एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6 May 2018
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ऐसी अवस्था में उच्च नीच का विभेद, स्त्री-पुरुषों के भिन्न स्तर यह द्वन्द्वात्मक अनुभव कैसे टिकेगा? इसीलिये बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी के संवाद में सभी द्वार खोलकर जीवन के अद्भुत एक रस स्वरूप के दर्शन करवाये गए हैं। सम्राट जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य ऋषि की सर्वशास्त्रों में और विशेष रूप से अध्यात्म में पारंगत तत्त्वज्ञ के रूप में ख्याति थी। वाद-विवादों में उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। परम विदुषी गार्गी के मुख से उनकी अद्वितीयता घोषित हो गई थी। और उनका सारा तत्त्व ज्ञान पोला, तार्किक या शाब्दिक नहीं था। एकात्मता की अनुभूति पर उनका ज्ञान टिका था। ऐसे आन्तरिक चैतन्य से मिलाने वाला सर्वव्याप्ति में विलय करा देने वाला मार्ग खुल गया कि शाश्वत सुख का ऐश्वर्य अनायास सामने आता है। कारण अन्तरात्मा ही ‘सर्व भूतान्तरात्मा’ सभी की आत्मा होती है। एकत्व में सभी का समावेश रहता है। एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त होता रहता है। इस तरह जीवन की रहस्य कथा समझाते हुए यमराज कहते हैं:

एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा।
एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येनु पश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।।


जिनकी प्रज्ञा जागृत हो गई वे धीर मानव अन्तरात्मा का सातत्यपूर्वक दर्शन करते रहते हैं। उन्हें यह स्पष्ट दिखता है कि जीवन की अनेकता में यह एक ही आत्मा विराजती है। फिर द्वैत-दुजापन कैसे टिक सकता है? और एकत्व को मृत्यु मार नहीं सकती। वह कालातीत होता है। जो अनेकता को सत्य मानकर उसका पीछा करते हैं, सुख के लिये व्यर्थ की दौड़ लगाते हैं, उन्हें मृत्यु आकर पकड़ लेती है। यह बात भी यमराज स्पष्ट शब्दों में बता देते हैं-

मृत्योः सर्वै मृत्युं गच्छति।
य इह नानेब पश्यति।


लेकिन एकबारगी काल-विजयी अमृतत्व का सुखदायी ठिकाना पा लिया कि दुनिया की ओर देखने की अमृतानुभवी दृष्टि बदली हुई नजर से देखना प्रारम्भ करती है। इसीलिये वेद के ऋषिओं ने साम गायन करते हुए कह दिया था-

वसन्त इन्नु रंत्यो, ग्रीष्म इन्नु रंत्यः
वर्षाप्यानु शरदो हेमन्तः शिशिर इन्नु रंत्यः।


वसन्त ऋतु यानी सर्वत्र उत्साह, रंग-बिरंगे पुष्प, कोमल पर्णों की अद्भुत चमक ऐसा वृक्षों का मनोरम समारोह प्रारम्भ करने वाली ऋतु! नृत्य-गायन की महफिल सारी सृष्टि ही प्रकट कर देती है! पक्षी साथ देते हैं। मानव भी सृष्टि की ताल में अपनी ताल जोड़ देते हैं। अनेक त्यौहार इन दिनों में आनन्द बिखेरते हैं और ग्रीष्म? कितनी ऊष्मा! वसन्त के प्रेमियों को ग्रीष्म की याद भी पसन्द नहीं होती है। वह कभी नहीं आए तो ठीक ऐसा उन्हें लगता रहता है। लेकिन वह आए बिना रहेगा कैसे? सृष्टि के ऋतु-चक्र को सभी शीत-उष्ण ऋतुओं की आवश्यकता रहती है। इनके बिना जीवन सन्तुलित, नियमित चलना सम्भव नहीं है। सामवेदी ऋषि को सभी ऋतुएँ रमणीय लगी हैं। क्योंकि जीवन की समग्रता पर वह समग्रता से सर्वाग्रता से प्रेम करता है। समग्रता में जीने वाले द्रष्टा ऋषि को एकांगी रहना कैसे सम्भव होगा? उसके लिये प्रत्येक दिन, हरेक क्षण मंगल है, महोत्सव है।

