पश्चिमी हिमालय
हिमालय पर्वतमाला भारत को उत्तर से ऊँची चोटियों की एक सतत शृंखला से बाँधती है। इसका पश्चिमार्द्ध- जो कश्मीर घाटी से लेकर उत्तर प्रदेश के उत्तराखण्ड क्षेत्र तक फैला है- सिंधु नदी, इसकी पाँचों सहायक नदियों और गंगा का उद्गम स्थल है। इस पर्वतमाला से काफी बड़ी आबादी का जीवन सीधे जुड़ा है। इसके ढलुआ क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेती ही सामान्यतः प्रचलित है और घाटियों और दूनों (उप हिमालय शृंखला को मध्य हिमालय से अलग करने वाली चौड़ी घाटियों) में धान की खेती की जाती है।
पश्चिमी हिमालय में जल संचय की व्यापक प्रणाली रही है, किसानों में भूतल के हिसाब से नहरें बनाने और पहाड़ी धाराओं और सोतों से पानी निकालने की परम्परा रही है। इन नहरों को कुहल कहा जाता है। कुहल की लम्बाई एक से 15 किमी तक होती है। इनका समलम्बी बहाव क्षेत्रफल 0.1-0.2 वर्गमीटर होता है और सामान्यतः इनसे प्रति सेकेंड 15 से 100 लीटर तक पानी बहता है। कुछ कुहलों में बरसाती और ऊपर से बर्फ पिघलने से बना पानी, दोनों इकट्ठे होते हैं। इसके चलते कभी-कभी ऐसे कुहल भी पाये जाते हैं जिनका पानी आगे बढ़ते जाने के साथ बढ़ता जाता है। यह जल बहाव मौसम के साथ बदलता भी है। एक अकेला कुहल नालियों के जरिए या जलोत्प्लावन से 80 से 400 हेक्टेयर क्षेत्रफल की सिंचाई करता है। सिंचित भूमि पहाड़ी ढलान पर होती है और यह सीढ़ीनुमा होती है। बाह्य और मध्य हिमालय में 350 से 3,000 मीटर की ऊँचाई पर यह प्रणाली आमतौर पर प्रचलित है। कुहल के रास्ते में जहाँ भी तेज ढलान आती है, वहाँ जल गिराव का इस्तेमाल आटा चक्की जैसी सामान्य मशीनों को चलाने में भी किया जाता है। एक कुहल की निर्माण लागत 3,000 से 5,000 रुपए प्रति किमी आती है।1 जम्मू क्षेत्र में तालाब बनाने की भी व्यापक परम्परा है।
सारणी 2.2.1 : हिमाचल क्षेत्र के राज्यों में कुल सिंचित क्षेत्र (1988-89) (अनुमानित) | |||||||
राज्य | नहरें | तालाब (हजार हेक्टेयर) | कुएँ (नलकूप सहित) (हजार हेक्टेयर) | अन्य स्रोत (हजार हेक्टेयर) | कुल (हजार हेक्टेयर) | ||
सरकारी (हजार हेक्टेयर) | निजी (हजार हेक्टेयर) | कुल (हजार हेक्टेयर) | |||||
अरुणाचल प्रदेश | - | - | - | - | - | 32 | 32 |
असम | 71 | 291 | 362 | - | - | 210 | 572 |
हिमाचल प्रदेश | - | - | - | - | 11 | 88 | 99 |
जम्मू एवं कश्मीर | 130 | 159 | 289 | 3 | 3 | 15 | 310 |
मणिपुर | - | - | - | - | - | 65 | 65 |
मेघालय | - | - | - | - | - | 50 | 50 |
मिजोरम | - | - | - | - | - | 8 | 8 |
नागालैंड | - | - | - | - | - | 56 | 56 |
सिक्किम | - | - | - | - | - | 16 | 16 |
कुल | 201 | 450 | 651 | 3 | 14 | 540 | 1,208 |
स्रोत : आर्थिक और सांख्यिकी निदेशालय, कृषि मंत्रालय, नई दिल्ली | |||||||
हिमाचल से लगे राज्यों में सरकारी सिंचाई व्यवस्था की पहुँच 2,01,000 हेक्टेयर तक है, जबकि निजी व्यवस्थाओं से 5,40,000 हेक्टेयर जमीन सिंचित होती है। ‘अन्य स्रोत’ वाली श्रेणी की व्यवस्थाएँ भी मूलतः गैर-सरकारी हैं और इनसे भी 5,40,000 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है। |
