बूंदों की रियासत

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आस्था और विश्वास की प्रतीक माता टेकरी के चारों ओर घेरे में बसा शहर देवास। टेकरी पर एक ओर मां चामुण्डा का स्थान है तो दूसरी तरफ मां तुलजा विराजित है। इस शहर का इतिहास भी बड़ा रोचक है, एक शहर में दो रियासतें। हां.... जी हाँ! बिलकुल सोलह आने सच। और रियासतों का बंटवारा भी कैसा कि जो सुने दांतों तले अंगुली दबा ले। दोनों रियासतों के बीच न कंटीले तारों की बाड़ और ना कोई मोटी दीवार। बस एक सड़क दोनों रियासतों को अलग-अलग करती, जिसे शामलात रोड कहा जाता था। सड़क के एक ओर देवास सीनियर तो दूसरी ओर देवास जूनियर। बड़ी पांती और छोटी पांती दोनों रियासतों के बाशिंदों पर इधर से उधर आने-जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी। कुछ वस्तुएं इधर से उधर ले जाने पर जरूर लोगों को कर अदा करना पड़ता था। कर बचाने के लिए क्या-क्या करते थे, इसके भी बड़े रोचक किस्से हैं। एक बार एक पंडितजी सीनियर रियासत से अपने घर जूनियर रियासत जा रहे थे, शामलात रोड पर बनी चुंगी नाके पर नाकेदार ने पंडित जी को रोक लिया। महाराज केले सीनियर से जुनियर में ले जाने के लिए कर चुकाना पड़ेगा। पंडितजी चुंगी नाके की सीढ़ी पर जम गए और उन्होंने 12 केले उदरस्थ कर लिए। लीजिये साहब अब काहे का कर! नाकेदार मुंह ताकता रह गया और पंडितजी हाथ झुलाते एक रियासत से दूसरी रियासत में पहुंच गए।

इतिहास में अजूबे कहे जाने वाले इस शहर को शिवाजी महाराज के अग्रिम सेनापती के रूप में आए साबूसिंह पंवार ने 17 वीं शताब्दी में बसाया था। इसके पूर्व के इतिहास में भी देवास का उल्लेख है, चंद बरदाई द्वारा लिखी गई ‘पृथ्वीराज रासो’ में भी यहां का उल्लेख है। उज्जैन से वापस दिल्ली लौटते समय पृथ्वीराज ने अपनी सेना के साथ देवास में पड़ाव डाला था। मुगल बादशाह अकबर के समय में देवास, नागदा नगर के समीप बसा एक छोटा-सा गांव था। पुराने अभिलेखों से भी इस बात की पुष्टि होती है, जिसमें नगर नागदा कस्बा देवास लिखा हुआ है। मालवा में मराठों के आने के बाद लगभग 1739 के बाद ही देवास इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान पा सका है। 18वीं सदी के आठवें दशक के बाद देवास दो रियासतों में विभक्त किया गया।

देवास रियासत के इस इतिहास के साथ ही जुड़ा है यहां की बसाहट का इतिहास भी। इसी नई बसाहट के लिए उस समय जल आपूर्ति के लिए तालाब, कुएं, बावड़ियों के निर्माण की व्यवस्थाएं भी सुनिश्चित की गई थीं। रियासतों के बंटवारे के बाद दो प्रमुख कुओं से दोनो रियासतों में जल आपूर्ति की व्यवस्था की गई थी। सिंचाई के लिए भी जल स्रोत विकसित किए गए थे। 18 वीं सदी के अंत तक देवास सीनियर बड़ी पांती में 30 तालाब, 636 कुएं और बावड़ी और 60 ओढ़ियां थीं। जिनमें 3300 एकड़ जमीन सिंचित की जाती थी, देवास जूनियर में 49 तालाब, 236 कुएं और 22 बावड़ी एवं 156 ओढ़ी द्वारा 850 एकड़ जमीन को सिंचित किया जाता था इन जल स्रोतों को विकसित करने के लिए रियासत द्वारा ऋण भी उपलब्ध कराया जाता था। महारानी यमुनाबाई साहेब द्वारा यमुना बाई इरिगेशन ट्रस्ट बनाया गया था। इस ट्रस्ट द्वारा सिंचाई के लिए नए कुएं खुदवाने के लिए 5 वर्ष के लिए उसे 9 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराया जाता था। इन जलस्रोतों को अनेक शिल्प के आधार पर अलग-अलग नाम से पुकारा जाता था। बड़ा कुआं जिसमें एक ओर से उतरने के लिए सीढ़ियां बनी होती थीं, उसे बावड़ी कहा जाता था। जिसमें नीचे उतरने के लिए चारों तरफ सीढ़ियां बनी होती थीं, उसे चोपड़ा कहा जाता था। नदी, नालों के किनारे पर उथले कुएं खोदे जाते थे, जिनमें नदी-नाले से पानी रिस-रिसकर आता रहता था और नदी-नाले के सूखने के बाद तक इन कुओं में पानी भरा रहता था, ऐसे कुओं को ओढ़ी कहा जाता था।

