निशाने पर जनजातियाँ

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उद्योगीकरण की आँधी में अब तक लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जड़ों से कट चुके हैं। सलवा जुडूम के नाम पर यातनाओं का दौर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। अतिक्रमण, हत्याएँ, बलात्कार और लूट, सब कुछ धड़ल्ले से चल रहा है। शान्ति के नाम पर सेना और पुलिस ने स्थानीय लोगों में कहर का ऐसा ज्वार खड़ा कर दिया है, जिसकी टीस युगों-युगों तक महसूस की जा सकेगी। शान्ति स्थापना का नारा देकर क्या यही सब कुछ अमेरिकी सेना अफगानिस्तान और इराक में नहीं कर रही है? यह तो साफ लग रहा है कि लोकतंत्र के नाम पर यह खिलवाड़ इस नवउदारवादी दौर में और तेज होगा।।

जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

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क्रम

अध्याय

 

पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण

1

चाहत मुनाफा उगाने की

2

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगे झुकती सरकार

3

खेती को उद्योग बनने से बचाएँ

4

लबालब पानी वाले देश में विचार का सूखा

5

उदारीकरण में उदारता किसके लिये

6

डूबता टिहरी, तैरते सवाल

7

मीठी नदी का कोप

8

कहाँ जाएँ किसान

9

पुनर्वास की हो राष्ट्रीय नीति

10

उड़ीसा में अधिकार माँगते आदिवासी

11

बाढ़ की उल्टी गंगा

12

पुनर्वास के नाम पर एक नई आस

13

पर्यावरण आंदोलन की हकीकत

14

वनवासियों की व्यथा

15

बाढ़ का शहरीकरण

16

बोतलबन्द पानी और निजीकरण

17

तभी मिलेगा नदियों में साफ पानी

18

बड़े शहरों में घेंघा के बढ़ते खतरे

19

केन-बेतवा से जुड़े प्रश्न

20

बार-बार छले जाते हैं आदिवासी

21

हजारों करोड़ बहा दिये, गंगा फिर भी मैली

22

उजड़ने की कीमत पर विकास

23

वन अधिनियम के उड़ते परखचे

24

अस्तित्व के लिये लड़ रहे हैं आदिवासी

25

निशाने पर जनजातियाँ

26

किसान अब क्या करें

27

संकट के बाँध

28

लूटने के नए बहाने

29

बाढ़, सुखाड़ और आबादी

30

पानी सहेजने की कहानी

31

यज्ञ नहीं, यत्न से मिलेगा पानी

32

संसाधनों का असंतुलित दोहन: सोच का अकाल

33

पानी की पुरानी परंपरा ही दिलाएगी राहत

34

स्थानीय विरोध झेलते विशेष आर्थिक क्षेत्र

35

बड़े बाँध निर्माताओं से कुछ सवाल

36

बाढ़ को विकराल हमने बनाया

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