हिमालय से लगे राज्यों में सिंचाई स्रोतों पर उपलब्ध आँकड़े यह दिखाते हैं कि स्वयं किसानों द्वारा संचालित, पारम्परिक सिंचाई प्रणालियाँ सुदूर पहाड़ी इलाकों में कृषि उत्पादन में कितनी बड़ी भूमिका अदा करती हैं। सारणी 2.2.1 में प्रस्तुत आँकड़ों में उत्तर प्रदेश की पहाड़ियाँ शामिल नहीं हैं। यह सारणी दिखाती है कि हिमालय से जुड़े राज्यों में 2,01,000 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई राज्य सिंचाई प्रणालियों द्वारा होती है और निजी नहरों द्वारा सिंचित जमीन 4,50,000 हेक्टेयर है। इसके अलावा 5,40,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल ‘अन्य स्रोत’ शीर्षक के तहत आता है जो निजी और गैर-सरकारी प्रणालियों को ही व्यक्त करता है। इस प्रकार किसानों के प्रबन्ध से सिंचित इलाका लगभग 10,00,000 हेक्टेयर बनता है। इन प्रणालियों के कामकाज के बारे में नाममात्र की ही जानकारी है, जबकि यह तय है कि इनकी उपयोगिता राज्य प्रणालियों के ही समतुल्य अथवा उनसे बेहतर ही होती है।
1. कश्मीर घाटी
स्थानीय ग्रामीण सुय्या नाम के एक ऐसे आदमी की दिलचस्प कहानी सुनाते हैं जो उनके शासन के दौरान यहीं रहता था। जब भी अकाल की बात होती, सुय्या ऐसी शेखी बघारता कि उसके पास बाढ़ से पैदा अकाल के दैत्य का विनाश करने की शक्ति है। राजा अवंतिवर्मन ने उसकी परीक्षा लेने का फैसला किया और अपना खजाना उसकी मर्जी पर छोड़ दिया। सुय्या ने अशरफियों से भरे कई बर्तन एक नाम में रख लिये और घाटी के दक्षिणी जिले की ओर नाव खेता हुआ आगे बढ़ा। उसने नन्दक नाम के (वेशन नदी के किनारे नंदी) गाँव में एक बर्तन फेंक दिया, जो तत्काल बाढ़ के जल में डूब गया। फिर वह यक्षदरा गया, जो बारामूला के नीचे खडनायार के पास की एक जगह है और वहाँ उसने एक मुट्ठी अशरफियाँ नदी में फेंक दीं। अकाल के मारे लोग, जो सुय्या को देख रहे थे, नदी में कूद पड़े और खजाना पाने के लिये वे नदी की तली से चट्टानें निकालने लगे। इन्हीं चट्टानों ने नदी को रोक रखा था। दो दिन में नदी की तली साफ हो गई। फिर सुय्या ने नदी के दोनों किनारों पर बाँध खड़े किये। इसके चलते पानी का बहाव और तेज हो गया और वह तेजी से बहता चला गया। डूबी हुई जमीन फिर नजर आने लगी। अशरफियों का जो बर्तन नदी में फेंका गया था, वह भी साफ दिखाई देने लगा।
पहले वितस्ता और सिंधु नदियाँ त्रिगामी के पास मिलती थीं और वहाँ एक बड़े इलाके को दलदल में बदल देती थीं। लेकिन सुय्या ने वितस्ता के प्रवाह को इस तरह नियमित किया कि वह वूलर झील में गिरने लगी। इसके पानी को सिंचाई के लिये इस्तेमाल कराने के लिये छोटी नहरें निकाली गईं और हर गाँव को फसल के लिये पानी देना तय हुआ। सुय्या ने दलदली जमीन से कई गाँव हासिल किये और पानी को उनसे दूर रखने के लिये गोलाकार बाँध बनवाए। वे गोल कटोरे (कुंड) जैसे दिखते थे, लिहाजा उनका नाम कुंडल रखा गया। उत्स कुंडल और मार कुंडल जैसे कुछ गाँव आज भी अपने पुराने नाम बनाए हुए हैं। सैकड़ों गाँवों के लिये हासिल इस जमीन ने भी उन्हें भारी फसलें दीं।3
मध्यकाल में (15वीं सदी) भी उन प्राचीन नहरों की मरम्मत की जाती थी और कई नहरें बनाई जाती थीं। जैनुल आबिदीन (1423-1474 ई.) के शासन में सिंचाई सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण निर्माण किये गए। उसके कर्मचारियों द्वारा लिखे गए रोजानामचे सुल्तान के शासन के दौरान बनवाई गई नहरों की सूची प्रस्तुत करते हैं4 ...इनमें से पोहर नदी के पानी को जैनागिरी परगना में ले जाने वाली और लिद्दर के पानी को सूखे बंजर मार्तंड पठार में ले जाने वाली नहरें विशेष उल्लेखनीय हैं। छोटी नहरों में, जिनकी भूमिका बड़ी नहरों को जोड़ने की है, लच्छमकुल और मार भी उल्लेखनीय हैं। इनमें से पहली सुल्तान के बसाए नए नगर नौंशहर में पेयजल ले जाती थी। मुगलों द्वारा बनवाई गई नई नहरों का कोई ब्यौरा अभी तक नहीं पाया जा सका। ऐसा लगता है कि उन्होंने मुख्यतः उस समय मौजूद नहरों की मरम्मत ही की।4
