक पानी रहता था। इस तालाब का पानी निस्तार और मवेशियों के काम आता था। पुराने समय में उनके गांव के लोग तालाब खोदने के लिए बाहर जाते थे।
बद्री जाटव, नारायण प्रसाद और परमानन्द शर्मा ने बताया कि उनके गांव में पहले सार्वजनिक कुओं का निर्माण सबकी सलाह से किया जाता था। पुराने कुओं, बावड़ी और नदी का पानी स्वास्थ्यवर्धक था। उसे साफ करने की आवश्यकता नहीं थी।
डा. पूरन सहगल के अनुसार स्थानीय सामग्री द्वारा ही कुओं, बावड़ियों और तालाबों का निर्माण होता था। बावड़ियों में सीढ़ियों का प्रावधान संभवतः यात्रियों की सुविधा के लिए किया गया था। उनकी आकृतियों की विविधता के पीछे सौंदर्य-बोध, वास्तुशास्त्र या कल्पनाशीलता हो सकती है। जल संरचनाओं को बनाने में टिकाऊ निर्माण सामग्री काम में ली जाती थी, जिससे निर्मित जल संरचनाएं दीर्घजीवी होती थीं।
तकनीकी दृष्टिकोण से कुओं, बावड़ियों और तालाबों की समीक्षा के लिए माधुरी श्रीधर ने सप्रे संग्रहालय की लाइब्रेरी खंगाली। इंदौर स्टेट वेस्टर्न स्टेट के पुराने गजेटियर में दर्ज विवरणों को सामने रख कर उन अंचलों में बनने वाली संरचनाओं के विकल्प चयन के कारण या उसके पीछे के विज्ञान को समझने का प्रयास किया।
प्राप्त विवरणों और गहन चर्चा के आधार पर हमारी टीम को लगता है कि मालवा अंचल में लंबे सोच विचार के उपरांत तथा वर्षा के चरित्र एवं जमीन के गुणों को ध्यान में रखकर ही परंपरागत संरचनाओं का चयन किया गया था। इस क्रम में प्रतीत होता है कि मालवा अंचल में लगभग सर्वत्र मिलने वाले काले रंग के बेसाल्ट की परतों के जल संचय से जुड़े गुणों ने उथली संरचनाओं का मार्ग प्रशस्त किया था।
मालवा में मुख्यतः कुओं और बावड़ियों का निर्माण बेसाल्ट की परतों के भूजलीय गुणों से नियंत्रित था। बेसाल्ट की परतों के द्वारा जल रिसाव की संभावनाओं के कारण अनेक जगह, तालाबों का निर्माण हासिए से नियंत्रित था। हमारी समीक्षा, मालवा की पुरानी संरचनाओं के विकल्प चयन को तकनीकी नजरिए से उपयुक्त मानती है।
डा. पूरन सहगल के अनुसार सैकड़ों सालों से मालवांचल सम्पन्नता और राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में रहा है। उनको लगता है कि मालवांचल के राजमार्गों पर दीर्घजीवी बावड़ियों का निर्माण यात्रियों को सहजता से पानी की उपलब्धता की अवधारणा तथा कतिपय मामलों में परोपकार की भावना के कारण किया था।
हमारी टीम का मानना है कि बावड़ियों ने लंबे समय तक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की। सैकड़ों सालों तक लगभग प्रदूषण मुक्त रही। मंदसौर के राघवेंद्र शुक्ल का कहना था कि यह विडंबना ही होती है। हाल के सालों में सीढ़ी दार बावड़ियां नारू रोग की संवाहक बनी। नारू रोग के कारण उन्हें बंद कराया गया। इस विडंबना के कारण अब वे विलुप्ति की कगार पर हैं। कुछ कूड़ेदान की भूमिका निभा रही हैं।
2.2 पानी की खोज
2.2.1. मालवा में भूजल की खोज
मालव धरती गहन गंभीर, पग पग रोटी डग डग नीर।
मनासा की चौपाल में मौजूद अठाना के धर्मेन्द्र दुबे, मनासा के दिनेश सहगल, भाटखेड़ी के प्रभुलाल धनगर तथा पोसरना के प्यारेलाल संगोढ़ा ने बताया कि उनके अंचल के अनेक लोग जामुन, मेंहदी, अमरूद एवं गूलर के वृक्षों की टहनियों तथा दीमक की बांबी की मदद से भूजल की खोज करते हैं।
कंजार्डा के गमेरी लाल का कहना था कि उनके ध्यान में ऐसे अनेक जानकार हैं जो जल स्रोत की गहराई के बारे में बता सकते हैं। चौपाल में उपस्थित लोगों का कहना था कि ये विधियां सदियों से मालवा अंचल में प्रचलन में हैं। वे कहते हैं कि विज्ञान चूक सकता है, परंपरागत अनुभव नहीं चूकता। मनासा की चौपाल में हमें निम्न कहावतें सुनाई गईं-
चरकलियां चें चें करें, सोंधी उठे सुवास।
वठे खुदा लो बावड़ी जल देवता को वास।।
जिस स्थान पर एकत्रित होकर चिड़ियां चहचहा रहीं हों और धरती से सोंधी गंध आ रही हो, उस स्थान पर कुआं खुदवाने के कम गहराई पर पानी मिलता है।
चाले खेतां ’ मढ़ पे, परभांता पागधार।
जठे लगे ऊषमो, वठे भूम जल नार।।
प्रभातकाल में खेत एवं मेढ़ पर चलते चलते किसी जगह यदि अचानक ऊष्मा का अनुभव हो, वहां निश्चित ही भूजल मिलता है।भीलांचल की चौपाल में भूजल की खोज के तरीकों के बारे में हमें संतोषप्रद उत्तर नहीं मिला।
राघवेन्द्र शुक्ल का कहना था कि भूजल की खोज के विज्ञान की नींव उज्जैन के आचार्य वराहमिहिर ने सैकड़ों साल पहले रखी थी। यह आश्चर्यजनक है कि हमारी टीम को भूजल की खोज की पद्धतियों का विशद विवरण, किसी भी मालवी चौपाल में नहीं मिला।
बरसात के दिनों में जब पानी बरसता है तो वह दिखाई देता है। उसकी मात्रा, बरसे पानी की मात्रा पर निर्भर होती है। बाढ़ आती है तो उसका विस्तार दिखाई देता है। उनका कहना था कि जिस साल अधिक पानी बरसता है उस साल, अधिक दिन तक पानी कुंडों, तालाबों एवं प्राकृतिक झरनों में मिलता है। चौपाल में, बहते पानी की मात्रा का अनुमान लगाने या तत्संबंधी गणनाओं के बारे में जानकारी का अभाव था। वे हमें पुरानी विधियों के बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहे थे, इसी प्रकार, भीलांचल की चौपाल में बरसाती पानी की मात्रा की माप की गणना के बारे में उत्तर नहीं मिला।
माधुरी श्रीधर का अध्ययन बताता है कि भारत में भूजल विज्ञान लगभग 5000 साल पुराना विज्ञान है। वे कहती हैं कि प्राकृतिक झरनों, नदियों में रिसते भूजल और मरुस्थलों की सूखी रेत के बीच कहीं-कहीं पाए जाने वाले झरनों ने निश्चय ही मनीषियों का ध्यान आकर्षित किया होगा। विभिन्न भागों में उनके अवलोकनों की प्रक्रिया लगातार चलती रही होगी, तब जाकर भूजल विज्ञान की समझ बनी होगी। मनीषियों ने समझ को भारतीय शैली अर्थात सूत्रों तथा श्लोकों के रूप में लिपिबद्ध किया होगा।
वराहमिहिर को पहला भूजलविद और बृहत्संहिता को पहला प्रामाणिक ग्रंथ इसलिए माना जाता है क्योंकि उनके पहले, भूजल के बारे में किसी भी विद्वान का हस्तलिखित ग्रंथ नहीं मिला है।
वराहमिहिर ने भूजल की खोज से जुड़े दो विद्वानों (मनु तथा सारस्वत) का उल्लेख किया है। दुर्भाग्यवश इन विद्वानों के ग्रंथ अनुपलब्ध है पर संभव है आने वाले दिनों में पुरातत्वेत्ताओं को ऐसा प्रमाण मिल जाए जो वराहमिहिर के पहले के कालखंड में हुई भूजल की खोजों पर रोशनी डाले या भूजल की तत्कालीन खोज को परिमार्जित करे।
पं. ईश नारायण के अनुसार आर्यभट्ट प्रथम के शिष्य वराहमिहिर (सन् 505 से सन 587), जिनका जन्म उज्जैन में माना जाता है, ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ बृहत्संहिता में भूजल की खोज उसके उपयोग के बारे में 124 सूत्र प्रस्तुत किए हैं। भूजल की खोज के बारे में बृहत्संहिता के अध्याय 54 के पहले सूत्र में वराहमिहिर कहते हैं कि-
धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोSहं दृकार्गलं सेन जलोपलब्धिः।
पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नत निम्न संस्थाः।।
अर्थात मैं (वराहमिहिर) पुण्य और यश देने वाले दृकार्गल-विज्ञान को जिससे जमीन के नीचे पानी (भूजल) की प्राप्ति होती है, बतलाता हूं। जिस प्रकार मनुष्यों के शरीर में ऊपर तथा नीचे शिराएं होती हैं, उसी प्रकार धरती में भी गहराई में जल की शिराएं होती हैं।
बृहत्संहिता के 54 वें अध्याय में वराहमिहिर ने 124 सूत्रों की सहायता से भूजल की खोज और धरती की विभिन्न गहराइयों में उनकी मौजूदगी इत्यादि के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध कराई थी।
यह जानकारी जीव-जंतुओं, मिट्टी, चट्टानों, दीमक की बांबी, पौधों की कुछ खास प्रजातियों तथा उनके लक्षणों पर आधारित थी। बृहत्संहिता में वर्णित लक्षणों के आधार पर करीब 560 फीट (बृहत्संहिता, अध्याय 54, सूत्र 85) की गहराई तक उपस्थित भूजल भंडारों की खोज संभव थी। इस बारे में इसी अध्याय के पैरा 2.2.3. में संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
2.2.2. मालवा में बरसात की मात्रा की माप की परंपरागत विधि
“मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर”
की ही बात करते रहे। यही बात सोयतखुर्द से संकलित जानकारी तथा शिवपुरी की चौपाल से प्रकट होती है। चौपालों में उपस्थित लगभग सभी लोगों का कहना था कि बरसात के दिनों में जब पानी बरसता है तो वह दिखाई देता है। उसकी मात्रा, बरसे पानी की मात्रा पर निर्भर होती है।
बाढ़ आती है तो उसका विस्तार दिखाई देता है। उनका कहना था कि जिस साल अधिक पानी बरसता है उस साल, अधिक दिन तक पानी कुंडों, तालाबों एवं प्राकृतिक झरनों में मिलता है। चौपाल में, बहते पानी की मात्रा का अनुमान लगाने या तत्संबंधी गणनाओं के बारे में जानकारी का अभाव था। वे हमें पुरानी विधियों के बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहे थे, इसी प्रकार, भीलांचल की चौपाल में बरसाती पानी की मात्रा की माप की गणना के बारे में उत्तर नहीं मिला।
झांतला के हरिराम का कहना था कि यह तो विज्ञान है। हमें उसकी समझ नहीं है। प्रसंगवश उल्लेख है कि चाणक्य ने मगध में वर्षा की माप की जो प्रणाली विकसित की थी उसके बारे में चौपाल में उपस्थित लोगों को जानकारी नहीं थी। वर्षा की मात्रा की माप या गणना के बारे में उनका कहना था कि यदि कोई परंपरागत विधि रही होगी तो वे उससे अनजान हैं।
माधुरी श्रीधर ने संदर्भ स्रोतों से जानकारी एकत्रित कर बताया कि कौटिल्य (चाणक्य) ने ईसा से लगभग 300 साल पहले वर्षा के संबंध में विवरण प्रस्तुत किया था। यह विवरण वर्षा की भविष्यवाणियों के साथ उसकी माप के तरीकों की जानकारी देता था। कौटिल्य के अनुसार वर्षा की भविष्यवाणी गुरू की स्थिति और गति, शुक्र के उदय तथा अस्त एवं उसकी गति और सूर्य के प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक पक्ष के आधार पर की जा सकती है।
उज्जैन के आचार्य वराहमिहिर (सन् 505 से सन् 587) ने बृहत्संहिता में वर्षा की भविष्यवाणी और उसकी अधक इकाई में माप का उल्लेख किया है। इस इकाई का आधुनिक मान 1.6 सेंटीमीटर है। मालवा की सभी चौपालों में आए लोग चाणक्य या वराहमिहिर की विधियों से अनभिज्ञ लगे। उल्लेख है कि सतही जल की माप का तरीका चाणक्य, जो मगध के सम्राट चन्द्रगुप्त के महामंत्री एवं गुरु थे, ने खोजा था।
भूविज्ञान विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर के शोधकर्ता के. एस. मूर्ति ने वराहमिहिर द्वारा अनुशंसित बरसात की मात्रा की माप की विधि का अध्ययन किया है। यह अध्ययन वाटर फार फ्यूचर (Varahmihir, the earliest Hydrologis. Hydrology in Perspective, Proceedings of the Rome Symposium, April, 1987, IAHS publication no 184, 1987) छपा है। प्रकाशित आलेख में कहा गया है कि-
Raingauging appears to have been prevalent in India from very early times and the earliest reference to it is to be found in Panini's Astadhyayi. According to Varahmihir, rain should be measured after the full-moon day of the month of Jestha (May-June) when it has rained in the phase of moon commencing with Purvasadha (slok 1). In Varahmihirs time, the commonest measures of rainfall were pala, adhaka and drona: 50 palas made one adhaka and four adhakas constituted one drone. The rainfall was measured by means of a specially prepared round gauge with a diameter of one hasta or cubit (460 mm or 18 inches) and marked off in pala; when filled to capacity it indicated one adhaka of rainfall (slok 2). It is believed that Mourya and Gupta Emperors introduced and popularized this system throughout the length and width of their extensive empire and proverbs current amongst farmers and those close to the soil have their roots in the observations made by Indians milenia ago.
2.2.3. पानी की खोज की परंपरागत विधियों का वैज्ञानिक पक्ष
अ. वर्षा जल के भूमिगत जल में परिवर्तित होने पर गुणों में परिवर्तन
एकेन वर्णेन रसेनचाम्भश्च्युतं नभस्तो वसुधाविशेषतात्।
नानारसत्वं बहुवर्णतां चं गतं परीक्ष्यं क्षितितुल्यमेव।।2।।
आकाश से बरसने वाले पानी का एक ही रंग और एक ही स्वाद होता है। धरती की विविधता एवं विशेषतओं के कारण वह अनेक स्वाद और रंग वाला हो जाता है। इसलिए पानी के गुणों की परीक्षा कराना चाहिए। सूत्र में वर्षा जल स्वाद परिवर्तन का उल्लेख है जो उसके धरती के सम्पर्क में आने के बाद होता है। आधुनिक भूजल विज्ञान की दृष्टि से विवरण सही एवं विज्ञान सम्मत है।
आ. वृक्षों के आधार पर भविष्यवाणी
यदि वेतसोSम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात।
सार्धे पुरुषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र।।6।।
जल विहीन क्षेत्र में यदि बेंत का वृक्ष दिखाई दे, तो उस वृक्ष के पश्चिम में, तीन हाथ (4.5 फीट) की दूरी पर डेढ़ पुरूष (एक पुरूष बराबर पांच हाथ या 7.5 फीट) की गहराई पर पानी मिलेगा। इस निष्कर्ष का आधार पश्चिमी शिरा है, जो उल्लिखित स्थान के नीचे से बहती है।
