बूंदें, नर्मदा घाटी और विस्थापन
नर्मदे हर......!
मध्यप्रदेश की जीवनरेखा है नर्मदा। इसका प्रवाह यानी जीवन का प्रवाह। इसके मिजाज का बिगड़ना यानी जीवन से चैन का बिछुड़ना। नदी से समाज के सम्बन्ध केवल नहाने, सिंचाई, पानी की भरी गागर घर के चौके-चूल्हे तक लाने में ही सिमट नहीं जाते हैं। नदियों की धड़कन के साथ-साथ धड़कती है उसके आंचल में रहने वाले समाज की धड़कन। पीढ़ियां नदी के प्रवाह की साक्षी रहती हैं। और नदी भी तो बहते-बहते देखती है-.........मानो कल की ही बात हो। रामसिंह की बहू ब्याह के बाद अपनी सास के साथ मेरी गोदी पूजने आई थी। दो साल बाद नन्हें कालूसिंह के हाथों मेंरी धारा ने नारियल खमाया था......। औऱ ये जो नौसीखीया छोकरा बार-बार गोता लगा रहा है। यह कालूसिंह का ही तो पोता है......। नदी किसी के आंगन में न जाती हो लेकिन घर-घर की खैर खबर तो उसे मिलती ही रहती है।
बूंदों के रुकने और बहने की कथा-यात्रा के बीच एक मुकाम नर्मदा किनारे निमाड़ क्षेत्र के गांवों में भी रहा। पश्चिमी मध्यप्रदेश के झाबुआ, धार बड़वानी जिलों से बहती नर्मदा के आस-पास बसे समाज की एक ही पहचान है- नर्मदा घाटी का समाज। यह पहचान आगे जाकर राष्ट्रीय सुर्खियों में सरदार सरोवर परियोजना के विस्थापन और पुनर्वास के परिचय में तब्दील होती रहती है। गुजरात के केवड़िया में बन रहे विशाल सरदार सरोवर बांध का पानी इन तीन जिलों के गांवों में भी भर रहा है। एक बहुत बड़ी आबादी यहां से विस्थापित होने जा रही है। इस विस्थापन के दौरान अनेक तरह के संकट नर्मदा घाटी के इन बांशिदों के झेलने पड़ रहे हैं। इस बांध निर्माण का मकसद गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान के क्षेत्रों में सिंचाई एवं पीने के पानी का प्रबंध तथा बिजली उत्पादन है। लेकिन इसकी कीमत में हमारे हजारों भाइयों को अपने घर, जंगल, नदियां, पहाड़ और रोजगार छोड़कर दूसरी जगह विस्थापित होना पड़ रहा है। इसे एक संयोग ही कहा जाएगा कि सूखा और अवर्षा से जूझते झाबुआ में पिछले पांच-छह साल के दरमियान वर्षा जल की एक-एक बूंद की मनुहार करने के बाद एकत्रित जल ने सामाजिक-आर्थिक विकास की नई इबारत लिखी है। लोगों में एक नई तरह की चेतना आई है। पानी आंदोलन ने एक ऊर्जा का काम किया है। अनेक गांवों में इन नन्हीं बूंदों ने रुककर मानो आदिवासी समाज पर एक उपकार किया है। यहाँ पलायन में कमी आई है। लेकिन इसी जिले तथा समीपवर्ती क्षेत्रों के गांवों के मुहाने पर ‘सरोवर’ आने से गांव के गांव ‘पलायन’ पर मजबूर हैं....! यह एक अलग प्रश्न है कि इस विसंगति के लिए समाज दोषी है या व्यस्था, लेकिन एक अहम् मुद्दा तो हमारे समाज से पूछने लायक है कि यदि हम लोग ‘गांव का पानी गांव’ और ‘खेत का पानी खेत में’ रखने और जंगलों को जान से भी ज्यादा स्नेह करने की हमारी सामाजिक परंपरा को नहीं छोड़ते या केवल सरकार के भरोसे रहकर अपने हाथ ऊपर नहीं करते तो क्या सरोवर में हमारा घर डुबोने की विवशता का सामना करने की स्थितियों में कमी आ सकती था?
