कहाँ जाएँ किसान


लोकतंत्र से लोक की आस्था टूटने लगी है। एक तरफ नंदीग्राम और सिंगुर में किसान आन्दोलन करते नजर आते हैं तो दूसरी तरफ वर्धा में बेबस किसान अपने गाँव डोरला को बेचने के लिये तैयार हैं। ये दोनों स्थितियाँ व्यवस्था की नाकामियों को उजागर करती हैं।

सिंगुर की आग अभी ठंडी नहीं पड़ी थी कि पश्चिम बंगाल सरकार ने दूसरा झगड़ा मोल ले लिया। छह लोगों की हत्या के बाद पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में तनाव बहुत बढ़ गया है। नंदीग्राम में हिंसा, सिंगुर में जन-आन्दोलन की तीव्रता राज्य सरकार की जिद के ही फलस्वरूप हुई थी। सिंगुर में राज्य की पुलिस ने लाठी और गोलियाँ तो बरसाईं ही, औरतों के साथ दुर्व्यवहार भी किया। नंदीग्राम की जमीन विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिये इंडोनेशिया के सालेम समूह को देने की सूचना पाते ही गाँव के लोग भड़क उठे। गाँव तक पुलिस की गाड़ी नहीं पहुँच पाये, इसलिये गाँव वालों ने अन्दर जाने वाली सड़कों पर गड्ढे खोद दिये। माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने आन्दोलनरत किसानों पर अश्लील फिकरे कसे और इसके अलावा उन्हें तरह-तरह की धमकियाँ भी दीं। मामला इतना बिगड़ गया कि राज्य सरकार की इस जनविरोधी नीति का समर्थन कर रहे कार्यकर्ताओं और किसानों के हक की लड़ाई करने वाले समूहों के बीच लड़ाई ठन गई।

माकपा खुद को प्रगतिशील पार्टी कहती है, लेकिन उसके नेता और कार्यकर्ता सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं पर लीपापोती करते नजर आ रहे हैं। वह अपने शासित राज्यों में ऐसा सब कुछ लागू कर रही है, जिसका दूसरी जगहों पर वह विरोध कर रही है। इस मामले में भाजपा और दूसरी बुर्जुआ पार्टियों के व्यवहार में समानता ज्यादा नजर आती है। हालांकि ‘सेज’ के अन्तर्गत केवल माकपा शासित राज्यों में किसानों की जमीन नहीं छीनी जा रही है। यह प्रवृत्ति पूरे देश में जोरों पर है। यही वजह है कि महाराष्ट्र में 35,000 एकड़ और गुड़गाँव-झज्जर में 25,000 हजार एकड़ जमीन रिलायंस को और पश्चिम बंगाल में 11,000 एकड़ जमीन सालेम और वीडियोकॉन को दी गई है। दूसरी ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी किसानों की जमीन रिलायंस को दे दी गई है। जुलाई, 2005 में भारत में 28 विशेष आर्थिक क्षेत्र काम कर रहे थे। अभी तक दो सौ से ज्यादा प्रस्तावों को मंजूरी मिल चुकी है और करीब इतने ही प्रस्तावों को मंजूरी मिलनी शेष है।

आश्चर्य इस बात पर है कि दिवालिया होते किसानों की इस समस्या पर दूसरी पार्टियाँ भी दोमुँही राजनीति कर रही हैं। भाजपा के प्रवक्ता अरुण जेटली ने नंदीग्राम की घटना पर बयान दिया कि अब लाल सलाम की बजाय, सलेम सलाम कहा जाना चाहिए। जेटली को शायद यह नहीं पता है कि लाल सलाम असंख्य क्रान्तिकारियों की शहादतों का प्रतीक है। वैसे भी भगवा रंग की राजनीति करने वालों को लाल का मतलब समझ में कैसे आ सकता है? फिर भी यह काफी दुखद है कि लाल सलाम जैसे प्रतीकात्मक शब्द को खुद माकपा ने कटघरे में खड़ा कर दिया है।

