तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी


नदियों पर बाँध और नहर बनाने से इसमें गाद का स्तर बहुत तेजी से बढ़ता है और साथ ही प्रदूषण का स्तर भी। इसलिये अमली तौर पर नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिये इसमें धार्मिक कर्मकांड और उद्योगों के कचरे को बहाने पर सख्त प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। धर्म का इस्तेमाल जहाँ वोट बैंक के लिये किया जाता हो, वहाँ इस तरह की पाबन्दी लगा पाना मुश्किल ही है, परन्तु आचमन के लिये झुके हाथों में शुद्ध पानी चाहिए तो आपको ही आगे आना होगा। यह काम कुछ संस्थाएँ कर रही हैं, जिसमें आपसे सहयोगी की भूमिका निभाने की दरकार है।

पिछले दिनों मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के पानी की गुणवत्ता की जाँच की गई। पानी की शुद्धता की जाँच करने की पद्धति ‘बायोमैपिंग के लिये नर्मदा की 30 जगहों से जल के नमूने लिये गए। जाँच के नतीजे के तौर पर यह पाया गया कि इस नदी का पानी बिना उपचार के पीने लायक नहीं है। मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) का कहना है कि हाल के वर्षों में मध्य प्रदेश में नर्मदा का पानी ‘बी’ और ‘सी’ श्रेणी के स्तर तक पहुँच गया है। पानी की गुणवत्ता को पाँच श्रेणियों में बाँटा जा सकता है ए, बी, सी, डी और ई। ‘ए’ सबसे अच्छा और ‘ई’ को सबसे ज्यादा प्रदूषित पानी की श्रेणी में शामिल किया जाता है।

नर्मदा के पानी की गुणवत्ता में गिरावट का जो सबसे दुखद पहलू सामने आया है, वह यह कि इसमें गंगा की तरह प्राकृतिक तौर पर शुद्धता को बनाए रखने के तत्व मौजूद नहीं हैं। गंगा बेसिन मैनेजमेंट एक्शन प्लान तैयार करने वाले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर के प्रोफेसर डॉ. विनोद तारे का कहना है कि गंगा के पानी को शुद्ध करने वाले तत्वों का ज्यादा मात्रा में होना, पानी का स्रोत हिमालय और इसकी तलहटी मैदानी होने के कारण इसे प्रदूषण से बचाया जा सकता है, लेकिन नर्मदा के साथ ऐसा नहीं है। इसे फिर से अपनी अवस्था में लौटाना बहुत ही मुश्किल काम होगा, इसीलिये इसका प्रदूषित होना बहुत खतरनाक है। भारत में नदियों के प्रदूषण के बारे में पर्यावरणविदों का कहना है कि जब तक भारत की नदियों को दो बातों से मुक्त नहीं किया जाएगा, तब तक इसकी शुद्धता आप लाखों, करोड़ों और खरबों रुपए डालकर भी नहीं पा सकते हैं। यहाँ नदियों को पावन पुण्य सलिला और न जाने बहत्तर तरह की उपमाएँ देकर उसमें गन्दगी डालने का काम बदस्तूर जारी है। नदियों में धार्मिक कर्मकांड को सख्ती के साथ रोका जाये और औद्योगिक इकाइयों पर कचरे को बगैर उपचारित किये नदियों में बहाने पर पाबन्दी लगे।

पीसीबी ने नर्मदा को तीन क्षेत्र पूर्व, मध्य और पश्चिम में बाँटकर नदी के उद्गम अमरकंटक से लेकर बड़वानी तक 30 स्थानों पर बायोमैपिंग की। रिसर्च के नतीजों के मुताबिक तीनों ही क्षेत्रों में नर्मदा का पानी औसत आधार पर ‘सी’ श्रेणी का है। नर्मदा के 30 स्थानों में 23 स्थानों का पानी ‘सी’ श्रेणी का भी है, जबकि मात्र सात जगह पानी ‘बी’ श्रेणी का पाया गया।

दुखद तो यह है कि कहीं का पानी ‘ए’ श्रेणी का नहीं पाया गया है, लेकिन राहत की बात है कि नर्मदा का पानी कहीं भी ‘डी’ और ‘ई’ श्रेणी का भी नहीं पाया गया है। हाल ही में प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट के अनुसार पीसीबी शोध दल के सदस्यों ने वर्ष 2007 से 2009 के बीच नर्मदा के 30 स्थानों में सैम्पलिंग का कार्य किया। नदी की गहराई तक जाकर वहाँ की मिट्टी से कीड़ों को इकट्ठा किया। यहीं पर पानी का तापमान व भौतिक जाँच करने के बाद पकड़े गए कीड़ों को लैब में लाकर उनका विश्लेषण किया गया। सभी स्थानों की अलग-अलग मौसम में कम-से-कम चार बार सैम्पलिंग की गई। इसके आधार पर विभिन्न तरह के आँकड़ों को इकट्ठा कर पीसीबी ने इसकी विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक नर्मदा के पूर्वी हिस्सों में जैविक गतिविधि को अंजाम नहीं दिया जा सकता है।

नदियों की स्वच्छता, खासकर हिमालय से निकलने वाली नदियाँ जैसे-जैसे पहाड़ों से निचले मैदानी इलाकों में प्रवेश करती जाती हैं, उनमें प्रदूषण का स्तर बढ़ता ही जाता है। हरिद्वार की ‘हर की पैड़ी’ में गंगा की आरती देखने के लिये हर रोज हजारों लोग इकट्ठा होते हैं। श्रद्धालु रोज यहाँ हजारों किलो फूल, सैकड़ों लीटर तेल, घी और हजारों की संख्या में मिट्टी के दीये गंगा नदी में विसर्जित कर देते हैं। यही काम बनारस, इलाहाबाद, पटना, मुंगेर, भागलपुर, साहेबगंज सहित इनके किनारों पर बसे छोटे-बड़े शहरों में चल रहा है।

गंगा नदी के किनारे बहुत सारे उद्योग-धंधे विकसित किये गए। कानपुर में चमड़ा उद्योग का कचरा तो गंगा नदी के पानी को इतना जहरीला बना रहा है कि इसका प्रभाव वहाँ के आम जन-जीवन में साफ-साफ देखने को मिलता है। वहाँ के लोगों में त्वचा की बीमारी ‘एग्जिमा’ बहुत आम है। नदियों में प्रदूषण की वजह इसका अन्धाधुन्ध दोहन भी है। भारत के पहाड़ी प्रदेशों उत्तराखण्ड और हिमाचल सहित पूर्वोत्तर राज्यों की नदियों में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है।

प्रदेशों में नदियों पर बड़े-बड़े बाँध बनाकर बिजली पैदा की जा रही है। नदियों पर बाँध और नहर बनाने से इसमें गाद का स्तर बहुत तेजी से बढ़ता है और साथ ही प्रदूषण का स्तर भी। इसलिये अमली तौर पर नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिये इसमें धार्मिक कर्मकांड और उद्योगों के कचरे को बहाने पर सख्त प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। धर्म का इस्तेमाल जहाँ वोट बैंक के लिये किया जाता हो, वहाँ इस तरह की पाबन्दी लगा पाना मुश्किल ही है, परन्तु आचमन के लिये झुके हाथों में शुद्ध पानी चाहिए तो आपको ही आगे आना होगा। यह काम कुछ संस्थाएँ कर रही हैं, जिसमें आपसे सहयोगी की भूमिका निभाने की दरकार है।

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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