वन अधिनियम के उड़ते परखचे


सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2008 में विभागों से जवाब-तलब किया और यह सलाह भी दी थी कि आम, नीम और पीपल के पेड़ की जगह यूकेलिप्टस के पेड़ नहीं लगाए जाएँ। सवाल यह है कि भारत में यूकेलिप्टस के रोपण को प्रोत्साहन देने से पहले ऑस्ट्रेलिया के अनुभव से सीख लेने की कोई कोशिश नहीं की गई। एक अध्ययन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया के बड़े भू-भाग के बंजर होने के पीछे यूकेलिप्टस का ही हाथ रहा है। दिल्ली सरकार ने इसे नहर के किनारे-किनारे लगवाया है। ये पेड़ जमीन का पानी बहुत तेजी से सोखते हैं। दिल्ली अभी विकास रथ पर सवार है। इस विकास में दिल्ली की चमक में बढ़ोत्तरी तो होती दिख रही है, लेकिन इसका स्याह पहलू भी उजागर किया जाना जरूरी है। पिछले चार सालों में विकास के नाम पर यहाँ 38 हजार पेड़ काट दिये गए। महानगर के विकास के लिये प्रतिबद्ध संस्थाओं एमसीडी, एनडीएमसी, पीडब्ल्यूडी, डीएमआरसी और डीडीए ने खुलेआम वन अधिनियम की धज्जियाँ उड़ाई हैं।

दिल्ली वृक्ष संरक्षण अधिनियम के तहत एक पेड़ काटने के बदले दस पौधे लगाना अनिवार्य है। वृक्ष काटने के हर्जाने के तौर पर प्रति पेड़ एक हजार रुपए भी भरने होते हैं। वृक्षारोपण की गारंटी देनी पड़ती है। यह राशि तब वापस किये जाने का प्रावधान है, जब वन विभाग सन्तुष्ट हो जाये कि कटे वृक्ष के एवज में दस पौधों का रोपण कर दिया गया है।

इन सरकारी महकमों ने वर्ष 2005 से अब तक 38 हजार वृक्ष काट डाले और नियमानुसार तीन लाख 80 हजार नए पौधों का रोपण किया जाना चाहिए था, लेकिन अभी तक मात्र 57 हजार 584 पेड़ ही लगाए गए हैं। यह पता लगाने की बात है कि पेड़ काटने के बदले कौन से पेड़ लगाए गए हैं? जो पेड़ लगाए गए हैं, वास्तविकता में वह पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले ही हैं।

इस सवाल पर सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2008 में विभागों से जवाब-तलब किया और यह सलाह भी दी थी कि आम, नीम और पीपल के पेड़ की जगह यूकेलिप्टस के पेड़ नहीं लगाए जाएँ। सवाल यह है कि भारत में यूकेलिप्टस के रोपण को प्रोत्साहन देने से पहले ऑस्ट्रेलिया के अनुभव से सीख लेने की कोई कोशिश नहीं की गई। एक अध्ययन के अनुसार ऑस्ट्रेलिया के बड़े भू-भाग के बंजर होने के पीछे यूकेलिप्टस का ही हाथ रहा है। दिल्ली सरकार ने इसे नहर के किनारे-किनारे लगवाया है। ये पेड़ जमीन का पानी बहुत तेजी से सोखते हैं। पर्यावरण के साथ इस खिलवाड़ से किसकी जान जाएगी और इसका जिम्मेदार किसे ठहराया जाना चाहिए?

 

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

 


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