पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक प्रयास
पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक प्रयास

पर्यावरण संरक्षण के वैश्विक प्रयास (Global efforts to protect the environment in Hindi)

ग्लोबल वार्मिंग यानी गर्माती धरती की समस्या से निपटने के लिए पहला अन्तर्राष्ट्रीय करार क्योटो प्रोटोकॉल है जो 1997 में किए गए यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का संशोधित रूप है। जापान के क्योटो शहर में "क्योटो प्रोटोकाल" नामक मसौदा पर्यावरण विध्वंस को रोकने की विश्व इच्छा का प्रतीक बनकर सामने आया था। विश्व के अधिकतर देशों ने जलवायु परिवर्तन की समस्या पर चिंता व्यक्त की ।
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पृथ्वी के पर्यावरण का संकट आज सभी के लिए गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। वर्तमान में पर्यावरण संबंधी विसंगतियों को दर्शाते अध्ययनों और रिपोर्टों की कमीं नही हैं। हर दिन प्रदूषण से जुड़े तमाम भयावह आंकड़े हमारे सामने आते हैं, जो पृथ्वी की बदलती आबोहवा के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते प्रदूषण और वैश्विक तापन को लेकर समय-समय पर चिंता व्यक्त की जाती रही है और आम जनता का ध्यान इस दिशा में आकर्षित करने के लिए सम्मेलनों, संधियों और नीतियों को माध्यम बनाया जाता है। इसी विषय के तहत जून 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरो शहर में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन' का आयोजन किया गया था। इस शिखर सम्मेलन में 150 से अधिक देशों के शासनाध्यक्षों या उनके प्रतिनिधियों ने भाग लेकर पृथ्वी के पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने का वादा किया था। इस सम्मलेन में विश्व के अनेक राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्षों, राजनेताओं, जलवायु विज्ञानियों व पर्यावरणविदों आदि ने भाग लेकर पर्यावरण के प्रति जागरूकता के प्रसार के प्रति संकल्प को दोहराया था। इस सम्मेलन में मुख्यतया धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श किया गया।

सन् 1992 में रियो डि जेनेरियो में एजेण्डा - 21 नामक निर्धारित कार्यक्रम निम्नांकित चार भागों में थाः -
(1) जैव विविधता का सर्वेक्षण ।
(2) पूंजी स्थानान्तरण को उदार बनाने पर ध्यान देना ।
(3) सभी के लिए खाद्यान्न, स्वच्छ पेयजल व सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करना ।
(4) विकासशील देशों से संबंधित समस्याएं, गरीबी निवारण और जनसंख्या नियंत्रण के लिए आवश्यक कदम उठाना।

ग्लोबल वार्मिंग यानी गर्माती धरती की समस्या से निपटने के लिए पहला अन्तर्राष्ट्रीय करार क्योटो प्रोटोकॉल है जो 1997 में किए गए यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) का संशोधित रूप है। जापान के क्योटो शहर में "क्योटो प्रोटोकाल" नामक मसौदा पर्यावरण विध्वंस को रोकने की विश्व इच्छा का प्रतीक बनकर सामने आया था। विश्व के अधिकतर देशों ने जलवायु परिवर्तन की समस्या पर चिंता व्यक्त की । सन् 1997 में जापान के क्योटो शहर में आयोजित एक सम्मेलन में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक समझौता तैयार किया गया था।

क्योटो संधि के तहत ग्रीन हाउस गैंसों की पहचान तथा भूमंडलीय तापन को कम करने संबंधी उपायों पर विचार व्यक्त किए गए थे । विश्व के अधिकतर देशों ने इस अन्तर्राष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए और फिर फरवरी 2005 में यह लागू भी हो गया । अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे कुछ देशों ने क्योटो संधि को स्वीकार नहीं किया है, जबकि अकेले अमेरिका ग्रीन हाउस समूह की गैसों के लगभग एक चौथाई हिस्से के रिसाव के लिए जिम्मेदार है ।

