सिकुड़ते जा रहे प्राकृतिक संसाधन
जंगल सतत एवं सन्तुलित विकास के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षणोन्मुखी उपयोग आवश्यक होता है, लेकिन वर्तमान सदी में औद्योगिक विकास ने जहाँ इस तथ्य की अनदेखी करते हुए संसाधनों का अविवेकपूर्ण ढंग से अधिकाधिक दोहन किया और संरक्षण की दिशा में कोई व्यावहारिक परिणाममूलक कार्य योजना प्रस्तुत नहीं की। वहीं उपभोक्तावाद को चरम पर पहुँचाकर संरक्षणवादी विचार को ही विलुप्तप्राय कर दिया। इसका परिणाम हमारे सामने पारिस्थितिकीय एवं पर्यावरण असन्तुलन के रूप में आया है। इससे प्राकृतिक संसाधन लगातार सिकुड़ते चले गए हैं और मनुष्य सहित समूचे प्राणी-जगत की आजीविका और जीवनशैली बुरी तरह प्रभावित हो गई है।
इस कारण यह पृथ्वी जो सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट कृति है और जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें अपने बच्चों के भरण-पोषण की असीमित क्षमता विद्यमान है, कि उत्कृष्टता और क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे हैं। हमारा देश भी इस संकट से जूझ रहा है। हमारे बहुमूल्य वन तेजी से कम होते चले गए हैं जिसके दुष्परिणाम अनेक रूपों में हमें देखने और भोगने पड़ रहे हैं।
कृषि आर्थिकी पर प्रमुखतः आधारित हमारे देश में कम-से-कम एक-तिहाई भौगोलिक क्षेत्र वनाच्छादित होना आवश्यक है। इसलिये देश की आजादी के बाद 1952 में राष्ट्रीय वन नीति घोषित की गई, किन्तु इसके लिये आवश्यक आर्थिकी योजनागत, वैधानिक आधारभूत संरचना नहीं किए जाने के साथ ही लोगों को जोड़ने की उपेक्षा करने से तय लक्ष्य पूरे करना तो दूर उपलब्ध वनों तथा वन भूमि बचाने में भी सफलता प्राप्त नहीं है।
यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं जब पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों में प्राकृतिक संसाधनों के युक्तियुक्त उपयोग को अपने जीवन का सबसे बड़ा और मजबूत आधार मानने की समृद्ध परम्परा थी। इन समाजों ने प्रकृति के संरक्षण को अपनी संस्कृति, परम्पराओं, ज्ञान का अभिन्न हिस्सा बनाते हुए उससे समुचित तादात्म्य स्थापित कर जीवनयापन करने की पद्धति विकसित कर ली थी। इसमें इन समाजों की कार्यनिष्ठा, विवेक, धैर्य और सन्तोष के गुणधर्म समाविष्ट थे, जो उन्हें एक पूर्ण स्वावलम्बी समाज के रूप में प्रतिष्ठित करते थे।
अभी दो सदियों पहले तक भारतीय उप महाद्वीप में ऐसे कई भू-भाग थे, जो काफी समृद्ध और स्वावलम्बी थे। हिमालय से सह्याद्रि तक, उससे आगे हिन्द महासागर के छोर तक और दण्डकारण्य से लेकर दहाणू तक इन क्षेत्रों की समृद्धि और स्वावलम्बन का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। इसी के बल पर यहाँ के लोगों की जीवनशैली, संस्कृति, शौर्य और स्वाभिमान की अनेक परम्पराएँ और गाथाएँ प्रचलित हैं। इन क्षेत्रों की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक उन्नति के मूल में समृद्ध और स्वावलम्बी आर्थिकी ही बड़ा कारण रही है। यह मूलतः प्रकृति से संचालित थी, जिसमें जंगलों की संरचना मुख्य थी।
भारत के पर्वतीय और आदिवासी क्षेत्रों तथा जनजातीय समाजों की आबादी अधिकांशतः उन राज्यों और क्षेत्रों में पड़ती है जो वनों और खनिजों के कारण देश की समृद्धि का बहुत बड़ा आधार हैं, लेकिन इन संसाधनों के उपयोग में ग्रामीण समाज बहुत सचेत और संवेदनशील रहते थे। इस बात को देश के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है। मुझे याद है कि जल-जंगल और जमीन के बारे में पहले गाँव के लोग बहुत सावधान रहते थे।
उत्तराखण्ड में हमारे गाँव की खेती से जुड़ा हुआ एक जंगल है जो कि गाँव की पश्चिमोत्तर दिशा में है। बाँज के वृक्षों की प्रधानता के कारण बंज्याणी कहलाता है। लगभग नौ दशक पहले अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप इसके संरक्षण की पहल आरम्भ हुई। इसकी सुरक्षा और रख-रखाव, अतिक्रमण करने वालों को दण्डित तथा उसके उत्पादों के वितरण करने के अधिकार से सम्पन्न गाँव की अपनी पंचायत जैसी व्यवस्था थी। उसके आदेशों-निर्देशों का पालन न करने वालों को आर्थिक दंड और कई बार सामाजिक बहिष्कार तक का दंड भोगना पड़ता था। इन नियमों का सख्ती से पालन किए जाने का ही परिणाम था कि बंज्याणी आज भी अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल है। तेजी से बढ़ते नगर गोपेश्वर में बंज्याणी के जंगल का अस्तित्व बचे रहना लोक वन प्रबन्धन और लोक परम्परा का अच्छा उदाहरण है।