भूमिगत जल की उपस्थिति बताने एवं शिराओं के संकेतों को समझने के लिए बृत्संहिता के अध्याय 54 के सूत्र 9 एवं 10 का उदाहरण दिया जा रहा है। इन दोनों सूत्रों में जामुन के वृक्ष के आधार पर भूजल के मिलने की जानाकरी दी गई है। दोनों सूत्र निम्नानुसार हैं-
जम्बूवृक्षस्य प्राग्वल्मीको यदि भवेत् समीपस्थः।
तत्माद्दक्षिणपार्श्वे सलिलं पुरूषद्वये स्वादु।।9।।
सूत्र 9 के अनुसार जामुन के वृक्ष के पूर्व में यदि वृक्ष के पास बांबी (चीटियों, कीड़ों अथवा सर्प द्वारा बनाया मिट्टी का स्तूप बमीठी) हो तो जामुन के वृक्ष के दक्षिण में तीन हाथ (4.5 फुट) की दूरी पर 15 फुट गहरा खोदने पर स्वादिष्ट मीठा जल मिलता है।
बृहत्संहिता के सूत्र 12 में अर्जुन वृक्ष की उपस्थिति के आधार पर पानी के मिलने का उल्लेख है। सूत्र निम्नानुसार है-
उदगर्जुनस्य दृश्यो वल्मीको यदि ततोSर्जुनाद्धस्तैः।
त्रिभिरम्बु भवति पुरूषै स्त्रिभिरर्धसमन्वितैः पश्चात्।।12।।
सूत्र 12 में कहा गया है कि अर्जुन के वृक्ष के उत्तर की ओर यदि बांबी हो तो अर्जुन के पश्चिम में तीन हाथ से आगे, साढ़े तीन पुरूष की गहराई पर पानी उपलब्ध होगा। अर्जुन का वृक्ष सामान्यतः नदियों के किनारे या घाटियों के निचले भाग में उत्पन्न होता है। भूजलविद बताते हैं कि घाटियों की तली में कम गहराई पर भूजल मिलता है। अर्थात अर्जुन के वृक्ष की मदद से कम गहराई पर पानी मिलना बताया जा सकता है।
बृहत्संहिता के सूत्र 14 निर्गुण्डी की उपस्थिति के आधार पर पानी मिलने का उल्लेख है। सूत्र 14 निम्नानुसार है-
वल्मीकोपचितायां निर्गुण्द्मां दक्षिणेन कथितकरैः।
पुरुषद्वये सपादे स्वादु जलं भवति चाशोष्यम्।।14।।
मिट्टी के स्तूप या वाल्मी से मिली हुई निर्गुण्डी हो तो उससे दक्षिण दिशा में तीन हाथ दूर सवा दो पुरूष खोदने पर स्वादिष्ट एवं स्थायी जल मिलता है।
बृहत्संहिता के सूत्र 17 में पलाश तथा बदरी वृक्षों के आधार पर पानी के मिलने का उल्लेख है। सूत्र 17 निम्नानुसार है-
सपलाशा बदरी चद्दिश्यपरस्यां ततो जलं भवति।
पुरूषत्रये सपादे पुरूषेSत्र च दुण्डुभश्चिन्हम्।।17।।
बृहत्संहिता के सूत्र 17 के अनुसार यदि जल विहीन इलाके में पलाश के वृक्ष के साथ बदरी का वृक्ष हो तथा उस स्थान के निकट बांबी मौजूद हो, तो बदरी के वृक्ष से तीन हाथ आगे सवा तीन पुरूष नीचे जल मौजूद होता है।
तस्यैव पश्चिमायां दिशि वल्मीको यदा भवेद्धस्ते।
तत्रोदग्भवति शिरा चतुर्भिरर्धाधिकैः पुरूषैः।।25।।
बहेड़ा के वृक्ष के पश्चिम में दीमक का बमीठा हो तो बहेड़ा के उत्तर की दिशा में एक हाथ की दूरी पर साढ़े चार पुरूष की गहराई पर पानी की शिरा होती है और पानी मिलता है।
इ. जीव-जंतुओं के आधार पर भविष्यवाणी
श्वेतो विश्वम्भरकः प्रथमे पुरूषे तु कुङ्कुमाभोSश्मा।
अपरस्यां दिशि च शिरा नश्यति वर्षत्रयोSतीते।।26।।
सूत्र 26 के अनुसार एक पुरूष गहरा खोदने पर बिच्छू या उसके समान जीव दिखाई देगा। इस स्थान के नीचे खुदाई करने पर केसरिया रंग का पत्थर मिलेगा। इस पत्थर के नीचे पश्चिमी शिरा प्रवाहित होती है। इस शिरा का पानी तीन साल के बाद समाप्त हो जाएगा।
सवेषां वृक्षाणामघः स्थितो ददुरो यदा दृश्यः।
तस्माद्धस्ते तोयं चतुर्भिरर्धाधिकैः पुरूषैः।।31।।
सूत्र 31 में मेंढक की उपस्थिति के आधार पर पानी के बारे में भविष्यवाणी की गई है। सूत्र में कहा गया है कि जिस किसी वृक्ष के नीचे मेंढक का आवास हो तो उस वृक्ष के उत्तर की ओर एक हाथ की दूरी पर साढ़े चार पुरूष की गहराई पर जल की प्राप्ति होती है।
यद्यहि निलयो दृश्यो दक्षिणतः संस्थितः करंजस्य।
हस्तद्वये तु याम्ये पुरूषत्रितये शिरा सार्धे।।33।।
इस सूत्र के अनुसार यदि करंज के वृक्ष के दक्षिण में सांप का घर (बांबी) हो तो करंज वृक्ष से दक्षिण में दो हाथ की दूरी पर साढ़े तीन पुरूष की गहराई पर पानी की शिरा मिलती है। इस शिरा से पानी प्राप्त होता है।
कच्छपकः पुरूषार्द्धे प्रथमं चोद्भिद्यते शिरा पूर्वा।
उदगन्या स्वादुजला हरितोSमाधस्ततस्तोयम्।।34।।
सूत्र 34 के अनुसार उपर्युक्त स्थान पर आधा पुरूष खोदने पर पूर्व दिशा से आती पूर्वा-शिरा दिखाई देगी। इस शिरा को उत्तर दिशा से आती दूसरी शिरा मिलेगी। उत्तर दिशा से आने वाली शिरा का पानी स्वादिष्ट होता है। इसके नीचे हरे रंग का पत्थर मिलता है। इस पत्थर के नीचे जल होता है।
ई. कम गहराई पर मिलने वाले भूजल की भविष्यवाणी
स्निग्धाः प्रलम्बशाखा वामनविकट द्रुमाः समीपजलाः।
सुषिरा जर्जरपत्रा रूक्षाश्च जलेन सन्त्यक्ताः।।49।।
सूत्र 49 के अनुसार चिकने, लंबी शाखाओं वाले, बहुत कम ऊंचे तथा बहुत अधिक विस्तार वाले वृक्षों के निकट कम गहराई पर पानी मिलता है। इसके विपरीत जिन वृक्षों के पत्तों में छेद होते हैं या पत्ते जर्जर तथा रूखे होते हैं उनके पास (नीचे) पानी नहीं मिलता।
उ. अधिक गहराई पर मिलने वाले भूजल की भविष्यवाणी
भूमिः कदम्बकयुता वल्मीके यत्र दृश्यते दूर्वा।
हस्तद्वयेन याम्ये नरैर्जलं पंचविशत्या।।78।।
सूत्र 78 में बताया गया है कि जिस स्थान की भूमि पर कदम्ब का वृक्ष हो तथा बांबी के ऊपर दूब उगी हो उस स्थान पर कदम्ब के वृक्ष के दक्षिण में दो हाथ आगे 25 पुरूष अर्थात 187.5 फुट नीचे पानी मिलता है।
सपलाशा यत्र शमी पश्चिमभागेSम्बु मानवैः षष्ट्या।
अर्धनरेSहि: प्रथमं सबालुका पीतमृत परतः।।83।।
जहां कदम्ब के साथ शमी का वृक्ष हो, वहां शमी वृक्ष के पश्चिम में पांच हाथ आगे खोदने से 60 पुरूष अर्थात 450 फुट की गहराई पर पानी मिलता है। इस स्थान पर 3.5 फुट के बाद रेत के साथ पीले रंग की मिट्टी पाई जाती है। इस जगह लंबे समय तक पानी मिलता है।
श्वेता कण्टकबहुला यत्र शमी दक्षिणेन तत्र पयः।
नरपंचकसंयुतया सप्तत्याहिर्नरार्धेच।।85।।
सूत्र 85 में बताया है कि जिस स्थान पर अधिक कांटों वाला सफेद शमी का वृक्ष हो वहां उस शमी वृक्ष के दक्षिण में एक हाथ आगे खोदने से 75 पुरुष (562.5 फुट) की गहराई पर पानी मिलता है।
ऊ. भूजल की भविष्यवाणी और धरती का व्यवहार
नदति मही गम्भीरं यस्मिंश्चरणहता जलं तस्मिन्।
सार्धैस्त्रिभिर्मनुष्यैः कौबेरी तत्र च शिरास्यात्।।54।।
सूत्र 54 के अनुसार प्रकृति में कुछ ऐसी जमीन होती है जहां पैर पटकने से गंभीर तथा मधुर ध्वनि निकलती है। ऐसे स्थान पर साढ़े तीन पुरूष नीचे उत्तर की दिशा से आने वाली कौबेरी शिरा मिलती है। कौबेरी शिरा के नीचे पानी मिलता है।
ए. धुएं तथा भाप की मौजूदगी के आधार पर भूजल की भविष्यवाणी
यस्यामूष्मा धाष्यां घूमो वा तत्र वारि नरयुगले।
निर्देष्टव्या च शिरा महता तोयप्रवाहेण।।60।।