अमेरिका क्योटो संधि का विरोध इसलिए कर रहा है क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों में उत्सर्जन करने पर उसकी अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से प्रभावित होगी। हालांकि चीन और भारत ने इस संधि पर अपने हस्ताक्षर जरूर किए हैं, लेकिन विकासशील देश होने के नाते उन्हें इस संधि की शर्तों के अनुसार छूट मिली हुई है। भारत समेत अनेक विकासशील देशों का कहना है कि अभी तो उनकी अर्थव्यवस्था ने विकास की सीढ़ी पर कुछ कदम ही बढ़ाए हैं ऐसे में वे ग्रीनहाउस गैसों में कटौती का वचन कैसे दे सकते हैं। वैसे भी इन देशों की उत्सर्जन मात्रा विकसित देशों की तुलना में कई गुना कम है। ऐसे में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती से उनकी समृद्धि का प्रयत्न पूरा नहीं हो पाएगा। एक अच्छी बात यह है कि ये देश यह वचन देने को तैयार हैं कि उनका उत्सर्जन विकसित देशों की कम ही होगा। 

मार्च, 2009 में जर्मनी के बोन शहर में संयुक्त राष्ट्र संघ के मौसम संबंधी वार्ताकारों ने क्योटो प्रोटोकॉल संधि को विस्तार देने हेतु इसमें लगभग एक दर्जन से अधिक नए रसायनों का नाम शामिल करने का प्रस्ताव तैयार किया। इस रसायनों की सूची में नए किस्म के परफ्लोरोकार्बन और हाइड्रोफ्लारोकार्बन, ट्राइफ्लोरा मेथाइल, सल्फर पेंटाफ्लयूराइड, ट्राइओरिनेटेड ईथर, परफ्लोरो-पॉलिईथर, और हाइड्रोकार्बन शामिल हैं। दूसरे यौगिकों में डाइमेथिलईथर,  मेथिलीन क्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफॉर्म, मिथाइल क्लोराइड, डाइक्लोरोमीथेन, ब्रोमो एफ्रो मीथेन और ट्राई क्लोरो आयोडो मीथेन हैं।

क्योटो प्रोटोकाल का मुख्य उद्देशय ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना था । इस प्रोटोकाल के तहत देशों को दो वर्गों में विकसित और विकासशील देशों में बांटा गया था । विकसित देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी - लाने की अपनी प्रतिबद्धता स्वीकार की थी, जबकि विकासशील देशों की ऐसी कोई वचनबद्धता नहीं थी ।
क्योटो संधि के अनुसार इसे स्वीकार करने वाले सभी देश जो वायुमंडल में ग्रीन हाउस समूह की 55 प्रतिशत गैसों के रिसाव के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें वर्ष 2008 से 2012 के बीच ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में पांच प्रतिशत की कमी लानी होगी। संधि पर हस्ताक्षर करने वाला हर देश अपने निजी लक्ष्य हासिल करने पर भी राजी हुआ है। यूरोपीय संघ के देश मौजूद मात्रा में आठ प्रतिशत और जापान पांच प्रतिशत कमी लाने पर राजी हुआ है। सन् 2012 में समाप्त हो रहे क्योटो समझौते के स्थान पर अब ऐसे समझौते को तैयार करने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास चल रहे हैं जो सभी देशों को मान्य हो । हालांकि अंतर्राष्ट्रीय समझौते के साथ ही जनमानस में भी जलवायु परिवर्तन के विषय पर चेतना जाग्रत कर धरती को हम विभिन्न खतरों से बचा सकने में सफल रहेंगे।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने जलवायु परिवर्तन पर फ्रेमवर्क तैयार करने के लिए विश्व के सभी देशों का सहयोग चाहा है। इसी के तहत दिसंबर 2007 में इंडोनेशिया के बाली शहर में धरती को जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचाने के लिए दुनिया भर के देशों के नेता और विशेषज्ञ जुटे थे । बाली शिखर सम्मेलन में 187 देश एक साझा प्रस्ताव पर सहमत हुए थे। इसे 'बाली रोडमैप' कहा गया था। इसमें यह निर्णय लिया गया कि सन् 2009 तक एक नया अन्तर्राष्ट्रीय समझौता किया जाएगा। यह नया समझौता 2012 के बाद क्योटो संधि का स्थान लेगा ।