.........इसका उत्तर हाँ में दिया जा सकता है।
.........लेकिन हम नहीं सम्हले! पानी की कमी और सरोवर के घर आ जाने के फासले के बीच समय कहाँ चला गया, पता ही नहीं चला। अब हमारे ही कुछ भाइयों को विस्थापन के दर्द झेलने पड़ रहे हैं। ये दर्द क्या है........? आइये, साथ-साथ चलते हैं, नर्मदा घाटी के गांवों में। जेहन में यह बात रखते हुए कि बूंदों को रोकना हमारे लिए कितना जरूरी है.......! सबक मानकर चलिए.......!
बड़वानी जिला मुख्यालय से बमुश्किल चार-पांच किलोमीटर दूर बसा है राजघाट। सदियों से नर्मदा के प्रवाह का दिन-रात का साक्षी बना है राजघाट! इस घाट ने कई तरह के विकास देखे हैं। अपनी गोद में बसे कुकरा गांव के बाशिदों का विस्थापन भी उसने देखा है। अब पुनर्वास के तमाम दर्दों को झेलने के बाद यह घाट कुकरा के विस्थापितों का रोना भी सुन रहा है। पुनर्वास की पीड़ा से मानों राजघाट एकाकार हो कह रहा हैं, क्या खाकर हो पाएगा, पुनर्वास। गांव में हमारी मुलाकात होती है, कनकसिंह पिता मोहनसिंह से। आक्रोश में वे कहते है- कुकरा के लोगों को गुजरात के मियागांव और कम्बोला में बसाया था। 1993 में गांव के 48 परिवार अपना सामान लेकर वहां चले गए थे। गुजरात में पुनर्वास की दयनीय स्थिति के चलते हम वापस अपने मूल गांव में आ गये हैं। अब जो भी होगा देखा जायेगा। वह कह रहा था – वहां टीन शेड में कैसे रहें। जो जमीन हमें दी गई है उसमे खेती करना मुश्किल है। बरसात के दिनों में तो घुटने-घुटने तक पानी भरा रहता है। कनकसिंह का साथी नटवरसिंह कह रहा था – बरसात में खेतों में तो ऐसा लगता है मानो हमारी नर्मदा मैया बह रही हों। गुजरात ने जो बैलजोड़ी दी थी, वह कुछ दिन बाद ही चल बसी...। गुजरा के पुनर्वास आयुक्त आश्वासन देते हैं, लेकिन समस्याएं हल नहीं हो रही हैं।
गुजरात में पुनर्वास को लेकर सरकारी चिंता का माहौल दिखावटी है- इस आशय के आरोप के साथ गांव के लोग कहते हैं – 1994 में शिकायतों के बाद म.प्र. के नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के सदस्य (पुनर्वास) श्री केसी. श्रीवास्तव ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राजघाट (कुकरा) के छगनसिंह-नटवरसिंह, जितेन्द्र-कनकसिंह, विक्रमसिंह-राधेश्याम और अन्य ने पुनर्वास की निराशाजनक तस्वीर पेश की है। टिप्पणी में लिखा है कि समुचित व्यवस्था नहीं होने से विस्थापित वापस अपने गांव लौट रहे हैं। टीन शेड रहने लायक नहीं है। उनमें पानी भर जाता है। कई में तो घास उग आती है।
धार जिले के कुक्षी तहसील के ग्राम दसाना के रहवासियों को भी इसी तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। यहां के लोगों को गुजरात के डबोई तहसील के नारियागांव में बसाया था। लेकिन वहां गए अधिकांश आदिवासी परिवार इसलिए परेशान हैं कि उनको दी गई जमीन बंजर है। बसाहटों में बरसात का पानी भरा रहता है। झाबुआ जिले के अलीराजपुर के गांवों में भी इस तरह की समस्याएँ आम हैं।
अब कुछ और तरह की तकलीफें – ऐसा कहा जाता है कि सरदार परियोजना की नहरों का संजाल इसकी प्रमुख विशेषताओं में से एक है। नहरों के कारण ही इसे विश्व की सबसे बड़ी परियोजना बताया जाता है। नहरों के संजाल की तरह ही पुनर्वास में विसंगतियों के संजाल को नर्मदा घाटी के बांशिंदे भुगत रहे हैं। नहरों का निर्माण, कॉलोनी का विस्तार, पुनर्वास स्थलों पर दी जाने वाली सुविधाएं, अभयारण्य और रास्तों के कारण दोहरे विस्थापन के दर्द को झेलने पर मजबूर हैं।
