विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

25 Oct 2018
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देश, राष्ट्र, भाषा, धर्म, वंश इनकी सीमाएँ धुँधली हो गई हैं। ऐसे आधुनिक युग में मनुष्य का जीवन-परिवर्तन शस्त्र से करने की ठान ली गई तो सर्वनाश ही निश्चित होगा। विचार व शब्द इनके माध्यम से परिवर्तन घटित करना यही मानव-क्रान्ति का स्वरूप मानना होगा। यह दृष्टि विनोबा ने विशद की। इसके लिये प्रत्यक्ष अनुष्ठान भी जो उन्होंने चलाया, उसे अभूतपूर्व ही कहना होगा स्व-भाषा मनुष्य के हृदय को स्पर्श करती है। सारा देश एकात्म तथा एकरूप हो इस हेतु से विनोबा ने भारत में प्रचलित प्रमुख बाईस भाषाएँ सीखी। किसी भी प्रान्त का कार्यकर्ता उनके पास पहुँच जाए, तो वे उसके साथ उसकी मातृभाषा में बोलते थे

आधुनिक विकास की विडम्बना करने के लिये उन्होंने लंदन में एक मजे का सत्याग्रह किया था। ‘थ्रो अवे इकोनॉमी’ के प्रतीक फेंके गए, निरुपयोगी करार दिये सामान के-पुरानी मोटरें, यन्त्र-सामग्री इत्यादि के प्रचण्ड पर्वत-प्राय टीले पर चढ़कर उन्होंने विनाशक तंत्र-विज्ञान का विरोध प्रकट किया था।

अॉस्ट्रिया के विक्टर शॉबर्जर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से अनपढ़, अज्ञानी व्यक्ति थे। परन्तु प्रकृति से उन्होंने जो शिक्षण पाया और उसके आधार पर प्रत्यक्ष प्रयोग करके जो नया तंत्र-विज्ञान निर्माण किया वह अद्भुत कोटि का ही था। सृष्टि के सभी आविष्कारों का वे निकट से अध्ययन करते और फिर शिष्य बनकर प्रकृति का अनुकरण करते। विशेष रूप से जल-जमीन और जंगल इनका प्रेम उन्हें नई दृष्टि दे सका। बड़े शहरों में जल-आपूर्ति का कार्य लोहे के या सीमेंट के पाईप करते हैं। शाबर्जर का कहना था कि यह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। ताँबे की या लकड़ी की पाइप में प्रवाहित होने वाला पानी सबसे अधिक आरोग्य कारक होता है यह उन्होंने सिद्ध करके दिखाया।

प्रदूषित गन्दा पानी लेकर उन्होंने उसे पहाड़ के झरने जैसा गुण सम्पन्न, शुद्ध बनाकर दिया। नैसर्गिक जल-स्रोत जिन प्रक्रियाओं से गुजरता है और अपने परिपृथकता का ‘वर्तुल’ पूरा करता है उसी का अनुकरण अपनी प्रयोगशाला में उन्होंने किया था। कार्बन डाई ऑक्साइड, कुछ क्षार और खनिज धातुओं को मिलाकर बना मिश्रण एक अण्डे के आकार के पात्र में डालकर उस गन्दे पानी के साथ उसे ‘हाइपर बोलक सेंटिपेटल’ गति दी। यह पानी पहाड़ी झरने जैसा ही है यह लेबोरेटरी में सिद्ध हो गया। सब जगह उनकी ‘जल जादूगर’ रूप में प्रसिद्धि हो गई।

आज का तंत्र-विज्ञान प्रगति का जो रूप प्रकट करता है, उससे उष्णता, वायु-प्रतिरोध व ध्वनि-उत्पात निर्माण होते हैं। मनुष्य की दोष युक्त व्यवहार-नीति के कारण निसर्ग का विरोध प्रतिक्रियात्मक ‘बगावत’ करता है, ऐसा शॉबर्जर कहते थे। आइंस्टाइन की पद्धति के अणु-विस्फोट युद्ध के लिये हो या शान्ति के लिये उनसे निसर्ग और मानव के विरोध में अपराध ही घटित होते हैं। इसके बदले जीवन-संरक्षक और पोषक अणु-ऊर्जा का निर्माण करने के लिये ‘एक्सप्लोजन’ के आधार पर ‘इमलोजन’ अन्तस्फोट की शीघ्र-प्रक्रिया उपयुक्त होगी यह शॉबर्जर ने प्रयोग से सिद्ध कर दिखाया। यह ऊर्जा विधायक होगी। आज की भाषा में- ‘इको-फ्रेंडली’ होगी। इसका उपयोग करने से प्रदूषणों का, जल-जमीन-जंगल के विनाश का सवाल खड़ा होगा नहीं। परन्तु यह विधायक ऊर्जा और उसमें से विकसित होने वाला तंत्र-विज्ञान दूसरे विश्व युद्ध के विषैले, द्वेषपूर्ण वातावरण में करीब खो ही गए।

इतना अवश्य हुआ है कि शॉबर्जर के बेटे के साथ अन्य वैज्ञानिकों ने उसकी मुत्यु के बाद इस दिशा में प्रयास चालू रखे हैं। अॉस्ट्रिया में ‘बायोटेक्निकल एकेडमी’ स्थापित हुई है।

जर्मनी, स्विट्जरलैंड, अॉस्ट्रिया व स्वीडन इन देशों में बायो-टेक्नोलॉजी के विकास के लिये संगठन भी बना हैं। शॉबर्जर के शोध कार्य को आधुनिक विज्ञान की परिभाषा में व्यक्त करके यही स्पष्ट करने का प्रयास ये वैज्ञानिक कर रहे हैं कि विज्ञान-विश्व की भौतिकवादी विकास की दिशा गलत है। ‘मृत्यु’ के तंत्र-विज्ञान को छोड़कर जीवन के तंत्र-विज्ञान’ को लाने का भी यह प्रयास है। निसर्ग की स्वाभाविक गति केन्द्रवर्ती होती है और अपने से परे स्वयं अतीत सत्य की ओर रहता है यह सत्य सूक्ष्म और जीवन्त होता है। यह शॉबर्जर की अनुभूति थी। यह जीवन का दर्शन भारतीय ऋषि-मुनियों के एकात्म दर्शन का ही स्मरण करा देता है। इस दिशा में विज्ञान-विश्व की प्रगति हो सके तो मानव प्रकृति का प्रेम सम्बन्ध रहेगा और विकास की दिशा ‘डेथ-टेक्नोलॉजी’ से ‘लाइफ टेक्नोलॉजी’ की तरफ हो जाएगी।

मृत्यु की ओर ले जाने वाले विकास की जड़ में न्यूटन-प्रणित पुराना विज्ञान था और आइंस्टाइन के अणु-विस्फोट में निहित विज्ञान नई दिशा लेकर चला था। अणु-विज्ञान ने भौतिकता की आधारशिला (अणु का अस्तित्व) ही उखाड़ फेंक दी।

जीवन का अन्तिम सत्य लेबोरेटरी में निराकार के बाद फ्रिट्झोफ काप्रा को बेचैनी हो आई। जीवन यदि एक है, निराकार ऊर्जा उसका मूल है-तो उसका साक्षात्कार होना जरूरी है। परन्तु लेबोरेटरी गुरू का यह काम नहीं कर सकती थी। उन्होंने चीन का रास्ता पकड़ा। छः वर्षों तक ध्यान-मार्ग की एकात्म साधना में रमे रहे। भारत भी आए। मुम्बई में जिस होटल में ठहरे थे वहाँ दर्शनी बाह्य अहाते में ताण्डव नृत्य में मग्न भोले नटराज की मूर्ति ने उनका स्वागत किया। सभी कालों में जीवन की यह एकता स्थिति-प्रलय का नृत्य करती रहती है। काप्रा को विज्ञान की सुझाई निराकार एकता और मानव हृदय में अनुभूत होने वाली आत्मिक एकता समान्तर दिखाई दी। अपनी ‘ताओ अॉफ फिजिक्स’- भौतिक शास्त्र का अन्तिम सत्य-इस किताब में इस समान्तरता का रहस्य खोजने की चेष्टा की है।

कुछ हद तक यह रहस्य खोल भी सके हैं वे। लेकिन तब विकास की आज की गति गलत दिशा में जा रही है यह सत्य चैन कहाँ लेने देगा? आइंस्टाइन को भी विनाशक अणु-विस्फोट के कारण ग्लानि हो आई थी। लेकिन ध्यान की ऊर्जा, एकात्मता की चैतन्यमयता अनुभूत करने की तड़पन का प्रोक हृदय में जागा यह उनकी विशेषता है। उन्होंने पर्वतीय सन्तों से तत्वदर्शियों से ऐसी मुलाकातें भी कीं। नए युग में असंख्य आयामों में विज्ञान विकसित हुआ है-इनकी दिशा भी शान्ति, सौहार्द की रचनात्मक दिशा ही उन्हें अभिप्रेत रहना स्वाभाविक है। आन्तरिक एकात्मता की अनुभूति का पथ विनाशक सम्भावनाओं की ओर कैसे जा सकता है?