'बाली रोडैमेप' से यह बात साफ हो गई है कि अब औद्योगिक देश विकासशील देशों पर सारा बोझ डालकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से अपने को अलग नहीं कर सकते हैं। बाली सम्मेलन में विकासशील देशों ने जिसमें जी - 77 समूह के देश शामिल हैं, ने एक समूह बनाकर अपनी बात दमदारी से रखी। भारत व चीन ने कहा कि कार्बनउत्सर्जन की सोच इतनी सख्त नहीं होनी चाहिए कि वह उनके विकास को ही रोक दे। इसके अलावा विकसित देशों का कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली तकनीक विकासशील देशों को देनी चाहिए ।

हाल के कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन एवं पृथ्वी के बढ़ते तापमान के साथ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती पर कई सम्मेलन हो चुके हैं। अप्रैल, 2008 में आयोजित बैंकॉक सम्मेलन इस निष्कर्ष के साथ संपन्न हुआ कि वर्ष 2009 में कोपेनहेगेन में एक नयी संधि अस्तित्व में लाई जाएगी जो क्योटो प्रोटोकॉल का स्थान लेगी । बैंकॉक सम्मेलन में सन् 2015 तक कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बढ़ने से रोकने और सन् 2050 तक इसके उत्सर्जन में काफी कटौती करने के लिए एक योजना बनाने पर सहमति व्यक्त की गईं। इस सम्मेलन के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने संबंधी दीर्घकालीन योजनाओं पर विचार व्यक्त करने के साथ 28 बड़े औद्योगिक देशों के साथ भारत, चीन व ब्राजील जैसे अन्य विकासशील देशों द्वारा भी उत्सर्जन में कटौती की संभावना पर विचार व्यक्त किया गया। इस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इस बात पर भी ध्यान दिया गया कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन से भविष्य में होने वाली हानियों को रोका जाए।

क्योटो संधि की अवधि 2012 में समाप्त होने वाली है। इस संधि के स्थान पर किसी नए समझौते के लिए 7 से 18 दिसम्बर 2009 को डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन में कॉप - 15 नामक सम्मेलन संपन्न हुआ । जलवायु परविर्तन से संबंधित कोपेनहेगन समझौते पर 18 दिसंबर, 2009 को कोपेनहेगन में हस्ताक्षर किए गए थे। सम्मेलन के अंतिम दिनों में 193 देशों के प्रतिनिधिमंडलों और अनेक गैर सरकारी संगठनों ने भाग लेकर, इसे हाल के समय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्यावरण सम्मेलन बना दिया। कोपेनहेगन के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में 18 दिसंबर, 2009 को अमरीका और बेसिक देशों (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन) की पहल पर गैर - बाध्यकारी राजनीतिक समझौता हुआ। इसमें कार्बन उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कटौती को आवश्यक बताया गया जिससे तापमान में वृद्धि को अधिकतम 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित किया जा सके। इसमें विकसित देशों के लिए कटौती लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं तथा बड़े विकासशील देशों के लिए स्वैच्छिक प्रतिबद्धता का उल्लेख किया गया है। हालांकि समझौते में कार्बन उत्सर्जन कटौती को कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं बनाया गया है, किंतु उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश कार्बन उत्सर्जन कटौती के प्रयासों पर स्वयं नजर रखेंगे। प्रत्येक दो वर्ष पर इसकी सूचना संयुक्त राष्ट्र को देंगे। कुछ अंतर्राष्ट्रीय समूह इसकी जांच भी कर सकते हैं। विकसित देश विकासशील देशों को वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर की राशि मुहैया कराते रहेंगे तथा साथ ही 2010-12 के लिए अल्पावधि वित्तीय सहायता दी जाएगी। साथ ही कोपेनहेगन में विभिन्न देशों ने तय किया यूएनएफसीसीसी के अंतर्गत वार्ताएं, बाली में तैयार किए गए रास्तों पर चलती रहेंगी।हालांकि कोपेनहेगन सम्मेलन जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देशों के लिए कई मामलों में झूठी सहानुभूति जैसा साबित हुआ। अधिकतर निर्धन देश समझौते के बारे में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में भ्रमित होकर रह गए।