बरसात का पानी रोकने के लिए राजा-महाराजाओं ने तालाब भी बनवाए थे। बस्ती से दूर सागर महल के सामने मीठा तालाब आज भी मौजूद है। एबी रोड पर चामुण्डा कॉम्पलेक्स के पास मेंढकी तालाब के जीर्णोद्धार की साक्षी पीढ़ी तो आज भी तालाब के किनारे खड़ी होकर अपनी पुरानी यादों को ताजा करती है। सन् 1942 में महाराजा सदाशिव राव पंवार ने जन-सहयोग से प्राकृतिक रूप से बने इस तालाब का जीर्णोद्धार करवाकर इसे एक नया आकार दिया था, स्वयं महाराज ने भी तालाब से मिट्टी निकालने के लिए श्रमदान किया था। जीर्णोद्धार के बाद इस तालाब का नाम रखा गया था ‘मुक्ता सरोवर’

लेकिन तीन-चार दशक में ही हालात पूरी तरह बदल गए हैं। अब तो चैत्र लगते-लगते जिले भर में एक से मंजर सामने आने लगते। सूखे तालाबों, पोखरों में जल बूंदों को ढूंढ़ते आर्द्र स्वर में रंभाते गाय-डोर, दूर से बैलगाड़ियों में पानी की हांकिया ढोते हिच्च-हिच्च की आवाजें कर बैलों को हांकते किसान.... घड़े दो घड़े पानी के लिए सूखे हैंडपंप को पटकती महिलाएं, बच्चे। शायद कोई आश्चर्य हो और हैंडपंप से पानी निकल पड़े। शहरी क्षेत्र में अलसुबह नल के सामने बाल्टी लगाए जल बूंदों के टपकने के इंतजार में बैठे लोग। चारों तरफ से एक-सी आवाजें उठने लगती हैं, पानी...पानी..... चढ़ते तापक्रम के साथ-साथ ये आवाजें क्रंदन और फिर हाहाकार में बदल जाती हैं। वैशाख और जेठ में यह हाहाकार अपने चरम पर होता है। आषाढ़ में बादल थोड़ा सुकून देते हैं और सावन की फुहारों में जीवन फिर चहचहाने लगता है, लेकिन चहचहाट में भी छुपा होता है अगली गरमी में फिर से आ धमकने वाले जल संकट का भय, लगातार पिछले दो दशकों से जल संकट से जूझ रहे जिले के लोगों के लिए यह समस्या जैसे नियमित बन गई हो और लोगों ने इस नियति को स्वीकार कर लिया है।

देवासवासियों को इस समस्या से निजात दिलाने के लिए कई उपायों पर गहन विचार-विमर्श किया गया। कभी बड़ी योजनाएं बनाई गईं तो कभी छोटी योजनाओं को समस्या से तात्कालिक उपाय के लिए अमली जामा भी पहनाया गया। पर समस्या की स्थायी हल का मुद्दा ज्यों का त्यों बना रहा।

जिला मुख्यालय देवास को औद्योगिक शहर के रूप में विकसित किया गया, रेल, एवं सड़क मार्ग द्वारा देशभर से सीधे जुडे़ होने के कारण उद्योगों की स्थापना के लिए यहां आदर्श परिस्थितियां थीं, फिर भी उद्योग स्थापना के साथ दम तोड़ने लगे, यह सब कुछ था, पर नहीं था तो पर्याप्त पानी। पानी के अभाव ने विकास के पहिए की गति को अवरुद्ध-सा कर दिया। विकास का पहिया रुक-रुक कर आगे सरक रहा है। पच्चीस वर्षों से एक औद्योगिक शहर को अपेक्षित गति से आगे बढ़ते हुए जिस मुकाम पर होना चाहिए था, वहां से हम बहुत पीछे हैं।