इसी तरह विनाशक विकास के विरोध में प्रख्यात शिक्षाविद और समाज-शास्त्रज्ञ इवान ऐलिच शहर छोड़कर मेक्सिको के एक आदिवासी गाँव में आश्रमीय जीवन जीने के लिये जा बसे हैं। शिक्षा की दिशा गलत होने से यह विकास आत्मघाती हुआ इसका अहसास होने पर ‘डी-स्कूलिंग सोसाइटी’ मे समाज में से शिक्षण संस्थाओं को मिटा देने का आन्दोलन ही मानो छेड़ दिया। अपने ‘हिस्ट्री अॉफ नीडस’- ‘आवश्यकताओं का इतिहास’ किताब में प्राचीकाल से यह इतिहास कैसा और क्यों रहा इसकी चर्चा की है। आज का फैशन, फालतू वस्तु-वर्धन कल की मुख्य जरूरत बन सकता है-यह मानव-मानस की वास्तविकता उन्होंने खुलकर प्रकट की है। भारतीय परम्परा में व्यक्त हुए संयम, प्रेम और अखिल विश्व की एकात्मता का जीवन-दर्शन उन्हें प्रेरणादायक लगा हो तो आश्चर्य नहीं। भावी मानव-समाज के लिये कौन सा आदर्श उन्हें सूझा? ‘शायद एस्कियमो’-उन्होंने कहा।

विनोबा ने एक सन्दर्भ में कहा हैः कितने ही लोगों को हिन्दुस्तान की प्राचीन काल से चलती आई सारी सिखावन निवृत्ति मार्ग पर होने से आक्षेपार्ह लगती है। ‘निवृत्ति मार्गी’ कहकर एक (अपमान कारक) गाली ही मानो दी गई। लेकिन मैं उसका अर्त प्रशंसात्मक ही लेता हूँ। प्रवृत्तिपरक तत्व ज्ञान अणुशस्त्रों की ओर ले जाता है। प्रवृत्ति की सिखावन देनी नहीं पड़ती, वह तो प्राप्त ही है। निवृत्ति ही लोगों को योग्य मार्ग पर रखती है और वह सीखने की व सिखाने की आवश्यकता है।

विनोबा आगे कहते हैः ‘निवृत्ति’ का अर्थ ‘आलसीपन’ नहीं, यह स्पष्ट ही है। क्योंकि आलसीपन एक वृत्ति है और वह प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के स्वरूप में होने से घोर प्रवृत्ति ही है। अहिंसा का कार्य जीवन-शुद्धि के माध्यम से ही होने वाला है। इसलिये उसमें तूफानी कार्यक्रमों के लिये स्थान ही नहीं है। वह एक निरन्तर जागृत, शान्त तेज से भरपूर ज्ञानमूलक निवृत्तिपरक कर्मयोग-निष्ठा है।

चित्त शुद्धि से समाज-जीवन में अहिंसक कार्य करना इसका क्या आशय है? इसका स्पष्ट आशय यही है कि जीवन की अनेकता में एकता का प्रत्यय जगाना और यह एकता आत्म प्रत्यय के आधार पर ही टिकेगी। यह आत्म प्रत्यय कितना जबर्दस्त होता है, यह भी विनोबा के जीवन में दिखाई देता था। कश्मीर में पदयात्रा चल रही थी। संवाद के वातावरण में बाबा ने मजे में कहा, “मनुष्य तो हिमालय को भी उठाकर फेंक सकता है?” सभी आश्चर्य से देखने लगे। बाबा ने स्पष्ट करते हुए कहा, “उसमें क्या है? हम तिब्बत में प्रवेश करेंगे तो उत्तर का हिमालय दक्षिण दिशा में क्यों नहीं होगा। हमारे लिये?” मनुष्य चाहे तो दुनिया का पूरा व्यवहार, पूरा जीवन परिवर्तित करके दिखा सकता है। मृत्यु का विज्ञान जीवनदायी विज्ञान में परिवर्तित करना हमारे हाथ में है।

ऐसे ही जीवन-दर्शन की खोज में रहे इंग्लैड के विल्फ्रेड वेलॉक तारुण्य में भूदान के प्रेमी बन गए। अनेक बार भारत आए। गाँधी-दर्शन के अभ्यासक रहे। ‘अॉफ दि बॉटेन ट्रक’ किताब लिखी। विनोबा ने स्पष्ट बताया कर्मयोग निष्ठा प्रत्यक्ष जीने वाले विलफ्रेड वेलॉक जैसे अनेक युवक विकसित देशों में निर्मित हो रहे हैं। क्योंकि आवश्यकताओं को बढ़ाकर उनके गुलाम बनने से किसी को शान्ति नहीं मिलती यह अनुभव जीवन की ओर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिक्षेप करने वालों को अवश्य मिलता है।

अमेरिका-यूरोप-जापान, अॉस्ट्रेलिया और नीदरलैंड के ‘विकसित’ समाजों में विचारक, तत्वज्ञ, लेखक इत्यादि ही नहीं सामान्य नवयुवक-युवतियाँ भी विकास की विभीषिका टालने के लिये नई जीवन-पद्धति स्वीकार कर स्वयं स्फूर्त प्रयोगी जीवन जी रहे हैं। स्वयं खेती करके, अन्य उत्पादन का तरीका खोजकर, वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग बढ़ाकर, संयम का, शान्ति का रास्ता प्रशस्त करने में लगे हैं। इसमें ध्यान के मार्ग का, उपासना की साधना का भी कुछ अंश वे अपनाते हैं। भारत में भी अन्याय प्रान्तों में गाँधी-विनोबा जी की प्रेरणा से या स्वतंत्र रूप से ऐसे प्रयोग करने वाले युवा लोग हैं। गुजरात में, कर्नाटक में ऐसे जीवन के नमूने पेश हो रहे हैं। ये आशा की किरण है कल के मानव-विश्व की दृष्टि से।

जीवन की ओर गम्भीर-गहरी दृष्टि से देखने वालों में कुछ वैज्ञानिक भी शामिल हैं। वे कार्य तो करते रहे होंगे विकास की प्रचलित लीक में ही, परन्तु वैचारिक दृष्टि से उनकी मान्यताएँ बदल रही हैं। इस वजह से उनके विचार एवं मान्यताएँ गाँधी जी के विचार व मान्यताओं से समान्तर होने की बात स्पष्ट हो रही है। इन में से कुछ वैज्ञानिक हैं-डेविड बाॅन, इलियाप्रियोजिम, कार्ल प्रिव्रम और रुपर्ट शल्ड्रेक। परन्तु एक बार वैज्ञानिकों की एक कॉन्फ्रेस में पूछा गया कि शान्ति और सौहार्द बढ़ाने के लिये प्रयोग करने वाले वैज्ञानिक कितने हैं और युद्ध-वाद को सिर पर चढ़ाकर शस्त्रास्त्रों के लिये खोज कार्य में लगे वैज्ञानिकों की संख्या कितनी है। इस पर जो आँकड़े सामने आए वह वास्तविकता की भंयकरता प्रकट करती है।