सूत्र 60 के अनुसार कुछ स्थानों की जमीन पर धुएं तथा भाप की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं। इन स्थानों की जमीन अपेक्षाकृत गर्म लगती है और उसमें से धुआं या भाप निकलती दिखाई देती है। वराहमिहिर के अनुसार उस जमीन में दो पुरूष की गहराई पर तेज प्रवाह वाली शिरा बहती है।
ऐ. फसलों के स्वतः नष्ट होने एवं बीजों के गुणों के आधार पर भूजल की भविष्यवाणी
यस्मिन् क्षेत्रोद्देशे जातं सस्यं विनाशमुपयाति।
स्निग्धमति पांडुरं वा महाशिरा नरयुगे तत्र।।61।।
सूत्र 61 में वर्णित है कि जिस खेत में ऊगे हुए अनाज का स्वतः विनाश हो जाता हो, चिकना बीज पैदा होता हो अथवा उसका रंग बहुत पीला हो तो उस खेत में दो पुरूष की गहराई पर महाशिरा पाई जाती है और उस महाशिरा में बहुत अधिक मात्रा में पानी मिलता है।
ओ. रेगिस्तानी इलाकों में भूजल की भविष्यवाणी
मरुदेशे यच्चिन्हं न जांङ्गगले तैर्जलं विनिर्देश्यम्।
जम्बू तेतसपूवैर्ये पुरूषास्ते मरौ द्विगुणा।।86।।
सूत्र 86 में बताया गया है कि रेगिस्तानी इलाके में जिन संकेतों को पानी बताने के लिए प्रयोग में लाया जाता है उन संकेतों का उपयोग अन्यत्र नहीं किया जा सकता। रेगिस्तानी इलाके में यदि बैंत इत्यादि संकेतकों का उपयोग किया जाता है तो जल उपलब्धता की गहराई सामान्य क्षेत्र की तुलना में दो गुनी अधिक होगी।
औ. भूमि के गुणों के आधार पर भूजल की गुणवत्ता की भविष्यवाणी
सशर्करा ताम्रमही कषायं, क्षारंधरित्री कपिला करोति।
आपाण्डुरायां लवणंप्रविष्टं, मृष्टं पयो नील वसुन्धरायाम्।।140।।
वराहमिहिर कहते हैं कि जिस बजरी युक्त भूमि का रंग तांबे जैसा हो उसमें मिलने वाला पानी कसैला, राख के रंग की जमीन के नीचे मिलने वाला पानी क्षारीय, हलके पीले रंग की जमीन में मिलने वाला पानी नमकीन तथा हलकी काली जमीन में मिलने वाला पानी मीठा होता है।
अं. कुओं में मिलने वाले कठोर पत्थरों को तोड़ने की विधियां
भेदं यदा नैति शिला तदानीं, पलाशकाष्ठैः सह तिन्दुकानाम्।
प्रज्वालयित्वानलमग्निवर्णा, सुधाम्बुसिक्ता प्रविदारमेति।।112।।
कुएं की खुदाई में शिला मिल जाए और सामान्य प्रयास से नहीं टूटे तो पलाश और तेन्दू की लकड़ियां जलाकर शिला को खूब गर्म करें। जब वह तपकर लाल हो जाए तो उसे सामान्य पानी और चूने के पानी से सींचें। ऐसा करने से शिला टूट जाएगी।
तोयं श्रितं मोक्षक भस्मनावा, यत्सप्तकृत्वः परिषेचनं तत्।
कार्यंशरक्षारयुतं शिलायाः, प्रस्फोटनं वन्हिवितापितायाः।।113।।
पानी में मोक्षक (वनपलाश) वृक्ष की भस्म डाल कर उबालें। उसमें शर की भस्म मिलाकर आग से तपाई शिला पर सात बार डालें। शिला टूट जाएगी।
तक्रकांजिकसुराः सकुलत्था, योजितानि बदराणि च तस्मिन्।
सप्तरात्रमुषितान्यभितप्तां, दारयन्ति हि शिलां परिषेकैः।।114।।
छाछ, कांजी और शराब को कुलथी के साथ मिलाकर उसमें बेर डालकर सात दिन तक गलाएं और फिर पूर्व से तपाई शिला को सींचें। शिला टूट जाएगी।
नैम्बं पत्रं त्वक् च नालं तिलानां, सापामार्गं तिन्दुकं स्याद्गुडूची।
गोमूत्रेण स्रावितः क्षार एषां, षट् त्वोSतस्तापितोभिद्यतेश्मा।।115।।
नीम के पत्ते (छाल सहित), तिल की फलियां, आधाझाडा, तेंदू का फल और गुडूची (गिलोय) के क्षार का गोमूत्र में घोलकर तप्त शिला पर डालें। ऐसा छह बार करने से शिला टूट जाती है।
सूत्र क्रमांक 112, 113, 114 तथा 115 में गर्म शिला पर ठंडा पानी डाल कर तोड़ने का उल्लेख है। वैज्ञानिकों के अनुसार गर्म शिला पर ठंडा पानी डालने से असमान संकुचन होता है जिसके कारण शिला टूटती है। यह वैज्ञानिक हकीकत है।
अः. पत्थर तोड़ने वाले औजारों को तीक्ष्ण बनाने की विधियां
आर्कं पयो हुडुविषाणमषी समेतं, पारावताखुशकृता च युतः प्रलेपः।
टंकस्यSतैलमथितस्य ततोSस्य पानं, पश्चाच्छितस्य न शिलासु भबेद्विधातः।।116।।
मदार वृक्ष का दूध और भेड़ के सींग की भस्म में पारावत तथा आखु की विष्ठा मिलाकर उसका लेप बनाएं जिसे पत्थर तोड़ने वाले औजार पर तिल का तेल लगाकर, लगा दें। लेप लगे औजार को आग में दो बार खूब तपाएं। ऐसा करने से औजार मजबूत हो जाता है और पत्थर तोड़ने पर भी नहीं टूटता।
क्षारे कदल्या मथितेन युक्ते, दिनोषिते पायतिमायसं यत्।
सभ्यक् शितं चाश्मनि नैतिभङ्ग, नचान्यलोहेष्वपि तस्य कौष्ठयम्।।117।।
केले के क्षार को छाछ में मथकर उसे 24 घंटे रखें। औजार पर उसे लगाकर धार बनाएं। यह औजार पत्थर पर वार करने से नहीं टूटता और उसकी धार भी खराब नहीं होती।
क. कुओं में मिलने वाले पानी की गुणवत्ता सुधारने की विधियां
कलुषं कटुकं लवणं विरसं, सलिलं यदि वाशुभगन्धि भवेत्।
तदनेन भवत्यमलं सुरसं सुसुगन्धि गुणैरपरैश्च युतम्।।122।।
सूत्र 122 में कहा है कि कुएं या बावड़ी के अस्वच्छ, कड़वे, बेस्वाद या दूर्गन्धयुक्त जल में अंजन, मोथा, खस, तोरई तथा आंवले के चूर्ण में कतकफल मिलाकर डालने से पानी स्वच्छ, मीठा तथा उपयोग लायक हो जाता है।
ख. तालाब की पाल बांधना
पाली प्रागपरायताम्बु सुचिरं धत्ते न याम्योत्तरा।
कल्लोलैरवदारमेति मरुता सा प्रायशः प्रेरितैः।
तां चेदिच्छति सारदारुभिरपां सम्पातमावारयेत्।
पाषाणदिभिरेव वा प्रतिचयं क्षुण्णं द्विपाश्वादिभिः।।118।।
सूत्र 118 में कहा है कि तालाब की पाल लंबाई यदि पूर्व-पश्चिम दिशा में होती है तो उसमें अधिक समय तक पानी रहता है। इसके विपरीत यदि वह उत्तर-दक्षिण दिशा में होती है तो उसमें अधिक समय तक पानी नहीं टिकता। यह हानि वायु तरंगों के कारण होती है। यदि पाल को उत्तर-दक्षिण बनाना अपरिहार्य हो तो पाल की मजबूती पर खास ध्यान देना आवश्यक होता है। पाल की दीवार पर पत्थर जमाकर, उसकी मिट्टी को हाथी, बैल, ऊंट, घोड़ों इत्यादि की मदद से अच्छी तरह दबा दें।
ग. तालाब की पाल पर लगाए जाने वाले वृक्ष
ककुभवटाम्र प्लक्ष कदम्बैः सनिचुलजम्बू वेतसनीपैः।
कुरबकतालाशोकमधूकैर्बकुलविमिश्रैश्चावृततीराम्।।119।।
सूत्र 119 में तालाब की पाल पर लगाए जाने वाले वृक्षों का उल्लेख है। इस उल्लेख के अनुसार तालाब की पाल पर अर्जुन, बरगद, आम, पाखर और कदम्ब के वृक्षों को समुद्रफल जामुन, बेंत, गुलदुपहरिया के साथ लगाएं। इसके अतिरिक्त लालकट सरैया, ताड़, अशोक और महुआ को मौलश्री के साथ पाल के तट के चारों ओर लगाएं।
सैकड़ों साल पहले, लक्षणों तथा उन्हें पैदा करने वाले घटकों को समझकर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी करना निश्चय ही वराहमिहिर की असाधारण समझ की परिचायक है। उपर्युक्त संकेतकों के आधार पर कहा जा सकता है कि वराहमिहिर का भूजल विज्ञान पूरी तरह विज्ञान-सम्मत था। वह देशज ज्ञान, अपेक्षाकृत नए तथा पिछले लगभग चार सौ साल में विकसित हुए आधुनिक वनस्पति विज्ञान, भूविज्ञान तथा प्राणीशात्र के सिद्धांतों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।