2. जम्मू
स्थानीय जनता ने अनुभव के जरिए यह भी सीख लिया था कि एक खास गहराई से ज्यादा तालाब की गाद नहीं निकाली जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से काफी भुरभुरी सतह खुल जाएगी और इसके चलते तालाब की तली से होकर पानी नीचे रिस जाएगा। महीन गाद पानी का रिसाव रोकने के काम आती थी। तालाब की गाद को बतौर खाद इस्तेमाल करने के लिये एक तय मात्रा में ही निकाला जा सकता था। गाद की मिट्टी का इस्तेमाल कंडी क्षेत्र में कच्चे घरों की छतों, दीवारों-फर्शों के निर्माण में गारे के बतौर भी किया जाता था। आज भी इनमें से कुछ घरों की दीवारें उन पर बने रंगीन चित्रों के चलते सुन्दर दृश्य उपस्थित करती हैं।
कंडी क्षेत्र की अत्यन्त नाजुक जलवायु में ये तालाब महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। दुर्भाग्यवश, इस सदी के मध्य तक टोंटी से पेयजल आपूर्ति ने इन तालाबों की उपेक्षा का रास्ता साफ किया। जमीन पर पड़ रहे आबादी के दबाव और सामूहिक संस्थाओं के पतन ने उनकी गिरावट को और तेज कर दिया।
जम्मू के तालाब सिंचाई के काम नहीं आते थे, फसलें ज्यादातर बारिश के पानी से होती थी। वे स्थानीय जलवायु को ठंडा रखने में मदद करते थे।7 ड्रिप (बूँद-बूँद) सिंचाई की एक स्थानीय प्रणाली यहाँ बहुत पहले से ही मौजूद थी। किसी फल के पौधे के बगल में खुदे एक गड्ढे में एक छिदी तली वाला घड़ा रख दिया जाता था। घड़ा नियंत्रित ढंग से पानी छोड़ता था, जो पौधे की जड़ों के नजदीक की जमीन को नम रखता था और गर्मी की तनावपूर्ण अवधि का सामना करने में उसकी मदद करता था। पड़ोस के किसी तालाब से पानी उठाकर उस घड़े को भर दिया जाता था।7
3. हिमाचल प्रदेश
4. उत्तर प्रदेश
“जिले के कई हिस्से ऐसे हैं जहाँ जमीन तो सिंचित है, लेकिन एक राय न बन पाने और किसी भी व्यक्ति के पास इसमें धन लगा पाने की क्षमता न होने के चलते इस दिशा में कुछ किया नहीं गया है।”
पहाड़ों में खेती का विकास किसानों के जिम्मे ही छोड़ दिया गया और इसे सरकार की जिम्मेदारी नहीं माना गया।
स्वतंत्रता के बाद उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग ने पहाड़ों में मौजूद कुछ पारम्परिक सिंचाई प्रणालियों को 50 के दशक की शुरुआत में आधुनिक बनाया और कुछ नई प्रणालियाँ भी बनाईं। पारम्परिक प्रणालियाँ अब भी वहाँ बड़ी संख्या में हैं, लेकिन वे राज्य सिंचाई विभाग द्वारा तय किये गए नियमों के अनुरूप नहीं ठहरती हैं।18
1930 के कुमाऊँ वाटर रूल्स ने 1917 के नियमों में संशोधन किया और कुमाऊँ में प्रभावी पारम्परिक स्रोतों को सूत्रबद्ध किया। इन नए नियमों ने नई सिंचाई नहरों और पनचक्कियों के निर्माण की प्रक्रिया को भी नियंत्रित करने का जिम्मा लिया।19 इन नियमों में से पहला है:
“सरकार किसी भी जोतदार द्वारा नई सिंचाई नहरों के निर्माण का कोई विरोध नहीं करेगी। ऐसी नहरों को किसी अन्य समूह से सम्बन्धित जल उपयोग अधिकार को कोई गम्भीर चोट नहीं पहुँचानी चाहिए।”