युद्ध की तैयारी में लगे वैज्ञानिक राजनीति के हाथ के खिलौने बने रहते हैं- उनकी संख्या बताई गई तीन-चार हजार और स्वतंत्र रहकर शान्ति का पक्ष लेकर कार्यरत वैज्ञानिक दुनिया में मात्र सौ हैं ! और शान्ति का पलड़ा भारी होकर न्यूक्लियर शस्त्रास्त्र फेंक देने का निर्णय भी सभी विकसित देश लेते हैं, तो भी उन्हें फेकेंगे कहाँ? ना समुद्र में ना उत्तर या दक्षिण ध्रुव पर उन्हें स्थान मिल सकता है। इसी कारण से विकिरणों का, रेडियो एक्टिव कचरे का प्रश्न अण्वस्त्र रखने वाले देशों के सामने मुँह खोल कर खड़ा है।

परन्तु वास्तविक युद्ध क्षेत्र तो मनुष्य का मन ही है। युद्ध पहले बुद्धि और मन में विकसित होते हैं, बाद में सृष्टि के परिसर में उनका विस्फोट होता है। अनुकरण से भी युद्ध की प्रेरणा मिलती रहती है। एक उदाहरण बच्चों का ही हैः अमरीका में दो बच्चों ने अपने पिता की गोली मारकर हत्या की। जब जुवेनाइल कोर्ट में उनसे पूछा गया तुम दोनों ने ऐसा क्यों किया? उन्होंने निष्पाप भाव से जवाब दिया- जब हमने पिताजी से पूछा कि टी.वी. पर लोग गोली लगकर मरते हैं और उठकर चलने लगते हैं यह कैसा? उन्होंने समझाया कि यह तो मरने का नाटक होता है- एक्टिंग है वह-सचमुच नहीं मरता है कोई इसमें ! हमें लगा कि हम भी गोली मार देंगे तो पिता उठकर चलने लगेंगे। लेकिन वे तो सचमुच मर गए ! यह अज्ञान भी है और नकल करने की प्रेरणा भी है। बड़े राष्ट्रों, देशों को नकल करने की प्रेरणा मिलती है। इसलिये अण्वस्त्र या अन्य अस्त्र-शस्त्र उपयोग को सब्जी काटने के लिये नहीं करता, उससे तो हत्या ही होती है। एक बार शस्त्र बन गए कि युद्ध की प्रेरणा भी नित्य बनी रहेगी। इस भावी को टालने का मार्ग एक ही है। परस्पर का प्रेम और सौहार्द? इसलिये जाति-जातियों के बीच की दीवारें, धर्म-धर्म के वैमनस्य के पर्दे, गिर जाने चाहिए।

राष्ट्रों के, देशों के आन्तरिक जीवन में और बाह्य सम्बन्धों में सख्य की राह खोलने का यही एक मार्ग है। सहयोग इसी में से पनपेगा और यही आन्तर्बाह्य सन्तुलन का उपाय है। इसलिये काका साहेब कालेलकर जी ने जब रैहाना तैय्यब को अपनी कन्या ही माना और गुजरात की सरोज और रैहाना इन दो आत्मजाओं के साथ वे रहने लगे तब गाँधी जी ने उनसे कहा काका आप यह बहुत बड़ा कार्य ही कर रहें हैं। आपका सारा देश सेवा कार्य, शिक्षा क्षेत्र का, लेखन का, विचार और आचार परिवर्तन का कार्यक्रम एक तरफ और इन दो कन्याओं को एक साथ रखना और उनके पिता बन जाना सबसे बड़ा काम है ऐसा मैं मानता हूँ।

बड़ौदा के दरबार में तैय्यब जी न्यायधीश के पद पर थे, काफी विख्यात था उनका वहाँ का योगदान। गाँधी जी की आँधी में यह सारा छूट गया। गुजरात के, बड़ौदा के आस-पास के गाँवों में खादी-प्रचारक का काम उठाया और साथ में खादी के गट्ठर लेकर उनका कार्यक्रम बन गया। उनकी यह कन्या गुजरात की ‘मीरा’ ही थी। कृष्ण का भजन नहीं सिखाएँगे तो संगीत-शिक्षक को आने ही नहीं देती वह, स्वयं ही उठ कर चल देती। मुस्लिम घर की लड़की होकर कृष्ण की भक्त बनी ऐसा कहकर लोग टीका-आलोचना करेंगे इस भय से माँ ने कहा मुहम्मद साहब पर भी तो लिखा कर कविता! रैहाना को मुहम्मद साहब भी प्रिय थे। उन पर भजन लिखकर गाने लगी तब पैगम्बर साहब ने दृष्टान्त कहा- मैं तुम्हारे कृृष्ण के जैसा दिखता हूँ- इसलिये तुमने बहुत मीठा भजन बनाकर गाया है न?

रैहाना को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं। देश-विदेश के लोग प्रश्न पूछने, सलाह लेने आ पहुँचते थे। ‘सर्व धर्मसमानत्व’ यह आश्रममय जीवन का व्रत रैहाना बहन के जीवन का सूत्र बन गया था। आए हुए जिज्ञासु जिस धर्म के होते थे उसी का महत्व रैहाना बहन उनको समझा देती थी। उनकी परम्परा में सुझाई साधना के मार्ग पर ही उन्हें चलने की प्रेरणा वे देती। ऐसा यह जीवन काका साहेब के पास रहते हुए विकसित हुआ। हेतुपूर्वक नहीं बल्कि सहजता से सभी धर्मों के बीच सख्य भाव विकसित होने में मदद मिली।

इस तरह परस्पर स्नेह और खुलेपन का वातावरण बन जाता है तब कितना आनन्ददायक होता है वह इसका एक उदाहरण देखने लायक है। उत्तर भारत में पंडित चकबस्तजी की विद्वता प्रख्यात थी। वे उत्तम कवि थे, संस्कृत और उर्दू भाषाओं पर हिन्दी का जितना ही प्रभुत्व था उनका। एक कवि-सम्मेलन में वे शामिल हो गए तब उन्हें पंक्ति-पूर्ति के खेल में हिस्सा लेना पड़ा। उन्हें पंक्ति-पूर्ति के लिये पंक्ति दी गई-

है वही काफिर कि जो शैदा नहीं इस्लाम का।
एक क्षण भर भी विचार करने वे रुके नहीं-तत्काल बोल पड़े-
लामे नसतालीक है गेसू मेरे घनश्याम का।
है वही काफिर कि जो शैदा नहीं इस्लाम का।।

इतना सुनते ही हिन्दू-मुस्लिमों की उस महफिल में इकट्ठा भीड़ ने तालियों की गड़गड़ाहट से वातावरण गुँजा दिया।

उर्दू भाषा में ‘ल’ कार ‘नसतालीक’ यानी वक्र रूप में भी लिखा जाता है। पंडित चकबस्त जी की काव्य पंक्ति का अर्थ हो जाता हैः मेरे घनश्याम के बालों की लट ‘नसतालीक’ यानि वक्र है। उसका जो गुलाम नहीं होगा वह तो काफिर ही है। तालियों की खुशी में कृष्ण और इस्लाम का द्वैत-जो था ही नहीं वास्तव में- कहीं का कहीं काफूर हो गया। परस्पर के सौहार्द के वातावरण में मनभेद भी कहाँ से टपकेगा?

