जलवायु परिवर्तन
निशाने पर जनजातियाँ
उद्योगीकरण की आँधी में अब तक लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जड़ों से कट चुके हैं। सलवा जुडूम के नाम पर यातनाओं का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अतिक्रमण, हत्याएँ, बलात्कार और लूट, सब कुछ धड़ल्ले से चल रहा है। शान्ति के नाम पर सेना और पुलिस ने स्थानीय लोगों में कहर का ऐसा ज्वार खड़ा कर दिया है, जिसकी टीस युगों-युगों तक महसूस की जा सकेगी। शान्ति स्थापना का नारा देकर क्या यही सब कुछ अमेरिकी सेना अफगानिस्तान और इराक में नहीं कर रही है? यह तो साफ लग रहा है कि लोकतंत्र के नाम पर यह खिलवाड़ इस नवउदारवादी दौर में और तेज होगा।।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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