कोपेनहेगन सम्मेलन में बेसिक (बीएएसआईसी) का गठन हुआ जिसमें ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन सम्मिलत हैं। ये मध्यवर्गीय देश हालांकि विकसित नहीं हुए हैं मगर अब ये गरीब नहीं हैं। अब ये विश्व व्यवस्था में बदलाव लायक बड़े हो गए हैं। अफ्रीका और जी - 77 के देश भी बेसिक देशों के समर्थन में खड़े हैं।

मैक्सिको के कानकुन में सितम्बर, 2010 में जलवायु परिवर्तन पर हुए सम्मेलन में विकासशील देशों ने विकसित देशों को हरत तकनीक उपलब्ध कराने का वचन दिया और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक खरब डॉलर का हरित कोश स्थापित करने के प्रति भी प्रतिबद्धता व्यक्त की ।आईपीसीसी (इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज)

ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा से जलवायु परिवर्तन के संकट का अनुमान लगा कर सन् 1988 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अंतर्गत विभिन्न देशों के एक पैनल- इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) यानी जलवायु परिवर्तन पर अन्तर सरकारी समूह की स्थापना की गई थी ।अपने गठन के बाद आईपीसीसी ने जलवायु परिवर्तन संबंधी अध्ययन आरंभ कर दिए। तीन-चार साल के आरंभिक अध्ययनों से मिले परिणामों से आईपीसीसी ने सन् 1992 से पहले ही यह बता दिया था कि पिछले सौ वर्षों में धरती के तापमान में 0.3 से 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। इसके अध्ययन से यह बात भी स्पष्ट हुई कि महासागरों का जलस्तर लगभग 10 सेंटीमीटर ऊपर उठ चुका है।

वर्ष 2007 में आईपीसीसी ने जलवायु परिवर्तन के संबंध के विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की। फरवरी, 2007 में आईपीसीसी ने विश्व के समक्ष धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को कुछ नए तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया। जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की 2007 में जारी इस नवीनतम रिपोर्ट में "बहुत ही विश्वास" के साथ जलवायु परिवर्तन के लिए मानवीय गतिविधियों को जिम्मेदार ठहराया गया। आईपीसीसी की रिपोर्ट में यह स्पष्ट कहा गया है इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं कि ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से मानव क्रियाकलापों और कारगुजारियों के चलते ही हुई है। आईपीसीसी द्वारा ग्लोबल वार्मिंग में मानव की भूमिका के संदर्भ में जनमानस की मानसिकता में अहम् बदलाव लाने के लिए दिए गए योगदान के लिए वर्ष 2007 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया था।

जलवायु की हमारी बढ़ती समझ और कम्प्यूटर मॉडलों से जलवायु परिवर्तन से संबंधित अध्ययन करने के बाद भी कई दशकों से तापमान वृद्धि का सम्भावित अनुपात बदला नहीं है। आईपीसीसी के अनुसार छोटे से दिखने वाले अंतरों के व्यापक प्रभाव हो सकते हैं। तापमान में 3 से 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर समुद्र का जलस्तर बढ़ने के अलावा वर्षा का पैटर्न बाधित होगा और जाड़े अधिक ठंडे और गर्मियां अधिक गर्म होंगी। यदि तापमान में 5 या 6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो पृथ्वी पर भारी बदलाव देखे जाएंगे।

आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार इस शताब्दी के अंत तक धरती का औसत तापमान 1.4 डिग्री से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है और महासागरों की सतह में 28 से 58 सेंटीमीटर की वृद्धि हो सकती है। वायुमंडल में जैसे-जैसे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे तापमान में वृद्धि तथा समुद्री सतह के उठने की दर भी बढ़ती जाएगी और तब जलवायु परिवर्तन से संबंधित विभिन्न समस्याओं के कारण इस ग्रह पर उपस्थित जीवन को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि आईपीसीसी द्वारा जारी रिपोर्ट के कुछ अंश पर विवाद भी हुए लेकिन फिर भी विश्व भर में जलवायु परिवर्तन की बात को मान लिया गया है।

जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक नुकसान भारत को ही होगा क्योंकि धरती का तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद पिघलेंगे जिससे हिमालय से निकलने वाली नदियों में पानी की मात्रा भी प्रभावित होगी। भारत को बदलती संदर्भ में अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है।

जलवायु परिवर्तन के संभावित परिणामों को देखते हुए योजना आयोग ने 11 वीं योजना में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकने के लिए युद्ध स्तर पर कदम उठाने और राष्ट्रीय कार्ययोजना बनाने की सिफारिश की है। ग्यारहवीं योजना के पारूप में पर्यावरण संरक्षण के विषय को शामिल किया गया है और पूरी दुनिया में जतायी जा रही चिंता के मद्देनजर योजना आयोग ने आखिरी समय में जलवायु परिवर्तन का विषय जोड़ा है। भारत में जलवायु परिवर्तन के विषय में जागरूकता का प्रसार करने के लिए अनेक सरकारी विभाग व स्वयंसेवी संस्थाएं कार्य कर रही हैं।

परिवर्तन पर भारत अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ मिलकर रचनात्मक कार्यों में संलग्न होने के साथ ही घेरलू स्तर पर भी इस दिशा में अहम कार्य कर रहा है। भारत का मानना है कि जलवायु परिवर्तन की सम समस्या से निपटने के लिए रणनीतियों का निर्माण सतत्  विकास के लिए बनाई गई रणनीतियों के आधार पर होना चाहिए। जलवायु परिवर्तन पर बनाई गई रणनीतियों में कृषि, जल संसाधन, स्वास्थ्य एवं स्वच्छता, वन तथा तटीय क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा इत्यादि चिंता के विशेष क्षेत्र है।

भारत यूएनएफसीसीसी के तहत अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के भाग के रूप में भारत आवधिक राष्ट्रीय सूचना तंत्र (एनएटीसीओएम) तैयार कर रहा है जो भारत में उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों की जानकारी प्रदान करता है और इनकी संवेदशनशीलता तथा प्रभाव का मूल्यांकन करता है।

इसके साथ ही यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा तकनीकी उपायों की उचित सिफारिशें तैयार करता है। पहला एनएटीसीओएम वर्ष 2004 में प्रस्तुत किया गया था। सरकार एनएटीसीओएम -2 तैयार करने में लगी हुई है और इसे वर्ष 2011 में यूएफसीसीसी को पेश किया जाएगा। एनएटीसीओएम -2 भारत में अनुसंधान तथा वैज्ञानिक कार्यों के सघन नेटवर्क पर आधारित है और इसमें विभिन्न संस्थानों के विशेषज्ञों तथा सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं की सहायता ली गई है।

भारत ने जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में लाभ को देखते हुए सतत् विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (एनएपीसीसी) तैयार की। सौर ऊर्जा, ऊर्जा कुशलता बढ़ाने, सतत् कृषि, स्थायी आवास, हिमालयी पारिस्थितिकी, देश के वन क्षेत्र में वृद्धि करने और जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के मुख्य बिन्दुओं की रणनीतिक जानकारी देने से संबंधित आठ राष्ट्रीय मिशन चल रहे हैं। इन सभी मिशनों का उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनमानस को जागरूक करना भी है।

  • राष्ट्रीय जल अभियान का उद्देश्य जल संरक्षण, दुरूपयोग को न्यूनतम करना और राज्यों में और एक से दूसरे राज्यों में अधिक समान वितरण को सुनिश्चित करना । हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय अभियान का उद्देश्य हिमालय के हिमनदों और पहाड़ों की पारिस्थितिकी व्यवस्था की सुरक्षा और दीर्घकालीनता हेतु प्रबंधन उपाय करना है।
  • हरित भारत के लिए राष्ट्रीय अभियान वन्य भूमि पर वनाच्छादन करने पारिस्थितिकीय प्रणाली से संबंधित सेवाओं को बढ़ाने पर जोर देता है ताकि राष्ट्रीय नीति के अधीन निर्धारित देश के कुल भू-क्षेत्र के 33 प्रतिशत भाग को वनाच्छित किया जा सके।
  • राष्ट्रीय धारणीय कृषि मिशन का लक्ष्य अनुसंधान और प्रौद्योगिकी विकास के साथ ही समुचित निधि सुनिश्चित करना तथा जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी चुनौतियों की पहचान करना और तदनुसार काम करना है ।