इन नकारात्मक परिस्थितियों में आशा की एक किरण नजर आई। गहन अंधेरे में दूर कहीं एक दीप टिमटिमाता दिखाई दिया। लाखों गैलन व्यर्थ बहने वाले वर्षा जल को ज्यादा से ज्यादा संग्रहित किया जाए तो यह संग्रहित वर्षा जल जमीन में रिसकर जल स्तर में वृद्धि करेगा। यही एकमात्र विकल्प हो सकता है-जल संकट से निपटने का। एक तरह से यह प्रायश्चित भी होगा कि हमने जितना जल धरती की कोख को भेदकर उलीचा है, उतना ही आकाश जल धरती के गर्भ में पहुंचा दें। धरती को निर्जला होने से बचा लें। फिर ये सब कुछ नया भी तो नहीं। हमारी पुरातन व्यवस्था है। हमारे यहां यह व्यवस्था इसलिए व्यवहार में नहीं है, क्योंकि हमने पहले कभी जल संकट की त्रासदी भोगी ही नहीं थी। बादल मालवा पर खूब मेहरबान होकर बरसते, नदी-नाले, कुएं-बावड़ी, तालाब-पोखर लबालब भरे रहते लेकिन राजस्थान के जैसलमेर, गंगानगर, चुरू, बीकानेर आदि जिन हिस्सों में तो रेगिस्तान पसरा हुआ है, रेत के टीले, चिलचिलती धूप और बंजर जमीन, कम बरसात औऱ पानी का अकाल, जहां की पहचान है, उन क्षेत्रों में वर्षा जल को संचित कर वर्ष भर उससे गुजारा करना वहां सामाजिक व्यवस्था का एक हिस्सा है। आज मानवीय प्रयासों से वहां रेगिस्तान हारा है और रेत में बनी कुंडियों, टांकों और तालाबों में संग्रहित वर्षाजल से जीवन आज भी आबाद है।

तो यह विचार साकरात्मक परिणाम देने वाला और व्यावहारिक था, लेकिन कठिनाई थी क्रियान्वयन में। पर दृढ़ इच्छा शक्ति ने इस मुश्किल को भी आसान कर दिखाया। कई सिर एक साथ चिंतन में जुट गए, खेतों में बहने वाले वर्षाजल को कैसे रोका जाएगा....गांव में बहने वाले वर्षा जल को रोकने के लिए कौन सी संरचनाएं उपयुक्त होंगी....शहरी क्षेत्र में मकानों की छतों से बहने वाले वर्षा जल को धरती में कैसे उतारा जाए....नालों को कहां बांधा जाए कि ज्यादा से ज्यादा पानी इकट्ठा हो.....ढेरों सवाल सामने आते और उनके जवाब भी चटपट खोज लिए जाते। विभिन्न संरचनाओं के तकनीकी पक्ष पर घंटों बहस-मुबाहिस के दौर चलते और फिर एक-एक विचार को तकनीक की कसौटी पर गहराई से जांचा परखा जाता और उसकी खामियों को दुरुस्त कर उसे अंतिम रूप दे दिया जाता।

जिले में यह काम प्रदेश में जिला सरकार की अवधारणा को साकार होने के साथ ही शुरू हो गया था. प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह जी ने जिला सरकार की प्राथमिकताओं में जल संवर्द्ध का मुद्दा सबसे उपर रखा था। इसी से प्रेरित होकर जिला शासन ने अपने सहयोगियों के साथ जल संवर्द्धन के लिए कार्ययोजना तैयार कराई थी। योजना तो तैयार हो गई, लेकिन अब सवाल यह था कि यह सब कैसे होगा....? कौन करेगा...? सिर्फ प्रशासकीय स्तर पर काम करने से बात बनने वाली नहीं है, फिर ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर इसे जन आंदोलन कैसे बनाया जाए?

इसके लिए भू-जल स्तर में वृद्धि के समन्वित प्रयासों को एक नया नाम दिया गया ‘भू-जल संवर्द्धन मिशन’। इस तरह देवास में प्रदेश के पहले भू-जल संवर्द्धन मिशन का ताना-बाना बुना गया और 15 मई 99 से इस मिशन की शुरुआत की कई। इस मिशन के तहत जिले भर में ढेरों काम हुए है। जिले के सुदूर ग्रामीण अंचलों में स्थित सैकड़ो तालाबों का गहरीकरण करवाकर उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाई गई है। ग्रामीण अंचलों में स्थित हैंडपंप से निस्तारी कार्यों के दौरान वर्ष भर व्यर्थ बहने वाले पानी को रोककर जमीन में उतारने के लिए हजारों परकोलेशन पिट का निर्माण करवाया गया। वर्षा जल संग्रहण के लिए दर्जनों कुएं- बावड़ियों की साफ-सफाई करवाई गई। कई मृत प्राय कुओं में रिचार्ज नलकूप खुदवाकर वर्षा जल को धरती की कोख तक पहुंचाने जैसे काम सिर्फ योजनाओं में ही नहीं हैं, बल्कि वे क्रियान्वयन के स्तर पर संपूर्ण आकार ले चुके हैं।