झाबुआ जिले के अलीराजपुर तहसील में ककराना के लोगों का पुनर्वास गुजरात के बड़ौदा जिले में कोठियापुर में किया गया है। यहां के फुगरिया टेटला, भुवानसिंह धनसिंह, धनसिंह, मोहनिया, सनारिया, धनसिंह, ढेढा हरि और टेटला राजीया को पुनर्वास में दी गई जमीन अब नहर में आ रही है। इनके यहां से एक बार और विस्थापन की तैयारी है। इसी तरह अलीराजपुर के ही डूब प्रभावित गांव सकरजा के पुनर्वासित स्थल बड़ौदा के हरेश्वर में बसाये गये अमरसिंह दलिया, उदयसिंह और बड़वानी के पेन्ड्रा के माधव झेहता जो बड़ौदा के सांपा में हैं, को भी अपने मुकाम से दूसरा विस्थापन झेलना पड़ रहा है। नर्मदा घाटी के सैकड़ों लोगों के बारे में कहा जा रहा है कि उन्हें कभी यहां तो कभी वहां की त्रासदी के दौर से गुजरना पड़ रहा है।
नर्मदा घाटी के सामाजिकता से छेड़छाड़ के भी रोचक किस्से सामने आए हैं। घाटी में इस बात को लेकर बेहद असंतोष सामने आया है कि एक ही गांव को दस-दस स्थानों पर बसाया जा रहा है। नर्मदा जल विवाद न्यायधिकरण ने सम्पूर्ण गांव, समाज को एक इकाई के रूप में बसाने के निर्देश दिये हैं। लेकिन सरेआम इनका उल्लंघन किया जा रहा है। मसलन, झाबुआ जिले की आलीराजपुर तहसील के ककराना गांव को गुजरात के शहडोल, बिचारा, खड़गोदरा और पाश्यापुरा में बसाया गया है। धार के दसाना को नारिया और अकोरादर में बसाया गया है। डही के पास धरमराय को 11 स्थानों पर बसाया गया है। खुद गुजरात ने अपने प्रदेश के ही बरगांव को 43 गांवों में और मुरवड़ी को 12 स्थानो पर बसाया है।
पुनर्वास पर गठित सिंहदेव समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गुजरात सरकार अनेक मामलों में न्यायाधिकरण की रिपोर्ट का उल्लंघन कर रही है। जमीन खेती योग्य नहीं होने के बावजूद वहां पुनर्वास किया जा रहा है। सामुदायिक सुविधाओं की कमी पुनर्वास स्थलों पर आसानी से देखी जा सकती है। अब तक विस्थापितों को दी गई अधिकांश जमीन बंजर, झाड़ीदार, विवादित और टुकड़े-टुकड़े वाली है। इसी तरह भूरिया समिति ने कहा कि गुजरात सरकार एक्शन प्लान के अनुसार सरदार सरोवर के विस्थापितों को जमीन उपलब्ध नहीं करा पा रही है। अब तक 222 परिवार भाग कर अपने मूल स्थानों पर लौट आये हैं।
नर्मदा घाटी भावनात्मक धरातल पर भी विस्थापन की पीड़ा को मन मसोस कर सहन कर रही है। घाटी के लोगों का कहना है- अनेक उन लोगों को विस्थापित नहीं माना जा रहा है जिनका जीवन बसर नदी किनारे होता है, लेकिन वे किसी राजस्व ग्राम में नही आते हैं। नर्मदा के सहारे जीने वाले केवट, कहार, मानकर, तरबूजवड़ी वाले औऱ बहुत हद तक मछुआरे भी डूब में आने पर अस्त-व्यस्त हो जाएंगे। इसके अलावा कुछ हिस्से तो केवल टापू बनकर ही रह जाएंगे. कुछ गांव खुद तो नहीं डूब रहे हैं, लेकिन इनके आसपास के गांव डूब रहे हैं। उनके गांव के किनारे तक पानी आ रहा है। तब एक बड़ी आबादी वहां से अलग हो जाएगी। मिसाल के तौर पर बड़वानी तो डूब में नहीं आ रहा है, लेकिन इसके आसपास के गांव डूब में आ रहे हैं। बड़वानी का इन क्षेत्रों में व्यापारिक सम्बंध भी है। लोग रहते बड़वानी में है लेकिन अपनी रोजी-रोटी इन्हीं डूब प्रभावित गांवों में जाकर कमाते हैं। सरोवर की दस्तक के बाद यो लोग कहां जाएंगे.......? और जहां भी जाएंगे तो वहां उन्हें रोजगार के क्षेत्र में एक बड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। ऐसे सैकड़ो लोग बड़े बांध से प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन ये विस्थापितों की श्रेणी में नहीं आ रहे हैं।
निमाड़ क्षेत्र में आदिवासी बैंक ऋण के अलावा निजी क्षेत्रों से भी ऋण लेकर अपने कृषि व अन्य सामाजिक कार्य निपटाते हैं। विस्थापन के बाद पुनर्बसाहट क्षेत्रों में इनको मदद देने वाला कहां से आएगा? इनके सामाजिक कार्यों में घर जैसी हिस्सेदारी कौन निभाएगा?
