संकट के बाँध


1960 के दशक में पड़े सूखे से चिन्तित होकर राज्य सरकार ने सुवर्णरेखा बहुद्देश्ईय परियोजना बनाई। इस परियोजना के अन्तर्गत चांडिल में सुवर्ण रेखा नदी और ईचा में खरकई नदी पर बाँध के निर्माण के अलावा खरकई नदी पर गंजिया में और सुवर्ण रेखा नदी पर गालूडीह में बैराज के निर्माण के साथ-साथ इन चारों संरचनाओं से नहरें निकालने का प्रस्ताव था। उद्देश्य यह था कि इस परियोजना से सिंचाई, उद्योग और पेयजल की आवश्यकताएँ पूरी हो सकेंगी। पर्यावरणीय समस्याओं में जल का संकट सबसे बड़ा है, क्योंकि जल के बिना हमारा काम एक पल नहीं चल सकता। तालाब, आहर, बावड़ी, वापी जैसे पानी के पारम्परिक स्रोतों की उपेक्षा कर हमने बड़े-बड़े बाँध बनाने शुरू किये। बड़े बाँधों से लोगों की समस्याओं का निपटारा तो नहीं हुआ, लेकिन उनकी मुसीबतें और बढ़ गईं। आँकड़े बताते हैं कि भारत में ऐसी बड़ी परियोजनाओं ने साढ़े तीन करोड़ लोगों को विस्थापित किया है। अकेले झारखण्ड में वर्ष 2000 तक 2 लाख 33 हजार लोग उजड़ने को मजबूर हुए हैं।

अध्ययन यह भी बताते हैं कि बड़े बाँध आम लोगों के हितों को ध्यान में रख कर नहीं बनाए गए; उनके पानी पर योजना की शुरुआत से ही बड़े उद्योगों का अधिकार रहा है। इन बाँधों ने झारखण्ड के आदिवासियों को पानी मुहैया कराना तो दूर, उनके पारम्परिक तालाब की व्यवस्था को भी छिन्न-भिन्न कर दिया। खेती पर आश्रित आदिवासियों के पास पहले अकाल के दिनों में भी कम-से-कम गुजारे भर का अन्न रहता था, लेकिन पारम्परिक सिंचाई स्रोतों को छिन्न-भिन्न कर बड़ी योजनाओं ने आज इन्हें दाने-दाने को मोहताज कर दिया है। यह सब कैसे और क्यों हो गया, इस पर विचार करना जरूरी है।

भूगोलवेत्ताओं के अनुसार बड़े बाँधों को बनाने के लिये दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए। एक, वहाँ पानी के छोटे-छोटे स्रोतों का अभाव हो या नदियाँ न के बराबर हों। दूसरा, बाँध का निचला इलाका समतल हो ताकि नहरों के जरिए पानी बहुत दूर तक ले जाया जा सके। गौरतलब है कि पूरा झारखण्ड पहाड़ी और पठारी है; एक गाँव ऊपर है, तो दूसरा नीचे। जाहिर है कि पर्यावरण से छेड़छाड़ और काफी धन खर्च किये बिना यहाँ नहरों के जरिए पानी दूर तक नहीं ले जाया जा सकता है।

नहरों के निर्माण में ऊँची-नीची जमीन, पहाड़-चट्टान और बड़े-बड़े पत्थरों की ढेर सारी बाधाएँ मौजूद हैं। आँकड़े बताते हैं कि पिछले तीस सालों में जितनी लागत लगाकर ये बाँध बनाए गए हैं, उसके अनुपात में खेती का विकास लगभग नकारात्मक रहा है। गुमला जिले के भरनों प्रखण्ड में परास बाँध से निकाली गई नहर आसपास के महज सौ गज दूर पड़ने वाले खेतों को भी पार नहीं कर सकती है। कारण बहुत सामान्य है, ये खेत बहुत ऊँचाई पर पड़ते हैं। इसके बावजूद अभियन्ताओं ने इन खेतों को कमांड एरिया के अन्तर्गत दिखाया है।