जलवायु परिवर्तन पर निम्नांकित पहलुओं पर विशेष ध्यान दिया जाएगाः

  • राष्ट्रीय सौर अभियान का उद्देश्य सौर प्रौद्योगिकियों के अलावा अन्य नवीकरण और परमाणु ऊर्जा, वायु ऊर्जा एवं गैर जीवाश्म विकल्पों के माध्यम से कुल ऊर्जा में सौर ऊर्जा के अंश को बढ़ाना है।
  • ऊर्जा दक्षता को बढ़ाने के राष्ट्रीय अभियान में ऊर्जा का उपयोग करने वाले बड़े उद्योगों और सुविधाओं में अधिकृत ऊर्जा बचत के व्यवसाय के लिए एक बाजार आधारित व्यवस्था निर्धारित क्षेत्रों में ऊर्जा कुशलता उपकरणों को बढ़ावा, भविष्य में ऊर्जा बचत की योजना के द्वारा सभी क्षेत्रों में मांग अनुरूप प्रबंधन कार्यक्रम और ऊर्जा कुशलता के प्रोत्साहन के लिए वित्तीय साधनों का विकास जैसी चार नई पहलें शामिल हैं।
  • भवनों, ठोस कचरे का प्रबंधन में ऊर्जा कुशलता और जैव-डीजल एवं हाइड्रोजन पर आधारित परिवहन विकल्पों सहित सार्वजनिक परिवहन के मॉडल में बदलाव को प्रोत्साहन देने वाले दीर्घकालीन प्रयासों पर राष्ट्रीय अभियान ।

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना में भी इस बात का उल्लेख है कि भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है। जहां सूर्य का प्रकाश प्रतिदिन अधिक समय तक और तीव्रता के साथ उपलब्ध रहता है। अतः सौर ऊर्जा की भावी ऊर्जा स्रोत के रूप में व्यापक संभावनाएं हैं। इसी परिकल्पना पर आधारित, राष्ट्रीय सौर ऊर्जा को सोलर इंडिया के ब्राँड नाम के तहत आरंभ किया गया है। सोलर मिशन पंडित नेहरू की आधुनिक भारत की परिकल्पना के अनुसार है जिससे आज भारत को एक अग्रणी परमाणु और अंतरिक्ष शक्ति बनाया है।

राष्ट्रीय सौर मिशन का उद्देश्य देशभर में इसे यथाशीघ्र प्रसारित करने की नीति और स्थितियों का निर्माण कर भारत को सौर ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व में शीर्ष पर स्थापित करना है। मिशन तीन चरणों में अपनी योजनाओं को अंजाम देगा ।

कोयला जैसे बिजली के अन्य स्रोतों की तुलना में पूर्ण लागत के मामले में फिलहाल सौर ऊर्जा की लागत अधिक है। सौर मिशन का उद्देश्य क्षमता में तीव्रगति से विस्तार और प्रौद्योगिकीय नवाचार से लागत में कमी लाकर उसे ग्रिड के स्तर पर लाना है। मिशन को आशा है कि 2022 तक ग्रिड समानता हासिल हो जाएगी और कोयला आधारित ताप बिजली से 2030 तक समान स्तर पर लाया जा सकेगा। हालांकि लागत में यह कमी वैश्विक निवेश और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के स्तर पर निर्भर करेगी।

भारत में सौर ऊर्जा की प्रचुर संभावनाएं हैं। प्रतिवर्ष करीब 50000 खरब किलोवाट प्रति घंटा ऊर्जा भारत के - क्षेत्र पर पड़ती है और अधिकांश भागों में 4 से 7 किलोवाट प्रति घंटे प्रति वर्ग किलोमीटर प्रतिदिन क्षमता की भू-क्ष सूर्यकिरणें भारत की धरती को छूती है। सौर विकिरण को ताप और विद्युत यानी सौर तापीय और सौर फोटो-वोल्टिक दोनों में परिवर्तित करने की प्रौद्योगिकी को भारत में बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा को नियंत्रित करने में इस्तेमाल किया जा सकता है।