20
ये नियम उस समय तक मौजूद इस व्यवहार को पुख्ता करते थे कि सिंचाई का विकास बगैर सरकार की किसी सक्रिय भागीदारी के सम्पन्न किया जाये। सिंचाई के अधिकार मुख्यतः सिंचाई करने वालों के पास ही रहें और प्राथमिकता के आधार पर जल उपयोग के सिद्धान्त की रक्षा इन नियमों द्वारा की गई।
मनमानी कार्यवाही
“जो किसी भी उद्देश्य के लिये तालाब की जमीन का उपयोग कर सकता है और किसी भी सूरत में उसे उस जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता।”
अधिनियम का एक कानून 41 (vi) यह कहता है कि तालाब व पोखर, नाले और नालियाँ जो भी राज्य की सम्पत्ति होंगी, उनका इन्तजाम ग्रामसभा द्वारा अथवा किसी भी स्थापित स्थानीय प्राधिकार द्वारा किया जाएगा।21 इस प्रकार इस अधिनियम ने किसी एक व्यक्ति की जमीन में स्थित जलस्रोत के मालिकाने को सुनिश्चित किया और किसी भी राजकीय तालाब व पोखर के स्थानीय प्राधिकार द्वारा व्यवस्थित किये जाने की रूपरेखा भी तय कर दी।
इसी पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश सरकार ने कुमाऊँ और गढ़वाल जल (संग्रहण, संरक्षण और वितरण) अधिनियम 1975 को मंजूरी दी जो आठ पहाड़ी जिलों के तराई और भाबर मैदान समेत समूचे क्षेत्र को समेटे हुए था। इस कानून की धारा तीन ने व्यक्तियों और ग्राम समुदायों के जारी अथवा पारम्परिक अधिकारों को रद्द कर दिया। अधिनियम की धारा चार के तहत राज्य ने जल के संग्रहण, संरक्षण और वितरण के लिये तथा जलस्रोतों के नियंत्रण के लिये कानून बनाने का अधिकार ले लिया। इसके बाद सरकार ने किसी भी व्यक्ति से सम्बन्धित जमीन पर कोई जल व्यवस्था बनाने, तालाब अथवा जल संग्राहक बनाने तथा कोई पम्प सेट अथवा पाइप लाइन लगाने का अधिकार भी ले लिया। इसके अतिरिक्त परगना मजिस्ट्रेट (एसडीएम) द्वारा पहले से लिखित अनुमति मिलने के बगैर किसी को कोई सिंचाई प्रणाली पम्प सेट अथवा पाइप लाइन समेत, अनुमति नहीं रह गई। 1975 के अधिनियम में जलस्रोतों पर व्यक्तियों और ग्राम समुदायों के अधिकार क्षेत्र को छीन लिया और उन्हें सरकार को सौंप दिया। लेकिन ऐसा लगता नहीं कि इसकी वैधता की देश के उच्चतर न्यायालयों द्वारा कभी कोई कड़ी कानूनी जाँच की गई है।
इस अधिनियम के विरोध में विवाद कई सारे कारणों के चलते सामने नहीं आये। थोड़े बड़े इलाके (150-200 हेक्टेयर) की सिंचाई करने वाली नई सिंचाई प्रणाली ग्राम समुदायों द्वारा कई कारणों से निर्मित नहीं की जा सकती है। 1960 के दशक के बाद से कुमाऊँ व गढ़वाल की पहाड़ियों में राज्य सिंचाई विभाग ने बहुत तेजी से विस्तार किया है। इस अवधि में राज्य सिंचाई क्षेत्र के लिये पहाड़ियों की मद में सालाना योजना खर्च भी बढ़ा है। छोटी निजी सिंचाई योजनाओं को, जो व्यक्तियों द्वारा एक हेक्टेयर अथवा कम की सिंचाई के लिये बनाई जाती हैं, लघु सिंचाई विभाग की सहायता मिलती है। यह सहायता पिछले दस वर्षों की अवधि में उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। इन विभागों को किसी जलस्रोत के इस्तेमाल के लिये अनुमति लेने में कुछ खास मुश्किल नहीं आती।
पहाड़ की सिंचाई प्रणालियाँ आमतौर पर लघु सिंचाई की ही श्रेणी में आती हैं और कुल मिलाकर वह 2,000 हेक्टेयर से कम ही क्षेत्र सींचती हैं। पिछले 15 वर्षों में सिर्फ दो मध्यम आकार की और एक बड़ी सिंचाई परियोजना शुरू की गई है।