ऐसे अनेक उदाहरण सख्य-योग के यश का गान करते हुए सभी मिश्र समाजों में मिलते हैं। हर युग में मेल-मिलाप का वातावरण पैदा करने वाले सन्त प्रकृति के लोग उत्पन्न होते हैं और मानव धर्म की जयकार पुकारते हैं। इसलिये गाँधी जी का यह कहना सच है ऐसा लगता है कि मनुष्य मूलतः प्रेमी है, सख्य उसके स्वभाव में है। शत्रुत्व के लिये, लड़ने के लिये कारण की जरुरत होती है। कारण तो ऊपरी, उथला होता है। गहराई में होता है जीवन का प्रेमाकर्षण और यही मूलभूत प्रेरणा होती है मानव-चित्त की। लड़ने की, युद्ध की प्रेरणा मूलभूत होती तो पृथ्वी पर मानव-जीवन कभी का समाप्त हो जाता।

उपनिषदों ने कहाः शान्तोअयमात्मा। इस आत्मिक शान्ति पर आए राग-द्वेष के पर्दों को हटाने का काम साधना का है। वहीं जीवन-साधना व्यापक प्रमाण पर, जीवन के सभी अंग-उपांगों को स्पर्श करने वाली हो गई कि सृष्टि के साथ भी प्रेम और सख्य के सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं। इस तरह का सर्व सन्तुलित, सख्य-प्रेम से भरपूर जीवन धरती पर उतारने का उपक्रम राजनीति नहीं कर सकती। उसके लिये स्वतंत्र रूप से मित्रता बढ़ाने का कार्य स्वतंत्र लोक-संघटन देश-विदेशों में कार्य-प्रवण होने चाहिए। इस तरह के अनेक प्रयोग आज हो ही रहे हैं। उन्हें गति और दृष्टि मिलने की आवश्यकता है।

ऐसी ही स्वतंत्र लोक-संघटित-संस्थाएँ विकास की नई सृष्टि व मानव मित्रता का आयाम खोल सकती हैं। इनमें से भेद-भाव रहित सभी के लिये स्थायी सुख-शान्ति और आवश्यक चीजों की पूर्ति होने के लिये आवश्यक समृद्धि के दर्शन प्रकट होंगे। यही कुमारप्पाजी ने गाँधी जी के साथ काम करते-करते सुझाया ‘इकोनॉमी अॉफ परमनंस’ ऐसा अर्थशास्त्र जो सातत्यपूर्वक चलता रहे, सभी को न्याय दे, उचित जीवन-स्तर बनाए रखे। इसके सामने ‘इकोनॉमी अॉफ अॅफलुएस’ बहुतायत का अर्थशास्त्र या ‘थ्रो अवे इकोनॉमी’ जीवन का, सृष्टि का अपमान करने वाला दुरुपयोग करने वाला अर्थशास्त्र बौना ही नहीं, अनर्थकारी कैसा होता है यह हम देख चुके हैं।

सन्तुलित पर्यावरण निश्चित करने वाले विकास हेतु प्राथमिकताएँ

इतना कहने के पश्चात कबीर की एक उक्ति भी ध्यान में रखने योग्य लगेगीः

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान।
जो आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।

इस तरह सन्तोष धन से समृद्ध मानव व सन्तुलित पर्यावरण निश्चित करने वाला विकास कौन सी प्राथमिकताएँ मान्य करेगा, इसका एकत्रित उल्लेख करके अपना निवेदन समाप्ति के निकट पहुँचा देंगे।

पहली प्राथमिकता रहेगी- धरती पर समाज केवल मानवों का नहीं होगा। धरती के सभी निवासी अपने पारिवारिक सदस्य होंगे। सभी का जीवन मूल्यवान, रक्षणीय होगा मानव की दृष्टि से। इसलिये, संयम और सादगी के मूल्य महत्त्वपूर्ण रहेंगे।

दूसरी प्राथमिकता होगी- ऊर्जा प्राप्त करने के वैकल्पिक साधन खोजना। मानव, पशु, बायो, सूरज, पवन, जल-प्रवाह इनकी सहायता से सभी कार्य करने की कोशिश हो। पेट्रोल-डीजल और वृक्ष इनका उपयोग ऊर्जा प्राप्ति के लिये कम-से-कम हो।

तीसरी प्राथमिकता- भूमि क्षरण, भू-स्खलन रोकने वाला वृक्षों का आच्छादन धरती पर ज्यादा-से-ज्यादा हो। पंच एफ वृक्षों का रोपण मानव की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मानव बस्तियों के निकट अधिकतर हो। प्राण वायु और जलपूर्ति की दृष्टि से आवश्यक वन-विकास अवश्य हो। वृक्ष-खेती के प्रयोगों को प्राथमिकता मिले।

चौथी प्राथमिकता- नए तंत्र-विज्ञान का विकास करें सृष्टि-मैत्री की नींव पर वह खड़ा हो। ग्रामोद्योग, गृह उद्योगों को प्रोत्साहन मिले। उद्योग मनुष्य के निवास से बहुत दूर खड़ा न करें। साइकिल की सहायता से बीच का अन्तर पार कर सकें ऐसी अधिकतर योजना बने।

पाँचवी प्राथमिकता- शैक्षणिक और सांस्कृतिक विकास की रूपरेखा स्पष्ट करना- जिसमें से जीवन की एकात्मता सहजता से ग्रहण होगी, सख्य का आयाम आनन्दपूर्वक खुलेगा। ध्यान का, आसन-प्राणायाम का अभ्यास शिक्षा व उन्नत संस्कारों के क्षेत्र में अवश्य रहेगा।

इस तरह का विकास स्वीकारना और सादगी- संयम का पाठ पढ़ने-पढ़ाने का अर्थ क्या अब बैलगाड़ी के युग में वापस लौटना होगा? ऐसी टीका-आलोचना औद्योगीकरण वाले विकास के समर्थक करते आए हैं। इसलिये यहाँ यह स्पष्ट करना जरूरी है कि विज्ञान ने दुनिया छोटी बना दी है। इस ‘कुटुम्बकम’ छोटे कुटुम्ब में सभी के साथ धरती पर रहना है इसलिये हर क्षेत्र में हुई सर्वतोभद्र प्रगति को नजर के सामने से हटा देना न सम्भव है न जरूरी है। ऐसे प्रगति-विमुख रहकर कोई भी देश जी नहीं सकेगा। आज अध्यात्म ने विश्व की एकात्मता प्रकट की है तो विज्ञान ने उसे प्रत्यक्ष में उतारने के लिये सभी को निकट आने का अवसर प्रदान किया है। इसलिये अवश्य ऐसे बड़े उद्योग भी विकसित होने होंगे। रेल-हवाई जहाज, कुछ प्रमाण में शहरों का निर्माण यह सब इसके लिये आवश्यक होंगे ही। वैश्विक अवभान और दृष्टि शिक्षण में से अवश्य विकसित हो। परन्तु अपने-अपने देश का, प्रान्त का भूगोल, इतिहास, सांस्कृतिक जीवन और सम्पूर्ण जीवन, मानव और सृष्टि का स्वास्थ्य रक्षण कैसे होगा, प्रदूषणों का अभिशाप कैसे टलेगा- इन सभी आयामों का विचार करके विकास की योजना चलानी पड़ेगी यह ध्यान में रखना अत्यावश्यक हो गया है। इसके लिये विनोबा का दिया सूत्र मार्गदर्शक हैः

अध्यात्म की आँख विज्ञान की उचित प्रगति के लिये स्वीकृति होगी तो सर्वोदय होगा।

और राजनीति के दबाव में विज्ञान प्रगति करेगा तो सर्वनाश होगा। अध्यात्म की आँख खुलने का अर्थ यही है कि विकास सातत्यपूर्वक हो, क्षेत्रीय असन्तुलन टले और अनैतिक साधनों के आधार से वह न हो। एक के लिये लाभ दूसरे की भले ही हानि-ऐसा विकास आखिर विनाशक साबित होता है। वृत्ति की व्यापकता, सत्यनिष्ठा और प्रयत्नों की शिकस्त-इन त्रिविध जिम्मेदारियों का अवभान देश-दुनिया में सभी के लिये आवश्यक है।

ऐसा अवभान जागृत होने के लिये मानसिक गुलामी का बोझ फेंक देना जरूरी है। इसका अर्थ भी यह नहीं है कि अंग्रेजी भाषा और शिक्षण का तिरस्कार करें। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध में देश के स्वातंत्र्य की तड़पन जिन्हें थी ऐसे विचारकों नेः

वाघिणीचे दूध प्याले बाघ बच्चे फाकड़े
भ्रान्त तुम्हां कां पड़े?

(बाघिन का दूध पीने वाले तगड़े बच्चे हैं आप, आपको किस बात की चिन्ता?)