एकाग्रता में से सर्वाग्र और सर्वव्याप्त होने की कला कौन-सी साधना में से प्रस्फुटित होती है? माण्डूक्योपनिषद के द्रष्टा ऋषि बता देते हैं:

प्रणवो धनुः शरोहि आत्मा
ब्रह्म तल्लक्षमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं
शखत्तन्मयो भवेत्।।


चिन्मय जीवन प्रारम्भ में, एकत्व-स्थित था-‘एकोSहम्’। परन्तु विशुद्ध एकात्मता में खेल नहीं हो सकता- ‘एकाकी ना रमत।’ इसलिये ‘बहुस्यांप्रजायेय’ अनेक में अभिव्यक्त होने की इच्छा प्रकट हुई। उपनिषदों ने अनेकता के जन्म की कहानी कहते समय एक रहस्य का उद्घाटन किया: प्रणव के ऊँकार के स्वर में से यह अनेकता जाग उठी। केवल वेदों ने ही नहीं, पवित्र बाइबिल भी यही गान गाता है- ‘इन दि बिगनिंग देअर वॉज दि वर्ड’ प्रारम्भ में था शब्द। उर्दू भाषा में ‘अलीफ’ यानी एक-यहीं से प्रारम्भ होता है। और गुरु नानक देव भी ईश्वर के नाम को ‘एक ऊँकार सतनाम’ कहकर ही प्रणाम करते हैं।

इस तरह विश्व जीवन का श्री गणेश (प्रारम्भ) करते समय व्यक्त होने वाला ‘ऊँकार’ धनुष्य रूप में स्वीकृत होता है। तब उस पर शर चढ़ाना है अपने आन्तर चैतन्य का-आत्मा का। इस बाण का लक्ष्य कौन-सा होगा? ‘ब्रह्म’ है इसका लक्ष्य आत्यन्तिकं बृहत् इति ब्रह्म ऐसी ‘ब्रह्म’ शब्द की व्युत्पत्ति है : जो अत्यन्त, कल्पनातीत, आदि अन्त रहित, आर-पार सर्वत्र व्याप्त है-वह ‘ब्रह्म’। ऐसा अनन्त ब्रह्म-चैतन्य ही मानव हृदय के चैतन्य भान का लक्ष्य होना चाहिए।

यह लक्ष्य रहेगा तो ही मर्यादित शरीर में रहकर, जीकर, सभी व्यवहार करते हुए ही सर्व व्याप्त चैतन्य को अमृतत्व को आवृत करना ढक देना सम्भव होगा। लेकिन इसकी एक महत्त्वपूर्ण शर्त है: व्यक्ति चैतन्य को-उस शर को-अप्रमत्त रहना होगा। परिपूर्ण रूप से जागृत, शान्त, स्थिर भान के साथ सर्व व्याप्ति का ब्रह्म का वेध साधना होगा। ऐसा वेध सधेगा तभी बाण जैसा अपने लक्ष्य से तन्मय एकरूप होता है वैसा अन्तरात्मा का बाण ‘ब्रह्म’ के लक्ष्य से एकरूप-तन्मय होकर हो सकता है। ‘रुकता’ कहाँ है यह? वह शेष ही नहीं बचता सर्वव्याप्ति में वह पिघल जाता है!

यह हुई योग की प्रक्रिया और ऐसी ही है भक्ति की भी परिणति। ज्ञानेश्वर महाराज इसका स्पष्टीकरण करते हुए कृष्ण मुख से कहते हैं-

सुवर्ण मणि सोनिया।
ये कल्लोल जैसा पाणिया।
तैसा मज धनंजया।
शरण ये तू।।


जैसे सोने का मणि सुवर्ण में, जल में जल-लहरी शरण आकर एकरूप होते हैं-वैसे ही, हे धनंजय, तुम मुझमें विलीन होकर रहो। यही शरणागति है।

अपनी अलगता सर्व व्याप्त चैतन्य में (कृष्ण में) खो देना, मिटा देना यही पराकाष्ठा की शरणागति है भक्ति के प्रांगण में।