दूसरी तरफ ऐसी नसीहत देने वाले जेटली को अपनी पार्टी द्वारा शासित राज्यों और केन्द्र में गुजरे सालों के रिपोर्ट कार्ड अवश्य देख लेने चाहिए। राजस्थान के घड़साना की शर्मनाक घटना के घाव अब भी ताजा हैं। बढ़ती महंगाई भाजपा के शासनकाल में हुए ‘साहसपूर्ण’ बदलावों का ही नतीजा है। भाजपा के लिये इस तरह की गलतबयानी करना उसकी राजनीति का ही एक हिस्सा रहा है।

सत्ता का सुख भोगने की लालसा रखने वाली पार्टियों के लिये गलतबयानी ‘सेफ्टीवॉल्व’ की तरह काम करती है। बेहतर यह होगा कि बहस को विकास के मौजूदा सन्दर्भ में समझा जाये। बहुराष्ट्रीय या यहाँ के औद्योगिक घरानों को जरूरत से ज्यादा और कर-रहित जमीन देने का क्या मतलब है? गाँवों के देश से गाँव को ही उजाड़ने की इस सघन तैयारी की पड़ताल जरूर होनी चाहिए।

हालांकि माकपा के लम्बे शासन के दौरान यह कोई पहली घटना नहीं हुई है। सिंगुर से पहले राज्य सरकार ने बिड़ला को हुगली जिले के कोन्नागार क्षेत्र में साढ़े 750 एकड़ जमीन हिंद मोटर को फैक्टरी लगाने के लिये दी थी। हिंद मोटर के लिये साढ़े 350 एकड़ जमीन पर एक बहुत बड़ा संयंत्र लगाया गया था। बाद में राज्य सरकार ने बिड़ला को 400 एकड़ खाली जमीन को अपनी अचल सम्पत्ति में बदल कर बेचने की छूट दे दी थी। अब सवाल यह उठता है कि राज्य सरकार ने आधुनिकता के इस दौर में छोटी मोटर बनाने के लिये 997 हेक्टेयर जमीन क्यों दी? इस सवाल का जवाब पहले कोन्नागार क्षेत्र में आजमाए गए रियल एस्टेट प्रॉपर्टी के धंधे से हुए अथाह मुनाफे में छिपी है। इस देश के किसानों को विस्थापन का दंश हमेशा से झेलना पड़ा है। आजाद भारत की सरकारों ने औद्योगीकरण और विकास के नाम पर कभी कारखाना लगाने तो कभी सड़क निर्माण या बाँध आदि बनाने के नाम पर किसानों को उनकी उपजाऊ जमीन से बेदखल करने का काम जारी रखा है।

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस प्रक्रिया को इसलिये स्वीकार किया गया, क्योंकि यह विकास के लिये एक हद तक जरूरी थी, पर इन 60 सालों में किसानों ने कितनी तरक्की की है, यह सबकी आँखों के सामने है। कभी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भारत की कुल आबादी का 70 फीसदी हिस्सा निर्भर करता था। अब भी गाँवों में भारत की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी बसर करती है। ‘विकास’ की इस आँधी में गाँव के किसान रोटी की तलाश करते-करते अपनी जड़ों से दूर बिखरते चले गए। अनाज उगाने वाले ‘धरती पुत्रों’ के हाथों से लड़ने का जन्मसिद्ध अधिकार भी राज्य और उसके विकासकर्ताओं ने उनसे छीन लिया है।

लोकतंत्र से लोक की आस्था टूटने लगी है। एक तरफ नंदीग्राम और सिंगुर में किसान आन्दोलन करते नजर आते हैं तो दूसरी तरफ वर्धा में बेबस किसान अपने गाँव डोरला को बेचने के लिये तैयार हैं। ये दोनों स्थितियाँ व्यवस्था की नाकामियों को उजागर करती हैं।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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