ढलान के आधार पर काम करने वाली पहाड़ के किनारे-किनारे बनी नालियाँ पहाड़ों में सर्वाधिक प्रचलित सिंचाई स्रोत हैं। निजी मिल्कियत वाले छोटे तालाब और ढलवा नालियाँ (अंशतः पलस्तर वाली या फिर सामान्य मिट्टी से बनी नालियाँ) या तो व्यक्तियों द्वारा अथवा किसानों के समूहों द्वारा निर्मित व संचालित की जाती हैं। कुछ गाँवों में बरसाती पानी वाले कच्चे तालाब हैं, जो इतने ही बड़े होते हैं कि दो महीने के लिये गाँवों के पशुओं के पीने, नहाने की पूरी व्यवस्था कर सकें। यहाँ बहुत सारे नौले भी होते हैं, जो रिसावदार तालाबों के नीचे बने होते हैं जिनमें स्वच्छ भूजल इकट्ठा होता है। सघन आबादी वाले क्षेत्रों में टोंटी के पेयजल की आपूर्ति से पहले नौले ही इसका एकमात्र स्रोत हुआ करते थे। पीने के पानी की कमी के समय आज भी यही काम आते हैं।
सातवीं पंचवर्षीय योजना में उत्तर प्रदेश की पहाड़ियों में नई सिंचाई प्रणालियों के निर्माण हेतु 60 करोड़ रुपए तय किये गए थे और इसके जरिए सिंचित भूमि में 10,000 हेक्टेयर की वृद्धि का अनुमान लगाया गया था- यह सोचते हुए कि सारे जलस्रोत पहले ही कहीं-न-कहीं लगे हुए हैं और यह भी कि सिंचाई क्षमता में बड़े पैमाने की वृद्धि की कोई सम्भावना नहीं है। सो, आजकल वहाँ किसानों द्वारा प्रबन्धित प्रणालियों को आँकड़ेबाजी के लिहाज से नवनिर्मित प्रणालियाँ बताकर पेश करने भर का काम हो रहा है।
सिंचाई की नालियाँ बिरले ही किसी प्रमुख नदी धारा से पानी लेती हैं, क्योंकि इसके लिये नफीस किस्म के मोड़ और नियंत्रण संरचनाओं की जरूरत पड़ेगी जो बहुत महंगे हैं। पारम्परिक प्रणालियाँ छोटी सदानीरा धाराओं से पानी लेती हैं। ये धाराएँ खड़ी पहाड़ी ढालों से उतरते हुए मुख्य नाले से मिलती हैं और नीचे की ओर अपनी यात्रा के दौरान विविध ऊँचाइयों पर इनसे पानी लेती जाती हैं। एच.जी. वाल्टन ने दि हिमालयन गजेटियर (1911) में यह लिखा है कि अल्मोड़ा में
“पानी की आपूर्ति ऐसी लम्बी नालियों से की जाती है जो पहाड़ों में काट-छाँटकर बनाई गई हैं या जरूरत पड़ने पर पहाड़ी धाराओं के पानी को इस तरफ मोड़ दिया गया है। यहाँ सोतों का भी इस्तेमाल किया जाता है।”
22 यह स्थिति आज भी जैसी की तैसी बनी हुई है। लेकिन पहले यहाँ सुस्पष्ट जल अधिकार थे और सिर्फ अतिरिक्त जल अथवा लौटते बहाव से ही लोग पानी ले सकते थे।22
सामुदायिक संगठन
उत्तर प्रदेश : पवित्र तालाब प्राचीनकाल से उत्तर प्रदेश के पहाड़ी लोग नौला या हौजी कहे जाने वाले छोटे कुओं और तालाबों से पानी लेते रहे हैं। नौला उत्तर प्रदेश के उत्तराखण्ड क्षेत्र की विशेष भूजल संचय विधि है। भूजल धारा पर एक पत्थर की दीवार बनाकर जल संग्रह किया जाता है। ग्रामीण आबादी और उपलब्ध जलस्रोत के अनुसार हर गाँव में दो या इससे ज्यादा नौले हुआ करते हैं। नौले पारम्परिक रूप से ग्रामीणों द्वारा काफी भक्तिभाव से बनाए जाते थे और नौला बनाते समय कई सारे कर्मकाण्ड किये जाते थे। यह सब कोई मन्दिर बनाने जैसा होता था। नौला के पानी की शुद्धि के लिये उसमें नियमित रूप से जड़ी-बूटियाँ और आँवले के फल डाले जाते थे। वाष्पन घटाने के लिये नौले के किनारे बड़े छायादार पेड़ लगाए जाते थे। स्थानीय लोगों में नौले और पेड़ों की पूजा करने का रिवाज था। इसका प्रभाव दोहरा पड़ता था- यह ग्रामीणों को नौला साफ रखना और जल संरक्षण, दोनों ही सिखाता