श्रीमद्भागवत में भी भक्ति की ही परिभाषा है। वहाँ एकत्व-अनेकत्व सर्वव्याप्त इनके खेल का रहस्य खोलकर दिखा दिया है। तृतीय स्कन्ध में दक्ष प्रजापति के यज्ञ स्थल के भीतर भगवान विष्णु उपस्थित हैं। ‘विष्णु’ शब्द की व्युत्पत्ति है- ‘व्याप्नोति इति विष्णुः।’ सर्व व्याप्त चित्तत्व-यानी चैतन्य ही विष्णु है। देव-देवता ऋषि-मुनि इन सबके आग्रह के कारण विष्णु अपने भक्त को जीवन-रहस्य समझा रहे हैं:

यथा पुमान्न स्वांगेषु
शिरः पाण्यादिषु क्वचित्।
पारक्य बुद्धिं कुरुते
तथा भूतेषु मत्परः।।


सामान्य मनुष्य जैसे अपने शरीर के मस्तक हाथ-पैर इत्यादि अवयवों के साथ परायेपन का सम्बन्ध नहीं रखता (सारे अवयव, सभी इन्द्रिय अपनी अंगभूत हैं, अपने से अलग नहीं हैं यह समझता है) वैसे मुझसे एकरूप हुआ मेरा भक्त अखिल भूत मात्रों से परायेपन का सम्बन्ध नहीं रखता एकरूपता का ही प्रत्यय पाता है। इस आत्मौपम्य अवस्था के कारण दूसरों का दुख वह अपना दुख, उनका सुख वह अपना सुख ऐसी प्रत्यक्ष अनुभूति उसे रहती है। फिर यह आत्मौपम्य की वृत्ति समाज के साथ, सृष्टि के साथ उसे एकरूप बनाये बिना कैसे रह सकेगी? सर्व व्याप्ति से एकत्व साध लेना यानी विश्व की अनेकता से प्रेममय, सेवामय सम्बन्ध होना। जैसे सम्बन्ध में भोग के लिये कहाँ स्थान है? फिर युद्ध की सम्भावना भी कैसे रह सकेगी?

इस तरह नित्य, सर्वकाल-सर्वत्र-व्याप्त होकर जीने वाला श्रीकृष्ण के समान महापुरुष दूसरा कौन होगा? गीता के शब्द-शब्द में श्रीकृष्ण के चित्त की यह अखिल अस्तित्व की व्याप्ति की अवस्था झाँकती रहती है। भक्ति की अनुभूति के आधार से अध्यात्म साधक मेरा तत्त्वतः जो स्वरूप है उसे पहचानता है, जानता है। यह बात कृष्ण अर्जुन को अष्टादश अध्याय में समझाते हैं-

भक्तया मां अभि जानाति
यावान् यश्वास्मि तत्त्वतः।


इस ‘तत्त्वतः’ शब्द में सर्व व्याप्ति का रहस्य खुल गया है। लेकिन शब्द से इसे समझा देना सम्भव ही नहीं है। केवल इतना जान ले तो काफी है कि कृष्ण यानी सर्व व्याप्ति सबके साथ एकात्मता।

ऐसी अवस्था में उच्च नीच का विभेद, स्त्री-पुरुषों के भिन्न स्तर यह द्वन्द्वात्मक अनुभव कैसे टिकेगा? इसीलिये बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी के संवाद में सभी द्वार खोलकर जीवन के अद्भुत एक रस स्वरूप के दर्शन करवाये गए हैं। सम्राट जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य ऋषि की सर्वशास्त्रों में और विशेष रूप से अध्यात्म में पारंगत तत्त्वज्ञ के रूप में ख्याति थी। वाद-विवादों में उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। परम विदुषी गार्गी के मुख से उनकी अद्वितीयता घोषित हो गई थी। और उनका सारा तत्त्व ज्ञान पोला, तार्किक या शाब्दिक नहीं था। एकात्मता की अनुभूति पर उनका ज्ञान टिका था। फिर भी संसार से निवृत्त होकर एकान्त साधना करने की उन्हें प्रेरणा हुई थी। अपनी कात्यायनी और मैत्रेयी नाम की दो पत्नियों को बुलाकर याज्ञवल्क्य जी ने अपनी मनीषा उन्हें निवेदन की।