1960 के दशक में पड़े सूखे से चिन्तित होकर राज्य सरकार ने सुवर्णरेखा बहुद्देश्ईय परियोजना बनाई। इस परियोजना के अन्तर्गत चांडिल में सुवर्ण रेखा नदी और ईचा में खरकई नदी पर बाँध के निर्माण के अलावा खरकई नदी पर गंजिया में और सुवर्ण रेखा नदी पर गालूडीह में बैराज के निर्माण के साथ-साथ इन चारों संरचनाओं से नहरें निकालने का प्रस्ताव था। उद्देश्य यह था कि इस परियोजना से सिंचाई, उद्योग और पेयजल की आवश्यकताएँ पूरी हो सकेंगी।

राज्य सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते ही जमशेदपुर से उसकी औद्योगिक और पेयजल की आवश्यकताओं की पूर्ति के बारे में जानना चाहा। दूसरी ओर टिस्को भी पानी की दिक्कत महसूस कर रहा था। वह भी पानी की माँग करने लगा। टिस्को के लिये मानगो वियर और डिमना जलाशय से पानी उपलब्ध कराया जाता रहा है। इन उद्योगों की बढ़ी हुई माँग पूरी करने के लिये गैताल सुद जलाशय से पानी मुहैया कराया गया। फिर भी इनकी आवश्यकता पूरी नहीं हो पा रही है।

दूसरी तरफ स्थानीय आदिवासी जनता को, जिसकी जमीन पर ये सारे उपक्रम चलाए गए हैं, न तो पानी मिला और न ही उद्योगों में किसी तरह की हिस्सेदारी। बड़े बाँधों और विकास के नाम पर विस्थापित हुए लोगों में 75 फीसद से भी ज्यादा आदिवासी हैं। विकास की आधुनिक अवधारणाओं ने उत्पादन के वितरण और सम्पत्ति में भी असमानता को बढ़ावा दिया है। विकास के पश्चिमी मानकों पर चलते हुए हमने सबसे पिछड़े समुदाय को प्राकृतिक संसाधनों से दूर तो किया ही है, अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में उपलब्ध संसाधनों का अवैज्ञानिक तरीके से दोहन कर भावी पीढ़ियों को भी संकट में डाल दिया है।

जुलाई, 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने मुख्यमंत्रियों की बैठक में स्वीकार किया था कि 1951 से आज तक 246 बड़ी सिंचाई परियोजनाओं में से केवल 65 पूरी हो पाई हैं। यही नहीं, एक भी परियोजना समय से पूरी नहीं हुई और 32 परियोजनाओं की लागत तो पाँच सौ फीसद तक बढ़ गई। सन 1994 में तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने कहा था कि अगर परियोजनाओं के दूरगामी परिणाम हानिकारक दिखें तो उन्हें रोकने का साहस हममें होना चाहिए, लेकिन शायद ही कोई परियोजना इस आधार पर रोकी गई हो।

तमाम चेतावनियों और नकारात्मक परिणामों के आँकड़े मौजूद होते हुए भी हमने इन्दिरा सागर परियोजना बनाई और फिर तबाह हुए 250 गाँव। पहले छोटे-छोटे तालाबों और आहरों के निर्माण पर इसलिये जोर दिया जाता था कि इनकी देखरेख समाज बिना किसी लागत के कर सकता था। बड़े बाँधों ने कई जल विवादों को भी जन्म दिया है।

नहरों के शुरुआती इलाकों के लोग जहाँ मनमाने ढंग से पानी पर अधिकार कर लेते हैं, वहीं दूरदराज के किसानों को अपनी फसल बचाने भर का भी पानी नहीं मिल पाता है। इसलिये हमें पारम्परिक समाज के विकसित किये हुए तरीकों को ही अख्तियार करना होगा।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

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क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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