था। नौला निर्माण की प्रौद्योगिकी बहुत पुरानी है। पशुओं के लिये पत्थरों से हौजी बनाई जाती थी। ये नौले और हौजियाँ हमेशा पानी से भरे होते थे। लेकिन जंगलों की समाप्ति और सड़क निर्माण ने 95 प्रतिशत नौलों और सोतों को सुखा दिया है और ज्यादातर को विलोप के कगार पर पहुँचा दिया है। हर तीसरा गाँव आज पानी की किल्लत से जूझ रहा है। राज्य सरकार पहाड़ी इलाकों में पेयजल बाँटने के लिये अभी तक 1000 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है। नौलों को पुनर्जीवित करना भी सम्भव है। अस्थायी पत्थर की बंधियाँ और सरंध्र व स्थायी ठोकर बाँध भी बनाए जा सकते हैं। पानी का बहाव रोककर पाँच से पन्द्रह मीटर ऊँचे सीमेंट के बाँध भी बनाए जा सकते हैं और उनसे छोटी धाराएँ निकाली जा सकती हैं। इन धाराओं से नौले पुनर्जीवित किये जा सकते हैं। वनस्पतियों की छाया उन्हें सुरक्षा दे सकती है। दुर्भाग्यवश, नियंत्रित विकास के चलते बांज और बुरांस के पेड़ों की जगह चीड़ के पेड़ लेते जा रहे हैं, जो वर्षाजल को सोख लेते हैं और वनस्पतियाँ और भी कम होने लगती हैं। हिमालय पर्यावरण एवं ग्राम विकास संगठन गढ़वाल जिले के खिरसू विकासखण्ड के 22 गाँवों में जल संग्रह के उपाय विकसित कर रहा है। - जी.पी. काला और दिनेश जोशी |
उत्तर प्रदेश : धारा में साझेदारी
यू.सी. पांडे
उत्तर प्रदेश के हिमालय क्षेत्र में आज भी कई पारम्परिक सिंचाई प्रणालियाँ जारी हैं और स्थानीय समुदायों द्वारा ही उनका सारा इन्तजाम किया जा रहा है। अल्मोड़ा जिले में लड्यूरा और बयाला खालसा ग्रामसभाएँ अपनी सिंचाई प्रणालियों का प्रबन्धन खुद ही करती हैं। लड्यूरा ग्रामसभा के तीनों गाँव- लड्यूरा, सलोंज और हिटोली- सिंचाई का पानी दो स्रोतों से लेते हैं, जो सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच 40 हेक्टेयर खेत सींच देते हैं। बयाला खालसा ग्रामसभा, जो धारा के निचले हिस्से में पड़ती है, उसमें भी तीन गाँव हैं, जिनका कुल सिंचित क्षेत्र 24 हेक्टेयर है और उन्हें सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच पानी मिलता है।
इन दोनों गाँवों के बीच पानी के इस्तेमाल को लेकर होने वाले झगड़ों का एक लम्बा इतिहास है। उनके बीच पहला कानूनी मामला 1855 में बना था, जब एक योग्य न्यायिक प्राधिकरण ने उनके बीच पानी के उपभोग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। 1944 में ये दोनों गाँव एक बार फिर अपने मामले के निबटारे के लिये न्यायालय की शरण में गए। तब न्यायालय ने यह फैसला दिया,
“यह सिद्ध करने के लिये कोई सबूत नहीं है कि समय के लिहाज से लड्यूरा गाँव को बयाला गाँव से पहले ही पानी मिलना जरूरी है।”
और कहा कि लड्यूरा गाँव सूर्योदय से सूर्यास्त तक धारा के समूचे पानी का अधिकारी है, जबकि धारा के निचले हिस्से में पड़ने वाले गाँवों को सूर्यास्त से सूर्योदय तक पानी मिलना चाहिए।
लड्यूरा गाँव में एक औपचारिक रूप से स्थापित और प्रभावी सिंचाई संगठन 1952 से ही चलता आ रहा है। इस क्षेत्र पर आई पिछली रिपोर्ट में इस क्षमता स्तर का एक भी संगठन नहीं है। हर छः महीने पर होने वाली इसकी बैठकों का ब्यौरा बड़ी दक्षतापूर्वक सहेजकर रखा होता है। लेकिन नीचे के गाँवों में इस तरह का कोई भी संगठन नहीं है।