ऐसा पूछते समय अंग्रेजी भाषा को ‘बाघिन का दूध’ कहा था। गुलामी का फाँस काटने के लिये साम्राज्यवादियों की भाषा सीखना आवश्यक है यह उस समय ध्यान में आया था। आज सन्दर्भ बदल गया है, फिर भी दुनिया के साथ, विज्ञान की प्रगति के साथ, सभी क्षेत्रों के विकास की परिकल्पनाओं के साथ सम्बन्ध जोड़ने के लिये यह अन्तरराष्ट्रीय भाषा सीखनी पड़ेगी ही। इस भाषा का, साहित्य का एक सौन्दर्य है, एक उन्नत संस्कारिता भी है। लेकिन इसके माध्यम से वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीति में से आने वाली भोगवाद की, युद्धवाद की, अविश्वास की, भिन्न समाजों के शोषण की, गर्दन तोड़ स्पर्धा की सिखावन स्वीकारनी होगी ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसके बदले इसी भाषा के माध्यम से विश्वभर में एक वैचारिक व आध्यात्मिक परम्परा जागृत, कर्मनिष्ठा और जीवन-प्रेम से भरपूर दर्शन प्रसृत करने की उत्कट अभिलाषा व्यक्त रूप धारण कर सकती है।

यहाँ तक निर्दिष्ट हुई दिशा में आज के समय बहुत प्रयास करने वाले अनेक व्यक्ति दुनिया भर में मौजूद हैं। उनमें एक व्यक्तित्व है श्री सुन्दरलाल बहुगुणाजी का। हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में सुन्दरलाल जी का जन्म हुआ है। श्रीदेव ‘सुमन’ जैसे गाँधी जीवन-दर्शन समझाने वाले और उसका अनुष्ठान करवाने वाले युवा गुरू उन्हें पौगण्डावस्था में ही प्राप्त हुए। मात्र अट्ठाईस वर्ष की उमर में श्री देव सुमन की टिहरी की रियासती जेल में 84 दिनों के उपवास के बाद मृत्यु हुई थी। उनके बगल वाले कमरे में ही सुन्दरलाल जी भी कैद थे। अपना गुरू सामान्य बेजबान जनता के अधिकारों के लिये अहिंसक लड़ाई लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हुआ, यह सत्य सुन्दरलाल जी आज तक कभी भूले नहीं हैं। श्रीदेव सुमन कहते थे-आप युवकों ने यदि दरिद्र, दुर्बल और अज्ञानी लोगों की सेवा करने का व्रत नहीं लिया तो अपने समाज की उन्नति करने दूसरे कौन आएँगे? यह सुनकर अपनी उमर के चौदह-पन्द्रह साल से ही सुन्दरलाल जी ने समाज सेवा अपनाई।

गाँधी-जीवन-दर्शन समाज के सामने खोलकर उसका युगानुकूल स्वरूप स्वयं प्रतिभा से विकसित करने की हैसियत सुन्दरलाल जी के व्यक्तित्व में आने के लिये कुछ अन्य महान व्यक्तियों के योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहे हैं उनमें से प्रमुख हैंः श्री विनोबा, श्री चिदानन्द महाराज, काका साहेब कालेलकर, जयप्रकाश जी एवं गाँधी जी की विदेशी शिष्याएँ-मीरा बहन और सरला बहन। उनमें से मीरा बहन-सरला बहन जी का और स्वामी श्री चिदानन्द जी का जीवनकार्य इस निवेदन में देख चुके हैं। श्री विनोबा का स्वातंत्र्योत्तर काल में वैश्विक दृष्टि से सम्पन्न समाजोत्थान का कार्य भूदान-ग्रामदानों के यज्ञ में से कैसे प्रस्फुटित हुआ यह भी हमने देख लिया है।

मनुष्य अपने साथी-संगियों-अड़ोसी-पड़ोसियों पर किस हद तक अत्याचार कर सकता है यह दिखाने वाला विकराल काल आजादी के आगमन के समय ही इस देश में उपस्थित हुआ। तब दुखार्त हृदयों को सांत्वना देने के लिये गाँधीजी के चरण पूर्व बंगाल की भूमि पर मीलों-मील चलते रहते थे। स्वातंत्र्य-प्राप्ति के ऐन उत्साह के प्रभातकाल में ही यह वृद्ध राष्ट्र-पिता वेदना-व्यथित देहात-देहात में प्रेम का दीपक प्रज्वलित करता हुआ घूम रहा था राष्ट्र-राष्ट्र की सीमा रेखाएँ गाँधी जी ने कभी मानी नहीं थी। अपमानित, वेदनाग्रस्त मनुष्य के लिये उनका हृदय तड़पता रहता ही आया था। उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए विनोबा स्वातंत्र्य-काल की लोक समस्याएँ सुलझाने के लिये चल पड़े।

जमीन की भूख हिंसक-क्रान्ति से मिटाने का प्रसंग भारत की भूमि पर न आए इसलिये विनोबा ने नए सिरे से पदयात्रा का अनुष्ठान प्रारम्भ किया। गाँधी जी का ही प्रेम का शस्त्र अनेक रूपों में व्यक्त हो सकता है यह उन्होंने दिखाया। प्राचीन यज्ञ-संस्था का पुनरुत्थान नए और सौम्य स्वरूप के सत्याग्रह में से उन्होंने प्रकट किया हृदय-परिवर्तन की प्रक्रिया सौम्य-सौम्यतर माध्यम में से अधिक गतिशील होती है यह दिखाने का उनका प्रयास था। विज्ञान-युग का मानव, मानव के निकट आया है। देश, राष्ट्र, भाषा, धर्म, वंश इनकी सीमाएँ धुँधली हो गई हैं। ऐसे आधुनिक युग में मनुष्य का जीवन-परिवर्तन शस्त्र से करने की ठान ली गई तो सर्वनाश ही निश्चित होगा। विचार व शब्द इनके माध्यम से परिवर्तन घटित करना यही मानव-क्रान्ति का स्वरूप मानना होगा। यह दृष्टि विनोबा ने विशद की। इसके लिये प्रत्यक्ष अनुष्ठान भी जो उन्होंने चलाया, उसे अभूतपूर्व ही कहना होगा स्व-भाषा मनुष्य के हृदय को स्पर्श करती है। सारा देश एकात्म तथा एकरूप हो इस हेतु से विनोबा ने भारत में प्रचलित प्रमुख बाईस भाषाएँ सीखी। किसी भी प्रान्त का कार्यकर्ता उनके पास पहुँच जाए, तो वे उसके साथ उसकी मातृभाषा में बोलते थे इसके साथ ही, किसी की भी प्रत्यक्ष बोलने की भाषा नहीं, मात्र अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध बढ़ाने के लिये यू.नो. ने जो चलाई है ऐसी ‘एस्पेरेंटो’ भाषा भी खास शिक्षक बुलाकर पदयात्रा के समय विनोबा ने सीख ली। उनका समूचा विचार-धन भी अनेक प्रान्तीय-भाषाओं में प्रसारित हो गया है।

अन्य दो महत्त्वपूर्ण आयामों में भी विनोबा ने गाँधी-दर्शन विकसित किया है। शस्त्र के रक्त रंजित मार्ग से आने वाली क्रान्ति स्त्री-जाति को किनारे ही रखती आई है और जो क्रान्ति लिंग-भेद की खाई को लाँघ नहीं सकती वह जीवन-मूल्यों को परिवर्तित करने की मूल-भूत क्रान्ति कभी हो नहीं सकती यह इतिहास ने कई बार दिखा दिया है। गाँधी जी के सत्याग्रह में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ समान-स्तर पर राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन के कार्य में हिस्सा ले सकी थीं। इसके परिणाम बहुत दूरगामी हुए हैं। लेकिन परम्परा की शृंखला इतने से टूट नहीं सकती। शतकानु-शतक तक धर्मानुष्ठान की, आध्यात्मिक साधना की पात्रता स्त्री के लिये दुर्लभ ही थी। यह पिछड़ापन दूर करने के लिये विनोबा ने ब्रह्म विद्या मन्दिर स्थापित करके एक प्रशस्त-पथ तैयार किया। देश भर से और विदेश से भी चुनी हुई कन्याएँ ब्रह्मचर्य व्रत लेकर अध्यात्म-साधना चलाने के लिये 1959 से धाम नदी के किनारे पवनार ग्राम के निकट रहती आई हैं। सर्व व्याप्त एक चित्त तत्व के साथ एकरूपता साधने की तपश्चर्या, तो यहाँ चलती ही है-साथ ही एक मत से निर्णय लेकर, ‘मैत्री’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन, खेती, गो-शाला, वस्त्र-स्वावलम्बन, अतिथि-सेवा और आत्मिक-विकास का साधनारत जीवन यहाँ स्त्रियों ने चलाया है। इसके अलावा सभा सम्मेलनों का आयोजन भी होता रहता है। इससे सर्वांगीण-समाज सेवा का स्वरूप भी प्रकट होता रहता है। अपना अहाता बिना त्यागे सम्पूर्ण विश्व की एकात्मता के दर्शन हों ऐसी वृत्ति यहाँ साधिकाओं के जीवन में विकसित हो सकती है।