अपनी इकट्ठा हुई सम्पत्ति, गायें इत्यादि उन दोनों में बाँटकर जाएँगे ऐसी उनकी बात सुनकर मैत्रेयी ने उनसे पूछा, ‘इस सम्पदा से क्या मुझे अमृतत्व की प्राप्ति होगी?’ ऋषि ने जवाब में स्पष्ट बताया, ‘नहीं, साधन-सम्पन्न मनुष्य को जो सुख-सुविधा प्राप्त होती है, वहीं तुम्हें भी प्राप्त होगी। सम्पत्ति से अमृतत्व नहीं मिलता।’ इस पर मैत्रेयी ने भी साफ शब्दों में कह दिया- ‘येनाSहं न अमृतास्यां तेनाSहं किं करवामः।’ जिससे मुझे अमृतत्व नहीं प्राप्त होगा उसे लेकर मैं क्या करूँगी? आप जिसके लिये वन-गमन कर रहे हैं वह (अमृतत्व) मुझे बताइये सिखाइये! मैत्रेयी के ये वैराग्यपूर्ण उद्गार सुनकर पति प्रसन्न हो गए। मैत्रेयी उन्हें प्रिय थी, वह अब अधिक प्रिय हो गई। मैत्रेयी को उन्होंने प्रथम पाठ सिखाया:

न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवति
आत्मनस्तुकामाय जाया प्रिया भवति।
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवति
आत्मनस्तु कामाय पति प्रियो भवति।
न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति
आत्मनस्तु कामाय सर्वंप्रियं भवति।


पत्नी प्रिय असते, पति प्रिय असतो, पुत्र अथवा अन्य सभी तरह के वैभव, ज्ञान इत्यादि प्रिय लगते हैं : परन्तु इनकी कामना होने से ये प्रिय लगते हैं ऐसा नहीं है। मूलभूत कामना वासना इच्छा केवल अपनी अन्तरात्मा की ही होती है। यह अन्तरात्मा ही अनेकता में विभिन्न वस्तुओं में, व्यक्तियों में अभिव्यक्त होती है। यह विविधता से भरपूर विश्व आत्मा का ही आविष्कार रहता है। इसकी अनुभूति होना जरूरी है।

ब्रिटिश तत्त्वज्ञ टी.एच. ग्रीन यही कहते थे। ‘इन वॉटेवर वी सीक, वी सीक अवर ओन सेल्फ।’ हम जो भी चाहते हैं, उसमें वस्तुतः हम अपने आन्तर-चैतन्य को ‘सेल्फ’ को ही चाहते हैं।

इस ‘सेल्फ’ का या ‘आत्मा’ का स्वरूप भी समझ लेना आवश्यक होता है। इसलिये दूसरा पाठ सिखाते हुए याज्ञवल्क्य मैत्रेयी से कहते हैं- आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यः निदिध्यासि तव्यः। इस आत्मा को दर्शन, श्रवण, मनन और निदि ध्यासि-तव्यः इस आन्या को दर्शन श्रवण मनन और निविध्यासन के द्वारा पचाना पड़ेगा- उसकी सर्व व्याप्ति आत्मसात करनी होगी। इसी के खातिर वनवास, उपवास व्रत तथा अन्य सारी साधनाएँ होती हैं। एकात्मता की यह आराधना अमृतत्व का साक्षात्कार कराती है। तब द्वैत, अनेकता के विभिन्न आकार-विकार, विराम पाते हैं। फिर श्रवण-मनन इत्यादि की आवश्यकता बचती ही नहीं। क्योंकि कौन किसका श्रवण-मनन करेगा? शेष रह जाता है केवल इस एकात्मता को जीकर व्यवहार में उसका रस सराबोर कर देना। ‘कर देना’ भी नहीं, हो ही जाता है सराबोर वह!