ऊर्जा सुरक्षा के दृष्टिकोण से सौर सभी स्रोतों में सबसे सुरक्षित स्रोत है। यह प्रचुरता में उपलब्ध है। सैद्धांतिक दृष्टि से कुल आपतित सौर ऊर्जा का छोटा सा अंश भी समूचे देश की ऊर्जा की आवश्यकता को पूरा कर सकता है। बिजली की कमी के कारण देश के अन्दर बिजली की दर सामान्यतः सात रुपए प्रति मिनट तक पहुंच जाती है और पीक आवर्स में यह 8.50 रुपए प्रति यूनिट तक पहुंच जाती है। (वर्ष 2008 के मूल्य पर)

जलवायु परिवर्तन से कोई भी देश अकेले नहीं निपट सकता । भारत सहित कई विकासशील देश पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण कार्य करने के साथ इस दिशा में विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित करने में सफल हो रहे हैं। भारत ने क्लोरोलोरो कार्बन के बाद वर्ष 2009 में हाइड्रोक्लोरोलोरो कार्बन (एचसीएफसी) का उपयोग 2030 तक पूरी तरह बंद करने का ऐलान किया है। वर्ष 2009 में भारत में हवा की गुणवत्ता के लिए नए मानक लागू किए गए। केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने आईआईटी कानपूर और सीएसई के विशेषज्ञों की मदद से हवा की गुणवत्ता के नए मानक घोषित किए। पहले जहां तीन श्रेणी के मानक थे अब इन्हें दो श्रेणियों में रखा गया है। एक आवासीय और दूसरे अति संवेदनशील क्षेत्र । प्रदूषणकारी तत्वों की सूची में लैड, ओजोन, बेंजीन, बेंजो, आर्सेनिक तथा निकल को भी शामिल किया गया है। पहले सिर्फ छह प्रदूषणकारी तत्व थे। ये छह तत्व थे सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, एसपीएम, आरएसपीएम, अमोनिया, कार्बन मोनोऑक्साइड । यूरोपीय संघ के बाद वायु गुणवत्ता मानक बनाने वाला भारत दूसरा देश है।

जलवायु या पर्यावरण से संबंधित सम्मेलनों में प्रस्तावों और घोषणाओं के जरिये जो कुछ कहा जाता है वह वास्तविकता के धरातल पर नहीं उतर पाता है। ऐसा न हो कि पर्यावरण की यह राजनीति कहीं ग्लोबल वार्मिंग की रफ्तार के मुकाबले बहुत सुस्त पड़ जाए और जलवायु परिवर्तन से संबंधित समस्या और विकराल रूप धारण करती रहे ।
साथी हाथ बढ़ाना

पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणामों से पृथ्वी ग्रह को बचाने के लिए सभी देशों को कदम से कदम मिला कर चलना होगा । विश्व के कुछ विकसित देशों का ध्यान पर्यावरण की अपेक्षा आर्थिक विकास पर अधिक है। जिसके कारण पर्यावरण को भारी क्षति हो रही है। यदि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के उपाय जल्द नहीं किये गये तो सारी पृथ्वी रहने लायक नहीं रहेगी। अब समय आ गया है कि विकसित देशों को गरीब देशों, दूसरे प्राणियों एवं नदियों व जंगलों आदि के प्रति संवेदनशील बनना चाहिए । प्रदूषण की चुनौतियों से निपटने के लिए हरित प्रौद्योगिकियों के विकास के लिए ज्यादा अंतरराष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता है। पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि जल्द ही दुनिया के सारे देश प्रदूषण के संकट से निपटने के लिए अपने मतभेद और अपने निजी हित भूलकर सामने आए और पृथ्वी ग्रह को सुंदर और जीवनदायी ग्रह बनाए रखने में सहयोग करें।

स्रोत:- प्रदूषण और बदलती आबोहवाः पृथ्वी पर मंडराता संकट, श्री जे.एस. कम्योत्रा, सदस्य सचिव, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली द्वारा प्रकाशित मुद्रण पर्यवेक्षण और डिजाइन : श्रीमती अनामिका सागर एवं सतीश कुमार

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