साबरमती के आश्रम में दाखिल हुए विनायक भावे को गाँधी जी ने ‘विनोबा’ कहना प्रारम्भ किया। महाराष्ट्र की सन्त परम्परा उन्हें बहुत प्रिय थी। ‘ज्ञानोबा-तुकोबा’ की लय पर उन्होंने ‘विनोबा’ कहकर आश्रमीय जीवन के प्रांगण में एक ऐसे व्यक्तित्व का प्रवेश कराया जिसके जीवन में से सन्त तत्व की सुगन्ध, शरीर-श्रम के पसीने के साथ, बौद्धिक विकास की उत्तुंगता के साथ प्रसृत होती रहेगी। गाँधी जी की इन अपेक्षाओं को विनोबा ने मूर्त रूप दिया और ब्रह्म-विद्यामन्दिर के माध्यम से कोई ‘मीरा’, ‘मुक्ता’ तो प्रकट होगी ही, साथ-साथ आद्य शंकराचार्य के समान क्रान्तिकारी चिन्तन और सर्व व्याप्त जीवन का रहस्य प्रकट करने वाला कोई ‘शंकराचार्य’ भी विकसित हो-यह विनोबा की आकांक्षा रहती आयी है।

विनोबा का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य ‘सर्वधर्मसमभाव’ के सन्दर्भ में रहा है। अफ्रीका और भारत में गाँधी जी ने आश्रमीय जीवन में प्रविष्ट होने वाले स्त्री-पुरुषों के लिये एकादश व्रतों का अनुष्ठान आवश्यक माना था। इन सभी व्रतों का निष्ठापूर्वक अनुष्ठान होने पर जाति-पाँति, धर्म-अधर्म पन्थ, सामाजिक-आर्थिक उच्च-नीच भाव इनमें जो परस्पर वैर भाव, द्वैत, असमानता की धारणा चलती आई थी वह समाप्त हो और सभी लोग, स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से जीवन में ईश्वर-साधना चलाएँ यह हेतु था। इन एकादश-व्रतों में एक था- सर्व-धर्म-समानत्व एक बार काका साहेब ने गाँधी जी से कहा! सर्व-धर्म समभाव आने के लिये चित्त में सर्व-धर्म-मम-भाव का अंकुर फूटना जरूरी है। गाँधी जी को भी यही अभिप्रेत था। विनोबा ने अद्भुत स्वरूप में यह ‘मम-भाव’ प्रकट किया है।

वैश्विक-दृष्टि-सम्पन्न सभी महान धर्मों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ और सन्त-पैगम्बरों के गद्य-पद्यात्मक प्रसिद्ध साहित्य उन्होंने गहराई से देखे और चुने हुए ऐसे धर्म ग्रन्थों का तथा साहित्य का सार-संकलन प्रसिद्ध किया। सर्वलोक-सुलभ ऐसा यह महान ग्रन्थों का संक्षिप्त स्वरूप परस्परों के धार्मिक-आधात्मिक परम्पराओं का परिचय कराता है। परिचय में से प्रेम-वर्धन होना स्वाभाविक बनता है। अधिकतर अपरिचय में से अवज्ञा ही नहीं, तो अवमान भी घटित हो जाता है। इसी में से सही एवं गलत-फहमियों का तूफान उठ सकता है। इन आपत्तियों को टालने के लिये, नए एकात्म, परस्पर सन्मान के युग का आह्वान होने के लिये विनोबा से यह ‘मम-भाव’ का बड़ा योगदान हुआ है।

आन्तरिक विकास के प्रवास में विनोबा को अहेतुकी उपलब्धि काका साहेब से भी हुई है। काका साहेब विनोबा के पहले ही गाँधी जी के पास साबरमती आश्रम में, स्वातंत्र्य-आन्दोलन में, राष्ट्रीय शिक्षण के क्षेत्र में सम्मलित होने पहुँचे थे। शिक्षण-क्षेत्र का उन्हें पूर्वानुभव भी था। कर्नाटक-महाराष्ट्र-गुजरात तीनों प्रान्तों में उन्होंने देश में गाँधी युग के प्रारम्भ होने से पहले ही कार्य किया था। अखबार भी चलाया था।

बड़ौदा के सयाजीराव की रियासत में स्वतंत्र रूप से शिक्षा का कार्य करने की मुक्तता थी। ऐसी एक संस्था में विद्यार्थियों को सिखाते समय ग्रह-नक्षत्र-तारकों के विश्व का परिचय भी वे कराते थे। विनायक भावे बड़ौदा में ही विद्यार्थी था। काका साहेब के पास यह गगनव्यापी ‘देवस्थ काव्यं’ समझने के लिये वह खास जाता रहा था। आकाश-दर्शन का महत्व विनोबा को उस छोटी उमर में ही मान्य हुआ था। बाद में तो उन्होंने आकाश-सेवन भी किया। व्यापक दृष्टि और वृत्ति यह उभय वरदान प्राप्त करने के लिये आकाश की ऐसी मित्रतापूर्वक उपासना आवश्यक रहती है।

और गाँधी जी के साथ जेल में रहते समय काका साहेब ने गाँधी जी को भी आकाश-दर्शन के पाठ पढ़ाए थे वैदिक ऋषि का वचन काका साहेब को बहुत प्रिय थाः ‘पश्य देवस्य काव्यम न ममार न जीयते।’ ईश्वर का सर्व-व्याप्त काव्य ना कभी जीर्ण होता है, ना मृत होता है। इस अमर काव्य के दर्शन गाँधी जी को भी बहुत प्रेरणादायक लगे थे।

सर्व-व्याप्त चैतन्य-तत्व से एक रूप होने की जीवन-साधना चलाने वाले ऋषि-मुनियों की परम्परा नए-नए रूपों में नए सन्दर्भों में प्रकट होती रही। छोटे-छोटे देहातों में खेती का, वस्त्र बुनने का या लेखन पाठन का काम करने वाले वैदिक ऋषिओं को उन छोटे क्षेत्रों में ही व्यापक विश्व की अनुभूति होती थीः ‘विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातुरम्।’ ऐसा वे कहते थे। अधात्म-साधकों को इसी सूक्त का जप करते-करते श्रम का, बुद्धि-विकास का या अन्य कोई भी काम करना चाहिए ऐसा विनोबा का कहना था। वे कहते थे कि भारतीय ऋषियों को ‘विश्व’ से कम कुछ मान्य ही नहीं होता था।

स्वाभाविक ही था कि इन सभी संस्कारों का बहुत गहरा असर युवा सुन्दर लालजी के चित्त पर हुआ। सेवा-भाव से लोक-जीवन में प्रविष्ट हुए इस गढ़वाली कार्यकर्ता को यह सर्व-व्याप्ति की भूमिका प्राप्त थी इसलिये उनके ‘चिपको’ तथा प्रचण्ड बाँध-विरोधी लोक-आन्दोलन वैश्विक आयामों में व्यक्त हुए। स्थानीय होते हुए भी इन आन्दोलनों ने सारी दुनिया को जगा दिया। अपने यौवनकाल से चलाए गंगा-यमुनाओं के जन्म-स्थानों में, हिमालय के क्षेत्र में आवश्यक हुए शराब-बन्दी, महिलाओं का कष्ट-निवारण, वन-मजदूरों को न्याय, अस्पृश्यता समाप्ति इन सभी समाजोत्थान के आन्दोलनों में सुन्दर लालजी ने स्वयं को शून्य बनाने की प्रक्रिया ही विकसित की। इन सभी कार्यों में उन्हें जीवन-संगिनी विमला दीदी का सहयोग प्राप्त हुआ।