उपर्युक्त सूत्रों में दिए विवरणों से पता चलता है कि वराहमिहिर ने भूजल से जुड़े लगभग सभी महत्वपूर्ण पक्षों पर मार्गदर्शन दिया है। आचार्य वराहमिहिर की अवधारणा के अनुसार भूमिगत जल, धरती के नीचे शिराओं के रूप में बहता है। आधुनिक विज्ञान बताता है कि समान गुणधर्म वाली रेत को छोड़कर बाकी सभी चट्टानों में भूजल का प्रवाह कहीं कम तो कहीं अधिक होता है। यह प्रवाह गुरूत्व बल से नियंत्रित होता है। लगभग यही बात वराहमिहिर की अवधारणा से प्रकट होती है जिसमें वे कहते हैं कि शिराओं की क्षमता और दिशाएं अलग-अलग होती हैं।
हमारा मानना है कि वराहमिहिर ने जमीन के नीचे बिल बनाकर रहने वाले जीव जंतुओं के पानी या नमी के साथ सह-संबध का बारीकी से अध्ययन किया होगा। संभव है, उनके पूर्ववर्ती जल विज्ञानियों की खोज के आधार पर उन्होंने पानी नमी में आनंदपूर्वक रहने वाले जीव जंतुओं की पहचान को आगे बढ़ाया हो। संभव है, उन्होंने अवलोकित नमी के आधार पर दीमक को बांबी के निर्माण तथा उन वृक्षों की पहचान की हो जो उथले भूजल स्तर वाले इलाकों या नदियों के किनारे बहुतायत से पाए जाते हैं।
यह सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि शुष्क और अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले इलाकों में, ठंडे क्षेत्रों की अपेक्षा, धरती के गर्भ में छुपी नमी और पानी, जीवों तथा चट्टानों पर अधिक निर्णायक असर डालती है। पानी के निर्णायक असर से चट्टानों में मौजूद कतिपय खनिजों में रासायनिक एवं भौतिक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन विभिन्न लक्षणों के रूप में धरती पर प्रगट होते हैं।
सैकड़ों साल पहले, लक्षणों तथा उन्हें पैदा करने वाले घटकों को समझकर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी करना निश्चय ही वराहमिहिर की असाधारण समझ की परिचायक है। उपर्युक्त संकेतकों के आधार पर कहा जा सकता है कि वराहमिहिर का भूजल विज्ञान पूरी तरह विज्ञान-सम्मत था। वह देशज ज्ञान, अपेक्षाकृत नए तथा पिछले लगभग चार सौ साल में विकसित हुए आधुनिक वनस्पति विज्ञान, भूविज्ञान तथा प्राणीशात्र के सिद्धांतों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।
हमारा मानना है कि वराहमिहिर द्वारा प्रयुक्त संकेतकों के आधार पर भूजल की भविष्यवाणियां करना पूरी तरह वैज्ञानिक है क्योंकि आधुनिक भूजल वैज्ञानिक तथा भू-भौतिकीविद भी तो चट्टानों के गुणधर्म के आधार पर पानी मिलने की संभावना व्यक्त करते हैं। अनेक समानताओं के बावजूद वराहमिहिर के जल विज्ञान में ऐसी अनेक गूढ़ बातें हैं जिनकी व्याख्या सहज नहीं है। संभव है। इसी कारण कुछ लोग उसे नकारते हैं।
आचार्य वराहमिहिर की वनस्पति शास्त्र, भूविज्ञान एवं प्राणी विज्ञान के संकेतों पर आधारित लगभग 1500 साल पुरानी तकनीक में आधुनिक भूजल विज्ञान ने खास कुछ नहीं जोड़ा है। वनस्पति शास्त्र एवं प्राणीशास्त्र में हुई तरक्की और अद्यतन ज्ञान, भूजल की सटीक खोज को बहुत आगे नहीं ले जा सका है। हमारा सोचना है कि आधुनिक विज्ञान और वराहमिहिर के परंपरागत विज्ञान के बीच संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है।
वराहमिहिर के समय में धरती का जल चक्र सामान्य था। जंगल हरे-भरे थे। भूमि कटाव अपेक्षाकृत बहुत कम था। भूजल का दोहन लगभग नगण्य था तथा भूजल स्तर की घट-बढ़ प्राकृतिक घटकों द्वारा नियंत्रित थी। उस कालखंड की परिस्थितियों के अनुसार, कुछ सूत्रों में वराहमिहिर ने भूजल को कम गहराई पर मिलता दर्शाया है। आज हालात बहुत बदल गए हैं इसलिए बदली हुई परिस्थितियों में आचार्य वराहमिहिर के समय के कम गहराई विषयक मानकों का बदल जाना सामान्य घटना है।
पुरानी तथा नई विधियों और विज्ञान की तुलना से जाहिर है कि खोज के तरीकों में बुनियादी फर्क है। आधुनिक तरीका यंत्रों तथा विशिष्ट किस्म की पढ़ाई करने वाले वैज्ञानिकों पर आश्रित है, वहीं प्राचीन तरीका अभी भी समुदाय की ज्ञान-विरासत का पर्याय है।
2.3 जल निकास व्यवस्था एवं प्रयुक्त औजर
क. जल स्रोत के जल निकास व्यवस्था
ख. जल स्रोत निर्माण में प्रयुक्त औजार
2.4 पानी को शुद्ध रखने के तौर तरीके
2.5 पेयजल सुरक्षा एवं संस्कार
क. पेयजल सुरक्षा
मनासा के कैलाश काछी का कहना था कि नदियों, कुओं बावड़ियों या तालाबों से सिर पर रखकर पानी लाया जाता था। यह काम उनके क्षेत्र में महिलाएं करती थीं। प्रतिदिन बासी पानी गिराकर ताजा पानी भरा जाता था। पानी को कपड़े से छान कर भरने की प्रथा आज भी प्रचलन में है। नदियों के पानी को भी छान कर ही भरा जाता था। गर्मी के दिनों में मटकों में रखा पानी ठंडा रहता था। पानी को हल्का गर्म या कम ठंडा रखने के लिए पुराने मटकों को जिनकी झरण बंद हो जाती थी, उपयोग में लाया जाता था। मनासा के धीरुभाई भील का मानना था कि पुराने समय में भी कुछ तालाबों का पानी पीने योग्य नहीं होता था।
शाजापुर जिले के ग्राम सोयतखुर्द में भी पीने के पानी को ऊंचे स्थान पर रखते थे। इस स्थान को परेंडी कहते हैं। रमेशचंद्र गुप्ता बताते हैं कि स्थानीय परंपराओं के कारण राजपूत परिवार की महिलाएं परदे में रहती थीं इसलिए वे पानी भरने नहीं जाती थीं। राजपूत पुरूषों द्वारा पानी भरे जाने की यह प्रथा केवल सोयतखुर्द में सुनने को मिली।
पानी के बर्तन परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार होते थे। सम्पन्न परिवार में पीतल, तांबे या कांसे के बर्तनों में और गरीब परिवारों में मिट्टी के बर्तनों में पानी रखा जाता था। पशुओं के लिए सामान्यतः हर गांव में ठेल भरे जाते थे। पक्षियों के लिए लोग अक्सर अपने घरों में पानी भरा मिट्टी का बर्तन टांगते थे। रमेशचंद्र गुप्ता बताते हैं कि उनके गांव में जिन स्रोतों का पानी पीने के काम आता था, उन स्रोतों पर स्नान और कपड़े धोने की मनाही होती थी।
मालवांचल में परेंडी की स्थापना के बारे में यह कहावत कहीं जाती है-
उत्तर-पूरब परेंडी करे, दखिल कोणे चूल्हो।
अमन चमन घर में रहे, दिखे डोकरो दूल्हो।।
इस कहावत में कहा गया है कि परेंडी की स्थापना घर के उत्तर-पूर्व और चूल्हे (किचन) की स्थापना दक्षिण दिशा में करने से घर में सुख शांति रहती है और वृद्ध जन भी जवानों की तरह सेहतमंद बने रहते हैं।
ख. पेयजल संस्कार
3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य सम्बंधी संस्कारों का विज्ञान
लीम दांतण जो करे, हुक्की हरड़े चबाये।
वासी मुंडे पाणी पिये, वणी घरे वेद नी आये।
नीम की दातुन करने, कच्ची हर्र चबाने, बासे मुंह पानी पीने वाला व्यक्ति स्वस्थ्य रहता है और उसके घर वैद्य नहीं आता।