मुझे मेघालय एवं मणिपुर के देव वनों को देखने एवं समझने का कई बार अवसर मिला। ये देववन दो-चार पेड़ों के नहीं कहीं-कहीं तो सैकड़ों एकड़ में फैले हुए हैं, जो आज भी सुरक्षित हैं। मुझे शिलांग से लगभग 25 किलोमीटर दूर मोफलॉग के पास देववन देखने का अवसर मिला था। वहाँ पर ताम्ब्रो लिंगदो ने विस्तार से जानकारी दी कि किस प्रकार आज भी इस 75 वर्ग हेक्टेयर क्षेत्र में फैले देववन के नियमों का पालन किया जाता है। यह जंगल इतना घना है कि सूर्य की किरणें धरती में नहीं पड़ती हैं। इसी प्रकार का देववन चेरापूँजी के पास भी देखने को मिला जो सम्पूर्णता लिये हुए है।
मुझे आन्ध्र प्रदेश के पौडू और उत्तर पूर्व में झूम क्षेत्रों में काश्तकारी से जुड़ी मान्यताओं को समझने का मौका मिला। इसमें पौडू के आस-पास के जंगल और जमीन के संरक्षण की बातें समाहित हैं। वहीं इस पर अवलम्बित लोगों की विवशता के बावजूद परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है। विविशतापूर्वक पौडू करने के बारे में ईस्ट गोदावरी के वाल्दका गाँव के पास एक कौण्डा रेड्डी ने बताया कि हमारा कोण्डा क्षेत्र बहुत ऊबड़-खाबड़ है। यहाँ पर खेती करना बहुत मुश्किल है, इसलिये पौडू करते हैं। खेती करना आसान है। पौडू करना आसान नहीं है।
हम मानते हैं कि यह अच्छा नहीं है। फिर भी हमें आजीविका के लिये पौडू करना पड़ता है। इस सबके बावजूद पौडू करने से पहले पौडू के वनों को बचाने से पूर्व हम उनकी पूजा करते हैं। ऊँची आवाज में चिल्लाते हैं कि ओ चीम लारा: पामू लारा शत-कोटी जीव लारा, डोकू लारा, मिन्दी लारा, माँ कोण्डकू अग्नि पेडू तनू नय कोण्डी। ओ चींटियों ओ साँपों और शत-कोटी जीवों, हम यहाँ आग लगा रहे हैं अपने पेट पूर्ति के लिये, आप यहाँ से भाग जाइए।
उत्तराखण्ड में परम्परागत गाँव के अपने वनों के बाद सन 1931 में वन पंचायत बनाकर सामूहिक व्यवस्थापना के लिये ग्रामीणों को हस्तान्तरित किया गया। आज उत्तराखण्ड में हजारों वन पंचायतें कार्यरत हैं। यद्यपि पिछले दो दशकों से उसके कार्य में सरकारी हस्तक्षेप बढ़ा है जिसमें सुधार की आवश्यकता है।
मुझे कोरापुट में ओडिशा राज्य की 80 की लगभग वन सुरक्षा समितियों एवं गैर सरकारी संस्थाओं के साथ सन 2005 में बातचीत करने का अवसर मिला था। उसमें पता चला कि राज्य में दस हजार के लगभग स्वप्रेरित वन सुरक्षा समितियाँ हैं। आर.सी.डी.सी. भुवनेश्वर के मनोज पटनायक बता रहे थे कि इन स्वप्रेरित समितियों के सफल ग्राम हैं, लेकिन उन्हें मान्यता देने में विभाग आनाकानी कर रहा है। इसी प्रकार महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में वृक्ष मित्र मिले थे। मोहन हिराबाई हिरालाव के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। वहाँ मेढ़ा लेखा गाँव में वन संरक्षण-संवर्धन एवं उपयोग का आदर्श देखने को मिला था जो ग्राम वन की दिशा में अग्रगामी कदम है। इस प्रकार देश में अलग-अलग राज्यों में अपने-अपने ढंग से जंगलों के संरक्षण संवर्धन के उदाहरण हैं।
इस प्रकार दूसरी बात जो समझ में आई, वह यह कि प्राकृतिक संसाधनों के विनाश का सबसे बुरा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है। मुझे देश में सामाजिक कार्यों में रत संस्थाओं और मित्रों के साथ गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, सतलज, गोदावरी, इन्द्रावती, तुंगभद्रा-सिलेरू, पश्चिमी घाट-पूर्वी घाट, पुरलियाँ (अयोध्या पहाड़) की यात्राओं का अनुभव है कि अपने देश में गरीबी दूर करना इसलिये असम्भव लग रहा है क्योंकि अपने पर्यावरण एवं वनों की ठीक से व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं।
विचारणीय यह है कि जो क्षेत्र एक सदी पहले तक वनों के कारण समृद्ध एवं स्वावलम्बी थे, अभी वन विनाश के कारण अत्यन्त निर्धनता वाले बन गए हैं।