लड्यूरा ग्रामसभा में तीन गाँव हैं और इसमें कुल 163 परिवार रहते हैं। इन तीनों गाँवों में लड्यूरा और हिटोली में राजपूत बहुसंख्या में हैं और सलोंज में ब्राह्मण और हरिजन बहुसंख्यक हैं। सिंचाई व्यवस्था के सभापति लड्यूरा के, और आमतौर पर ठाकुर ही होते हैं। ज्यादातर खेतिहर जमीन कि मिल्कियत ब्राह्मणों और राजपूतों के पास है, लेकिन ब्राह्मणों ने अपनी जमीनें ठाकुरों और हरिजनों को पट्टे पर दे रखी हैं।
लड्यूरा गाँव में पानी का बँटवारा एक सिंचाई समिति द्वारा किया जाता है जिसका पंजीकरण 1956 में कराया गया था। इसके दस सदस्य हैं, जिनमें एक चौकीदार भी शामिल हैं। ग्रामसभा के सदस्य सिंचाई समिति के सदस्य भी होते हैं। कई गैर-निर्वाचित सदस्य, जो जल वितरण व्यवस्था से परिचित हैं, इसकी बैठकों के दौरान सदस्यों के रूप में समाहित कर लिये जाते हैं। बड़े फैसले एक आम सभा बैठक में लिये जाते हैं, जो गाँव के हर निवासी के लिये खुली होती है।
सामान्य सिंचित फसलों गेहूँ, जौ, सरसों और आलू हैं। रबी के मौसम में अक्सर दालें और खरीफ के मौसम में धान उगाया जाता है। खरीफ के मौसम में तीन-चार सिंचाई के विपरीत रबी के मौसम में एक-दो सिंचाई ही उपलब्ध हो पाती है, जबकि खरीफ के लिहाज से जुलाई से सितम्बर तक पर्याप्त बारिश भी होती रहती है। गेहूँ या अन्य रबी फसलों के लिये पानी पहले अक्टूबर के दौरान रोपनी से पहले की सिंचाई के लिये उपलब्ध रहता है और फिर दिसम्बर से फरवरी के बीच। खरीफ के धान के लिये जुलाई और अगस्त में दो सिंचाइयाँ उपलब्ध कराई जाती हैं। और उसके बाद सितम्बर के अन्त तक लगातार पानी चाहिए होता है।
किसी भी धारा के शीर्ष पर ही ज्यादा पानी लेकर नीचे के इलाकों को कहीं सूखा रहने को मजबूर न कर दिया जाये, इसके लिये एक आसान तरीका अपनाया गया है। पानी लेने की हर जगह एक छोटा पत्थर रख दिया जाता है। पानी लेने की जगहों पर लगने वाले ये पत्थर आकार में क्रमशः छोटे-छोटे होते जाते हैं और इस तरह पानी के बँटवारे में एक न्यूनतम समता सुनिश्चित कर दी जाती है।
लड्यूरा गाँव में पानी का बँटवारा एक सिंचाई समिति द्वारा किया जाता है जिसका पंजीकरण 1956 में कराया गया था। इसके दस सदस्य हैं, जिनमें एक चौकीदार भी शामिल हैं। ग्रामसभा के सदस्य सिंचाई समिति के सदस्य भी होते हैं। कई गैर-निर्वाचित सदस्य, जो जल वितरण व्यवस्था से परिचित हैं, इसकी बैठकों के दौरान सदस्यों के रूप में समाहित कर लिये जाते हैं। बड़े फैसले एक आम सभा बैठक में लिये जाते हैं, जो गाँव के हर निवासी के लिये खुली होती है।
लड्यूरा ग्रामसभा के तीनों गाँव दिन में जलापूर्ति के लिये अधिकृत हैं- सूर्यास्त के बाद पानी का इस्तेमाल सिर्फ नीचे के गाँव ही कर सकते हैं। ऊपर की ग्रामसभा का सिंचित क्षेत्र 24 हेक्टेयर है और दो गुहल उसे सींचते हैं, जबकि नीचे की ग्रामसभा का सिंचित क्षेत्र सिर्फ 16 हेक्टेयर है। विवाद का विषय यह रहा है कि नीचे के गाँव कम क्षेत्रफल के बावजूद उतने ही घंटे पानी पाता है और इस प्रकार ऊपर के गाँवों से ज्यादा लाभ में रहता है।
चूँकि धारा ऊपर के गाँवों से होती हुई ही नीचे आती है, लिहाजा रिसाव से होने वाला नुकसान और रात में पानी चुरा लेने की गुंजाइश ऊपर के गाँव को लाभप्रद स्थिति में पहुँचा देते हैं। जाड़े में नीचे के गाँवों को लम्बी रातों का फायदा मिलता है। लेकिन यह कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि जाड़े में किसान खेतों को आमतौर पर सिर्फ एक बार ही सींचते हैं और वह भी थोड़े समय के लिये।