लीम गुण बत्तीस।
हरड गुण छत्तीस।।
नीम में केवल बत्तीस गुण हेाते हैं वही हर्र में छत्तीस गुण होते हैं अर्थात सेहत की दृष्टि से हर्र अधिक गुणकारी है। कहावत हर्र का उपयोग करने की सीख देती है।
मांस खाय मांस बदे, घी खाय खोपड़ी।
दूद पिये तो चल पड़े बरस की डोकरी।।
मांस खाने से शरीर, घी खाने से बुद्धि बढ़ती है पर दूध पीने से वृद्ध महिला तक के शरीर में शक्तिवर्धन होता है। इस कहावत में दूध का गुणकारी असर बताया है।
दूद पी ने पाणी नी पीणो।
दूध पीने के उपरांत पानी नहीं पीना चाहिए अन्यथा दूध की तासीर बदल जाती है। कहावत वर्जना शैली में है और सलाह देती है कि दूध पीने के बाद पानी पीना सही नहीं है।
भूका बोर ने धाप्या हांटो।
खाली पेट बेर और खाना खाने के बाद गन्ना नहीं खाना चाहिए। यह कहावत वर्जना शैली में है। कहावत, बेर तथा गन्ने के खाने के बारे में व्यक्ति को सचेत करती है।
बाल धोरा नी वीका होय।
जो तिरफला ती माथो धोय।
कहावत बताती है कि जो व्यक्ति त्रिफला (हर्र बहेड़ा और आंवला) के पानी से नित्य सिर धोता है उसके सिर के बाल असमय सफेद नहीं होते। यह कहावत समझाइश शैली में है और त्रिफला के फायदे पर रोशनी डालती है।
जणी घर में हींग ने हल्दी नीवे उ घर बिमारी को।
कहावत में बताया है कि जिस परिवार में हींग और हल्दी का उपयोग नहीं होता वह हमेशा अस्वस्थ्य रहता है। यह कहावत सुझाव शैली में है और हींग तथा हल्दी के फायदे पर प्रकाश डालती है।
आदमी का कान ने, लुगायां का थान ढंकयाई भला।
सर्दी के मौसम में पुरुष को कान में और स्त्री को छाती में बहुत अधिक ठंड लगती है इसलिए उन्हें इन अंगों को ढंककर रखना चाहिए। यह कहावत सुझाव शैली में है और सर्दी से बचाव के बारे में शिक्षित करती है।
चैते गुड़ बेसागे तेल, जेठक पंथ असाड़ी बेल।
सामण सब्जी भादूं दंई, क्वांर करेला ने कारतक अई।
अग्गण जीरो पो-धणों, माधे मिसरी फागुण चणो।
चैत्र माह में गुड़, बैसाख माह में तेल, ज्येष्ठ माह में यात्रा, असाढ़ माह में बेल, श्रावण माह में हरी सब्जी, भादों में दही, क्वांर में करेला, कार्तिक में छाछ, अगहन में जीरा, पूष में धनिया, माघ माह में मिश्री और फाल्गुन माह में चना खाना हानिप्रद है।
यह कहावत सुझाव शैली में है और वह विभिन्न महीनों में अवांछित भोज्य पदार्थो से बचाव के बारे में शिक्षित करती है।
इन कहावतों के अलावा, मालवांचल में सेहत एवं अन्य विषयों से जुड़ी सैकड़ों कहावतें हैं।
4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा एवं उसकी विवेचना
4.1 मालवा अंचल की मिट्टियां
4.2 परंपरागत खेती
मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता, मोरवन, और झांतला की चौपालों में किसानों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार उनके गांवों की परंपरागत फसलों में ज्वार गेहूं, कपास, चना, बाजरा, मक्का, तिल्ली, अलसी, तुअर, धान, गन्ना, मूंग, कोदों, अफीम, बटला, तम्बाकू, कुटकी और उड़द मुख्य थीं।
बीजों के मामले में उनके गांवों के किसान आत्मनिर्भर थे एवं फसल के बाद अच्छे बीज छांट कर रख लेते थे। भीलांचल की परंपरागत फसलों में मक्का, ज्वार, उड़द, मूंग, कपास, चना, मूंगफली, अफीम और गेहूं मुख्य हैं। इन सभी फसलों के बीज स्थानीय हाते थे। 68 वर्षीय भीमराज का कहना था कि पुराने बीज, सभी दृष्टियों से बेहतर थे। उनके अनुसार नए बीज, बीमारियां बढ़ाते हैं। पहले उनके गांव के किसान मक्का, मूंगफली, कपास, उड़द चना, मूंग, अफीम और गेहूं बोते थे।
पानी की कमी के कारण अब फसलें बदल गई हैं। वर्तमान में इसबगोल, चना और रायडा बोते हैं। प्रदीप धाकड़ का कहना था कि पुरानी खेती की तुलना में आधुनिक खेती का आर्थिक पक्ष अधिक मजबूत है। आधुनिक फसलों के लिए खाद, बीज, दवाइयां और पानी चाहिए। कुओं में पहले 50 से 60 फुट पर पानी था जो अब 200 फुट के नीचे उतर गया है। कुओं में पानी कम पड़ने लगा है और पूरे साल भर मिलता भी नहीं है।
मुढ़ैनी ग्राम के अधिकांश किसानों का कहना था कि उनके गांव में पहले कठिया गेहूं और खरीफ में मूंगफली, मक्का, ज्वार तथा बाजरा खूब होता था। हल्की जमीन में वे तिल्ली बोते थे।
बरसात के बाद कई लोग गेहूं, चना और अलसी बोते थे। उनका कहना था कि पुराने समय में उनके पूर्वजों के पास साधनों की कमी थी इसलिए वे कम रकबे पर खेती कर पाते थे पुराने समय में कीटनाशक दवाएं नहीं थीं। सब लोग फसलों में गोबर की खाद डालते थे। फसलों को सामान्यतः कीड़ा नहीं लगता था किंतु टिड्डी दल के कारण बहुत नुकसान होता था। उस जमाने में टिड्डी दल से बचाव का कोई तरीका नहीं था।
सोयतखुर्द के बलदेव जायसवाल के अनुसार उनके गांव की खरीफ मौसम की मुख्य परंपरागत फसलों में मक्का, ज्वार, कपास, मूंगफली, उड़द, मूंग, चवली और मिर्च थीं। रबी के मौसम में चना, जौ, मसूर, अलसी, धनिया, मेथी और गेहूं बोया जाता था। उनके गांव में बारहमासी फसलों में गन्ना, सब्जियां और सार नामक चावल बोया जाता था। सभी फसलों के बीज स्थानीय होते थे और किसान बीजों के मामले में लगभग स्वावलंबी था।
सभी चौपालों में किसानों द्वारा व्यक्त विचारों में काफी समानता थी। सभी अंचलों में किसानों ने मुख्यतः एक ही बात को रेखांकित किया था कि परंपरागत खेती ही स्थानीय बीजों को सकारात्मक भूमिका निभाने का अवसर देती है। वे परंपरागत खेती को सही मानते हैं। उनका कहना था कि पुराने समय में भले ही उत्पादन कम था पर रोजी-रोटी चल जाती थी।
मिट्टी और परंपरागत खेती का संबंध
पहला प्रश्न-
ग्लोबल वार्मिग और जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि तथा गिरते भूजल स्तर और सूखती नदियों के परिप्रेक्ष्य में मालवा में कौन सी खेती (परंपरागत या आधुनिक) प्रासंगिक है?
दूसरा प्रश्न-
परंपरागत कृषि पद्धति में दुष्प्रभाव कम और आधुनिक खेती में वे अधिक है। क्या मालवांचल में आधुनिक खेती के दुष्प्रभाव का पूरा-पूरा या आंशिक हल खोजा जाना संभव है? घटती जौत के क्रम में क्या वह हल स्थानीय किसानों की आर्थिक क्षमता के अंतर्गत होगा? क्या आधुनिक खेती के संसाधनों पर बढ़ते दबाव और सेहत पर बढ़ते दुष्प्रभाव और स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ते संभावित व्यय के क्रम में पीछे लौटना बुद्धिमानी हो सकता है?
तीसरा प्रश्न-
कृषि क्षेत्र में बेरोजगार होते ग्रामीणों के शहरों की तरफ हो रहे पलायन का निदान किस पद्धति में खोजा जा सकता है? क्या उस मॉडल को आधुनिक कृषि वैज्ञानिकों की सहमति और किसानों की स्वीकार्यता के बाद जमीन पर उतारा जा सकता है?
