फोटो साभार - काफल ट्री,  फोटो: जगमोहन रौतेला
फोटो साभार - काफल ट्री, फोटो: जगमोहन रौतेला

बच्‍चों को प्रकृति से जोड़ता उत्तराखंड का लोकपर्व फूलदेई

पहाड़ी लोकगीतों में बारीकी से समझाया गया है प्रकृति से मानव का अटूट रिश्‍ता
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प्रकृति से मनुष्‍य का रिश्‍ता अटूट है, क्‍योंकि मानव अपने जन्‍म के साथ ही प्रकृति की गोद में पलता-बढ़ता और जीता है और फिर एक दिन उसका यह नश्‍वर शरीर मिट्टी में मिल कर पुन: प्रकृति से एकाकार हो जाता है। हमारी लोककथाएं, लोकगीत प्रकृति से हमारे इस गहरे रिश्‍ते को बखूबी बयान करते हैं और हमारे लोकपर्व भी अकसर प्रकृति के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। जैसे बैसाखी पर्व रबी की फसल (गेहूं) की कटाई का उत्सव है। होली वसंत ऋतु के आगमन पर पेड़ों पर नए पत्तों-फूलों के आने के उल्‍लास का पर्व है। दिवाली खरीफ की फसल (धान) के कटकर किसान के घर आने का उत्‍सव है। इसी तरह देश के सुरम्‍य पवर्तीय क्षेत्र उत्‍तराखंड में भी इन दिनों एक अनूठा प्रकृति पर्व मनाया जा रहा है। यह त्‍योहार है प्रकृति पर्व ‘फूलदेई’ जो बच्‍चों को प्रकृति से जुड़े रहने की सीख देता है। महीने भर तक चलने वाला फूलदेई पर्व 15 से शुरू हो चुका है और प्रकृति प्रेम का संदेश देने वाले इसके सुरीले व अर्थपूर्ण लोकगीत इन दिनों कुमाऊं और गढ़वाल मंडल की पहाड़ी वादियों में गूंज रहे हैं। 

प्रकृति के रंगों से रूबरू कराते फूलदेई के लोकगीत

मनुष्य का जीवन प्रकृति के साथ अत्यंत निकटता से जुड़ा है। पहाड़ के उच्च शिखर, पेड़-पौधे, फूल-पत्तियां, नदी-नाले और जंगल में रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं के साथ मनुष्य के सम्बन्धों की रीति उसके पैदा होने से ही चलती आयी है। समय-समय पर मानव ने प्रकृति के साथ अपने इस अप्रतिम साहचर्य को अपने गीत-संगीत और रागों में भी उजागर करने का प्रयास किया है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनेक लोक गीतों के रूप में ये गीत समाज के सामने पहुंचते रहे हैं। उत्तराखण्ड के पर्वतीय लोकगीतों में वर्णित आख्यानों को देखने से स्पष्ट होता है कि स्थानीय लोक ने प्रकृति में विद्यमान तमाम उपादानों यथा ऋतुचक्र, पेड़-पौधों, पशु पक्षी, लता, पुष्प तथा नदी व पर्वत शिखरों को मानवीय संवेदना से जोड़कर उसे महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

लोकगीतों में वर्णित बिम्ब एक अलौकिक और विशिष्ट सुख का आभास कराते हैं। मानव के घनिष्ठ सहचर व संगी-साथी के तौर पर प्रकृति के ये पात्र जहां मानव की तरह हंसते-बोलते, चलते-फिरते हैं तो वहीं सुख-दुख में मानव के करीबी मित्र बनकर उसकी सहायता भी करते हैं। निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि प्रकृति के प्रति उद्दात भावों को मुखरित करते बसन्त ऋतु के ये गीत हिमालय की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा, जीवन दर्शन और यहां के बौद्धिक विकास को प्रदर्शित करते हैं।

पर्वतीय लोक जीवन में प्रकृति के समस्त पेड़ पौधों, फूल पत्तियों और जीव जन्तुओं के प्रति अनन्य आदर का भाव समाया हुआ है। खासकर फूलों के लिए तो यह भाव बहुत पवित्र दिखायी देता है। यहां के कई लोकगीत भी इसकी पुष्टि करते हैं। पहाड़ में खिलने वाले पंय्या अथवा पदम के वृक्ष को यहां अत्यंत शुभ माना जाता है और इसे देवताओं के वृक्ष की संज्ञा दी जाती है। पंय्या का नया वृक्ष जब जन्म लेता है तो लोग प्रसन्न होकर यह गीत गाते हैं-गढ़वाल अंचल के एक लोकगीत में वर्णन है-