दीदी के साथ विवाह होने के पूर्व सुन्दर लाल जी हिमालय के उस क्षेत्र में कांग्रेस के सेक्रेटरी थे। स्वतंत्र कार्य कुशलता, प्रगल्भ वैचारिकता, वाणी और लेखन की उत्तम क्षमता उनके पास थी। पूरे प्रान्त का नेतृत्व करने की सम्भावना रहते हुए भी उन्होंने दीदी के कहने का सन्मान करके एक क्षण में राजनीति का प्रांगण त्याग कर सिल्यारा ग्राम में पर्वतीय नव-जीवन-मण्डल नाम से आश्रम स्थापित किया और खेती-गोशाला, औषधोपचार, वस्त्र-कातना-बुनना इत्यादि ग्राम सेवा के कार्य करना स्वीकारा। इसी शर्त पर दीदी ने उनसे विवाह-बद्ध होना मान्य किया था।

विमला नौटियाल सरला बहन जी की शिष्या रही। कुमाऊँ में कौसानी ग्राम में उन्होंने लड़कियों की आश्रमीय शाला चलाई थी। दीदी के साथ राधाबहन-भट्ट जैसी कई अन्य बहनें भी इस शाला में पढ़ती थीं, खेती करती थीं, बुनना-कातना सीखती थीं और ग्राम सेवा के कार्य में गाँव-गाँव घूमती थीं। 1951 से चले भूदान ग्रामदान के आन्दोलन में सरला बहन जी के साथ विमला दीदी घूमती थीं। इसी काम में जीवन-अर्पण करने की उनकी वृत्ति थी। लेकिन घर के माता-पिता आदि लोगों के अति आग्रह के कारण उन्हें विवाह के लिये सम्मति देनी पड़ी। फिर भी उन्होंने अपनी शर्त पर ही सुन्दरलाल जी से विवाह किया। स्कूल, आश्रमीय कार्य कलाप और सामाजिक आन्दोलन इन सभी कार्यों में दीदी ने अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। स्वयं अनामी रहकर, शून्य बनकर उन्होंने सभी समाज-कार्यों में सुन्दरलाल जी का साथ दिया। सुन्दरलाल जी का कार्य प्रकट दिख पड़ता था, जन-मान्य होता नजर आता था। उनके उपवास नित्य चलते, पदयात्राएँ निकलतीं, उन पर चर्चा-विवाद इत्यादि प्रसिद्ध होते रहते लेकिन दीदी ने किसी को भी मालूम न कराते हुए कितने ही उपवास किये थे। सुन्दरलाल जी को दीदी के इस सम्यक समर्पण का पूरा अवभान रहा है। वे कहते हैंः मेरे जीवन के झण्डे को विमला के जीवन के डण्डे का आधार नहीं मिलता तो मुझसे कुछ भी होना सम्भव नहीं था। यह बहुत बड़ा सत्य है उन दोनों के जीवन का!

सुन्दरलाल जी को इस बात का भी पूरा अहसास है कि उनके समाज कार्य में साथी-संगियों का योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा है। धूमसिंग नेगी व ‘सैलानी’ घनश्याम रतूड़ी जी का कार्य थोड़े शब्दों में हमने देखा है। स्वतंत्र रूप से गढ़वाल में अपना कार्य क्षेत्र खड़ा करने वाले श्रीचण्डी प्रसाद भट्ट जी पर्यावरण सन्तुलन के विषय में प्रसिद्ध हैं। वृक्षारोपण और महिला-संगठन के कार्यों में वे अग्रसर रहे हैं। चमोली जिले में रेणी के जंगल में स्त्रियों के नेतृत्व करके ‘चिपको’ यशस्वी करने वाली अमृता देवी एवं अन्य लोगों को उनका बहुमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है।

सुन्दरलाल जी और विमला दीदी के पास छुटपन से ही आए श्री भवानी भाई को टिहरी के क्षेत्र में कौन भूल सकता है? वहाँ के क्षेत्र में सुदूर तक जो सामाजिक और पर्यावरणात्मक आन्दोलनों में उनका हिस्सा रहा है उससे सभी प्रभावित हुए हैं। शराब बन्दी और स्त्री-जागृति के कार्य में वे पहले से ही योगदान देते रहे। सिल्यारा के नवजीवन आश्रम में और टिहरी के श्री ठक्कर बापा छात्रावास के संचालन में विशेष रूप से वे कार्यरत रहे। दीदी के साथ उनके छोटे भाई के समान वे रहे और प्रतापनगर क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से उन्होंने सार्वजनिक कार्य किया।

और सुन्दरलाल जी ने जिन्हें सम्मानपूर्वक अनेक सभाओं में परिचित कराया वे भारतीय ‘वृक्ष मानव’ श्री विश्वेश्वरदत्त सकलानी कई लोगों के लिये प्रेरणा के स्रोत बन गए। अपनी दिवंगत पत्नी की स्मृति-वन्दना करने का उनका तरीका अद्भुत ही माना जाएगा। नित्य सालों साल पत्नी के स्मरण में वे देवदार के वृक्ष लगाते रहे और इस तरह एक अच्छा-खासा वन ही पुजार ग्राम की सीमा पर खड़ा हो गया। पत्नी के वियोग से क्षुब्ध हुए सकलानी जी ने उसकी स्मृति को देवदार के वन के रूप में चिरन्तन बना दिया। उनके परिवार में विवाह के प्रसंग में कन्या के साथ दहेज के रूप में वृक्षों के पौधे देने की परम्परा थी। यह परम्परा सभी जगहों पर मान्य होगी तो पूरा देश रहा-भरा रहेगा ही, प्रदूषण की समस्या भी काफी हद तक हल हो जाएगी।

पुरौला, उत्तरकाशी और सिल्यारा में जो सेवा-संस्थाएँ चलती हैं वहाँ व्यवस्था सम्भालना, हिसाब देखना इत्यादि कार्य में नित्य योगदान देने वाले श्री सुरेन्द्र भट्ट जी भी नेक कार्यकर्ता के रूप में ख्याति प्राप्त हैं। जमुनोत्री घाटी के पास पुरौला में उनका कार्य विशेष उल्लेखनीय है।

हिमालय में चलने वाले इन सभी कार्यों की श्री जयप्रकाश नारायण जी ने बहुत सराहना की थी। सम्पूर्ण क्रान्ति के कार्य में आई अति थकान को दूर करने के लिये वे टिहरी के निकट चम्बा में विश्राम के लिये आए थे। उनके पास श्री सुन्दर लाल जी नित्य थे ही। अचानक बिहार के आन्दोलन के क्षेत्र में गम्भीर संकट आ जाने से जयप्रकाश जी को तुरन्त हिमालय छोड़कर बिहार जाना पड़ा। उनके पीछे-पीछे सुन्दरलाल जी भी बिहार पहुँचे। उन्हें देखकर जे.पी. ने कहा, “आपको हिमालय छोड़कर यहाँ नहीं आना चाहिए था। वहाँ का पर्यावरण संरक्षण का कार्य सम्पूर्ण क्रान्ति का ही एक हिस्सा है। उसे चलाना, सम्भालना जरूरी है, इसलिये आप वापस वहीं जाइए।” और सुन्दरलाल जी उसी कदम ‘चिपको’ के सक्रिय क्षेत्र में लौट आए। राजनीतिक प्रांगण में सजगता से लोक-सत्ता के प्रहरी बने जयप्रकाश जी जीवन के किसी भी अंश को उपेक्षित नहीं रखते थे। हिमालय में पर्यावरण सन्तुलन का प्रश्न जीवन-मृत्यु का प्रश्न है यह उन्होंने पहचाना था।