हमारा मानना है कि उल्लिखित प्रश्नों पर चिंतन-मनन प्रासांगिक हो सकता है। संभव है बारानी खेती तथा सिंचित खेती के इलाकों तथा स्थानीय बीजों और हाइब्रिड बीजों के मामले में जुदा-जुदा रणनीतियां प्रयोग में लानी पड़ें। विदित है कि सूखी खेती में अधिकतम निर्भरता प्राकृतिक घटकों पर और सिंचित खेती में अधिकतम निर्भरता बाहरी घटकों पर होती है।
4.3 वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता
4.3.1. वर्षा
मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर
का जन्म हुआ।
मनासा, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में हमने लोगों से बरसात की मात्रा की माप के बारे में जानना चाहा चौपालों में आए किसानों का मुख्य रूप से कहना था कि पुराने समय में वर्षा की मात्रा की माप नहीं ली जाती थी। मोड़ीमाता में आए दुर्गालाल गौड़ और गोपाल भाट का कहना था कि उनके क्षेत्र में असाढ़ माह से आसोज क्वांर तक बरसात हाती है।
उचित समय पर हुई बरसात लाभ देती है। तेज बरसात से औसत भले ही बढ़ जाए पर फसलें बर्बाद हो जाती हैं। उनके अनुसार, वर्षा को फसलों की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए और तदनुसार ही उसका वितरण देखा जाना चाहिए। लगभग यही विचार सोयतखुर्द और मुढ़ैनी में सुनने को मिले।
मालवांचल में वर्षा की माप की अधिक विधि की विस्मृति के कारणों पर विचार करने से लगता है कि पशुपालक और खेतिहर समाज की आवश्यकता बरसात की माप नहीं थी। उनकी आवश्यकता घास और बोई जाने वाली फसलों का योगक्षेम था। समाज ने इसीलिए वर्षा की माप के स्थान पर खेती और पशुपालन के संदर्भ में उसके चरित्र को समझा।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र (2/24/5) के अनुसार मालवा में 23 द्रोण अर्थात लगभग 46 इंच या 1167.5 मिलीमीटर वर्षा होती थी। कौटिल्य कालीन बरसात के आंकड़ों और आधुनिक आंकड़ों की तुलना करने से पता चलता है कि मालवा की औसत सालाना बरसात में 18.32 प्रतिशत की कमी हुई है। मालवा की बरसात की तुलना का दूसरा आधार वेस्टर्न स्टेट्स गजेटियर और इंदौर रियासत के गजेटियर में दिए आंकड़ें हैं। गजेटियरों के अनुसार मालवा अंचल की रियासतों की सालना औसत वर्षा लगभग 29.83 इंच या 757.36 मिलीमीटर थी।
निम्न तालिका में मालवा के विभिन्न जिलों की सालाना औसत वर्षा को दर्शाया गया है। ये आंकड़े आधुनिक युग के हैं और जिले की औसत सालाना वर्षा को दर्शाते हैं।
जिला | औसत सालाना वर्षा |
इंदौर | 977.0मिमी. |
मंदसौर | 880.9 मिमी. |
उज्जैन | 914.5 मिमी. |
शाजापुर | 1020.2 मिमी. |
देवास | 1069.0 मिमी. |
धार | 856.3 मिमी. |
रतलाम | 992.9 मिमी. |
नीमच | 854.9 मिमी. |
राजगढ़ | 985.8 मिमी. |
इन आंकड़ों के अनुसार मालवा अंचल की औसत सालाना वर्षा 950.16 मिलीमीटर है।
वेस्टर्न स्टेट्स गजेटियर और इंदौर गजेटियर में दर्ज मालवी रियासतों की सालाना औसत वर्षा (757.36 मिलीमीटर) और आधुनिक आंकड़ों (950.16 मिलीमीटर) की तुलना करने से ज्ञात होता है कि वर्षा की मात्रा में 25.45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदि मात्र इंदौर रियासत (मालवा और भानपुरा) के आंकड़ों की तुलना इंदौर और मंदसौर जिलों के वर्तमान आंकड़ों से की जाए तो ज्ञात होगा कि सालाना औसत वर्षा की मात्रा में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
वर्षा का अनुमान
अधिकांश किसान अभी भी खेती का संपूर्ण कार्यक्रम नक्षत्रों के अनुसार तय करते है। उनके अनुसार, अंग्रेजी माह की तारीखों से खेती का कार्यक्रम मेल नहीं खाता। निपानिया के बाबूलाल जाट, झांतला के रमेशचंद्र, गोपाल राव और सोयतखुर्द के किसानों का कहना था कि वे दोनों ही पद्धतियों के अनुभवों के आधार पर बरसात से लेकर खेती की सभी गतिविधियों पर फैसला लेते हैं।
मनासा की चौपाल में आए लोगों का दावा था कि मालवी लोग, वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में सिद्धहस्त हैं। अधिकांश लोग नक्षत्रों पर विश्वास करते हैं। समरथ भील, घनश्याम धाकड़ और मोहन भील ने बताया कि उनके ग्रामों में कोई भी व्यक्ति नक्षत्र आधारित वर्षा का लेखाजोखा नहीं रखता।
चौपाल में मौजूद योगेन्द्र मकवाना का कहना था कि उनके अंचल में मुंबई तथा बंगाल की खाड़ी से आए बादलों से बरसात होती है। मुंबई की ओर से आने वाले बादल सामान्यतः तीन से पांच दिनों में मालवा आ जाते हैं। यदि मुंबई में खूब पानी बरसता है तो उसका असर मालवा में भी देखने को मिलता है।
वर्षा की विवेचना
वर्षा और खेती के सह-संबंध पर समाज की सोच
4.3.2. वर्षा से वनों का रिश्ता
5. लोकसंस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति से जुड़ी कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
5.1. लोक संस्कृति में जल विज्ञान
5.2. प्रकृति से जुड़ी कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
नीमच जिले के मोरवन के लालसिंह और विमलकुमार जैन का कहना था कि कहावतों के आधार पर हमें बरसात, खेती, बीमारी इत्यादि के बारे में संकेत मिलते हैं। वे संकेत लगभग ठीक-ठीक जानकारी देते हैं।
झांतला के मगनलाल भील और दौलतराम राठौर का कहना था कि उनके इलाके के कुछ लोगों ने कहावतों का लेखा-जोखा रखा है पर वह अप्रकाशित है। निपानिया के सत्यनारायण चौधरी, झांतला के दुर्गालाल गौड़ और रूकमा भील का कहना था कि ऐसी कई मालवी कहावतें हैं जिनका निष्कर्ष सही निकलता है। कई बार विज्ञान की बरसात संबंधी भविष्यवाणियां भी तो गलत हो जाती हैं।
माधुरी श्रीधर कहती हैं कि सभी कहावतें सीख, समझाइश और वर्जनाओं की शैली में अनुभवजन्य ज्ञान को संप्रेषित करती हैं। उनमें नक्षत्रों, मौसम, वर्षा, अकाल, खेती, कृषि पद्धति, पालतू जानवरों, खेती में प्रयुक्त पशुओं, जीव-जंतुओं के स्वभाव एवं व्यवहार, वनस्पतियों के औषधीय गुणों से संबंधित जानकारियां मौजूद हैं। कहावतों के प्रस्तावित प्रमुख वर्ग निम्नानुसार हैं-
1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
2. महीनों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
3. अनुभव जन्य कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
रोहिणी नक्षत्र
कृतिका भींजे कांकरी, रोहिणी रेलावे।
काल सुकालो जाण लो, वरखा वेगी आवे।।
कृतिका नक्षत्र में इतनी वर्षा हो जाए कि कंकरी भीग जाए तथा रोहिणी नक्षत्र में इतनी वर्षा हो जाए कि पानी बह कर निकल जाए तो समझ लो कि बरसात के आसार अच्छे हैं।
आदरा-भरणी रोइणी, मघा उत्तरा तीन।
इनी में जो आंदी चले, समझो बरखा छीन।।
आद्रा, भरणी, रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा-भाद्रपद और उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र में जोर की हवा चले तो समझिए कि बरसात कम होगी।
चितरा स्वांत विसा खडी, जो बकसे आसाड़।
चलो नरा बिदेयड़ी, पर हे काल सुगाड़।
यदि आसाढ़ माह में चित्रा, स्वाति और विशाखा नक्षत्रों में बरसात हो तो लोगों को घर छोड़ना पड़ेगा क्योंकि भयानक अकाल पड़ेगा।
सामण वदी एकादसी तीन नखत्तर होय।
तरा होवे छिपपुटी, रोहिणीहोय सुकाल।
आय नखत्तर मृगसिरो, पड़े अचोत्यो काल।
यदि श्रावण कृष्ण पक्ष एकादशी को कृतिका नक्षत्र हो तो मामूली बरसात होगी किंतु यदि रोहिणी नक्षत्र हो तो सुभिक्ष होगा और यदि मृगशिरा नक्षत्र होगा तो अकाल पड़ेगा।
मृगसर वाजे वायरो, तपे रोहिणी जेठ।
कंथा बांधो झोपड़ी, बरसालो नी निकरे बरडा हेट।।
यदि मृगसर नक्षत्र में जोर की हवाएं चलें तथा जेठ माह में रोहिणी खूब तपे तब हे कंत (पति) झोपड़ी बांध लो। खूब पानी गिरेगा। वटवृक्ष के नीचे बरसात के दिन नहीं बिता पाएंगे।
लगत बरसे आदरा, उतरे बरसे हस्त।