और शरीर जब तक है तब तक जीवन की अभिव्यक्ति अनेकता में जीना तो होता ही है। इसलिये छांदोग्य उपनिषद में पिता आरुणी उद्दालक अपने बेटे श्वेत केतू को इस सर्व व्याप्ति की संकल्पना स्पष्ट करने के लिये उदाहरण देकर समझाने का कार्य कर रहे हैं। यह आत्मतत्त्व ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ अणु से भी सूक्ष्म और सबसे महान से भी महान आद्यन्त रहित होता है। हम सबका वह मूल-स्रोत है। अपना ही रूप है वह। पिता ने अनेक उदाहरण दिये हैं- हम यहाँ एक ही देख लेते हैं : आरुणी उद्दालक श्वेत केतू से कहते हैं- ‘बेटा, वटवृक्ष का एक फल ले आओ।’ ले आया हूँ, पिताजी! ‘अब उसे तोड़ो तो।’ ‘तोड़ दिया पिताजी।’ ‘उसमें क्या है?’ ‘अनेक बीज हैं इसमें।’ एक बीज को तोड़ो और उसके भीतर क्या है देखो। ‘तोड़ा, देखता हूँ कि कुछ भी नहीं इसके भीतर पिताजी!’ इसमें कुछ भी नहीं दिखाई देता है, लेकिन बेटे, इसी में से सामने खड़ा प्रचण्ड वट-वृक्ष निर्माण होता है।

वहाँ जो भी कुछ है (अत्यन्त सूक्ष्म और बहुत शक्ति सम्पन्न) वही तुम स्वयं हो बेटे! ‘तत् त्वं असि, श्वेत केतू!’ इसका यही मतलब है कि तेरा, इस वृक्ष का, अखिल विश्व में अभिव्यक्त सभी का मूल एक ही है। पानी में पिघलकर सर्व-व्याप्त हुए नमक के समान है वह-वही तेरा स्वरूप है। यह एकत्व समझ गए कि अखिल जीवन का स्वरूप समझ में आ जाता है। जैसे मिट्टी के बर्तन को समझने पर मिट्टी के सभी बर्तन समझना सरल होता है-क्योंकि विविध वस्तुओं के आकार-प्रकार विभिन्न होने पर भी उन सबमें व्याप्त मिट्टी ही वस्तुतः सत्य होती है। ‘मृत्ति का इत्त्येव सत्यम्!’ वैसे एकात्मता से विश्व की अनेकता प्रकट हो गई! यह समझने पर कैसी वासना, कहाँ की कामना ‘त-तू मैं-मैं’ का झगड़ा उत्पन्न कर सकेगी!

लौकिक गुरू से अनेक विद्याएँ सीखकर आए श्वेत केतू को अहंकार हो गया था अपनी विद्याओं का। पिता आरुणी उद्दालक से उसने जीवन की एकात्म मूलभूत सत्ता का परिचय पाया। जीवन जीने की कला और विज्ञान उसे सीखने को मिला। वह नम्र हो गया। तुकाराम, महाराज कहते थे- ‘नम्र झाला भूतां तेणे कोण्डिले अनन्ता!’ जो भूत मात्र के लिये नम्र हो गया, उसने अनन्त तत्त्व को कैद कर लिया अपने में! आज की नई पीढ़ी को असन्तुलित पर्यावरण ही गुरु बनकर सिखा सकता है। उससे संयम, सादगी का पाठ पढ़कर नचिकेता के समान भोग-त्याग की हिम्मत युवा वर्ग जुटा सकेगा तो? तो स्वर्ग धरती पर उतारने के लिये नचिकेता ने यमराज से जैसे अग्नि विद्या सीख ली थी वैसे सबके लिये जीने का, नये सिरे से उचित कर्मानुष्ठान करने का व्रत लिया जा सकता है। ‘ईशावास्य’ उपनिषद ने अग्नि की ही प्रार्थना की है-

अग्ने नय सुपथा राये
अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मत् जुहराणमेनं
भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।।


सन्मार्ग को पाकर सच्ची प्रगति करने के लिये, सभी के लिये काफी होगी ऐसी विपुलता (राये) निर्माण करने के लिये अग्नि का मार्गदर्शन लेना चाहिए। अग्नि है असली प्रगति का गुरू- ‘अग्रे नयति इति अग्निः’ –यह व्युत्पत्ति है अग्नि जो आगे ले जाने के लिये नेतृत्व करता है, सुवर्ण का भी हीण कचरा जलाकर उसे तेजस्वी बना देता है, वक्र या कुमार्ग से दूर रहकर हीनता को कैसे पराभूत करना, नित्य ऊर्ध्वगतिक कैसे रहना- यह सब सिखाने के लिये अग्नि के सिवा अन्य कौन-सा तत्त्व ढूँढेंगे?