इस प्रश्न को समूचे देश का ध्यान आकर्षित करने का काम सुन्दरलाल जी करते ही थे। किन्तु कश्मीर से कोहिमा तक के पूरे हिम क्षेत्रीय लोगों को जागृत करने के लिये उन्होंने एक सौ बीस दिनों की पदयात्रा जो चलायी वह विशेष महत्त्वपूर्ण माननी होगी। उनके साथी श्री धूमसिंंग नेगी जी भी बराबर यात्रा करते रहे। काका साहेब कालेलकर, दादा धर्माधिकारी तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति, साहित्यिक इत्यादि ने मिलकर सुन्दरलाल जी एवं अन्य कार्यकर्ताओं को बल प्रदान करने वाला एक निवेदन प्रसिद्ध किया। हिमालय के वन-विनाश पर उन्होंने चिन्ता प्रकट की और वन-संरक्षण के लिये आह्वान किया। शासन को इसके लिये शीघ्र कदम उठाने की सलाह दी गई। इन सबका परिणाम ही था कि शासन को ‘चिपको’ की कुछ महत्त्वपूर्ण माँगें स्वीकारनी पड़ी थी।

प्रचण्ड बाँधों का प्रश्न भी अहम महत्व का रहा। प्रान्त-प्रान्त में घूमकर इन बाँधों के विनाश के असर को टालने की बात समाज को समझाना सुन्दरलाल जी का कई सालों से काम रहा। टिहरी के भागीरथी-भिलंगना के संगम क्षेत्र के समान नर्मदा के क्षेत्र का प्रचण्ड बाँध और अन्य छोटे-मोटे बाँध भी विकास कम और विनाश अधिक का स्वरूप ही प्रकट करते हैं यह बात सर्वत्र प्रसृत हो गयी। दुनियाभर में पर्यावरण असन्तुलन का एक बड़ा कारण बाँध के रूप में फैलता है यह वैज्ञानिक सत्य नकारना सम्भव नहीं रहा। इसके लिये टिहरी-बाँध और नर्मदा-बाँध के नेतृत्व ने अथक प्रयास किये हैं।

पर्यावरण सन्तुलन-संरक्षण की समस्या एक-दो देशों की या एशिया-अफ्रीका की ही नहीं, यह पूरे मानव-जाति की है। धरती पर सभी जीव-जन्तु, सारे प्राणियों की यह जानलेवा समस्या है, यह हमने देख लिया है। इस गुत्थी को सुलझाने का कार्य करने वाले कार्यकर्ता और संस्थाओं को, विचारक और प्रचारकों को सन्मानित और पुरस्कृत करने का श्लाघनीय काम दुनिया भर में होना भी सम्भाविक है। राइट लाइवली अवॉर्ड, बजाज अवॉर्ड, मैग्सेसे अवॉर्ड ऐसे कितने ही अवॉर्ड्स अनेक स्थानों पर दिये गए हैं। विकास के नाम से विनाश का विकट रूप खड़ा होने के कारण विकास की वास्तविक दिशा व स्वरूप कैसे होना जरूरी है यह विषय भी सर्व-चर्चित बन रहा है। यह शुभ लक्षण है। करीब-करीब सभी देशों में लोक-मंच, लोक-संघटन और लोकाभिमुख कार्य इस दिशा में चल रहे हैं। काका साहेब का एक महत्त्वपूर्ण वचन सर्वत्र मान्यता प्राप्त हो चुका हैः अ-सरकारी असर-कारी। जो शासन की सहायता के बिना मात्र लोगों की शक्ति पर आधारित होगा वह कार्य असरकारी यानी परिणामदायी होता है। इसका यह कारण है कि जो सही अर्थ में लोगों का अपना होता है और लोग स्वयं जिसे चलाते हैं वही कार्य यशस्वी होता है।

इस सन्दर्भ में ‘वृक्ष-मानव’ सेन्ट बार्बे बेकर ने एक विशेष कदम उठाया। इन महा-मानव का कार्य हमने यहाँ के निवेदन में थोड़े में देख लिया है। उन्होंने जब सुना कि सुन्दरलाल जी ने वृक्ष-सम्पदा को बचाने के लिये, वन-विनाश को टालने के लिये लोग-जागृति का, आन्दोलन का कार्य प्राणपण से किया है, उपवासों की झड़ी लगाई है और अपनी जान तक देने की तैयार रखी है, तब इस वृक्ष-प्रेमी को उनके जीवन का बहुत आकर्षण लगा। उन्होंने दुनिया के अनेक देशों में ‘वृक्ष-मानव’ संस्थाएँ खड़ी कीं, सहारा जैसे वीरान क्षेत्रों को वनों से श्रृंगारित किया। लेकिन उन्हीं की भाषा में कहना हो तो वृक्ष-रक्षण के लिये जान देने की तैयारी उन्होंने कहीं नहीं रखी थी। अत्यन्त वृद्ध होते हुए भी वह सुन्दरलाल जी और उनका कार्य-क्षेत्र देखने हिमालय आए थे, ‘चिपको’ का वातावरण देखा और जहाँ-जहाँ ‘वृक्ष-मानव’ संस्था विश्व में उन्होंने खड़ी की उन 108 देशों में सुन्दरलाल जी का परिचय कराया। विश्व के मंच पर ‘चिपको’ का नेतृत्व करने वाली स्त्रियों को गौरवान्वित किया।

युद्ध में मृत्यु से घिरे हुए क्षेत्र में जो अपने को झोंक-कर पराक्रम करके दिखाते हैं उन्हें ‘महावीर’, ‘परम-महावीर’ जैसे ‘चक्र’ बहाल किये जाते हैं। जीवन के प्रेममय, कारुण्यपूर्ण और कष्ट-साध्य सेवा-कार्य में जो सातत्यपूर्वक लगे रहते हैं उन्हें हजारों-लाखों लोगों के हृदय में स्थान प्राप्त होते हैं। उन्हें मिलने वाला वीर-चक्र शान्ति के लिये, सर्व-व्याप्त प्रेम के लिये, मूक रहकर ही, अर्पित होना है। सेंट बार्बे बेकर करीब सौ साल जो जिये वे जीवन के हरे-भरे-चिर-तारुण्य की उपासना करते हुए जिये। आने वाली पीढ़ियों को धरती का शश्य शामल रूप देखने को मिले इसके लिये उन्होंने प्रयत्न की पराकाष्ठा की थी। उनके स्मरण में और उनके द्वारा किये संस्कारों में मानव-जाति सौम्य शान्त परोपकारी वृक्षों के समान फले-फूले यही आकांक्षा है।

मानवी मन के समान चमत्कारपूर्ण और दृढ़-संकल्प शक्ति से सम्पन्न ऐसे कुछ भी इस विश्व में अन्य कुछ नहीं है। उसे जैसे मोड़ दें वैसे वह मुड़ता है, परिवर्तित होता है। उसे जैसे विकसित कर दें वैसे वह विकसित होता है। आकाश का ध्यान करते रहें तो मन आकाश के जैसा सर्व-व्याप्त हो जाता है। यह सन्तों का, योगियों का और जीवन की एकात्मता जीने वाले सभी महानुभावों का अनुभव है। इस मन के लिये यजुर्वेद में एक प्रार्थना आती है। उन शिव-संकल्प के छः मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र यहाँ उद्धृत किया गया है। जागृति और सुषुप्ति के उभय आयामों में जिसकी गति अबाधित रहती है, विश्व के सभी प्रकाश-स्रोतों को ही जो प्रकाश है ऐसा मेरा मन शुभकारी मंगलकारी संकल्प से सिद्ध हो-ऐसा इस मन्त्र का भावार्थ है। अध्यात्म एवं पर्यावरण इन दोनों जीवन-शास्त्रों के आन्तर्बाह्य जागृति और सम्यक सन्तुलन इन उभय-विध शिक्षण का आह्वान इससे प्रेरित-प्रसारित हो, मानवी शक्तिओं का उन्नयन हो यही हेतु इस मन्त्र को उद्धृत करने में हैः

यज्जाग्रतों दूरं उदैति दैवम्
तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकम्
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु।
शिव संकल्पमस्तु।।
।।ऊँ।।
 

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 

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