लड्यूरा ग्रामसभा की सिंचाई समिति अधिक सुव्यवस्थित है और उसके पास एक असरदार सिंचाई निकाय है। उपस्थिति का लेखा-जोखा और बैठकों का ब्यौरा विधिवत दर्ज किया जाता है। इस समिति को चलाने और सिंचाई प्रणाली जारी रखने में ग्रामीणों और समिति सदस्यों द्वारा काफी रुचि ली जाती है। समिति सिंचाई, धारा की सफाई और मरम्मत के काम की तारीख घोषित करती है। जिन बैठकों में ये फैसले लिये जाते हैं, वे फसली मौसम शुरू होने से कुछ पहले की जाती हैं।
साल में दो बार, सामान्यतः इतवार के दिन ग्रामीण संयुक्त रूप से सिंचाई प्रणाली की सफाई और मरम्मत का काम करते हैं, जिसमें विविध गुहलों से गाद, झाड़-झंखाड़, काई आदि निकालना शामिल होता है। जो लोग इस काम में नहीं लग पाते, वे भाड़े के मजदूर भेजते हैं। विधवाएँ और विकलांग या तो भागीदारी से मुक्त कर दिये जाते हैं या उन्हें भाड़े के मजदूर भेजना पड़ता है।
चौकीदार की जिम्मेदारियों में हर व्यक्ति के खेत में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना और फसलों को पशुओं से बचाना शामिल है। लड्यूरा ग्रामसभा में पानी का बँटवारा गुहल की ढलान पर एक साल ऊपर से नीचे की ओर और अगले साल नीचे से ऊपर की ओर होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऊपर से नीचे की व्यवस्था लगातार दो साल चलती रहती है। लेकिन उसके बाद के दो वर्षों में वह बँटवारा नीचे से ऊपर की ओर होता है। ऐसे मामले सिंचाई समिति द्वारा निबटाए जाते हैं। जब भी क्रम में कोई बदलाव किया जाता है, पूरा ग्राम समुदाय समिति के साथ बैठता है। पानी बँटवारे के क्रम को लेकर अभी तक कोई बड़ा विवाद नहीं खड़ा हुआ है और एक बार जब कोई फैसला ले लिया जाता है तो हर किसी को उस पर अमल करना होता है।
चौकीदार यह सुनिश्चित करता है कि पानी खेत तक पहुँचे और कोई उसके बहाव को रोके नहीं। यदि कोई बहाव रोकता पाया गया या अपनी बारी के बगैर पानी लेता पाया गया तो चौकीदार उसे रोकता है। यदि गलती करने वाला अपना काम जारी रखता है तो वह उस व्यक्ति का नाम सम्बन्धित ग्रामीण को बता देता है। यहाँ गलती करने वाले का नाम पूछना ही उसके विरुद्ध शिकायत दर्ज करना है। यदि कोई और व्यक्ति शिकायत सुनने की स्थिति में नहीं है तो चौकीदार और प्रभावित व्यक्ति की गवाही को ही शिकायत के लिये पर्याप्त समझा जाता है। फिर न्याय पंचायत उस व्यक्ति को सजा दिलाने की कार्यवाही शुरू करती है। जिस तारीख पर यह न्याय पंचायत बुलाई जाती है, वह तारीख पहले ही तय कर दी जाती है और उसकी सूचना भेज दी जाती है।
अपना कर्तव्य पूरा करने के लिये चौकीदार को हर खेतिहर द्वारा एक नाली (1.5-2 किलो के लगभग) अनाज दिया जाता है। अच्छी फसल होने की स्थिति में चौकीदार को और भी अनाज दिया जा सकता है और यदि फसल खराब हो तो उसे कम भी दिया जा सकता है। इसके अलावा पानी बँटवारे को लेकर होने वाले झगड़ों में मिलने वाले जुर्माने की राशि का एक हिस्सा और पशुओं के खेतों में घुस जाने पर लगने वाले अर्थदंड का आधा भी चौकीदार को दिया जाता है, जिसके चलते वह इसे लेकर हमेशा सजग रहता है। जुर्मानों से मिलने वाली सालाना राशि का इस्तेमाल या तो मरम्मत के काम में या सिंचाई प्रणाली के सुधार में या फिर ऐसी चीजों को खरीदने में किया जाता है जो पूरे समुदाय के उपयोग में आती हैं।