झरथ्रुष्ट्र ने पारसी अग्यारी में इसी हेतु से अग्नि नित्य प्रज्ज्वलित रखने को कहा। सूर्य की उपासना भी इसी में शामिल हो सकती है। नित्य प्रज्ज्वलित अग्नि यानी नित्य यज्ञ का अनुष्ठान अपने जीवन की आहूति देकर दुनिया के लिये ही पूर्णरूप से जीने वाला व्यक्ति सच्चा ज्ञानी, भक्त और कर्मयोगी होता है। गुरु रूप में प्रणम्य अग्नि ‘जातवेदस्’ यानी प्रज्ञानी होता है। छान्दोग्य उपनिषद में उल्लेख आया है उपकोसल नाम के विद्यार्थी का।

वह अग्नि की कृपा से ही ब्रह्मज्ञान की तैयारी कर सका था। कामना-वासनाओं को जीतकर सभी इन्द्रिय उस सर्वव्याप्त जीवन की एकता का अनुष्ठान करने लगी कि सच्चा सुख और शान्ति अपने आप ही पुष्प के सुगन्ध के समान जीवन में व्याप्त हो जाते हैं। फिर आवश्यक भोग सागर में नदियाँ जैसे प्रविष्ट हो जाती हैं वैसे व्यक्ति और समाज जीवन में उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन इन भोगों के मोह में मनुष्य को फँसना नहीं चाहिए इतना ही। और यह श्रीकृष्ण की गीता के सिवा अन्य कौन समझा देगा? नित्य भरपूर रहने वाले सागर में नया जल नदियों ने डाल दिया तो भी उसमें ‘उथल-पुथल’ या बेचैनी नहीं होती है। सागर कि स्थिर प्रसन्नता नित्य बनी रहती है वैसे ही जिसे चित्त की बुद्धि की स्थिरता, प्रसन्नता प्राप्त है उसमें आवश्यक भोग प्रविष्ट होने पर भी अस्वस्थता, चंचलता निर्माण नहीं हो सकती। ऐसा स्थितप्रज्ञ श्रीकृष्ण के वर्णन में प्रकट हुआ है।

आपूर्यमाणम् अचल प्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशंति यद्वत्।
तद्वत्कामायं प्रविशन्ति सर्वे
स शांतिमाप्नोति न कामकामी।।


जो कामनाओं का गुलाम बनकर भोगों के पीछे जाएगा वह शान्ति, स्थितप्रज्ञा, प्रसन्नता कैसे पा सकेगा? गीता तो मातृवत वात्सल्य से सिखाने वाली गुरू है। निस्पृहता का वरदान ही स्थितप्रज्ञा को जन्म दे सकता है। और निर्मम, निरहंकार वृत्ति स्थितप्रज्ञा की सखी है। गीता कहती है।

विहाय कामान्यः सर्वान्मुपमांश्चरति निस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः सशान्तिमधिगच्छति।।


निर्मोही निरपेक्ष भक्त कैसा होता है? ज्ञानेश्वर बताते हैं-

आणि मी हे भाष नेणे। माझे काहीं चिनम्हणे।
सुख दुःख जाणणे। नाहीं जया।।


मेरे भक्त के जीवन में ‘मैं’ की भाषा ही नहीं होती, ‘मेरा’ कुछ भी नहीं है-यही वह कहेगा। इसलिये उसे सुख और दुःख का भान भी नहीं होता- उसके जीवन में इस द्वन्द्व का स्पर्श हुआ ही नहीं है। कारण जीवन का एकात्म तत्त्व सुख-दुःखों के द्वन्द्व से परे है, सभी द्वन्द्वों के परे होता है वह। तुकाराम अपने अभंग में (काव्य में) यही कहकर भगवान से नाता जोड़ रहे हैं।

सुख-दुःखातीत, तुझे हे स्वरूप।
म्हणूनिया माप। भक्ति केले।।
भक्तिचीया मापे। मोजितो अनन्ता।
इतरे तत्त्वता। न मोजवे।।


उस अनादि-अनन्त आत्मा तत्त्व को-ईंट पर खड़े विश्वेश्वर विट्ठल को-नापना हो, उसे व्याप्त करना हो तो भक्ति का ही नाप काम करेगा, अन्य किसी से यह सम्भव नहीं होगा। क्योंकि भक्ति यानी आर्न्तबाह्य, साकार-निराकार आत्मतत्त्व को व्याप्त करके स्वयं को मिटा देना।

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 

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