शहरी क्षेत्र में मकानों की छतों पर इकट्ठा होने वाले वर्षा जल को एक अलग तकनीक के जरिए सीधे धरती के अंदर पहुंचाकर जिले ने भू-जल संवर्द्धन के क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। इस अभिनव प्रयोग की सफलता का साक्षी समूचा शहर है। आने वाले कल में यह शहर खुद बयां करेगा कि कृत्रिम रूप से आकाश जल को रोककर धरती को गोद से कोख तक सींचने की इस कोशिश को। कोशिश भी निरंतर है और आने वाले कल में भी निरंतर रही तो निःसंदेह कुछ वर्षों में यह जिला जलसंकट की प्रेत छाया से मुक्त होगा और धरती की धमनियों में नीला जल फिर से बहने लगेगा।

शहरी क्षेत्र में छतों से व्यर्थ बहने वाले वर्षा जल को नलकूपों के जरिए सीधे जमीन में उतारकर भूजल स्तर में वृद्धि की जाएगी। इस निर्णय के मूल में यह था कि ढलान वाली भौगोलिक संरचना वाली इस बसाहट में करोड़ों लीटर व्यर्थ बहने वाले वर्षा जल को किसी अन्य संरचना के माध्यम से रोका जाना काफी खर्चीला साबित हो रहा था और क्रियान्वयन के स्तर पर उसमें काफी दिक्कतें भी थीं।

शुरू-शुरू में यह बात लोगों के गले नहीं उतरी- ‘नहीं यह संभव नहीं’, ‘ऐसा कैसे होगा?’, ‘बात कुछ जंची नहीं’..... छत का पानी सीधे चालू नलकूप में....... बहुत दिक्कतें होगी। छत की गंदगी पानी के साथ नलकूप में पहुंचेगी.......ना भाई ना! हम तो नहीं करेंगे। इस नई तकनीक को लेकर अनेक शंकाओं-कुशंकाओं के चलते हल्का सा विरोध भी उठ खड़ा हुआ। प्रशासनिक स्तर से इन शंकाओं का समाधान करने के लिए शहर की सामाजिक संस्थाओं की एक बैठक बुलाई गई। साथ ही देवास विकास प्रधिकरण द्वारा सबसे पहले चामुण्डा कॉम्पलेक्स में प्रयोग के तौर पर छत का पानी सीधे नलकूप के जरिए जमीन के अंदर पहुंचाने के लिए संरचनाओं का निर्माण भी करवाया गया।

प्राधिकरण भवन में स्थित नलकूप के समीप एक फिल्टर पिट का निर्माण किया गया है। इस फिल्टर पिट के निचले हिस्से से एक पाईप नलकूप के केसिंग से जोड़ दिया गया है। फिल्टर पिट बनाते समय इसकी सतह को नलकूप की ओर थोड़ा-सा ढालू रखा गया है ताकि पानी इस पिट में इकट्ठा नहीं हो सके। पश्चात फिल्टर पिट के ऊपरी सिरे पर छत से आने वाले जल निकासी पाइप को जोड़ा गया है। इस जल निकासी में एक ड्रेन वॉल्व भी लगा है, जिसे खोलकर पहली दो बारीश का पानी बाहर खुले में छोड़ दिया जाएगा, ताकि छत पहली दो बारिश में साफ धुल जाए और छत की गंदगी, धूल, नलकूप में पहुँचकर नलकूप के पानी को प्रदूषित नहीं कर सके। इसके बावजूद भी यदि पेड़ की पत्तियां, कागज के टुकड़े जैसी गंदगी पानी के साथ आ भी जाती है तो उसे रोकने के लिए फिल्टर पिट में विभिन्न आकारों के गोल पत्थर भी भरे गए हैं। पानी के साथ आने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को भी खत्म करने के लिए इस फिल्टर पिट में सोडियम हाइपोक्लोराइड की एक छोटी पोटली कपड़े में बांधकर पिट को फर्शी से ढंक दिया गया है। छत से आने वाला पानी सुगमता से नलकूप में जा सके, इसके लिए नलकूप में एक इंच का एक पाइप भी लगाया गया है, जो कि एयर वेन्ट का काम करता है।