नर्मदा घाटी में अभी भी अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहां का आदिवासी समाज वक्त पड़ने पर स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों से अपना जीवन निर्वाह आसानी से कर लेता है। जंगल, जमीन और नदियाँ इन सब की पूर्ति कर देती हैं। खाना पकाने के लिए छोटी-छोटी टहनियां इनके लिए रसोई गैस का काम करती हैं। महुआ, चारोली, तेंदू पत्ता, गोंद, शहद, हिरड़ा और ऐसी ही अन्य वनोपज इनके लिए कमाई का साधन भी होते हैं। यह जंगल इनकों भूखों नहीं मरने देता है। गुजरात में विस्थापन के बाद हर जगह अपनी मन माफिक व्यवस्था कहां मिल पायेगी? और हां.....गारे और खपरैल के जो घर छोड़े जा रहे हैं उनकी हर लिपाई में वहां न जाने कितनी यादें कैद हैं। इस जज्बाती पहलू पर कोई पुनर्वास नीति कभी रोशनी डाल सकती है?
पुनर्वास औऱ विस्थापन के संदर्भ में सरदार सरोवर परियोजना के मॉडल कहे जाने वाले पुनर्वास स्थल बड़ौदा के गुटाल की मिसाल देना भी सामयिक होगा। यहां बड़वानी जिले के भवती गांव के रहवासियों को बसाया गया था। लेखक सन् 1991 में अपनी फेरकुआं, बड़ौदा, बांध निर्माण स्थल केवड़िया, गांधीनगर यात्राओं के दरमियान विस्थापितों की खैरियत जानने गुटाल भी पहुँचा था। तब संभवतः मध्यप्रदेश के पहले पत्रकार की कलम से यह चौंकाने वाले तथ्य उजागर हुए थे कि पुनर्वास में छत व जमीन के सिवाय भी अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिनके बारे में मौन साध रखा है। हमारी मुलाकात तब गुटाल के आंगन में खेल रहे भवती के दो बच्चों सुखराम और शोभाराम से होती है.....। जब ये भवती में थे तो तीसरी में पढ़ते थे। गुटाल आये तो पहली में भरती कर दिया गया। तीन साल का शैक्षणिक समय इन्हें लौटाने कौन आता.......? गुटाल में कुछ और दर्द भी समाने आये थे। टीन शेड और घर का फर्क-यहां विस्थापितों के चेहरे पर साफ नजर आया था। जमीन में खेती कैसे करें....खूंटे और उबड़-खाबड़ से भरी जो है....। इन अनेक तथ्यों के प्रकाश में आने के बावजूद मध्यप्रदेश सरकार ने पहल कर शैक्षणिक पुनर्वास को सही तरह से अंजाम देने और विस्थापितों की समस्याएं दूर करने की कोशिश की थी। वैसे तो विस्थापन और पुनर्वास की समस्याओं पर कई कमेटियां अपनी रिपोर्ट दे चुकी हैं। इस पर देश-विदेश की संस्थाओं ने अनेक अध्ययन भी किये हैं। उन सब का खुलासा यहां उचित नहीं होगा। हमने जो लिखा है, यह तो उस छोटी-सी पोटली का अंश भर है जो नर्मदा घाटी के समाज के साथ यात्राओं में हमें बतौर अनुभव मिला है।
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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