कितनो इ राजा कर लहे, रहे आनंद गृहस्त।।
यदि आद्रा नक्षत्र में सूर्य का प्रवेश होते ही बरसात हो जाए और हस्त नक्षत्र से सूर्य निकलते ही बरसात हो जाए तो इतना अनाज पैदा होगा कि राजा कितना भी लगान वसूले, किसान सानन्द और सम्पन्न ही रहेगा।
नक्षत्रों का वर्षा संबंधी पूर्वानुमान तथा आधुनिक मौसम विज्ञान द्वारा दी गई जानकारी में काफी हद तक समानता है। दोनों ही विज्ञानों की अन्वेषण पद्धति पृथक-पृथक है। दोनों ही विज्ञान संभावित वर्षा के बारे में पूर्वानुमान प्रकट करते है। इसके अतिरिक्त आधुनिक मौसम विज्ञान की ऐसी अनेक शाखाएं हैं, जिनका भारतीय प्रणाली में अस्तित्व नहीं था। इसी प्रकार भारतीय प्रणाली में भी कुछ ऐसे घटक हैं जिन पर आधुनिक मौसम विज्ञान द्वारा ध्यान दिया जा सकता है।
हमारी टीम मानना है कि नक्षत्र आधारित अधिकतम कहावतों का संबंध खरीफ की फसलों के बीज की किस्म, उनका जीवनकाल, कृषि, पद्धति, जलवायु और स्थानीय मिट्टी के गुण जैसे अनेक जटिल तंत्रों से है।
2. महीनों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
जेठ मास चले पुरवाई, असाढ़ो बरसे भलो।
हावण राम सहाई।।
यदि जेठ माह में पुरवाई (पूर्व दिशा से बहने वाली हवा) चलने लगे तो असाढ़ माह में तो अच्छी बरसात होगी पर श्रावण माह की बरसात का भगवान मालिक है।
दखिन वायरो चले असाढ़।
बरखा रोके, दूखे हाड़।।
यदि अषाढ़ माह में दक्षिण दिशा से हवा बहने लगे तो बरसात रुकेगी और शरीर के जोड़ों में दर्द होगा।
काती मास उतार में, बहे पुरवई ए धार।
छवे बादरा अवसई, मावठ का आसार।।
यदि कार्तिक माह के अंतिम दिनों में एक ही गति से लगातार हवा चले तो मानिए, बादल छाएंगे और मावठा (शीत ऋतु की बरसात) गिरेगा।
काती के आखीर में, पुरबी चाले सीत।
अवसी घुमड़े बादरा, हे मावठ की नीत।।
यदि कार्तिक माह के अंतिम दिनों में शीतल पुरवाई चले तो जानिए मावठा गिरने के आसार हैं।
दखिन चाले वायरो, पोस माघ के मांहे।
सुभ मंगल चारि दिशा, अण में संसो नाहिं।।
यदि पौष और माहों में दक्षिण दिशा से हवा चले तो बरसात तथा फसलें अच्छी होंगी। अर्थात दक्षिणी हवा को शुभ लक्षण मानना चाहिए।
इन कहावतों को समझने के लिए मालवांचल पर असर डालने वाले मानसून तंत्र को समझाना होगा। हमारी टीम का मानना है कि उपर्युक्त अवलोकन आधारित कहावतों के वैज्ञानिक पक्ष को समझने के लिए विश्वविद्यालयों और मौसम विभाग के संयुक्त प्रयासों तथा गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
3. अनुभवजन्य कहावतों का वैज्ञाहनक पक्ष
बडला की डाड़ी बढ़े, जामुन पाके मीठ।
नीम निम्बोली पाक जा, हे बरखा की दीठ।।
इस मालवी कहावत के अनुसार यदि वटवृक्ष की लटकने वाली जड़ों में नई कोपल फूट पड़ें, जामुन पक जाए और नीम की निम्बोली (फल) पक जाए तो समझ लो वर्षा आने वाली है।
हम सब आम में बौर आने या नीम के वृक्ष में फूल आने या पलाश के फूलने, सागौन या पतझड़ आने की घटनाओं से परिचित है। इन घटनाओं को प्रकृति नियंत्रित करती है और साल-दर-साल, निश्चित समय पर उसकी पुनरावृत्ति होती है। हमारी टीम का मानना है कि इस कहावत के पीछे निश्चित समय पर वटवृक्ष, नीम और जामुन के वृक्षों में होने वाले परिवर्तन से जुड़ा बरसात संबंधी अवलोकन है जिसे समाज ने कहावत के रूप में सम्प्रेषित किया है।
पाणी पीवे धाप।
नी लागे लू की झाप।।
यदि गर्मी के दिनों में पानी पीकर धूप में बाहर जाते हैं तो लू नहीं लगती।
लीली फसल सांचे।
पालो न्होर नीचे।।
हरी फसल की सिंचाई करने से फसल को पाला नहीं लगता। कहावत का संदेश है कि सिंचाई कर हरी फसल को पाले से बचाया जा सकता है। यही वैज्ञानिक मान्यता है।
बादल ऊपर बादल चले, घन बादल की पांत।
बरखा तो आवे अवस, अंधड़ के उत्पात।।
यदि बादलों के ऊपर बादलों की परत दिखे और बादल चलते दिखें तो जानिए कि जोरदार बरसात तो होगी ही, आंधी भी चलेगी।
धोरा धोरा वादरा, चले उतावर चाल।
नी बरसावे मेवलो, निडरो गेले चाल।।
यदि सफेद बादल तेजी से जाते दिखें तो निश्चिंत होकर यात्रा पर निकल जाएं। बरसात नहीं होगी।
वायुकुंडो चन्द्रमो, जद बी नजरा आयें।
दखनियों वायरो चले, पाणी ने तरसाय।।
यदि चन्द्रमा के इर्दगिर्द वायु कुंड (थोड़ा दूर गोल वृत्त) बना दिखे तो दक्षिणी हवा चलेगी और वर्षा में विलम्ब होगा।
कामण्यो वायरो ढबे, भीतर मन अकलाय।
परसीनो चप-चप कर, तरतंई बरखा आय।।
यदि मानूसनी हवा चलने लगे, भीतर ही भीतर मन अकुलाने लगे और शरीर से पसीना चूने लगे तो जान लो कि अब बरसात होने में विलम्ब नहीं है। यह वैज्ञानिक वास्तविकता है कि वातावरण में नमी बढ़ने के कारण उमस बढ़ती है। उमस के बढ़ने से पसीना आता है और बेचैनी अनुभव होती है। उमस का बढ़ना, बरसात का संकेत है।
लांबो चाले वायरो, घोरा बादर जाय।
बरखा लाम्बी ताण दे, फसला ने तरसाय।।
यदि एक ही दिशा में लगातार हवा चले और आकाश में सफेद बादल तैरते दिखें तो जान लें कि अभी बरसात नहीं होगी। फसलें पानी को तरसेंगी।
कोंपर फूटैं नीम की, पीपरयां तंबाय।
चेत चेत ग्यो जाण लो, अस्साढ़े बरसाय।।
यदि चैत्र माह में सही समय पर नीच में कोंपले निकल आएं तथा पीपल के वृक्ष के पत्तों का रंग तांबे जैसा हो जाए तो मान लो कि सही समय पर चैत्र आया है और असाढ़ के माह में समय पर बरसात अवश्य होगी।
दादर टर्रावे घणा, पीSकां-पीSकां मोर।
पपियो पी-पी कर पड़े, घन बरसे घनघोर।।
यदि मेंढक जोर-जोर से टर्राने लगें, मोर पीकां-पीकां का शोर करें और पपीहा पीS की रट लगाए तो जानिए घनघोर बरसात होगी।
झाड़ मथारे बैठने, मोर मचाये शोर।
दशा भूल ग्या वादरा, चला गया किण ओर।।
वृक्ष के ऊपरी भाग या चोटी पर बैठकर मोर शोर मचाए तो समझिए कि बादल राह भटक कर कहीं और चले गए हैं। फिलहाल बरसात की संभावना नहीं है।
होरी के दूजे दना, बादर घिरें अकास।
हावण हरियाला रहे, हे बरखा की आस।।
होली के दूसरे दिन यदि आसमान में बादल घिर आएं तो मानिए कि श्रावण माह में खूब हरियाली होगी अर्थात पर्याप्त बरसात होगी।
जणी दनां होरी बरे, बादर दिखें अकास।
वरखा सुभ की आवसी, रित असाढ़ के मास।।
जिस दिन होली जलती है उस दिन यदि आसमान में बादल घिर आएं तो जानिए कि असाढ़ माह में पर्याप्त बरसात होगी।
पाणी पीवे धाप,
नी लागे लू की झाप।
गर्मी के दिनों में धूप में जाने के पहले पानी पीकर बाहर निकलने से लू नहीं लगती।
सेवे शुद्ध पाणी अन हवा,
कई करे वैद अन दवा।
शुद्ध हवा और पानी का सेवन करने वाला व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ता। उसे दवा और वैद्य की आवश्कता नहीं होती है।
करसे पाणी तप उठे, चिडिया न्हावे धूर।
अंडा ले चींटी चलै, वरखा हे भरपूर।।
जब कलश में रखा पानी अपने आप गर्म होने लगे। चिड़ियां धूल में स्नान करने लगें और चिटियां अपने बिलों से अंडों को लेकर ऊंचे स्थानों की ओर जाने लगें तो भरपूर बरसात होगी। हमारी टीम को यह कहावत प्रदेश के सभी अंचलों में सुनने को मिली। इस कारण हमें लगता है कि ज्ञान-विज्ञान को आंचलिकता की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। उसका प्रभाव चारों ओर दिखता है।
हमारी टीम को लगता है सभी कहावतों के विज्ञान पक्ष का अध्ययन किया जाना चाहिए और उनकी संप्रेषण कला की ग्राह्यता को आधुनिक युग में उपयोग में लाना चाहिए।
इन कहावतों के सम्प्रेषण पर विचार करते समय हमें लगा कि इन कहावतों में समाज का हित छुपा है इसलिए उनके सम्प्रेषण का असर स्थायी बना। सभी अंचलों में हमें एक भी ऐसी कहावत सुनने में नहीं आई जो किसी का विज्ञापन करती हो या दूसरे के हित को शब्दाजाल में लपेट कर समाज को बरगलाती हो।
जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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