रूफ वाटर हार्वेस्टिंग की इस तकनीक को इस तरह क्रियान्वित होते देख लोगों ने न सिर्फ इस तकनीक को स्वीकार किया, बल्कि अपने-अपने घरों में आकार देने का संकल्प भी लिया।

एक विचार की यात्रा शुरू हो चुकी थी। लोगों ने तकनीक के मूल तथ्यों को जेहन में रखकर संरचना निर्माण की सामग्री अपने स्तर पर अपनी-अपनी सामर्थ्य के हिसाब से जुटाई। किसी ने घर में बने पानी के हैद को ही फिल्टर पिट बना लिया....किसी ने भवन निर्माण में प्रयुक्त होने वाली लोहे की टंकी का उपयोग किया तो किसी ने 2000 लीटर का ड्रम लेकर उसमें बोल्डर भर दिए...किसी ने बाजार में मिलने वाली आरसीसी की टंकी खरीदकर उसे ही फिल्टर पिट बना लिया। अलग-अलग जगह लोगों ने संरचना निर्माण के लिए अलग-अलग सामग्री का उपयोग किया। किसी को संरचना लागत महज 300 रुपए पड़ी तो किसी को 3 हजार। पर मकसद सबका एक था-छत पर गिरने वाली एक-एक वर्षा बूंद को समेटकर भू-जल स्तर की वृद्धि करना

विभिन्न उद्योगों में जहां छतें ढालू थीं, वहां एक सिरे से दूसरे सिरे तक लोहे की चद्दर की ‘यू’ आकार की नाली बनाकर इसे जल निकासी पाइप से जोड़ दिया गया।

रूफ वाटर हारवेस्टिंग की इस तकनीक में फिल्टर पिट बनाया जाना काफी खर्चीला साबित हो रहा था तो उसके विकल्प के रूप में ड्रम या सीमेंट की टंकिया रखने में अलग तरह की परेशानियां सामने आ रही थीं. लोहे की टंकी में पानी के जमा होने से जंग लगने के कारण भूजल प्रदूषित होने का खतरा था। इन सब बातों पर गौर करते हुए कलेक्टर एम मोहनराव, भू-जल विद् सुनील चतुर्वेदी एवं लोक निर्माण विभाग के सहायक यंत्री अखिलेश अग्रवाल ने रूफ वाटर हारवेस्टिंग फिल्टर सहित एक परिष्कृत एवं सस्ती तकनीक विकसीत की। इसे रूफ वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक नाम दिया गया। देवास जिले में वर्ष 99-2000 में करीब एक हजार से ज्यादा घरों में इस तकनीक को लगाकर छत पर गिरने वाले करोड़ों लीटर वर्षा जल को सीधे नलकूप में पहुंचाने का कार्य किया जा चुका है।

इस तकनीक में छत से आने वाले जल निकासी पाइप को देवास रूफ वाटर हार्वेस्टिंग फिल्टर से जोड़ दिया जाता है। फिल्टर के दूसरे सिरे को एक अन्य पाइप के माध्यम से चालू नलकूप से जोड़ा जाता है। फिल्टर के साथ लगी ‘टी’ से जैविक प्रदूषण को रोकने के लिए समय-समय पर सोडियम हाइपोक्लोराइड का घोल नलकूप में डाला जाता है। छत से आने वाले निकासी पाइप के निचले सिरे पर एक ढक्कन लगा दिया जाता है। यह ढक्कन ड्रेन वॉल्व का काम करता है। पहली दो बारिश का पानी जल निकासी पाइप के नीचे इस ढक्कन को खोलकर खुले में बहा दिया जाता है, ताकि छत साफ हो जाए और छत की गंदगी नलकूप में पहुचकर भूजल को प्रदूषित नहीं कर सके।

देवास विकास प्राधिकरण ने अपनी कालोनियों में भू-जल संवर्द्धन की अनेक तकनीकों का प्रयोग किया है। चालू एवं सूखे नलकूपों को रिचार्ज करने के लिए परकोलेशन पिट का निर्माण किया गया है। इस तकनीक में नलकूप के चारों ओर 3 मीटर व्यास का एक गड्ढा गहराई में काली मिट्टी पर करते हुए मुर्रम में 2 फुट तक खोदा गया है। इस खुले हिस्से वाले केसिंग में 100 से ज्यादा छेद कर उस पर कस कर नारियल की रस्सी लपेटी गई है। बाद में इस गड्ढे के दो-तिहाई हिस्से में बोल्डर तथा एक-तिहाई हिस्से में रेत भर दी गई है। बारिश का व्यर्थ बहने वाला पानी इस परकोलेशन पिट में संग्रहित होकर बूंद-बूंद रिसते हुए नलकूप के जरिए सीधे 300-350 फुट की गहराई में पहुंचकर भू-जल स्तर में वृद्धि करेगा।