नई डाळी पैय्यां जामी, 

देवतों की डाळी हेरी लेवा देखी ले

नई डाळी पैय्यां जामी

 नई डाळी पैय्यां जामी,

 क्वी चौंरी चिण्याला

 नई डाळी पैय्यां जामी,

 क्वी दूद चरियाळा

 नई डाळी पैय्यां जामी, 

द्यू करा धुपाणो

नई डाळी पैय्यां जामी, 

देवतों का सत्तन

 नई डाळी पैय्यां जामी, 

कै देब शोभलो 

नई डाळी पैय्यां जामी, 

छेतरपाल शोभलो


इस लोकगीत का आशय यह है कि पंय्या का छोटा सा नया पेड़ उग आया है। इसके दर्शन कर लो, यह देवताओं का पेड़ है। कोई इसकी चहारदीवारी बनाओ, कोई इसे दूध से सींचो और कोई दिया बाती धूप आदि से इसकी पूजा करो। देवताओं के पुण्य से पंय्या का नया पेड़ उगा है। यह पेड़ तो क्षेत्रपाल देवता को शोभयमान होगा। उत्तराखण्ड के जनमानस में यह लोक मान्यता व्याप्त है कि हिमालय में खिलने वाला रैमाशी का फूल भगवान शिव को अत्यंत प्रिय होता है। यही मान्यता कुंज, ब्रह्मकमल, बुंराश व अन्य फूलों के लिए भी है। 

गढ़वाल के एक लोकगीत में कहा गया है-राजों का बग्वान यो फूलो के को। अलकनंदा के तट पर खिले एक अलौकिक व रहस्यमय पुष्प के प्रति लोग कौतूहल व्यक्त कर रहे हैं कि यह फूल किस देवता का होगा।

तुमरि डेळयों रौ 

बसंत फूलों का बग्वान। 

हँसदा खेलदा, फुलदा फलदा

जी जगी रयांन। 

'यानी तुम्हारी देहरियाँ हमेशा बसन्त के फूलों का बगीचा बनी रहें और तुम हमेशा फलते-फूलते, जीवित और जागृत रहो' फूलों के प्रति देवत्व की इसी उद्दात भावना के प्रतिफल में उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों में फूलों का त्यौहार फूलदेई अथवा फुलसंग्राद बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है। 

वसंत ऋतु के स्वागत का पर्व है फूलदेई

दरअसल फूलदेई नये वर्ष के आगमन पर खुशी प्रकट करने का त्यौहार है, जो बसन्त ऋतु के मौसम में चैत्र संक्रान्ति को मनाया जाता है। गढ़वाल में कई गांवों में यह पर्व पूरे माह तक मनाया जाता हैं। गांव के छोटे बच्चे अलसुबह उठकर टोकरियों में आसपास खिले किस्म-किस्म के फूलों को चुनकर लाते हैं और उन्हें गांव घर की हर देहरी पर बिखेर कर परिवार व समाज की सुफल कामना करते हैं। सामुहिक स्वर में बच्चे जब फूलदेई से जुड़े गीतों को गाते हैं तो पूरा गांव गुंजायमान हो उठता है। इन गीतों का आशय है कि फूल देई तुम हम सबकी देहरियों पर हमेशा विराजमान बने रहो और हमें खुशहाली प्रदान करते रहो.. आपके आशीर्वाद से गांव इलाके में हम सभी के अन्न के कोठार हमेशा भरे रहें। 

फूलदेई, छम्मा देई

दैण द्वार भरी भकार

य देई कै बारम्बार नमस्कार 

फूलदेई, छम्मा देई 

हमर टुपर भरी जै 

हमर देई में उनै रै

फूलदेई, छम्मा देई

'धाद' संस्था ने की महीने भर के कार्यक्रम की पहल

देहरादून शहर में 'धाद' संस्था ने हरेला, घी संग्रान्द के साथ ही फुलेदेई पर भी पहल करते हुए इसमे कुछ और जोड़ने की कोशिश की है। धाद ने उनके लिए उन्होंने एक महीने का पूरा कार्यक्रम बनाया है। दरअसल गढ़वाल व कुमाऊं में फूल संग्राद, फूलदेई अथवा घोगा त्यार का यह पर्व आज यानी 15 मार्च, 2025 से शुरू हो रहा है। गढ़वाल के कई गांवों में यह पर्व पूरे एक माह तक चलेगा। देहरादून की धाद संस्था ने इस आयोजन में स्कूलों के लिए विभिन्न कार्यक्रम रखे हैं। बच्चों के सपनों और इच्छाओं को आकार देने के लिए फुलेदेई का हिस्सा बनने के लिए धाद ने लोगों को सादर आंमत्रित किया है और उनके लिए कई कार्यक्रम रखे हैं। आप सभी लोग अपने बच्चों को उसमें प्रतिभाग करने के लिए प्रोत्साहित अवश्य करें।

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