प्राधिकरण द्वारा मुखर्जीनगर के कुओं में ‘डग कम रिचार्ज वेल’ तकनीक भी अपनाई गई है। इस तकनीक के तहत तीन कुओं को साफ करवाकर उसकी तली में 250 फुट गहरे नलकूप खुदवाए गए हैं। कुएं की तली से करीब 10-12 फुट ऊपर निकले केसिंग को छिद्रित करवाकर उस पर नारियल की रस्सी लपेटी गई है। पानी इस रिचार्ज वेल में जा सके, इसके लिए एक एयर वेंट भी लगाया गया है। इस संरचना का उद्देश्य यह है कि बारिश में कुओं के भरने के साथ ही पानी इस रिचार्ज वेल के जरिए सीधे 200-250 फुट की गहराई में पहुंचकर भू-जल स्तर में वृद्धि कर सकेगा। न्यायालय भवन की लगभग 23 हजार वर्गफुट छत पर गिरने वाले वर्षा जल को संग्रहित करने के लिए रूफ वाटर हार्वेस्टिंग की तकनीक को अपनाने के साथ ही नलकूप के समीप एक बड़ा डग आउट पाइंट भी बनाया गया है। इस वृहद छत से आने वाला पानी नलकूप के माध्यम से भू-जल स्तर कर तो पहुंचेगा ही, लेकिन अतिरिक्त पानी इस डग आउट पॉइंट में सग्रहित होकर ऊपरी जल सतह को भी संतृप्त करेगा। इसके अतिरिक्त न्यायालय प्रांगण में स्थित सम्पवेल में भी वर्षा जल एकत्रित किया जाकर इससे जल आपूर्ति की जा रही है। इससे वर्षा के दौरान भूमिजल का दोहन नहीं करना पड़ रहा है। एक तरह भू-जल की बचत भी अपने आप में एक रिचार्ज तकनीक है।

विचार मंथन से उपजी इस अवधारणा के क्रियान्वयन में देवास अग्रणी है। कल तक जो नलकूप, कुएं मात्र भू- जल दोहन के काम आते थे, वे आज वर्षा जल को जमीन के अंदर पहुंचाने के लिए जल वाहिनियों के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं।

ऐतिहासिक संदर्भ में दो रियासतों वाले इस शहर के गर्भ में फैली ये सैकड़ों जल वाहिनियां अपने आप में अलग-अलग रियासत हैं। इन रियासतों में भी कोई टकराव नहीं है। ना ही रियासतो के बीच कोई कांटो की बागड़ है। इन सभी रियासतों का एक ही मकसद है आकाश से गिरने वाली प्रत्येक बूंद को अपने में समेटना और धरती के गर्भ में संचित जल कोष में वृद्धि करना....।

 

 

बूँदों की मनुहार

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आदाब, गौतम

2

बूँदों का सरताज : भानपुरा

3

फुलजी बा की दूसरी लड़ाई

4

डेढ़ हजार में जिंदा नदी

5

बालोदा लक्खा का जिन्दा समाज

6

दसवीं पास ‘इंजीनियर’

7

हजारों आत्माओं का पुनर्जन्म

8

नेगड़िया की संत बूँदें

9

बूँद-बूँद में नर्मदे हर

10

आधी करोड़पति बूँदें

11

पानी के मन्दिर

12

घर-घर के आगे डॉक्टर

13

बूँदों की अड़जी-पड़जी

14

धन्यवाद, मवड़ी नाला

15

वह यादगार रसीद

16

पुनोबा : एक विश्वविद्यालय

17

बूँदों की रियासत

18

खुश हो गये खेत

18

लक्ष्य पूर्ति की हांडी के चावल

20

बूँदें, नर्मदा घाटी और विस्थापन

21

बूँदों का रुकना, गुल्लक का भरना

22

लिफ्ट से पहले

23

रुक जाओ, रेगिस्तान

24

जीवन दायिनी

25

सुरंगी रुत आई म्हारा देस

26

बूँदों की पूजा

 

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